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चतुर्थ पर्व
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यौवनं क्षणभङ्गीदं मोगा भुक्ता न तृप्तये । 'प्रत्युतात्यन्तमेवैतैस्तृष्णाचिरभिवर्द्धते ॥१४६॥ शरीरमिदमध्यन्त पूतिबीभत्स्वशाश्वतम् । विलास्यतेऽथ वा श्वो वा मृत्युवज्रविचूर्णितम् ॥ १४७॥ शरीरवेणुरस्वन्तफलो ́ दुर्ध्रन्थिसंततः" । 'प्लुष्टः कालाग्निना सद्यो मस्मसात् स्यात् स्फुरद्ध्वनिः ॥ १४८ ॥ बन्धवो बन्धनान्येते धनं दुःखानुबन्धनम् । विषया विषसंपृक्तविषमाशनसंनिभाः ॥ १४९ ॥ तदलं राज्यभोगेन लक्ष्मीरतिचलाचला' । संपदो जलकल्होलविलोलाः सर्वमभुवम् ॥ १५०॥ इति निश्चित्य धीरोऽसावभिषेकपुरस्सरम् । सूनवे राज्य सर्वस्वमदि तातिबलस्तदा ॥ १५१ ॥ . ततो गज इवापेतबन्धनो निःसृतो गृहात् । बहुभिः खेचरै सार्द्धं दीक्षां स समुपाददे ।। १५२ || जिगीषु बलवद्गुप्स्या" समित्या व सुसंवृतम् । महानागफणारत्वमिव चान्यैर्दुरासदम् ॥ १५३ ॥ नाभिकालोद्भवस्कल्पतरुजालमिवाम्बरैः । भूषणैश्च परित्यक्तमपेतं दोषवत्तया ॥ १५४ ॥ "उदर्क सुखहेतुत्वाद् गुरूणामिव सद्वचः । नियतावासशूम्यत्वात् पततामिव मण्डलम् ॥१५५॥
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दुःख प्राप्त होना ही इसके फल हैं। केवल विषयरूपी आसवका पान करनेके लिए ये प्राणीरूपी भरे निरन्तर इस ताकी सेवा किया करते हैं। यह यौवन क्षणभंगुर है और ये पञ्चेन्द्रियों के भोग यद्यपि अनेक बार भोगे गये हैं तथापि इनसे तृप्ति नहीं होती, तृप्ति होना तो दूर रही किन्तु तृष्णारूपी अग्निकी सातिशय वृद्धि होती है । यह शरीर भी अत्यन्त अपवित्र, घृणाका स्थान और नश्वर है । आज अथवा कल बहुत शीघ्र ही मृत्युरूपी वासे पिसकर नष्ट हो जायेगा । अथवा दुःखरूपी फलसे युक्त और परिग्रहरूपी गाँठोंसे भरा हुआ यह शरीररूपी बाँस मृत्युरूपी अग्निसे जलकर चट चट शब्द करता हुआ शीघ्र ही भस्मरूप हो जायेगा । ये बन्धुजन बन्धनके समान हैं, धन दुःखको बढ़ानेवाला है और विषय विष मिले हुए भोजनके समान विषम हैं। लक्ष्मी अत्यन्त चञ्चल है, सम्पदाएँ roat लहरोंके समान क्षणभंगुर हैं, अथवा कहाँतक कहा जाये यह सभी कुछ तो अस्थिर है इसलिए राज्य भोगना अच्छा नहीं - इसे हर एक प्रकारसे छोड़ ही देना चाहिए ।। १४४-१५०॥ इस प्रकार निश्चय कर धीर-वीर महाराज अतिबलने राज्याभिषेकपूर्वक अपना समस्त राज्य पुत्र महाबलके लिए सौंप दिया। और अपने बन्धन से छुटकारा पाये हुए हाथीके
समान घर से निकलकर अनेक विद्याधरोंके साथ वनमें जाकर दीक्षा ले लो ।।१५१-१५२॥ इसके पश्चात् महाराज अतिबल पवित्र जिन-लिङ्ग धारण कर चिरकाल तक कठिन तपश्चरण करने लगे । उनका वह तपश्चरण किसी विजिगीषु (शत्रुओंपर विजय पानेकी अभिलाषी ) सेनाके समान था क्योंकि वह सेना जिस प्रकार गुप्ति-वरछा आदि हथियारों तथा समितियोंसमूहों से सुसंवृत रहती है, उसी प्रकार उनका वह तपश्चरण भी मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और काय गुप्ति इन तीन गुप्तियोंसे तथा ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन इन पाँच समितियोंसे सुसंवृत - सुरक्षित था । अथवा उनका वह तपश्चरण किसी महासर्प के फणमें लगे हुए रत्नोंके समान अन्य साधारण मनुष्योंको दुर्लभ था । उनका वह तपश्चरण दोषोंसे रहित था तथा नाभिराजाके समय होनेवाले वस्त्राभूषणरहित कल्पवृक्षके समान
१. पुनः किमिति चेत् । २. दुर्गन्धि । ३. विलयमेष्यति । विनाश्यते अ०, स० । विनश्यते म०, ६० ४ प्राणान्तफलः दुःखान्तफलश्च । ५. संस्थितः प० म० । ६. दग्धः । ७. भस्माधीनं भवेत् । ८. अतिशयेन चम्बला | 'चल कम्पने' इति धातोः कर्तर्यच्प्रत्यये 'चलिचत्पतिवदोऽचोति द्विर्भावे अभ्यागिति पूर्वस्य अगागमः । ९. ददौ । १०. [योग विग्रहतया ] पक्षे रक्षया । ११. उत्तरकालः । १२. विहगानाम् ।