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आदिपुराणम्
विज्ञप्तिर्विषयाकारशून्या न प्रतिभासते । प्रकाश्येन विना सिद्ध्येत् क्वचित् किन्नु प्रकाशकम् ॥७७॥ विज्ञप्त्या 'परसं वित्तेर्ग्रहः स्याद् वा न वा तव । तद्ग्रहे सर्वविज्ञाननिरालम्बनाक्षतिः ॥७८॥ तदग्रहेऽन्यसंतानसाधने का गतिस्तव । अनुमानेन तत्सिद्धौ ननु बाह्यार्थसंस्थितिः ७९ ॥ विश्वं विज्ञप्तिमात्रं चेद् वाग्विज्ञानं मृषाखिलम् । भवेद् बाह्यार्थशून्यत्वात् कुतः सत्येतरस्थितिः ॥ ८० ॥ ततोऽस्ति बहिरर्थोऽपि साधनादिप्रयोगतः । तस्माद् विज्ञप्तिवादोऽयं बालालपितपेलवः ॥ ८१ ॥ शून्यवादेऽपि शून्यत्वप्रतिपादि वचस्तव। विज्ञानं चास्ति वा नेति विकल्पद्वयकल्पना ॥८२॥ "वाग्विज्ञानं समस्तीदमिति हन्त हतो भवान् । तद्वत्कृत्स्नस्य संसिद्धेरन्यथा शून्यता कुतः ॥ ८३॥
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ग्राहक कहलाता है और पदार्थ ग्राह्य कहलाते हैं जब तू ग्राह्य-पदार्थोंकी सत्ता ही स्वीकृत नहीं करता तो ज्ञान-ग्राहक किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा ? यदि ग्राह्यको स्वीकार करता है तो विज्ञानका अद्वैत नष्ट हुआ जाता है ।।७५-७६ ।। ज्ञानका प्रतिभास घटपटादि विषयोंके आकारसे शून्य नहीं होता अर्थात् घटपटादि विषयोंके रहते हुए ही ज्ञान उन्हें जान सकता है, यदि घटपटादि विषय न हों तो उन्हें जाननेवाला ज्ञान भी नहीं हो सकता। क्या कभी प्रकाश करने योग्य पदार्थोंके बिना भी कहीं कोई प्रकाशक प्रकाश करनेवाला होता है ? अर्थात् नहीं होता। इस प्रकार यदि ज्ञानको मानते हो तो उसके विषयभूत पदार्थों को भी मानना चाहिए ||७|| हम पूछते हैं कि आपके मत में एक विज्ञानसे दूसरे विज्ञानका ग्रहण होता है। अथवा नहीं? यदि होता है तो आपके माने हुए विज्ञानमें निरालम्बनताका अभाव हुआ अर्थात् वह विज्ञान निरालम्ब नहीं रहा, उसने द्वितीय विज्ञानको जाना इसलिए उन दोनोंमें ग्राह्यग्राहक भाव सिद्ध हो गया जो कि विज्ञानाद्वैतका बाधक है । यदि यह कहो कि एक विज्ञान दूसरे विज्ञानको ग्रहण नहीं करता तो फिर आप उस द्वितीय विज्ञानको जो कि अन्य सन्तानरूप है, सिद्ध करने के लिए क्या हेतु देंगे? कदाचित् अनुमानसे उसे सिद्ध करोगे तो घट-पट आदि बाह्य पदार्थों की स्थिति भी अवश्य सिद्ध हो जायेगी क्योंकि जब साध्य-साधनरूप अनुमान मान लिया तब विज्ञानाद्वैत कहाँ रहा ? उसके अभाव में अनुमानके विषयभूत घटपटादि पदार्थ भी अवश्य मानने पड़ेंगे ||७८-७९ ॥ यदि यह संसार केवल विज्ञानमय ही है। तो फिर समस्त वाक्य और ज्ञान मिथ्या हो जायेंगे, क्योंकि जब बाह्य घटपटादि पदार्थ ही नहीं है तो 'ये वाक्य और ज्ञान सत्य हैं तथा ये असत्य' यह सत्यासत्य व्यवस्था कैसे हो सकेगी ? ॥ ८० ॥ जब आप साधन आदिका प्रयोग करते हैं तब साधनसे भिन्न साध्य भी मानना पड़ेगा और वह साध्य घट-पट आदि बाह्य पदार्थ ही होगा । इस तरह विज्ञानसे अतिरिक्त बाह्य पदार्थों का भी सद्भाव सिद्ध हो जाता है। इसलिए आपका यह विज्ञानाद्वैतवाद केवल बालकोंकी बोली के समान सुनने में ही मनोहर लगता है ||८१||
इस प्रकार विज्ञानवादका खण्डन कर स्वयम्बुद्ध शून्यवादका खण्डन करनेके लिए तत्पर हुए। वे बोले कि आपके शून्यवाद में भी, शून्यत्वको प्रतिपादन करनेवाले वचन और उनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है, या नहीं ? इस प्रकार दो विकल्प उत्पन्न होते हैं ॥ ८२॥ यदि आप इन विकल्पोंके उत्तर में यह कहें कि हाँ, शून्यत्वको प्रतिपादन करनेवाले वचन और ज्ञान दोनों ही हैं; तब खेदके साथ कहना पड़ता है कि आप जीत लिये गये क्योंकि वाक्य और
१. परा चासौ संवित्तिश्च । २ उपाय: । ३. अविशेषः, अथवा क्षीणः । - पेशल: ल० । ४. वाक् च विज्ञानं च वाग्विज्ञानम् । ५. वाग्विज्ञानाभावे सति ।