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चतुर्थ पर्व 'सरसां तीरदेशेषु रुतं हंसा विकुर्वते । यत्र कण्ठबिलालग्नमृणालशकलाकुलाः ॥१४॥ वनेषु वनमातङ्गा मदमीलितलोचनाः । भ्रमन्स्यविरतं यस्मिनाहातुमिव दिग्गजान् ॥७॥ यत्र शृङ्गाप्रसंलग्नकदमा दुर्दमा भृशम् । उत्खनन्ति वृषा हप्ताः स्थलेषु स्थलपमिनीम् ॥७६॥ जैनालयेषु संगीतपटहारमोदनिस्स्वनैः । यत्र नृत्यन्त्यकालेऽपि शिखिनः प्रोन्मदिष्णवः ॥७७॥ गवां गणा यथाकालमात्तगर्माः कृतस्वनाः । पोषयन्ति पयोमिः स्वैर्जनं यत्र धनैः समाः ॥१८॥ वलाकालिपताकान्याः स्तनिता मन्द्रबृंहिताः । जीमूता यत्र वर्षन्तो मान्ति मत्ता इव द्विपाः ॥७९॥ न स्पृशन्ति कराबाधा यत्र राजन्वतीः प्रजाः । सदा सुकालसानिध्यान्नेतयो नाप्यनीतयः ॥८॥ विषयस्यास्य मध्येऽस्ति विजया? महाचलः । रौप्यः स्वैरांशुभिः शुभैईसन्निव कुलाचलान् ॥१॥ यो योजनानां पञ्चानां विंशतिं धरणीतलात् । उच्छ्रितः शिखरैस्तुर्दिवं स्पृष्टुमिवोद्यतः ॥८२॥ 'द्विस्तौड्याद् विस्तृतो मूलात् प्रभृत्यादशयोजनम् । मध्ये त्रिंशत्पृथुर्योऽ दशयोजनविस्तृतिः ॥८३॥ उच्छायस्य तुरीयांशमवगाढश्च यः क्षितौ । गन्धिलादेशविष्कम्ममानदण्ड इवायतः ॥८४॥
टुकड़ा लग जानेसे व्याकुल हुए हंस अनेक प्रकारके मनोहर शब्द करते हैं ।।७४॥ उस देशके वनोंमें मदसे निमीलित नेत्र हुए जंगली हाथी निरन्तर इस प्रकार घूमते हैं मानो दिग्गजोंको ही बला रहे हों॥७५|| जिसके सींगोंकी नोकपर कीचड लगी हई तथा जो बडी कठिनाईसे वसमें किये जा सकते हैं ऐसे गर्वीले बैल उस देशके खेतोंमें स्थलकमलिनियोंको उखाड़ा करते हैं ॥७६।। उस देशके जिनमन्दिरोंमें संगीतके समय जो तबला बजते हैं, उनके शब्दोंको मेघका शब्द समझकर हर्षसे उन्मत्त हुए मयूर असमयमें ही-वर्षा ऋतुके बिना ही नृत्य करते रहते हैं ।।७७। उस देशकी गायें यथासमय गर्भ धारण कर मनोहर शब्द करती हुई अपने पयदूधसे सबका पोषण करती हैं, इसलिए वे मेघके समान शोभायमान होती हैं क्योंकि मेघ भी यथासमय जलरूप गर्भको धारण कर मनोहर गर्जना करते हुए अपने पय-जलसे सबका पोषण करते हैं ।। ७८ ॥ उस देशमें बरसते हुए मेघ मदोन्मत्त हाथियोंके समान शोभायमान होते हैं। क्योंकि हाथी जिस प्रकार पताकाओंके सहित होते हैं उसी प्रकार मेघ भी बलाकाओंकी पंक्तियोंसे सहित हैं, हाथी जिस प्रकार गम्भीर गर्जना करते हैं उसी प्रकार मेघ भी गम्भीर गर्जना करते हैं और हाथी जैसे मद बरसाते हैं वैसे ही मेघ भी पानी बरसाते हैं ।।७९।। उस देशमें सुयोग्य राजाकी प्रजाको कर ( टैक्स) की बाधा कभी छू भी नहीं पाती तथा हमेशा सुकाल रहनेसे वहाँ न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ हैं और न किसी प्रकारकी अनीतियाँ ही हैं।।८०॥ ऐसे इस गन्धिल देशके मध्य भागमें एक विजया नामका बड़ा भारी पर्वत है जो चाँदीमय है । तथा अपनी सफेद किरणोंसे कुलाचल पर्वतोंकी हँसी करता हुआ-सा मालूम होता है ।।८।। वह विजयाधे पर्वत धरातलसे पचीस योजन ऊँचा है और ऊँचे शिखरोंसे ऐसा मालूम होता है मानो स्वर्गलोकका स्पर्श करने के लिए ही उद्यत हो ॥८२॥ वह पर्वत मूलसे लेकर दश योजनकी ऊँचाई तक पचास योजन, बीच में तीस योजन और ऊपर दश योजन चौड़ा है ।।८३।। वह पर्वत ऊँचाईका एक चतुर्थांश भाग अर्थात् सवा छह योजन जमीनके
१. अस्य श्लोकस्य पूर्वार्दोत्तरार्द्धयोः क्रमव्यत्ययो जातः 'म०' पुस्तके । २. स्पर्धा कर्तुम । ३. दर्पाविष्टाः । ४. प्रोन्माद्यन्ति इत्येवंशीलाः । भूवृधूभ्राजसहचररुचापत्रपालकन्दनिरामुड्प्रजनोत्पथोत्पदोन्मादिष्णुरिति सूत्रेण उत्पन्मिदादेर्वातो ताच्छील्ये ष्णुच् प्रत्ययो भवति । ५. कुलाचलम् स०, ल०। ६. द्वो वारी द्विः, द्विस्तोङग्याद् विस्ततो मूलात्प्रभृत्यादशयोजनम् । मूलादारभ्य दशयोजनपर्यन्तं तुङ्गत्वात् पञ्चविंशतियोजनप्रमिताद् द्विवारं विस्तृतः पञ्चाशत्योजनप्रमितविस्तार इत्यर्थः ।