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पञ्चमं पर्व तदस्या लपितं शून्यमुन्मत्त विरुतोपमम् । ततोऽस्ति जीवो धर्मश्च दयासंयमलक्षणः ॥४४॥ 'सर्वज्ञोपज्ञमेवैतत् तत्त्वं तत्त्वविदां मतम् । "आप्तम्मन्यमतान्यन्यान्यवहेयान्यतो बुधैः ॥८५॥ इति तद्वचनाज्जाता परिषत्सकलैव सा। निरारेकात्मसद्भावे संप्रीतश्च समापतिः ॥८६॥ परवादिनगास्तेऽपि स्वयंबुद्धवचोऽशनेः । निष्ठुरापातमासाद्य सद्यः प्रम्लानिमागताः ॥८॥ पुनः प्रशान्तगम्भीरे स्थिते तस्मिन् सदस्यसौं। दृष्टश्रुतानुभूतार्थसंबन्धीदमभाषत ॥८॥ शृणु मोस्त्वं महाराज वृत्तमाख्यानकं पुरा । खेन्द्रोऽभूदरविन्दाख्यो भवद्वंशशिखामणिः ॥८९॥ स इमां पुण्यपाकेन शास्ति स्म परमां पुरीम् । उदृप्तप्रतिसामन्तदोर्दानवसर्पयन् ॥१०॥ विषयानन्वभूद दिव्यानसौ खेचरगोचरान् । अभूतां हरिचन्द्रश्च कुरुविन्दश्च तत्सुतौ ॥११॥ स बह्वारम्भसंरम्भरौद्रध्यानाभिसंधिना । बबन्ध नरकायुष्यं तीव्रासातफलोदयम् ॥१२॥ प्रत्यासन्नमृतेस्तस्य दाहज्वरविजम्भितः । ववृधे तनुसंतापः कदाचिदतिदुःसहः ॥१३॥
विज्ञानकी तरह आपको सब पदार्थ मानने पड़ेंगे। यदि यह कहो कि हम वाक्य और विज्ञानको नहीं मानते तो फिर शून्यताकी सिद्धि किस प्रकार होगी ? भावार्थ-यदि आप शून्यता प्रतिपादक वचन और विज्ञानको स्वीकार करते हैं तो वचन और विज्ञानके विषयभूत जीवादि समस्त पदार्थ भी स्वीकृत करने पड़ेंगे। इसलिए शून्यवाद नष्ट हो जायेगा और यदि वचन
वज्ञानको स्वीकृत नहीं करते हैं तब शन्यवादका समर्थन व मनन किसके द्वारा करेंगे? ॥८३॥ ऐसी अवस्थामें आपका यह शून्यवादका प्रतिपादन करना उन्मत्त पुरुषके रोनेके समान व्यर्थ है । इसलिए यह सिद्ध हो जाता है कि जीव शरीरादिसे पृथक् पदार्थ है तथा दया, संयम आदि लक्षणवाला धर्म भी अवश्य है ।।८४॥
तत्त्वज्ञ मनुष्य उन्हीं तत्त्वोंको मानते हैं जो सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे हुए हों। इसलिए विद्वानोंको चाहिए कि वे आप्ताभास पुरुषों-द्वारा कहे हुए तत्त्वोंको हेय समझें ।।८५।। इस प्रकार स्वयम्बुद्ध मन्त्रीके वचनोंसे वह सम्पूर्ण सभा आत्माके सद्भावके विषयमें संशयरहित हो गयी अर्थात् सभीने आत्माका पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया और सभाके अधिपति राजा महाबल भी अतिशय प्रसन्न हुए ॥ ८६॥ वे परवादीरूपी वृक्ष भी स्वयम्बुद्ध मन्त्रीके वचनरूपी वज्रके कठोर प्रहारसे शीघ्र ही म्लान हो गये ॥८७। इसके अनन्तर जब सब सभा शान्तभावसे चुपचाप बैठ गयी तब स्वयम्बुद्ध मन्त्री दृष्ट श्रुत और अनुभूत पदार्थसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा कहने लगे ॥८॥
हे महाराज, मैं एक कथा कहता हूँ उसे सुनिए। कुछ समय पहले आपके वंशमें चूड़ामणिके समान एक अरविन्द नामका विद्याधर हुआ था ॥८९॥ वह अपने पुण्योदयसे अहंकारी शत्रुओंके भुजाओंका गर्व दूर करता हुआ इस उत्कृष्ट अलका नगरीका शासन करता श्रारणा वह राजा विद्याधरोंके योग्य अनेक उत्तमोत्तम भोगोंका अनुभव करता रहता था। उसके दो पुत्र हुए, एकका नाम हरिचन्द्र और दूसरेका नाम कुरुविन्द था॥९१ ॥ उस अरविन्द राजाने बहत आरम्भको बढानेवाले रौद्रध्यानके चिन्तनसे तीव्र दुःख देनेवाली नरकआयुका बन्ध कर लिया था ॥ ९२ ॥ जब उसके मरनेके दिन निकट आये तब
१. तत् कारणात् । २. शून्यवादिनः । ३. वचः। ४. सर्वज्ञेन प्रथमोपदिष्टम । ५. आत्मानमाप्तं मन्यन्ते इत्याप्तम्मन्याः तेषां मतानि । ६. निस्सन्देहा। ७. आत्मास्तित्वे । ८. कथाम् । ९. अपसारयन् । १०. प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादतः प्रयत्नावेशः संरम्भ इत्युच्यते ।