________________
पञ्चमं पर्व तस्माद् धर्मफलं शास्वा सर्व राज्यादिलक्षणम् । तदर्थिना महाभाग धर्मे कार्या मतिः स्थिरा ॥२४॥ धीमनिमां चलां लक्ष्मी शाश्वतीं कर्तुमिच्छता । स्वया धर्मोऽनुमन्तव्यः सोऽनुष्ठेयश्च शक्तितः ॥२५॥ इत्युक्त्वाथ स्वयंबुद्धे स्वामिश्रेयोऽनुबन्धिनि । धर्नामर्थ्य यशस्यं च वचो 'विरतिमीथुषि ॥२६॥ ततस्तद्वचनं सोहुमशको दुर्मतोद्धतः । द्वितीयः सचिवो वाचमित्युवाच महामतिः ॥२७॥ भूतवादमथालम्य स लौकायतिकी श्रुतिम् । प्रस्तुवजीवतस्वस्य दूषणे मतिमातनोत् ॥२८॥ सति धर्मिणि धर्मस्य घटते देव चिन्तनम् । स एव तावास्यास्मा कुतो धर्मफलं मजेत् ॥२९॥ पृथिव्यप्पवनाग्नीनां संघातादिह चेतना । प्रादुर्भवति मचाङ्गसंगमान्मदशक्तिवत् ॥३०॥ ततो न चेतना कायतस्त्रात् पृथगिहास्ति नः । तस्यास्तव्यतिरेकेणानुपलब्धेः खपुष्पवत् ॥३१॥ 'ततो न धर्मः पापं वा परलोकश्च कस्यचित् । जलबुबुदवजीवा विलीयन्ते तनुक्षयात् ॥३२॥ तस्माद् इष्टसुखं त्यक्त्वा परलोकसुखार्थिनः । व्यर्थक्लेशा भवन्त्येते लोकद्वयसुखाच्च्युताः ॥३३॥ तदेषां परलोकार्थी समीहा क्रोष्टु रामिषम् । त्यक्त्वा मुखागतं मोहान् मीनाशोत्पतनायते ॥३४॥
करना ये सब सनातन ( अनादिकालसे चले आये) धर्म कहलाते हैं ॥ २३ ॥ इसलिए हे महाभाग, राज्य आदि समस्त विभूतिको धर्मका फल जानकर उसके अभिलाषी पुरुषोंको अपनी बद्धि हमेशा धर्ममें स्थिर रखनी चाहिए ||२४|| हे बदिमन . यदि आप इस चंचल लक्ष्मीको स्थिर करना चाहते हैं तो आपको यह अहिंसादि रूप धर्म मानना चाहिए तथा शक्तिके अनुसार उसका पालन भी करना चाहिए ।।२५।। इस प्रकार स्वामीका कल्याण चाहनेवाला स्वयंबुद्ध मन्त्री जब धर्मसे सहित, अर्थसे भरे हुए और यशको बढ़ानेवाले वचन कहकर चुप हो रहा तब उसके वचनोंको सुननेके लिए असमर्थ महामति नामका दूसरा मिथ्यादृष्टि मन्त्री नीचे लिखे अनुसार बोला ।।२६-२७। महामति मन्त्री, भूतवादका आलम्बन कर चार्वाक मतका पोषण करता हआ जीवतत्त्वके विषयमें दषण देने लगा ॥२८॥ वह बोला-हे धर्मीके रहते हुए ही उसके धर्मका विचार करना संगत (ठीक) होता है परन्तु आत्मा नामक धर्मीका अस्तित्व सिद्ध नहीं है इसलिए धर्मका फल कैसे हो सकता है ? ॥२९॥ जिस प्रकार महुआ, गुड़, जल आदि पदार्थोके मिला देनेसे उसमें मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसो प्रकार पृथिवी, जल, वायु और अग्निके संयोगसे उनमें चेतना उत्पन्न होती है ।।३०।। इसलिए इस लोकमें पृथिवी आदि तत्त्वोंसे बने हुए हमारे शरीरसे पृथक् रहनेवाला चेतना नामका कोई पदार्थ नहीं है क्योंकि शरीरसे पृथक उसकी उपलब्धि नहीं देखी जाती। संसारमें जो पदार्थ प्रत्यक्षरूपसे पृथक् सिद्ध नहीं होते उनका अस्तित्व नहीं माना जाता, जैसे कि आकाशके फूलका ।।३१।। जब कि चेतनाशक्ति नामका जीव पृथक् पदार्थ सिद्ध नहीं होता तब किसीके पुण्य-पाप और परलोक आदि कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? शरीरका नाश हो जानेसे ये जीव जलके बबूलेके समान एक क्षणमें विलीन हो जाते हैं ॥३२॥ इसलिए जो मनुष्य प्रत्यक्षका सुख छोड़कर परलोकसम्बन्धी सुख चाहते हैं वे दोनों लोकोंके सुखसे च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं ॥३३॥ अत एव वर्तमानके सख छोडकर परलोकके सखोंकी इच्छा करना ऐसा है जैसे कि मुखमें आये हुए मांसको छोड़कर मोहवश किसी शृगालका मछलीके
१.विरामम् । तूष्णीम्भावमित्यर्थः । २. भूतचतुष्टयवादम् । ३. लोकायतिकसंबन्धिशास्त्रम् । ४. प्रकृतं कुर्वन् । ५ भवेत् अ०, म०, स०, द०, ५०, ल०। ६. गुडघातकोपिष्टयादयः । ७. चेतनायाः । ८. कायतस्वव्यतिरेकेण । ९. तस्मात् कारणात् । १०. अधर्मः । ११. सुखच्युताः म०, ल० । -च्युतः अ०।१२. परलोकप्रयोजना । १३. वाञ्छा । १४. जम्बुकस्य । १५. मत्स्यवाञ्छया उत्पतनम् ।