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आदिपुराणम्
'राजविद्याश्चतस्रोऽपि सोऽध्यैष्ट गुरुसंनिधौ । स तामिर्विवमौ मामिः स्वामित्यधिवांशुमान् ॥१६॥ सोऽधीयन् निखिला विद्यां गुरुसंस्कारयोगतः । दिदीपेऽधिकमर्चिमा निवानिलसमन्वितः ॥३०॥ प्रश्रयाचान गुणानस्य मत्वा योग्यत्वपोषकान् । यौवराज्यपदं तस्मै साइनमेने खगाधिपः ॥१३॥ संविभक्का तयोर्लक्ष्मीविरं रेजे धृतायतिः। हिमवत्यम्बुराशीच व्योमगङ्गव संगता ॥१३॥ स राजा तेन पुत्रेण पुत्री बहुसुतोऽप्यभूत् । नमोमागो यथार्केण ज्योतिष्मान्नापरैर्ग्रहैः॥१४॥ अथान्येचुरसौ राजा निवेदं विषयेष्वगात् । वितृष्णः कामभोगेषु प्रमज्याचे कृतोपमः ॥१४॥ विषपुष्पमिवात्यन्तविषमं प्राणहारकम् । महारष्टिविषस्थानमिव चात्यन्तमीषणम् ॥१४२॥ 'निर्भुक्तमाल्यवद् भूयो न मोग्यं मानशालिनाम् । दुष्कलत्रमिवापायि हेयं राज्यममंस्त सः ॥१४३॥ भूयोऽप्यचिन्तयद धीमानिमा संसारवल्लरीम। "उत्सेत्स्यामि महाध्यानकुठारेण''क्षमीमवन् ॥१४॥ मूल्यं मिथ्यात्वमेतस्याः पुष्पं "जात्यादिकं फलम्।"व्यसनान्यसुभृद्धृङ्गः सेन्येयं विषयासवे ॥१४५॥
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हुआ ही करती है ॥१३५।। उस पुत्रने गुरुओंके समीप आन्वीक्षिकी आदि चारों विद्याओंका अध्ययन किया था तथा वह पुत्र उन विद्याओंसे ऐसा शोभायमान होता था जैसा कि उदित होता हुआ सूर्य अपनी प्रभाओंसे शोभायमान होता है ।।१३६।। उसे पूर्वभवके प्रबल संस्कारके योगसे समस्त विद्याएँ स्मृत हो उठीं जिनसे वह वायुके समागमसे अग्निके समान और भी अधिक देदीप्यमान हो गया॥१३७। महाराज अतिबलने अपने पुत्रको योग्यता प्रकट करनेवाले विनय आदि गुण देखकर उसके लिए युवराज पद देना स्वीकार किया ॥१३८॥ उस समय पिता, पत्र दोनों में विभक्त हई राज्यलक्ष्मी पहलेसे कहीं अधिक विस्तृत हो हिमालय और समुद्र दोनोंमें पड़ती हुई आकाशगंगाकी तरह चिरकाल तक शोभायमान होती रही ॥१३९।। यद्यपि राजा अतिबलके और भी अनेक पुत्र थे तथापि वे उस एक महाबल पुत्रसे ही अपने-आपको पुत्रवान माना करते थे जिस प्रकार कि आकाशमें यद्यपि अनेक ग्रह होते हैं तथापि वह एक सूर्यग्रहके द्वारा ही प्रकाशमान होता है अन्य ग्रहोंसे नहीं ॥१४०।। इसके अनन्तर किसी दिन राजा अतिबल विषयभोगोंसे विरक्त हुए और कामभोगोंसे तृष्णारहित होकर दीक्षाग्रहण करनेके लिए उद्यम करने लगे ॥१४१॥ उस समय उन्होंने विचार किया कि यह राज्य विषपुष्पके समान अत्यन्त विषम और प्राणहरण करनेवाला है । दृष्टिविष सर्पके समान महा भयानक है, व्यभिचारिणी सीके समान नाश करनेवाला है तथा भोगी हुई पुष्पमालाके समान उच्छिष्ट है अतः सर्वथा हेय है-छोड़ने योग्य है, स्वाभिमानी पुरुषोंके सेवन करने योग्य नहीं है ॥१४२-१४३॥ वे बुद्धिमान महाराज अतिबल फिर भी विचार करने लगे कि मैं उत्तम क्षमा धारण कर अथवा ध्यान, अध्ययन आदिके द्वारा समर्थ होकर अपनी आत्मशक्तिको बढ़ाकर इस संसाररूपी बेलको अवश्य ही उखाऊँगा॥१४४। इस संसाररूपी बेलकी मिथ्यात्व हो जड़ है, जन्म-मरण आदि ही इसके पुष्प हैं और अनेक व्यसन अर्थात्
१. आन्वीक्षिकी यी वार्ता दण्डनीतिरिति चतस्रो राजविद्याः । बान्वीक्षिक्यात्मविज्ञानं धर्माधमौं त्रयीस्थिती । अर्थानों च वार्तायां दण्डनीत्यां नयानयो॥" २. सोऽवधार्याखिलां म०। सोऽधीयानिखिला विद्या द०,५०,म०,स०। ३. अधीयानः [ अघीयन् ] स्मरन् । ४. उपनयनादि । ५. अग्निः । ६. समिन्धितः स० । समागमात् म०,ल० । ७. पुत्रवान् । ८. दृष्टिविषाहिप्रदेशम् । ९. अनुभुक्तम् । १०. छेदं करिष्यामि । उच्छेत्स्यामि द०,ट.। ११. अक्षमः क्षमो भवन् क्षमीभवन् क्षमावान् । १२. जातिजरादिकम् । १३. दुःखानि । 'व्यसनं विपरिभ्रंशे' इत्यभिधानात । १४. विषयपुष्परसनिमित्तम् । 'हेतौ कर्मणः' इति सूत्रान्निमित्ते सप्तमी। अत्र सेव्येयम् [ सेव्या इयम् इति पदच्छेदः इत्येतदेव प्रधानं कर्म ।