________________
१०८
आदिपुराणम्
महीभृतामधीशत्वात् सद्वृत्तत्वात् सदास्थितेः । प्रवृद्धकटकत्वाच्च सुराजानमिवोचतम् ।।१६३॥ 'सर्वलोकोत्तरत्वाच ज्येष्ठत्वात् सर्वभूभृताम् । महत्त्वात् स्वर्णवर्णत्वात् तमाद्यमिव पूरुषम् ॥१६॥ समासादितवज्रत्वादप्सरः संश्रयादपि । ज्योतिःपरीतमूर्त्तित्वात् सुरराजमिवापरम् ॥१६५।। चूलिकाप्रसमासनसौधर्मेन्द्रविमानकम् । स्वर्लोकधारणे न्यस्तमिवैकं स्तम्भमुच्छ्रितम् ॥१६६।। मेखलाभिर्वनश्रेणीर्दधानं कुसुमोज्ज्वलाः । स्पर्द्धयेव कुरुक्ष्माजैः सर्वर्तुफलदायिनीः ॥१६७॥ हिरण्मयमहोदग्रवपुषं रखमाजुषम् । जिनजन्माभिषेकाय बद्धं पीठमिवामरैः ॥१६८॥
जिनामिषेकसंबन्धाज्जिनायतनधारणात् । स्वीकृतेनेव पुण्येन प्राप्तं स्वर्गमनर्गलम् ॥१६९॥ प्रकार समवसरण (अशोक, सप्तच्छद, आम्र और चम्पक ) चार वनोंसे सुशोभित होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी चार (भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक) बनसे सुशोभित है । वह अनादि निधन है तथा प्रमाणसे ( एक लाख योजन) सहित है इसलिए श्रुतस्कन्धके समान है क्योंकि आर्यदृष्टि से श्रुतस्कन्ध भी अनादिनिधन है और प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणोंसे सहित है। अथवा वह पर्वत किसी उत्तम महाराजके समान है क्योंकि जिस प्रकार महाराज अनेक महीभृतों (राजाओं) का अधीश होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अनेक महीभृतों (पर्वतों) का अधीश है । महाराज जिस प्रकार सुवृत्त (सदाचारी) और सदास्थिति (समीचीन सभासे युक्त) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी सुवृत्त (गोलाकार) और सदास्थिति (सदा विद्यमान) रहता है। तथा महाराज जिस प्रकार प्रवृद्धकटक (बड़ी सेनाका नायक) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी प्रवृद्धकटक (ऊँचे शिखरवाला) है । अथवा वह पर्वत आदि पुरुष श्री वृषभदेवके समान जान पड़ता है क्योंकि भगवान् वृषभदेव जिस प्रकार सर्वलोकोत्तर हैं - लोकमें सबसे श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी सर्वलोकोत्तर है-सब देशोंसे उत्तर दिशामें विद्यमान है । भगवान् जिस प्रकार सब भूभृतोंमें (सब राजाओंमें ) ज्येष्ठ थे उसी प्रकार वह पर्वत भी सब भूभृतों (पर्वतों )में ज्येष्ठ-उत्कृष्ट है। भगवान् जिस प्रकार महान् थे उसी प्रकार वह पर्वत भी महान है और भगवान् जिस प्रकार सुवर्ण वर्णके थे उसीप्रकार वह पर्वत भी सुवर्ण वर्णका है। अथवा वह मेरु पर्वत इन्द्र के समान सुशोभित है क्योंकि इन्द्र जिस प्रकार वन (वनमयी शत्र) से सहित होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी वन (हीरों) से सहित होता है। इन्द्र जिस प्रकार अप्सरःसंश्रय (अप्सराओंका आश्रय) होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी अप्सरःसंश्रय ( जलसे भरे हुए तालाबोंका आधार ) है । और इन्द्रका शरीर जैसे चारों ओर फैलती हुई ज्योति (तेज) से सुशोभित होता है उसी प्रकार उस पर्वतका शरीर भी चारों ओर फैले हुए ज्योतिषी देवोंसे सुशोभित है। सौधर्म स्वर्गका इन्द्रक विमान इस पर्वतकी चूलिकाके अत्यन्त निकट है (बालमात्रके अन्तरसे विद्यमान है। इसलिए ऐसा मालूम होता है मानो स्वर्गलोकको धारण करनेके लिए एक ऊँचा खम्भा ही खड़ा हो। वह पर्वत अपनी कटनियोंसे जिन वनपंक्तियोंको धारण किये हुए है वे हमेशा फूलोंसे उज्ज्वल रहती हैं तथा ऐसी मालूम होती हैं मानो कल्पवृक्षोंके साथ स्पर्धा करके ही सब ऋतुओंके फल फूल दे रही हों । वह पर्वत सुवर्णमय है, ऊँचा है और अनेक रत्नोंकी कान्तिसे सहित है इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो जिनेन्द्रदेवके अभिषेकके लिए देवोंके द्वारा बनाया हुआ सुवर्णमय ऊँचा और रत्नखचित सिंहासन ही हो। उस पर्वतपर श्री जिनेन्द्रदेवका अभिषेक होता है तथा अनेक चैत्यालय विद्यमान हैं मानो इन्हीं दो
१. सुवृत्तत्वात् । २. नित्यस्थितेः । सताम् आ समन्तात् स्थितियस्मिन् । ३. प्रवृद्धसानुत्वात् प्रवृद्धसैन्यत्वाच्च । ४. सर्वजनस्योत्तरदिक्सत्त्वात सर्वजनोत्तमत्वाच्च । ५. पुरुपरमेश्वरम् । ६. अद्विरुपलक्षितसरोवरसंश्रयात देवगणिकासंश्रयाच्च । ७. ज्योतिर्गणः पक्षे कायकान्तिः। ८. -दायिभि: म०। ९. प्राप्त अ०, स०, द०, म०, ल०।१०. अप्रतिबन्धं यथा भवति तथा ।