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पञ्चमं पर्व
विद्धि ध्यानचतुष्कस्य फलमेतचिदर्शितम् । पूर्व ध्यानद्वयं 'पापं शुमोदकं परं द्वयम् ।। १५३ ।। तस्माद् धर्मजुषां पुंसां भुक्तिमुक्ती न दुर्लभे । प्रत्यक्षातोपदेशाभ्यामिदं निश्चिनु धोधन ॥ १५४ ॥ इति प्रतीतमाहात्म्यो धर्मोऽयं जिनदेशितः । त्वयापि शक्तितः सेव्यः फलं विपुलमिच्छता ।। १५५।। शुस्वोदारं च गम्भीरं स्वयंबुद्धोदितं तदा । सभा "समाजयामास 'परमास्तिक्यमास्थिता ।।१५६ ।। इदमेवार्हतं तस्वमितोऽन्यच भवान्तरम् । 'प्रतीतिरिति तद्वाक्यादाविरासीत् 'सदः सदाम् ।। १५७ ।। सुदृष्टिर्वतसंपनो गुणशीलविभूषितः । "ऋजुगुप्तौ गुरौ मक्तः श्रुतामिशः प्रगहमधीः ॥ १५८॥ श्काष्य एष गुणैरेभिः परमश्रावकोचितैः । स्वयंबुद्धे महात्मेति तुष्टुवुस्तं सभासदः ।। १५९ ।। प्रशस्य खचराधीशः प्रतिपद्य च तद्वचः । प्रीतः संपूजयामास स्वयंबुद्धं महाधियम् ॥ १६० ॥ अथाम्यदा स्वयंडुद्धो महामेरुगिरिं ययौ । “विवन्दिषुर्जिनेन्द्राणां चैत्यवेश्मनि भक्तितः ॥ १६१ ॥ १७ वनैश्चतुर्भिरामान्तं ' जिनस्येव "शुभोदयम् । श्रुतस्कन्धमिवानादिनिधनं सप्रमाणकम् ॥ १६२॥
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विद्याधर राजाओंका वर्णन किया है जिनके कि कथारूपी दुन्दुभि अत्यन्त प्रसिद्ध हैं ।। १५२ ॥ आप ऊपर कहे हुए चारों दृष्टान्तोंको चारों ध्यानोंका फल समझिए क्योंकि राजा अरविन्द रौद्रध्यान के कारण नरक गया । दण्ड नामका राजा आर्तध्यानसे भाण्डारमें अजगर हुआ, राजा शतबल धर्मध्यानके प्रतापसे देव हुआ और राजा सहस्रबलने शुक्लध्यानके माहात्म्यसे मोक्ष प्राप्त किया। इन चारों ध्यानोंमें से पहलेके दो-आर्त और रौद्रध्यान अशुभ ध्यान हैं जो कुगतिके कारण हैं और आगेके दो-धर्म तथा शुक्रम्यान शुद्ध हैं, वे स्वर्ग और मोक्षके कारण हैं ।। १५३ ॥ | इसलिए हे बुद्धिमान् महाराज, धर्मसेवन करनेवाले पुरुषोंको न तो स्वर्गादिकके भोग दुर्लभ हैं और न मोक्ष ही । यह बात आप प्रत्यक्ष प्रमाण तथा सर्वज्ञ वीतरागके उपदेशसे निश्चित कर सकते हैं ।। १५४|| हे राजन्, यदि आप निर्दोष फल चाहते हैं तो आपको भी जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए प्रसिद्ध महिमासे युक्त इस जैन धर्मकी उपासना करनी चाहिए ||१५५|| इस प्रकार स्वयम्बुद्ध मन्त्रीके कहे हुए उदार और गंम्भीर वचन सुनकर वह सम्पूर्ण सभा बड़ी प्रसन्न हुई तथा परम आस्तिक्य भावको प्राप्त हुई || १५६ || स्वयम्बुद्ध के वचनोंसे समस्त सभासदों को यह विश्वास हो गया कि यह जिनेन्द्रप्रणीत धर्म ही वास्तविक तत्त्व है अन्य मत-मतान्तर नहीं ॥१५७॥ तत्पश्चात् समस्त सभासद् उसकी इस प्रकार स्तुति करने लगे कि यह स्वयम्बुद्ध सम्यग्दृष्टि है, व्रती है, गुण और शीलसे सुशोभित है, मन, वचन, कायका सरल है, गुरुभक्त है, शास्त्रोंका वेत्ता है, अतिशय बुद्धिमान है, उत्कृष्ट श्रावकोंके योग्य उत्तम गुणोंसे प्रशंसनीय है और महात्मा है ।। १५८-१५९।। विद्याधरोंके अधिपति महाराज महाबलने भी महाबुद्धिमान् स्वयम्बुद्धकी प्रशंसा कर उसके कहे हुए वचनोंको स्वीकार किया तथा प्रसन्न होकर उसका अतिशय सत्कार किया || १६०|| इसके बाद किसी एक दिन स्वयम्बुद्ध मन्त्री अकृत्रिम चैत्यालयविराजमान जिन प्रतिमाओं की भक्तिपूर्वक वन्दना करनेकी इच्छासे मेरुपर्वतपर गया ।। १६१।
वह पर्वत जिमेन्द्र भगवान् के समवसरणके समान शोभायमान हो रहा है क्योंकि जिस
१. पापहेतुः । २. सुखोदकं त० ब० पुस्तकयोः पाठान्तरं पाश्वके लिखितम् । शुभोत्तरफलम् । 'उदर्क: फलमुत्तरम्' इत्यमरः । ३. विमल-म०, ल० । ४. वचनम् । ५. तुतोष । 'समाज प्रीतिदर्शनयोः' इति धातुवोरादिकः । ६. जो त्रास्तित्वम् । ७. आश्रिता । ८. निश्चयः । ९. सभा । १०. - सनाम् ८० । सत्पुरुषाणाम् । ११. मनोगुप्त्यादिमान् । १२. गुप्तो-८० । १३. प्रौढबुद्धिः । १४. सभ्याः । १५. अङ्गीकृत्य । १६. बम्बितुमिच्छुः । १७. भद्रशालनन्दन सोमनसपाण्डुकैः, पक्षे अशोक सप्तच्छद चम्पकाम्रैः । १८. आराजन्तम् । १९. सभोदयम् द०, ट० । समवसरणम् ।