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पर्व
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" रथाङ्गमिव संसारमनुबध्नाति संततम् । दुस्स्यजं त्यजदप्येतत् कण्ठस्थमिव जीवितम् ॥१२७॥ प्रकटीकृतविश्वासं प्राणहारि भयावहम् । मृगयोरिव दुर्गीतं नृगणैणप्रलम्भकम् ॥ १२८ ॥ ताम्बूलमिव संयोगादिदं रागविवर्द्धनम् । अन्धकारमिवोत्सर्पत् सन्मार्गस्य निरोधनम् ॥ १२९॥ जैनं मत्तमिव प्रायः परिभूतमतान्तरम् । तडिल्लसितवल्लोलं बैचित्र्यात् सुरचापवत् ॥ १३०॥ किं वात्र बहुनोक्तेन पश्येदं विषयोद्भवम् । सुखं संसारकान्तारे परिभ्रमयतीप्सितम् ॥ १३१ ॥ नमोऽस्तु तसा संगविमुखाय स्थिरात्मने । तपोधनगणायेति निनिन्द विषयानसौ ॥ १३२ ॥ अथासौ पुत्र निर्दिष्टधर्मवाक्यांशुमालिना । गलिताशेष मोहान्धतमसः समजायत ॥ १३३ ॥ ततो धर्मौषधं प्राप्य स कृतानुशयः शयुः । ववाम विषयौत्सुक्यं महाविषमिवोल्वणम् ॥१३४॥ स परित्यज्य संवेगादाहारं सशरीरकम् । जीवितान्ते तनुं हित्वा दिविजोऽभून्महर्द्धिकः ॥ १३५॥ ज्ञात्वा च मवमागत्य संपूज्य मणिमालिने । मणिहारमदत्तासावुन्मिषन्मणिदीधितिम् ॥१३६॥ स एष भवतः कण्ठे हारो रत्नांशुभासुरः । लक्ष्यतेऽद्यापि यो लक्ष्म्याः प्रहास इव निर्मलः ॥ १३७ ॥ तथैवमपरं राजन् यथावृत्तं निगद्यते । सन्ति यद्दर्शिनोऽद्यापि वृद्धाः केचन खेचराः ॥ १३८ ॥ आसोच्छतबलो नाम्ना भवदीयः " पितामहः । प्रजा राजन्वतीः कुर्वन् स्वगुणैराभिगामिकैः ३ ।। १३६ ॥ तात, जिस प्रकार रथका पहिया निरन्तर संसार - परिभ्रमण करता रहता है-चलता रहता है उसी प्रकार यह विषय भी निरन्तर संसार - परिभ्रमण करता रहता है-स्थिर नहीं रहता अथवा संसार चतुर्गतिरूप संसारका बन्ध करता रहता है । यद्यपि यह कण्ठस्थ प्राणोंके समान कठिनाईसे छोड़े जाते हैं परन्तु त्याज्य अवश्य हैं ॥ १२७|| ये विषय शिकारीके गाने समा हैं जो पहले मनुष्यरूपी हरिणोंको ठगनेके लिए विश्वास दिलाते हैं और बादमें भयंकर हो प्राणोंका हरण किया करते हैं ।। १२८|| जिस प्रकार ताम्बूल चूना, खैर और सुपारीका संयोग पाकर राग - लालिमाको बढ़ाते हैं उसी प्रकार ये विषय भी स्त्री-पुत्रादिका संयोग पाकर रागस्नेहको बढ़ाते हैं और बढ़ते हुए अन्धकारके समान समीचीन मार्गको रोक देते हैं ॥ १२९ ॥ जिस प्रकार जैनमत मतान्तरोंका खण्डन कर देता है उसी प्रकार ये विषय भी पिता, गुरु आदिके हितोपदेशरूपी मतोंका खण्डन कर देते हैं । ये बिजलीकी चमकके समान चञ्चल हैं और इद्रधनुषके समान विचित्र हैं ।। १३० ।। अधिक कहने से क्या लाभ ? देखो, विषयोंसे उत्पन्न हुआ यह विषयसुख इस जीवको संसाररूपी अटवीमें घुमाता है ।। १३१|| जो इस विषयर सकी आसक्तिसे विमुख रहकर अपने आत्माको अपने-आपमें स्थिर रखते हैं ऐसे मुनियोंके समूहको नमस्कार हो । इस प्रकार राजा मणिमालीने विषयोंकी निन्दा की ॥१३२॥ तदनन्तर अपने पुत्रके Safarrant सूर्य द्वारा उस अजगरका सम्पूर्ण मोहरूपी गाढ़ अन्धकार नष्ट हो गया ॥ १३३ ॥ उस अजगर को अपने पिछले जीवनपर भारी पश्चात्ताप हुआ और उसने धर्मरूपी ओषधि ग्रहण कर महाविषके समान भयंकर विषयासक्ति छोड़ दी || १३४ | | उसने संसारसे भयभीत होकर आहार -पानी छोड़ दिया, शरीरसे भी ममत्व त्याग दिया और उसके प्रभावसे वह आयुके अन्तमें शरीर त्याग कर बड़ी ऋद्धिका धारक देव हुआ || १३५|| उस देवने अवधिज्ञानके द्वारा अपने पूर्व भव जान मणिमालीके पास आकर उसका सत्कार किया तथा उसे प्रकाशमान मणियोंसे शोभायमान एक मणियोंका हार दिया || १३६|| रत्नोंकी किरणोंसे शोभायमान तथा लक्ष्मी हासके समान निर्मल वह हार आज भी आपके कण्ठमें दिखायी दे रहा है ॥१३७॥
हे राजन, इसके सिवाय एक और भी वृत्तान्त मैं ज्योंका-त्यों कहता हूँ । उस वृत्तान्तके देखनेवाले कितने ही वृद्ध विद्याधर आज भी विद्यमान हैं || १३८ || शतबल नामके आपके दादा हो
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१. शकटचक्रवत् । २. व्याधस्य । ३. विषयसुखानुरागासक्तिः । ४. स्थिरबुद्धये । ५. तामसः ल० । ६. पश्चात्तापः । ७. उत्कटम् । ८. प्रकाशमानः । ९. कथेत्यर्थः । १०. यथावद् वर्तितम् । ११ पितृपिता । १२. - णैरभिरामकैः अ० ।-राभिरामिकैः स०, प० । १३. अंत्यादरणीयैः ।