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चतुथ पर्व मन्दगन्धवहाधूताः शालिवप्राः फलानताः । कृतसंराविणो यत्र यत्र पुण्ड्रेक्षुवाटेषु यन्त्रचीत्कारहारिषु । पिबन्ति पथिका स्वैरं रसं यत्र कुक्कुटपात्या ग्राम्याः संसक्तसीमकाः । सीमानः सस्यसंपन्ना 'निः फलाचिफलोदयाः ॥६४॥ कलासमाप्तिषु प्रायः 'कलान्तरपरिग्रहः । गुणाधिरोपणौद्धत्यं यत्र चापेषु धन्विनाम् ॥६५॥ मुनीनां यत्र शैथिल्यं गात्रेषु न समाधिषु । निग्रहः करणग्रामे " भूतग्रामे न जातुचित् ॥६६॥ १३ 'कुलायेषु शकुन्तांनां यत्रोद्वासध्वनिः स्थितः । वर्णसंकरवृत्तान्तश्चित्रादन्यत्र न क्वचित् ॥६७॥ यत्र मङ्गस्तरङ्गेषु गजेषु मदविक्रिया । दण्डपारुष्यमब्जेषु सरस्सु " जल संग्रहः ||६८||
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छोत्कुर्वन्तीव पक्षिणः ॥ ६२ ॥ सुरसमैक्षवम् ॥६३॥
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की रक्षा करनेवाली गोपिकाएँ ऐसा मानती हैं मानो हरे-हरे मणियोंका बना हुआ तोरण ही उतर रहा हो ।। ६१ ।। मन्द मन्द हवा से हिलते हुए फूलोंके बोझसे झुके हुए वायुके आघात शब्द करते हुए वहाँ के धानके खेत ऐसे मालूम होते हैं मानो पक्षियों को ही उड़ा रहे हों || ६२ || उस देशमें पथिक लोग यन्त्रोंके चीं-चीं शब्दोंसे शोभायमान पौड़ों तथा ईखोंके खेतोंमें जाकर अपनी इच्छानुसार ईखका मीठा-मीठा रस पीते हैं ।। ६३ ।। उस देशके गाँव इतने समीप बसे हुए हैं कि मुर्गा एक गाँवसे दूसरे गाँव तक सुखपूर्वक उड़कर जा सकता है, उनकी सीमाएँ परस्पर मिली हुई हैं तथा सीमाएँ भी धानके ऐसे खेतोंसे शोभायमान हैं जो थोड़े ही परिश्रमसे फल जाते हैं ।।६४।। उस देशके लोग जब एक कलाको अच्छी तरह सीख चुकते हैं तभी दूसरी कलाओंका सीखना प्रारम्भ करते हैं अर्थात् वहाँके मनुष्य हर एक विषयका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करनेका उद्योग करते हैं तथा उस देशमें गुणाधिरोपणौद्धत्य-गुण न रहते हुए भी अपने-आपको गुणीं बतानेकी उद्दण्डता नहीं है ||६५|| उस देशमें यदि मुनियोंमें शिथिलता है तो शरीर में ही है अर्थात् लगातार उपवासादिके करनेसे उनका शरीर ही शिथिल हुआ है। समाधि-ध्यान आदिमें नहीं है । इसके सिवाय निग्रह ( दमन ) यदि है तो इन्द्रियसमूहमें ही है अर्थात् इन्द्रियोंकी विषयप्रवृत्ति रोकी जाती है प्राणिसमूहमें कभी निग्रह नहीं होता अर्थात् प्राणियोंका कोई घात नहीं करता ॥ ६६ ॥ उस देशमें उद्वासध्वनि ( कोलाहल ) पक्षियोंके घोंसलोंमें ही है अन्यत्र उद्वासध्वनि - ( परदेशगमन सूचक शब्द ) नहीं है । तथा वर्णसंकरता ( अनेक रंगोंका मेल) चित्रोंके सिवाय और कहीं नहीं है - वहाँके मनुष्य वर्णसंकरव्यभिचारजात नहीं हैं ॥ ६७ ॥ उस देशमें यदि भंग शब्दका प्रयोग होता है तो तरंगों में ही ( भंग नाम तरंग - लहरका है) होता है वहाँके मनुष्यों में कभी भंग (विनाश ) नहीं होता । मद-तरुण हाथियोंके गण्डस्थलसे झरनेवाला तरल पदार्थ का विकार हाथियोंमें होता है
१. क्षेत्राणि । २. समन्तात् कृतशब्दाः । ३. उड्डापयन्तीव । ४. सुस्वादुम् । ५. संपतितुं योग्या । ६. - लाङ्गिफलो - स० । ७. फलं निरीशमञ्चतीति फलाञ्ची स चासौ फलोदयश्च तस्मान्निष्क्रान्ता इति । अकृष्टपच्या इत्यर्थः । “अथो फलम् । निरीशं कुटकं फाल: कृषिको लाङ्गलं हलम्" इत्यमरः । फलमिति लांगलाग्र स्थायोविशेषः । ८. कलाविशेषः कालान्तरस्वीकारश्च "कला शिल्पे कालभेदेऽपि" इत्यभिधानात् । ९. गुणस्य मौर्व्या अधिरोपणे औद्धत्यं गर्वः पक्षे गुणाः शौर्यादयः । १०. भूतः जीवः । ११. पक्षिगृहेषु “ कुलायो नीडमस्त्रियाम्" इत्यभिधानात् । कलापेषु अ० । १२. हिंसनशब्दः । "उद्वासनप्रमथनक्रथनोज्जासनानि च " इत्यभिधानात् ; पक्षिध्वनिश्च, अथवा शून्यमिति शब्दश्च अग्रावासश्च । १३. वर्णसंकरवृत्तान्तः इति पाठे सुगमम्, अथवा वर्णसंस्कारवृत्तान्तः इत्यत्र वर्णश्च संस्कारश्च वृत्तं च इति वर्णसंस्कारवृत्तानि तेषामन्तो नाश:; पक्षे वर्णस्य संस्कारस्तस्य वृत्तान्तो वार्ता । १४. विकारः । १५. पक्षे जड़संग्रहः ।