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आदिपुराणम् दशयोजनविस्तीर्ण-श्रेणीद्वयसमाश्रयान् । यो धत्ते खेचरावासान् 'सुरवेश्मापहासिनः ॥८५॥ 'खेचरीजनसंचारसंक्रान्तपदयावकैः । रक्ताम्बुजोपहारश्रीयंत्र नित्यं वितन्यते ॥८६॥ अभेद्यशक्तिरक्षय्यः 'सिद्धविचैरुपासिनः । दधदात्यन्तिकी शुद्धिं सिद्धात्मेव विभाति यः ॥८॥ योऽनादिकालसंबन्धिशुद्धिशक्तिसमन्वयात् । भन्यात्मनिर्विशेषोऽपि दीक्षायोगपराङ्मुखः ॥८॥ विद्याधरैः सदाराध्यो निर्मलात्मा "सनातनः। 'सुनिश्चितप्रमाणो यो धत्ते जैनागमस्थितिम् ॥८९॥ भजन्त्येकाकिनो नित्यं ''वीतसंसारमीतयः । प्रवृद्धनखरा" धीरा यं सिंहा इव चारणाः ॥१०॥
भीतर प्रविष्ट है तथा गन्धिला देशकी चौड़ाईके बराबर लम्बा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो उस देशको नापनेका मापदण्ड हो हो ।।८४॥ उस पर्वतके ऊपर दश-दश योजन चौड़ी दो श्रेणियाँ हैं जो उत्तर श्रेणि और दक्षिण श्रेणिके नामसे प्रसिद्ध हैं। उनपर विद्याधरोंके निवासस्थान बने हैं जो अपने सौन्दर्यसे देवोंके विमानोंका भी उपहास करते हैं ।।८५।। विद्याधर स्त्रियोंके इधर-उधर घूमनेसे उनके पैरोंका जो महावर उस पर्वतपर लग जाता है उससे वह ऐसा शोभायमान होता है मानो उसे हमेशा लाल-लाल कमलोंका उपहार ही दिया जाता
॥८६।। उस पर्वतकी शक्तिको कोई भेदन नहीं कर सकता, वह अविनाशी है, अनेक विद्याधर उसकी उपासना करते हैं तथा स्वयं अत्यन्त निर्मलताको धारण किये हुए है, इसलिए सिद्ध परमेष्ठीकी आत्माके समान शोभायमान होता है क्योंकि सिद्ध परमेष्ठीकी आत्मा भी अभेद्य शक्तिकी धारक है, अविनाशी है, सम्यग्ज्ञानी जीवोंके द्वारा सेवित है और कर्ममल कलंकसे रहित होनेके कारण स्थायी विशुद्धताको धारण करती है-अत्यन्त निर्मल है ॥८७॥ अथवा वह पर्वत भव्यजीवके समान है क्योंकि जिस प्रकार भव्य जीव अनादिकालसे शुद्धि अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके द्वारा प्राप्त होने योग्य निर्मलताकी शक्तिको धारण करता है, उसी प्रकार वह पर्वत भी अनादिकालसे शुद्धि अर्थात् निर्मलताकी शक्तिको धारण करता है । अन्तर केवल इतना ही है कि पर्वत दीक्षा धारण नहीं कर सकता जब कि भव्य जीव दीक्षा धारण कर तपस्या कर सकता है ।।८८। वह पर्वत हमेशा विद्याधरोंके द्वारा आराध्य है-विद्याधर उसकी सेवा करते हैं, स्वयं निर्मल रूप है, सनातन है-अनादिसे चला आया है और सुनिश्चित प्रमाण है-लम्बाई चौडाई आदिके निश्चित प्रमाणसे सहित है. इसलिए ठीक जैनागमकी स्थितिको धारण करता है, क्योंकि जैनागम भी विद्याधरोंके द्वारासम्यग्ज्ञानके धारक विद्वान् पुरुषोंके द्वारा आराध्य हैं-बड़े-बड़े विद्वान उसका ध्यान, अध्ययन आदि करते हैं, निर्मल रूप है-पूर्वापर विरोध आदि दोषोंसे रहित है, सनातन है-द्रव्य दृष्टिकी अपेक्षा अनादिसे चला आया है और सुनिश्चित प्रमाण है-युक्तिसिद्ध प्रत्यक्ष परोक्षप्रमाणोंसे प्रसिद्ध है ।।८९।। उस पर्वतपर चारण ऋद्धिके धारक मुनि हमेशा सिंहके समान विहार करते रहते हैं क्योंकि जिस प्रकार सिंह अकेला होता है उसी प्रकार वे मुनि भी एकाकी ( अकेले) रहते हैं, सिंहको जैसे इधर-उधर घूमनेका भय नहीं रहता वैसे ही उन मुनियोंको भी इधरउधर घूमने अथवा चतुर्गतिरूप संसारका भय नहीं होता, सिंहके नख जैसे बड़े होते हैं उसी
१. वेश्मोप-द०,स०,ल० । २. खचरी-प०म०,द० । ३. अलक्तकैः । ४. नक्षीयत इत्यक्षय्यः। ५. विद्याधरैः, पक्षे सम्यग्ज्ञानिभिः। ६. आराधितः । ७. अत्यन्ते भवा आत्यन्तिकी। ८. शुद्धित्वेन शक्तिः तस्याः संबन्धात् । उक्तं च भव्यपक्षे-"शुद्ध्यशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवद्" इति पर्वतपक्षे सुगमम् । ९. सदृशः। १०. नित्यः । ११. पक्षे सुनिश्चितानि प्रत्यक्षादिप्रमाणानि यस्मिन् । १२. पक्षे संभ्रमणम् । १३. मनीषिणः ।