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चतुर्थ पर्व प्रायेण राज्यमासाथ भवन्ति मदकर्कशाः । नृपेमाः स तु नामाद्यत् प्रत्युतासीत् प्रसन्मधीः ॥१६६॥ वयसा रूपसम्पत्त्या कुलजात्यादिमिः परे । मजन्ति मदमस्यैते गुणाः प्रशममादधुः ॥१६७॥ राज्यलक्ष्म्याः परं पर्वमुद्वहन्ति नृपात्मजाः । कामविद्येव निर्मोक्षोः साभूत्तस्योपशान्तये ॥१६८॥ अन्यायध्वनिरुत्सन्नः पाति तस्मिन् सुराजनि । प्रजानां भयसंक्षोमाः स्वप्नेऽप्यासन्न जातुचित्॥१६९॥ चक्षुश्वारो विचारश्च तस्यासीत् कार्यदर्शने । चक्षुषी पुनरस्यास्यमण्डने दृश्यदर्शने ॥१७॥ अथास्य यौवनारम्भे रूपमासीजगस्त्रियम् । पूर्णस्येव शशाङ्कस्य दधतः सकलाः कलाः ॥१७॥ अदृश्यो मदनोऽनङ्गो दृश्योऽसौ चारुविग्रहः। तदस्य मदनो दूरमौपम्यपदमप्यगात् ॥१७२॥ तस्याभादलिसङ्काश मृदुकुचितमूर्बुजम् । शिरोविन्यस्तमकुटं" मेरोः कूटमिवाभ्रितम् ॥१७३॥ ललाटमस्य विस्तीर्णमुन्नतं रुचिमादधे । लक्ष्म्या विश्रान्तये 'क्लप्तमिव हैमं शिलातलम् ॥१७॥ भ्ररेखे तस्य रेजाते कुटिले भृशमायते । मदनस्यामशालायां धनुषोरिव यष्टिके ॥१७५॥
चक्षुषी रेजतुस्तस्य भूचापोपान्तवर्तिनी । विषमेषोरिवाशेषजिगीषोरिषुयन्त्रके ॥१७६॥ से तीनोंका पालन करता था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो इसके कार्यकी चतुराईसे उक्त तीनों वर्ग परस्परमें मित्रताको ही प्राप्त हुए हों ॥१६५।। राजारूपो हस्ती राज्य पाकर प्रायः मदसे (गर्वसे पक्षमें मदजलसे) कठोर हो जाते हैं परन्तु वह महाबल मदसे कठोर नहीं हुआ था बल्कि स्वच्छ बुद्धिका धारक हुआ था ॥१६६।। अन्य राजा लोग जवानी, रूप, ऐश्वर्य, कुल, जाति आदि गुणोंसे मद-गर्व करने लगते हैं परन्तु महाबलके उक्त गुणोंने एक शान्ति भाव ही धारण किया था ॥१६७। प्रायः राजपुत्र राज्यलक्ष्मीके निमित्तसे परम अहंकारको प्राप्त हो जाते हैं परन्तु महाबल राज्यलक्ष्मीको पाकर भी शान्त रहता था जैसे कि मोक्षकी इच्छा करनेवाले मुनि कामविद्यासे सदा निर्विकार और शान्त रहते हैं ॥१६८। राजा महाबलके राज्य करनेपर 'अन्याय' शब्द ही नष्ट हो गया था तथा भय और क्षोभ प्रजाको कभी स्वप्नमें भी नहीं होते थे ।।१६९।। उस राजाके राज्यकार्यके देखनेमें गुप्तचर और विचारशक्ति ही नेत्रका काम देते थे । नेत्र तो केवल मुखकी शोभाके लिए अथवा पदार्थोके देखनेके लिए ही थे ॥१७०।। कुछ समय बाद यौवनका प्रारम्भ होनेपर समस्त कलाओंके धारक महाबलका रूप उतना ही लोकप्रिय हो गया था जितना कि सोलहों कलाओंको धारण करनेवाले चन्द्रमाका होता है॥१७१॥ राजा महाबल और कामदेव दोनों ही सुन्दर शरीरके धारक थे । अभीतक राजाको कामदेवकी उपमा ही दी जाती थी परन्तु कामदेव अदृश्य हो गया और राजा महाबल दृश्य ही रहे इससे ऐसा मालूम होता था मानो कामदेवने उसकी उपमाको दूरसे ही छोड़ दिया था ॥१७२।। उस राजाके मस्तकपर भ्रमरके समान काले, कोमल और धुंघराले बाल थे, ऊपरसे मुकुट लगा था जिससे वह मस्तक ऐसा मालूम होता था मानो काले मेघोंसे सहित मेरु पर्वतका शिखर ही हो ॥१७॥ इस राजाका ललाट अतिशय विस्तृत और ऊँचा था जिससे ऐसा शोभायमान होता था मानो लक्ष्मीके विश्रामके लिए एक सुवर्णमय शिला ही बनायी गयी हो ॥१७४|| उस राजाको अतिशय लम्बी और टेढ़ी भौंहोंकी रेखाएँ ऐसी मालूम होती थीं मानो कामदेवकी अखशालामें रखी हुई दो धनुषयष्टि ही हों ॥१७५|| भौंहरूपी चापके समीपमें रहनेवाली उसकी दोनों आँखें ऐसी शोभायमान होती थीं मानो समस्त जगत्
१. पुनः किमिति चेत् । २. कामशास्त्रम् । ३. निर्मोक्तुमिच्छोः । ४. नष्टः। ५. रक्षति सति । ६. गूढपुरुषः। ७. दृश्यं द्रष्टुं योग्यं घटपटादि । ८.-मभ्यगात् प०, म०, स०, २०, ल०। ९. सदृशम् । १०. मुकुटं अ०, ल०। ११. सजाताभ्रम् । १२. कृतम् । १३. बाणी।