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आदिपुराणम् 'अनायतो यदि व्योम्नि व्यवर्धिष्यत हेलया । तदा जगत्कुटीमध्ये सममास्यत् क्व सोऽचलः॥१०२॥ सोऽचलस्तुङ्गवृत्तित्वाद् विशुद्धत्वान्महोच्छ्यैः । कुलाचलैरिव स्पर्धा शिखरः कर्त्त मुद्यतः ॥१०३॥ तस्यास्त्युत्तरतः श्रेण्यामलकेति परा पुरी । सालकैः खचरीवक्त्रैः साकं हसति या विधुम् ॥१०॥ सा तस्यां नगरी भाति श्रेण्यां प्राप्तमहोदया। शिलायां पाण्डुकाख्यायां जैनीवाभिषवक्रिया ॥१०५॥ महत्यां शब्दविद्यायां प्रक्रियेवातिविस्तृता । भगवहिव्यभाषायां नानाभाषात्मतेव या ॥१०६॥ यो धत्ते सालमुत्तुङ्गगोपुरद्वारमुच्छ्रितम् । वेदिकावलयं प्रान्ते जम्बूद्वीपस्थली यथा ॥१०७॥ यत्खातिका भ्रमभृङ्गरुचिराञ्जनरञ्जितैः । पयोजनेत्ररामाति 'वीक्षमाणे खेचरान् ॥१०॥ शोभायै केवलं यस्याः साल: "सपरिखावृतिः । तत्पालखगभूपालभुजरक्षाकृताः प्रजाः ॥१०९|| यस्याः सौधावलीशृङ्गसंगिनी केतुमालिका । कैलासकूटनिपतलुसमालां विलखते ॥११॥ गृहेषु दीर्घिका 'यस्यां कलहंसविकूजितः । मानसं ब्याहसन्तीव प्रफुल्लाम्भोरुहश्रियः ॥११॥
का मर्दन करता हुआ ऐसा मालूम होता है मानो जगत्के भारीसे भारी भारको धारण करने में सामर्थ्य रखनेवाले अपने माहात्म्यको ही प्रकट कर रहा हो ॥१०१।। यदि यह पर्वत तिर्यक् प्रदेशों में लम्बा न होकर क्रीड़ामात्रसे आकाशमें ही बढ़ा जाता तो जगतरूपी कुटीमें कहाँ समाता ? ॥१०२।। वह पर्वत इतना ऊँचा और इतना निर्मल है कि अपने ऊँचे-ऊँचे शिखरोंद्वारा कुलाचलोंके साथ भी स्पर्धाके लिए तैयार रहता है ।।१०३।। ऐसे उस विजयाध पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें एक अलका नामकी श्रेष्ठ पुरी है जो केशवाली विद्याधरियोंके मुखके साथसाथ चन्द्रमाको भी हँसी उड़ाती है ॥१०४।। बड़े भारी अभ्युदयको प्राप्त वह नगरी उस उत्तरश्रेणीमें इस प्रकार सुशोभित होती है जिस प्रकार कि पाण्डुक शिलापर जिनेन्द्रदेवकी अभिषेकक्रिया सुशोभित होती है ।।१०५।। वह अलकापुरी किसी बड़े व्याकरणपर बनी हुई प्रक्रियाके समान अतिशय विस्तृत है तथा भगवत् जिनेन्द्रदेवकी दिव्य ध्वनिमें जिस प्रकार नाना भाषात्मता है अर्थात् नाना भाषारूप परिणमन करनेका अतिशय विद्यमान है उसी प्रकार उस नगरीमें भी नाना भाषात्मता है अर्थात नाना भाषाएँ उस नगरीमें बोली जाती हैं ॥१०६॥ वह नगरी ऊँचे-ऊँचे गोपुर-दरवाजोंसे सहित अत्यन्त उन्नत प्राकार (कोट ) को धारण किये हुए है जिससे ऐसी जान पड़ती है मानो वेदिकाके वलयको धारण किये हुए जम्बूद्वीपकी स्थली ही हो ॥१०७।। उस नगरीकी परिखामें अनेक कमल फूले हुए हैं और उन कमलोंपर चारों ओर भौरे फिर रहे हैं जिससे ऐसा मालूम होता है मानो वह परिखा इधर-उधर घूमते हुए भ्रमररूपी सुन्दर अंजनसे सुशोभित कमलरूपी नेत्रोंके द्वारा वहाँके विद्याधरोंको देख रही हो ॥१०८।। उस नगरीके चारों ओर परिखासे घिरा हुआ जो कोट है वह केवल उसकी शोभाके लिए ही है क्योंकि उस नगरीका पालन करनेवाला विद्याधर नरेश अपनी भुजाओंसे ही प्रजाकी रक्षा करता है ॥१०९।। उस नगरीके बड़े-बड़े पक्के मकानोंके शिखरोंपर फहराती हुई पताकाएँ, कैलासके शिखरपर उतरती हुई हंसमालाको तिरस्कृत करती हैं ॥११०॥ उस नगरीके प्रत्येक घरमें फूले हुए कमलोंसे शोभायमान अनेक वापिकाएँ हैं। उनमें कलहंस (बत्तख) पक्षी मनोहर शब्द करते हैं जिनसे वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो मानसरोवरकी हँसी ही कर रही हों ॥१११।।
१. अदीर्घः । २. यदा अ०, स०, द० । ३. माङ माने लुङ् । ४. विशुद्धित्वात् म०, ५०, द०, ल० । ५. ततोऽस्त्यु-अ०, स०। ६. उत्तरस्याम् । ७. खेचरी म०, द०। ८. व्याकरणशास्त्र । ९. वीक्ष्यमाणेव म०, प०, द०, ल०। १०. सपरिखावृतः स० । ११. यस्याः अ०, स०, द०, १०, म०। १२. मानसनाम सरोवरम्।