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आदिपुराणम् यत्र कर्ममलापायाद् विदेहा मुनयः सदा। 'निर्वान्तीति गता रूढिं 'विदेहाख्यार्थभागियम् ॥५३॥ नित्यप्रमुदिता यत्र प्रजा नित्यकृतोत्सवाः । नित्यं सन्निहितैर्मोगैः सत्यं स्वर्गेऽप्यनादरः ॥५४॥ निसर्गसुभगा नार्यों निमर्गचतुरा नराः । निसर्गललितालापा बाला यन्त्र गृहे गृहे ॥५५॥ "वैदग्ध्यं चतुरैषैर्भूषणैश्च धनद्धयः । विलासैः यौवनारम्माः 'सूच्यन्ते यत्र देहिनाम् ॥५६॥ यत्र सत्पात्रदानेषु प्रीतिः पूजासु चाहताम् । शक्तिरात्यन्तिकी शीले प्रोषधे च रतिर्नृणाम् ॥५७॥ न यत्र परलिङ्गानामस्ति जातुचिदुद्भवः । सदोदयाज्जिनार्कस्य खद्योतानामिवाहनि ॥५॥ यत्रारामाः सदा रम्यास्तरुमिः फलशालिमिः । पथिकानाह्वयन्तीव परपुष्टकलस्वनैः ॥५९॥ यस्य सीमविमागेषु शाल्यादिक्षेत्रसंपदः । सदैव फलमालिन्यो मान्ति धा इव क्रियाः ॥६॥ यत्र शालिवनोपान्ते खात् पतन्तीं शुकावलीम् । शालिगोप्योऽनुमन्यन्ते दधतीं तोरणश्रियम् ॥६१॥
है और उत्तरमें नीलगिरि है ॥५२॥ यह देश विदेह क्षेत्रके अन्तर्गत है। वहाँसे मुनि लोग हमेशा कर्मरूपी मलको नष्ट कर विदेह (विगत देह) शरीररहित होते हुए निर्वाणको प्राप्त होते रहते हैं इसलिए उस क्षेत्रका विदेह नाम सार्थक और रूढि दोनों ही अवस्थाओंको प्राप्त है ॥५३।। उस गन्धिल देशकी प्रजा हमेशा प्रसन्न रहती है तथा अनेक प्रकारके उत्सव किया करती है, उसे हमेशा मनचाहे भोग प्राप्त होते रहते हैं इसलिए वह स्वर्गको भी अच्छा नहीं समझती है ॥५४॥ उस देशके प्रत्येक घरमें स्वभावसे ही सुन्दर स्त्रियाँ हैं, स्वभावसे ही चतुर पुरुष हैं और स्वभावसे ही मधुर वचन बोलनेवाले बालक हैं ॥५५॥ उस देशमें मनुष्यकिी चतुराई उनके चतुराईपूर्ण वेषासे प्रकट होती है। उनके आभूषणांसे उनको सम्पत्तिका ज्ञान होता है तथा भोग-विलासोंसे उनके यौवनका प्रारम्भ सूचित होता है ॥५६॥ वहाँके मनुष्य उत्तम पात्रोंमें दान देने तथा देवाधिदेव अरहन्त भगवानकी पूजा करने ही में प्रेम रखते हैं। वे लोग शीलकी रक्षा करनेमें ही अपनी अत्यन्त शक्ति दिखलाते हैं और प्रोषधोपवास धारण करने में ही रुचि रखते हैं।
भावार्थ-यह परिसंख्या अलंकार है। परिसंख्याका संक्षिप्त अर्थ नियम है। इसलिए इस श्लोकका भाव यह हुआ कि वहाँ के मनुष्योंकी प्रीति पात्रदान आदिमें ही थी विषयवासनाओंमें नहीं थी, उनकी शक्तिं शीलवतकी रक्षाके लिए ही थी निर्बलोंको पीड़ित करनेके •लिए नहीं थी और उनकी रुचि प्रोषधोपवास धारण करनेमें ही थी वेश्या आदि विषयके साधनोंमें नहीं थी ।।५७॥ .
उस गन्धिल देशमें श्री जिनेन्द्ररूपी सूर्यका उदय रहता है इसलिए वहाँ मिथ्यादृष्टियोंका उद्भव कभी नहीं होता जैसे कि दिनमें सूर्यका उदय रहते हुए जुगनुओंका उद्भव नहीं होता।।५८।। उस देशके बाग फलशाली वृक्षोंसे हमेशा शोभायमान रहते हैं तथा उनमें जो कोकिलाएँ मनोहर शब्द करती हैं उनसे ऐसा जान पड़ता है मानो वे बाग उन शब्दोंके द्वारा पथिकोंको बुला ही रहे हैं ।।५९।। उस देशके सीमा प्रदेशोंपर हमेशा फलोंसे शोभायमान धान आदिके खेत ऐसे मालूम होते हैं. मानो स्वर्गादि फलोंसे शोभायमान धार्मिक क्रियाएँ ही हों ॥६॥ उस देशमें धानके खेतोंके समीप आकाशसे जो तोताओंकी पंक्ति नीचे उतरती है उसे खेती
१. मुक्ता भवन्ति । २. विदेहाख्यार्थतामियम् स०, द० । विदेहान्वर्थभागियम् म० । विदेहान्वर्थभागयम् प० । ३. देशे। ४. बालकाः । ५. अयं श्लोकः 'म' पुस्तके नास्ति । ६. अनुमीयन्ते ज्ञायन्ते । ७. अन्तानिष्क्रान्तम् अत्यन्तम् अत्यन्ते भवा आत्यन्तिकी। ८. मरकतरत्नम् ।