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आदिपुराणम् इत्युग्राम' 'कुदृष्टान्तकुहेतुमिरपार्थकम् । व्यरमत् सोऽप्यतो वक्तुं स्वयंबुद्धः प्रचक्रमे ॥४९॥ भूतवादिन् मृषा वक्ति स भवानात्मशून्यताम् । भूतेभ्यो व्यतिरिक्तस्य चैतन्यस्य प्रतीतितः ॥५०॥ कायात्मकं न चैतन्यं न कायश्चेतनात्मकः । मिथो विरुद्धधर्मस्वात् तयोश्चिदचिदात्मनोः ॥५१॥ कायचैतन्ययोनेक्यं विरोधिगुणयोगतः । तयोरन्तबहीरूपनि साच्चासि कोशवत् ॥५२॥ न भूतकार्य चैतन्यं घटते तद्गुणोऽपि वा । ततो जात्यन्तरीभावात्तद्विमागेन तद्ग्रहात् ॥५३॥ न विकारोऽपि देहस्य संविनावितुमर्हति । भस्मादि तद्विकारेभ्यो वैधान्मूर्यनन्वयात् ॥५॥ गृहप्रदीपयोर्यद्वत् सम्बन्धो 'युतसिद्धयोः । "प्राधाराधेयरूपत्वात् तद्वदेहोपयोगयोः ॥५५॥
उनकी प्राप्तिके लिए प्रयत्न करते हैं॥४८। इस प्रकार खोटे दृष्टान्त और खोटे हेतुओं द्वारा सारहीन वस्तुका प्रतिपादन कर जब शतमति भी चुप हो रहा तब स्वयंबुद्ध मन्त्री कहनेके लिए उद्यत हुए ॥४९॥
हे भूतवादिन्, 'आत्मा नहीं है' यह आप मिथ्या कह रहे हैं क्योंकि पृथ्वी आदि भूतचतुष्टयके अतिरिक्त ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यकी भी प्रतीति होती है ॥५०॥ वह चैतन्य शरीररूप नहीं है और न शरीर चैतन्यरूप ही है क्योंकि दोनोंका परस्पर विरुद्ध स्वभाव है। चैतन्य चित्स्वरूप है-ज्ञान दर्शनरूप है और शरीर अचित्स्वरूप है-जड़ है ॥५१॥ शरीर और चैतन्य दोनों मिलकर एक नहीं हो सकते क्योंकि दोनोंमें परस्परविरोधी गुणोंका योग पाया जाता है। चैतन्यका प्रतिभास तलवारके समान अन्तरंगरूप होता है और शरीरका प्रतिभास म्यानके समान बहिरंगरूप होता है । भावार्थ-जिस प्रकार म्यानमें तलवार रहती है। यहाँ म्यान और तलवार दोनोंमें अभेद नहीं होता उसी प्रकार 'शरीरमें चैतन्य है' यहाँ शरीर और आत्मामें अभेद नहीं होता। प्रतिभासभेद होनेसे दोनों ही पृथक्-पृथक् पदार्थ सिद्ध होते हैं ।।१२।। यह चैतन्य न तो पृथिवी आदि भूतचतुष्टयका कार्य है और न उनका कोई गुण ही है। क्योंकि दोनोंकी जातियाँ पृथक्-पृथक् हैं। एक चैतन्यरूप है तो दूसरा जड़रूप है। यथार्थमें कार्यकारणभाव और गुणगुणीभाव सजातीय पदार्थों में ही होता है विजातीय पदार्थों में नहीं होता। इसके सिवाय एक कारण यह भी है कि पृथिवी आदिसे बने हुए शरीरका ग्रहण उसके एक अंशरूप इन्द्रियोंके द्वारा ही होता है जब कि ज्ञानरूप चैतन्यका स्वरूप अतीन्द्रिय है-ज्ञानमात्रसे ही जाना जाता है। यदि चैतन्य, पृथिवी आदिका कार्य अथवा स्वभाव होता तो पृथिवी आदिसे निर्मित शरीरके साथ-ही-साथ इन्द्रियों द्वारा उसका भी ग्रहण अवश्य होता, परन्तु ऐसा होता नहीं है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि शरीर और चैतन्य पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं ।।५३।। वह चैतन्य शरीरका भी विकार नहीं हो सकता क्योंकि भस्म आदि जो शरीरके विकार हैं उनसे वह विसदृश होता है । यदि चैतन्य शरीरका विकार होता तो उसके भस्म आदि विकाररूप ही चैतन्य होना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं होता, इससे सिद्ध है कि चैतन्य शरीरका विकार नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि शरीरका विकार मूर्तिक होगा परन्तु यह चैतन्य अमूर्तिक है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्शसे रहित है-इन्द्रियों-द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता ॥५४॥ शरीर और आत्माका सम्बन्ध ऐसा है जैसा कि घर और दीपकका होता
१. उक्त्वा । २. अनर्थकवचनम् । ३. उपक्रमं चकार । ४. दर्शनात् । ५. असिश्च कोशश्च असिकोशाविव । ६. तद्भूतविभागेन । ७. तच्चतन्यस्वीकारात् । ८. असंबन्धात् । ९. पृथगाश्रयायित्वं युतसिद्धत्वम् । "तावेवायुतसिद्धी तो विज्ञातग्यो ययोर्द्वयोः । अवश्यमेकमपराश्रितमेवावतिष्ठते ॥" १०. आत्मा।