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आदिपुराणम्
परचक्रमरेन्द्राणामानीतानि 'महसरैः । उपायनानि संपश्यन् यथास्वं तांश्च पूजयन् ॥ १३॥ इत्यसौ परमानन्दमातन्वन्नद्भुतोदयः । यथेष्टं मन्त्रिवर्गेण सहास्तानन्दमण्डपे ॥१२॥ तं तदा प्रीतमालोक्य स्वयंबुद्धः समिद्धधीः । स्वामिने हितमित्युच्चैरभाषिष्टेष्ट मृष्टवाक् ॥ १३ ॥ इतः शृणु खगाधीश वक्ष्ये श्रेयोऽनुबन्धि ते । वैद्याधरीमिमां लक्ष्मीं विद्धि पुण्यफलं विभो ॥१४॥ धर्मादिष्टार्थ संपतिस्ततः कामसुखोदयः । स च संप्रीतये पुंसां धर्मात् सैषा परम्परा ॥१५॥ राज्यं च संपदो भोगाः कुले जन्म सुरूपता । पाण्डित्यमायुरारोग्यं धर्मस्यैतत् फलं विदुः ॥ १६ ॥ न कारणाद् विना कार्यनिष्पत्तिरिह जातुचित् । प्रदीपेन विना दीप्तिर्दृष्ट पूर्वा किमु क्वचित् ॥१७॥ नाङ्कुरः स्याद् बिना बीजाद् विना वृष्टिर्न वारिदात् । छत्राद् विनापि नच्छाया विना धर्मान संपदः॥१८॥ नाधर्मात् सुखसंप्राप्तिर्न विषादस्ति जीवितम् । नोषरात् सस्यनिष्पत्तिर्नाग्नेरह्लादनं भवेत् ॥ १९ ॥ यतोऽभ्युदयनिः श्रेयसार्थसिद्धिः सुनिश्चिता । स धर्मस्तस्य धर्मस्य विस्तरं शृणु सांप्रतम् ॥२०॥ दयामूलो भवेद् धर्मो दया प्राण्यनुकम्पनम् । दयायाः परिरक्षार्थं गुणाः शेषाः प्रकीर्त्तिताः ॥२१॥ धर्मस्य तस्य लिङ्गानि दमः क्षान्तिरहिंस्त्रता । तपो दानं च शीलं च योगो बैराग्यमेव च ॥ २२॥ अहिंसा सत्यवादिस्वमचौर्य त्यक्तकामता । निष्परिग्रहता चेति प्रोको धर्मः सनातनः ॥ २३॥
सत्कार कर लेते थे । तथा अन्य देशोंके राजाओंके प्रतिष्ठित पुरुषों द्वारा लायी हुई भेंटका अवलोकन कर उनका सम्मान भी करते जाते थे । इस प्रकार परम आनन्दको विस्तृत करते हुए, आश्चर्यकारी विभवसे सहित वे महाराज महाबल मन्त्रिमण्डलके साथ-साथ स्वेच्छानुसार सभामण्डपमें बैठे हुए थे ||९ - १२ ॥ उस समय तीक्ष्णबुद्धिके धारक तथा इष्ट और मनोहर वचन बोलनेवाले स्वयंबुद्ध मन्त्रीने राजाको अतिशय प्रसन्न देखकर स्वामीका हित करनेवाले नीचे लिखे वचन कहे || १३ || हे विद्याधरोंके स्वामी, जरा इधर सुनिए, मैं आपके कल्याण करनेवाले कुछ वचन कहूँगा । हे प्रभो, आपको जो यह विद्याधरोंकी लक्ष्मी प्राप्त हुई है उसे आप केवल पुण्यका ही फल समझिए ||१४|| हे राजन, धर्मसे 'इच्छानुसार सम्पत्ति मिलती है, उससे इच्छानुसार सुखकी प्राप्ति होती है और उससे मनुष्य प्रसन्न रहते हैं। इसलिए यह परम्परा केवल धर्मसे ही प्राप्त होती है ॥ १५ ॥ राज्य, सम्पदाएँ, भोग, योग्य कुलमें जन्म, सुन्दरता, पाण्डित्य, दीर्घ आयु और आरोग्य, यह सब पुण्यका ही फल समझिए. ॥१६॥ हे विभो, जिस प्रकार कारणके बिना कभी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, दीपकके बिना कभी किसीने कहीं प्रकाश नहीं देखा, बीजके बिना अंकुर नहीं होता, मेघके बिना वृष्टि नहीं होती और छत्र के बिना छाया नहीं होती उसी प्रकार धर्मके बिना सम्पदाएँ प्राप्त नहीं होतीं || १७-१८|| जिस प्रकार विष खानेसे जीवन नहीं होता, ऊसर जमीनसे धान्य उत्पन्न नहीं होते और अग्निसे आह्लाद उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार अधर्म से सुखकी प्राप्ति नहीं होती ||१९|| जिससे स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्षपुरुषार्थकी निश्चित रूपसे सिद्धि होती है उसे धर्म कहते हैं । हे राजन् मैं इस समय उसी धर्मका विस्तारके साथ वर्णन करता हूँ उसे सुनि ||२०|| धर्म वही है जिसका मूल दया हो और सम्पूर्ण प्राणियोंपर अनुकम्पा करना दया है । इस दयाकी रक्षाके लिए ही उत्तम क्षमा आदि शेष गुण कहे गये हैं ||२१|| इन्द्रियोंका दमन करना, क्षमा धारण करना, हिंसा नहीं करना, तप, दान, शील, ध्यान और वैराग्य ये उस दयारूप धर्मके चिह्न हैं ॥ २२ ॥ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहका त्याग
१. महत्तमैः ब०, अ०, स०, ६०, ५०, ल०, ८० । २. शुद्धवाक् । ३. पूर्वस्मिन् दृष्टा । ४. अर्थ: प्रयोजनम् । ५. प्राणानु -अ०, ब०, स०, प०, ६०, ल० । ६. -रहिंसता अ०, प०, स० द० । ७. ध्यानम् ।