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आदिपुराणम् शरीरं किमुपादानं संविदः सहकारि वा । नोपादानमुपादेयाद् विजातीयत्वदर्शनात् ॥६२।। 'सहकारीति चेदिष्टमुपादानं तु मृग्यताम् । सूक्ष्मभूतसमाहारस्तदुपादानमित्यसत् ॥६३।। ततो भूतमयाद् देहाद् व्यतिमिन्नं स्वलक्षणम् । जीवद्रव्यमुपादानं चैतन्यस्येति गृह्यताम् ॥६॥ एतेनैव प्रतिक्षिप्त मदिराङ्गनिदर्शनम् । मदिराङ्गेष्वविरोधिन्या मदशक्तेविंभावनात् ॥६५।। सत्यं भूतोपसृष्टोऽयं भूतवादी कुतोऽन्यथा । भूतमात्रमिदं विश्वमभूतं प्रतिपादयेत् ॥६६॥ पृथिव्यादिष्वनुद्भूतं चैतन्यं पूर्वमस्ति चेत् । नाचेतनेषु चैतन्यशक्तेर्व्यक्तमनन्वयात् ॥६७॥. 'आद्यन्तौ देहिनां देही न विना भवतस्तनू । पूर्वोत्तरे संविदधिष्ठानत्वान्मध्यदेहवत् ॥६८॥
आपका कहना है कि शरीरसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती है-यहाँ हम पूछते हैं कि शरीर चैतन्यकी उत्पत्तिमें उपादान कारण है अथवा सहकारी कारण? उपादान कारण तो हो नहीं सकता क्योंकि उपादेय-चैतन्यसे शरीर विजातीय पदार्थ है। यदि सहकारी कारण मानो तो यह हमें भी इष्ट है परन्तु उपादान कारणकी खोज फिर भी करनी चाहिए। कदाचित् यह कहो कि सूक्ष्म रूपसे परिणत भूतचतुष्टयका समुदाय ही उपादान कारण है तो आपका यह कहना असत् है क्योंकि सूक्ष्म भूतचतुष्टयके संयोग-द्वारा उत्पन्न हुए शरीरसे वह चैतन्य पृथक् ही प्रतिभासित होता है । इसलिए जीवद्रव्यको ही चैतन्यका उपादान कारण मानना ठीक है चूँकि वही उसका सजातीय और सलक्षण है ॥६२-६४॥ भूतवादीने जो पुष्प, गुड़, पानी आदिके मिलनेसे मदशक्तिके उत्पन्न होनेका दृष्टान्त दिया है, उपर्युक्त कथनसे उसका भी निराकरण हो जाता है क्योंकि मदिराके कारण जो गुड़ आदि हैं वे जड़ और मूर्तिक हैं तथा उनसे जो मादक शक्ति उत्पन्न होती है वह भी जड़ और मूर्तिक है । भावार्थ-मादक शक्तिका उदाहरण विषम है । क्योंकि प्रकृतमें आप सिद्ध करना चाहते हैं विजातीय द्रव्यसे विजातीयकी उत्पत्ति
और उदाहरण दे रहे हैं सजातीय द्रव्यसे सजातीयकी उत्पत्तिका ॥६५।। वास्तवमें भूतवादी चार्वाक भूत-पिशाचोंसे प्रसित हुआ जान पड़ता है। यदि ऐसा नहीं होता तो इस संसारको जीवरहित केवल पृथिवी, जल, तेज, वायुरूप ही कैसे कहता ? ॥६६॥ कदाचित् भूतवादी यह कहे कि पृथिवी आदि भूतचतुष्टयमें चैतन्यशक्ति अव्यक्तरूपसे पहलेसे ही रहती है सो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि अचेतन पदार्थमें चेतनशक्ति नहीं पायी जाती, यह बात अत्यन्त प्रसिद्ध है ।।६७। इस उपर्युक्त कथनसे सिद्ध हुआ कि जीव कोई भिन्न पदार्थ है और शान उसका लक्षण है। जैसे इस वर्तमान शरीर में जीवका अस्तित्व है उसी प्रकार पिछले और आगेके शरीर में भी उसका अस्तित्व सिद्ध होता है क्योंकि जीवोंका वर्तमान शरीर पिछले शरीरके बिना नहीं हो सकता । उसका कारण यह है कि वर्तमान शरीर में स्थित आत्मामें जो दुग्धपानादि क्रियाएँ देखी जाती हैं वे पूर्वभवका संस्कार ही हैं। यदि वर्तमान शरीरके पहले इस जीवका कोई शरीर नहीं होता और यह नवीन ही उत्पन्न हुआ होता तो जीवकी सहसा दुग्धपानादिमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार वर्तमान शरीरके बाद भी यह जीव कोई-न-कोई शरीर धारण करेगा क्योंकि ऐन्द्रियिक ज्ञानसहित आत्मा बिना शरीरके रह नहीं सकता ।।६८॥
१. शरीरम् । २. सूक्ष्मभूतचतुष्टयसंयोगः । ३. चैतन्यम् । ४. निराकृतम् । ५. सद्भावात्, वा संभवात् । ६.ग्रहाविष्टः । ७. असंबन्वात् । ८. "आवन्तो देहिनां देहो" इत्यत्र देहिनामाद्यन्तदेही पूर्वोत्तरे तनू विना न भवतः। संविदधिष्ठानत्वात् मध्यदेहवत इत्यस्मिन् अनुमाने आदिभूतो देहः उत्तरतर्नु विना न भवति अन्तदेहस्तु पूर्वतर्नु विना न भवति" इत्यर्थः ।