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पञ्चमं पर्व सर्वाङ्गीणैकचैतन्यप्रतिमासादबाधितात् । प्रत्यङ्गप्रविमक्तेभ्यो भूतेभ्यः संविदो मिदा ॥५६॥ कथं मूर्तिमतो देहाच्चैतन्यमतदात्मकम् । स्याद्धेतुफलमावो हि न मू"मूर्तयोः कचित् ॥५७॥ अमूर्तमक्षविज्ञानं मू दक्षकदम्बकात् । दृष्टमुत्पद्यमानं चेनास्य मूर्तत्वसङ्गरात् ॥५॥ बन्धं प्रत्येकतां बिभ्रदात्मा मूर्तेन कर्मणा । मूर्तः कथंचिदाक्षोऽपि बोधः स्यान्मूर्तिमानतः ॥५९॥ कायाकारेण भूतानां परिणामोऽन्यहेतुकः । कर्मसारथिमात्मानं व्यतिरिच्य स कोऽपरः ॥६०॥ अभूत्वा भवनाहेहे भूत्वा च भवनात् पुनः । जलबुबुदवजीवं मा मंस्थास्तद्विलक्षणम् ॥६१।।
है। आधार और आधेय रूप होनेसे घर और दीपक जिस प्रकार पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं उसी प्रकार शरीर और आत्मा भी पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं ॥ ५५ ॥ आपका सिद्धान्त है कि शरीरके प्रत्येक अंगोपांगकी रचना पृथक्-पृथक् भूतचतुष्टयसे होती है सो इस सिद्धान्तके अनुसार शरीरके प्रत्येक अंगोपांगमें पृथक-पृथक् चैतन्य होना चाहिए क्योंकि आपका मत है कि चैतन्य भतचतुष्टयका ही कार्य है। परन्तु देखा इससे विपरीत जाता है। शरीरके सब अंगोपांगांमें एक ही चैतन्यका प्रतिभास होता है, उसका कारण यह भी है कि जब शरीरके किसी एक अंगमें कण्टकादि चुभ जाता है तब सारे शरीर में दुःखका अनुभव होता है । इससे मालूम होता है कि सब अंगोपांगोंमें व्याप्त होकर रहनेवाला चैतन्य भूतचतुष्टयका कार्य होता तो वह भी प्रत्येक अंगोंमें पृथक्-पृथक् ही होता ॥५६॥ इसके सिवाय इस बातका भी विचार करना चाहिए कि मूर्तिमान शरीरसे मूर्तिरहित चैतन्यकी उत्पत्ति कैसे होगी ? क्योंकि मूर्तिमान और अमूर्तिमान पदार्थों में कार्यकारण भाव नहीं होता ॥५७॥ कदाचित् आप यह कहें कि मूर्तिमान पदार्थसे भी अमूर्तिमान पदार्थकी उत्पत्ति हो सकती है, जैसे कि मूर्तिमान् इन्द्रियोंसे अमूर्तिमत् ज्ञान उत्पन्न हुआ देखा जाता है, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ज्ञानको हम
मूर्तिक ही मानते हैं ।।५८॥ उसका कारण भी यह है कि यह आत्मा मूर्तिक कर्मोके साथ बन्धको प्राप्त कर एक रूप हो गया है इसलिए कथंचित् मूर्तिक माना जाता है। जब कि आत्मा भी कथंचित् मूर्तिक माना जाता है तब इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए ज्ञानको भी मूर्तिक मानना उचित है। इससे सिद्ध हुआ कि मूर्तिक पदार्थोसे अमूर्तिक पदार्थोंकी उत्पत्ति नहीं होती।५९॥ इसके सिवाय एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टयमें जो शरीर के आकार परिणमन हुआ है वह भी किसी अन्य निमित्तसे हुआ है। यदि उस निमित्तपर विचार किया जाये तो कर्मसहित संसारी आत्माको छोड़कर और दूसरा क्या निमित्त हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं। भावार्थ-कर्मसहित संसारी आत्मा ही पृथिवी आदिको शरीररूप परिणमन करता है, इससे शरीर और आत्माकी सत्ता पृथक् सिद्ध होती है ।।६।। यदि कहो कि जीव पहले नहीं था, शरीरके साथ ही उत्पन्न होता है और शरीरके साथ ही नष्ट हो जाता है इसलिए जलके बबूलेके समान है जैसे जलका बबूला जलमें ही उत्पन्न होकर उसीमें नष्ट हो जाता है वैसे ही यह जीव भी शरीरके साथ उत्पन्न होकर उसीके साथ नष्ट हो जाता है सो आपका यह मानना ठीक नहीं है क्योंकि शरीर और जीव दोनों ही विलक्षण-विसदृश पदार्थ हैं। विसदृश पदार्थसे विसदृश पदार्थकी उत्पत्ति किसी भी तरह नहीं हो सकती ॥६॥
१. सर्वाङ्गभवम् । २. मिदा भेदः । ३. अमूर्तात्मकम् । ४. कारणकार्यभावः । ५. प्रतिज्ञायाः । ६. अक्षेभ्यो भवः । ७. त्यक्त्वा । ८. वा अ०, स०,६०, ल०।
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