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आदिपुराणम् कतारवारिमिधूतशीतशीतलि कानिलैः । न निर्वृतिमसौ लेभे हारैश्च हरिचन्दनैः ॥१४॥ विद्यासु विमुखीमापं स्वासु यातासु दुर्मदी । पुण्यक्षयात् परिक्षीणमदशक्तिरिवेमराट् ॥१५॥ दाहज्वरपरीताङ्गः संतापं सोढमक्षमः। हरिचन्द्रमथाहृय सुतमित्यादिशद् वचः ॥१६॥ अङ्ग पुत्र ममानेषु संतापो वर्द्धतेतराम् । पश्य कहारहाराणां परिम्लानि तदर्पणात् ॥९७॥ तन्मामुदक्कुरून् पुत्र प्रापयाशु स्वविद्यया । तांश्च शीतान् वनोद्देशान् सीतानद्यास्तटाश्रितान् ॥९॥ तत्र कल्पतरून् धुन्वन् सीतावीचिचयोस्थितः । दाहाम्मा मातरिश्वास्मादुपशान्ति स नेष्यति ॥९॥ इति तद्वचनाद् विद्यां प्रेषिषद् व्योमगामिनीम् । स सूनुः साप्यपुण्यस्य नामुत्तस्योपकारिणी ॥१०॥ विद्यामुख्यतो ज्ञात्वा पितुाधेरसाध्यताम् । सुतः कर्तव्यतामढः सोऽमदुद्विग्नमानसः ॥१०॥ अथान्येचुरमुष्याने पेतुः शोणितबिन्दवः । मिथःकलहविश्लिष्ट गृहकोकिल बालधेः ॥१०२॥ तैश्च तस्य किलाङ्गानि 'निर्ववुः पापदोषतः। सोऽतुषच्चेति "दिष्ट्याच परं लब्धं मयौषधम् ॥१०॥ ततोऽन्यं कुरुविन्दाख्यं सूनुमाहूय सोऽवदत् । पुत्र मे रुधिरापूर्णा वाप्येका "क्रियतामिति ॥१०॥
उसके दाहज्वर उत्पन्न हो गया जिससे दिनों-दिन शरीरका अत्यन्त दुःसह सन्ताप बढ़ने लगा ॥९३॥ वह राजा न तो लाल कमलोंसे सुवासित जलके द्वारा, न पंखोंकी शीतल हवाके द्वारा, न मणियोंके हारके द्वारा और न चन्दनके लेपके द्वारा ही सुख-शान्तिको पा सका था ॥९४॥ उस समय पुण्यक्षय होनेसे उसकी समस्त विद्याएँ उसे छोड़कर चली गयी थीं इसलिए वह उस गजराजके समान अशक्त हो गया था जिसकी कि मदशक्ति सर्वथा क्षीण हो गयी हो ॥९५।। जब वह दाहज्वरसे समस्त शरीरमें बेचैनी पैदा करनेवाले सन्तापको नहीं सह सका तब उसने एक दिन अपने हरिचन्द्र पुत्रको बुलाकर कहा ।।१६।। हे पुत्र, मेरे शरीर में यह सन्ताप बढ़ता ही जाता है । देखो तो, लाल कमलोंकी जो मालाएँ सन्ताप दूर करनेके लिए शरीरपर रखी गयी थीं वे कैसी मुरझा गयी हैं ॥९७।। इसलिए हे पुत्र, तुम मुझे अपनी विद्याके द्वारा शीघ्र ही उत्तरकुरु देशमें भेज दो और उत्तरकुरुमें भी उन वनोंमें भेजना जो कि सातोदा नदीके तटपर स्थित हैं तथा अत्यन्त शीतल हैं ॥९८॥ कल्पवृक्षोंको हिलानेवाली तथा सीता नदीकी तरंगोंसे उठी हुई वहाँकी शीतल वायु मेरे इस सन्तापको अवश्य ही शान्त कर देगी ॥२९॥ पिताके ऐसे वचन सुनकर राजपुत्र हरिचन्द्रने अपनी आकाशगामिनी विद्या भेजी परन्तु राजा अरविन्दका पुण्य क्षीण हो चुका था इसलिए वह विद्या भी उसका उपकार नहीं कर सकी अर्थात् उसे उत्तरकुरु देश नहीं भेज सकी ॥१००। जब आकाशगामिनी विद्या भी अपने कार्यसे विमुख हो गयी तब पुत्रने समझ लिया कि पिताकी बीमारी असाध्य है ।
ससे वह बहुत उदास हआ और किंकर्तव्यविमढ-सा हो गया॥१०॥ अनन्तर किसी एक दिन दो छिपकली परस्परमें लड़ रही थीं। लड़ते-लड़ते एककी पूँछ टूट गयी, पूँछसे निकली हुई खूनकी कुछ बूंदें राजा अरविन्द के शरीरपर आकर पड़ीं ॥१०२॥ उन खूनकी बूंदोंसे उसका शरीर ठण्डा हो गया-दाहज्वरकी व्यथा शान्त हो गयी। पापके उदयसे वह बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और विचारने लगा कि आज मैंने दैवयोगसे बड़ी अच्छी ओषधि पा ली है ।।१०३।। उसने कुरुविन्द नामके दूसरे पुत्रको बुलाकर कहा कि हे पुत्र, मेरे
१. कलारं सौगन्धिकं कमलम् । २. तालवृन्तकम् । ३. सुखम् । ४. परीताङ्गं ल० । ५. शरीरा. पणात् । ६. उत्तरकुरून् । ७. प्रेषयति स्म । इष गत्यामिति धातुः। ८. उद्वेगयुक्तमनाः। ९. गृह-गोधिक-म०, ल० । १०. गृहगोधिका । ११. शत्यं ववुरित्यर्थः । १२. सोऽतुष्यच्चेति ल०।१३. दैवेन । १४. कार्यतामिति ।