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पञ्चमं पर्व 'लवणाम्भोधिवेलाम्भोवलयश्लक्ष्णवाससः । जम्बूद्वीपमहीमतुः किरीटमिव सुस्थितम् ॥१७॥ कुलाचलपृथूत्तुङ्गवीचीमङ्गोपशोमिनः । संगीतप्रहतातोचविहारुत शालिनः ॥१७१॥ महानदीजलालोलमृणालविकसपतेः। नन्दनादिमहोद्यानविसर्पस्पत्रसंपदः ॥१०२॥ सुरासुरसभावासमासितामरसश्रियः । 'सुखासवरसासक्तजीवभृङ्गावलीभृतः ॥१७३॥ जगत् पद्माकरस्यास्य मध्ये कालानिलोद्धतम् । विवृद्धमिव किअल्कपुञ्जमापिअरच्छविम् ॥१७॥ "सरत्नकटकं मास्वच्चूलिकामुकुटोज्ज्वलम्। सोऽदर्शद गिरिराजं तं राजन्तं जिनमन्दिरैः ॥१७५॥ "तमद्भुतश्रियं पश्यन् अगमत् स परां मुदम् । न्यरूपयच्च पर्यन्तदेशानस्येति विस्मयात् ॥१७॥ गिरीन्द्रोऽयं स्वशृङ्गाप्रैः समाक्रान्तनमोमयः । लोकनाडीगतायाम' मिमान 'इव राजते ॥१७७॥ अस्य सानूनिमे रम्यच्छायानोकहशोमिनः । साई वधूजनः शश्वदावसन्ति दिवौकसः ॥१७८॥
अस्य पादादयोऽप्यस्मादानीलनिषधं गताः । महतां पाइसंसेवी को वा 'नायतिमाप्नुयात्॥१७९॥ कारणोंसे उत्पन्न हुए पुण्यके द्वारा वह बिना किसी रोक-टोकके स्वर्गको प्राप्त हुआहै अर्थात् स्वर्ग तक ऊँचा चला गया है। अथवा वह पर्वत लवणसमुद्रके नीले जलरूपी सुन्दर वस्त्रोंको धारण किये हुए जम्बूद्वीपरूपी महाराजके अच्छी तरह लगाये गये मुकुटके समान मालूम होता है। अथवा यह जगत् एक सरोवरके समान है क्योंकि यह सरोवरकी भाँति ही कुलाचलरूपी बड़ी ऊँची लहरोंसे शोभायमान है, संगीतके लिए बजते हुए बाजोंके शब्दरूपी पक्षियोंके शब्दोंसे सुशोभित है, गङ्गा,सिन्धु आदि महानदियोंके जलरूपी मृणालसे विभूषित है, नन्दनादि महावनरूपी कमलपत्रोंसे आच्छन्न है, सुर और असुरोंके सभाभवनरूपी कमलोंसे शोभित है, तथा सुखरूप मकरन्दके प्रेमी जीवरूपी भ्रमरावलोको धारण किये हुए है। ऐसे इस जगतरूपी सरोवरके बीच में वह पीत वर्णका सुवर्णमय मेरु पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो प्रलयकालके पवनसे उड़ा हुआ तथा एक जगह इकट्ठा हुआ कमलोंकी केशरका समूह हो। वास्तवमें वह पर्वत, पर्वतोंका राजा है क्योंकि राजा जिस प्रकार रत्नजडित कटकों (कड़ों) से युक्त होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी रत्नजड़ित कटकों (शिखरों) से युक्त है और राजा जिस प्रकार मुकुटसे शोभायमान होता है उसी प्रकार वह पर्वत भी चूलिकारूपी देदीप्यमान मुकुटसे शोभायमान है। इस प्रकार वर्णनयुक्त तथा जिनमन्दिरोंसे शोभायमान वह मेरु पर्वत स्वयम्बुद्ध मन्त्रीने देखा ॥१६२-१७५।। अद्भुत शोभायुक्त उस मेरु पर्वतको देखता हुआ वह मन्त्री अत्यन्त आनन्दको प्राप्त हुआ और बड़े आश्चर्यसे उसके समीपवर्ती प्रदेशोंका नीचे लिखे अनुसार निरूपण करने लगा ॥१७६।। इस गिरिराजने अपने शिखरोंके अग्रभागसे समस्त आकाशरूपी आँगनको घेर लिया है जिससे ऐसा शोभायमान होता है मानो लोकनाड़ीकी लम्बाई ही नाप रहा हो ॥१७७।। मनोहर तथा घनी छायावाले वृक्षोंसे शोभायमान इस पर्वतके शिखरोंपर वे देव लोग अपनी-अपनो देवियों के साथ सदा निवास करते हैं ॥१७८।। इस पर्वतके प्रत्यन्त पर्वत (समीप
१. घिनोलाम्भो-अ०, म०, द०, स०, १०, ल०। २. जम्बूद्वीपमहीभर्तुः सादृश्याभावात् जम्बूद्वीपमहीभर्तुरिति रूपकमयुक्तमिति न शकुनीयम्। सभाजनैरिवानेकद्वीपर्वेष्टितत्वेन साम्यसद्भावात् । 'यथा कथंचित् सादृश्यं यत्रोद्भूतं प्रतीयते' इति वचनात् । नम्विदमुपलक्षणं न तु रूपकस्यैवेति वाच्यम् 'उपमैव तिरोभूतभेदा रूपकमिष्यते' इति वचनात् । ३. ध्वनिः। ४. अत्र श्लोके पत्रशब्देन कमलिनीपत्राणि गृह्यन्ते । ५. सुरासुरसभागृहोद्भासिकमलश्रियः। ६. सुखमेव आसवरसः मकरन्दरसः तत्र आसक्ता जोवा एव भङ्गावल्यः ता बिति तस्य। ७. काल एवानिलस्तेनोद्धृतम् । ८. रत्नमयसानुसहितम् । पक्षे रत्नमयकरवलयसहितम् । ९. पक्षे कलशोपलक्षितमुकुटम् । १०. तमुभद्त-अ०, ल०। ११. उत्सेधम् । १२. प्रमाता । १३. शृङ्गेषु । 'वसोऽनुपाध्याङ्' इति सूत्रात् सप्तम्यर्थे द्वितीया विभक्तिर्भवति । १४. प्रत्यन्तपर्वताः । १५. मेरोः । १६. नायाति-म०, ल.।