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आदिपुराणम्
'स्वर्गावाससमाः पुर्यो 'निगमाः कुरुसंनिभाः । विमानस्पर्द्विनो गेहाः प्रजा यत्र सुरोपमाः ।। ६९ ।। दिग्नागस्पर्द्धिनो नागानार्यो दिक्कन्यकोपमाः । दिक्पाला इव भूपाला यत्राविष्कृतदिग्जयाः ॥७०॥ "जनतापच्छिदो यत्र वाप्यः स्वच्छाम्बु संभृताः । भान्ति तीरतरुच्छायानिरुद्धोच्ण्याहुः ||१||
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यत्र कूपतटाकाथाः कामं सन्तु जलाशयाः । तथापि जनतातापं हरन्ति रसवन्तया || ७२ || 'विपक्का ग्राहवत्यश्च स्वच्छाः कुटिलवृत्तयः । अलङ्घयाः सर्वभोग्याश्च विचित्रा यत्र निम्नगाः ॥७३॥
वहाँ के मनुष्यों में मद अहंकारका विकार नहीं होता है । दण्ड ( कमलपुष्पके भीतरका वह भाग जिसमें कि कमलगट्टा लगता है ) की कठोरता कमलोंमें ही है वहाँके मनुष्यों में दण्डपारुष्य नहीं है - उन्हें कड़ी सजा नहीं जाती । तथा जलका संग्रह तालाबों में ही होता है, वहाँ के मनुष्यों में जल-संग्रह ( ड और लमें अभेद होनेके कारण जड़-संग्रह - मूर्ख मनुष्यों का संग्रह ) नहीं होता ।। ६८ ।। उस देशके नगर स्वर्गके समान हैं, गाँव देवकुरु- उत्तरकुरु भोगभूमिके समान हैं, घर स्वर्गके विमानोंके साथ स्पर्धा करनेवाले हैं और मनुष्य देवोंके समान हैं ||६९|| उस देशके हाथी ऐरावत आदि दिग्गजोंके साथ स्पर्धा करनेवाले हैं, स्त्रियाँ दिक्कुमारियोंके समान हैं और दिग्विजय करनेवाले राजा दिक्पालोंके समान हैं ||७०|| उस देशमें मनुष्योंका सन्ताप दूर करनेवाली तथा स्वच्छ जलसे भरी हुई अनेक बावड़ियाँ शोभायमान हो रही हैं। किनारेपर लगे हुए वृक्षोंकी छायासे उन बावड़ियों में गरमीका प्रवेश बिलकुल ही नहीं हो पाता है तथा वे प्याऊओंके समान जान पड़ती हैं ॥ ७१ ॥ उस देशके कुएँ, तालाब आदि भले ही जलाशय ( मूर्खपक्ष में जड़तासे युक्त ) हों तथापि वे अपनी रसवत्तासे - मधुर जलसे लोगोंका सन्ताप दूर करते हैं || ७२ ॥ | उस देशकी नदियाँ ठीक वेश्याओंके समान शोभायमान होती हैं। क्योंकि वेश्याएँ जैसे विपङ्का अर्थात् विशिष्ट पक-पापसे सहित होती हैं। उसी प्रकार नदियाँ भी विपङ्का अर्थात् कीचड़रहित हैं । वेश्याएँ जैसे ग्राहवती - धनसञ्चय करनेवाली होती हैं उसी तरह नदियाँ भी ग्राहवती - मगरमच्छों से भरी हुई हैं । वेश्याएँ जैसे ऊपरसे स्वच्छ होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी स्वच्छ-साफ हैं । वेश्याएँ जैसे कुटिलवृत्ति - मायाचारिणी होती हैं उसी तरह नदियाँ भी कुटिलवृत्ति - टेढ़ी बहनेवाली हैं । वेश्याएँ जैसे अलंघ्य होती हैं - विषयी मनुष्यों द्वारा वशीभूत नहीं होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी अलंघ्य हैं - गहरी होने के कारण तैरकर पार करने योग्य नहीं हैं । वेश्याएँ जैसे सर्वभोग्याऊँच-नीच सभी मनुष्योंके द्वारा भोग्य होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी सर्वभोग्य - पशु, पक्षी, मनुष्य आदि सभी जीवोंके द्वारा भोग्य हैं। वेश्याएँ जैसे विचित्रा - अनेक वर्णकी होती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी विचित्रा - अनेकवर्ण-अनेक रंगकी अथवा विविध प्रकारके आश्चर्योंसे युक्त हैं और वेश्याएँ जैसे निम्नगा-नीच पुरुषोंकी ओर जाती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी निम्नगा - ढालू जमीनकी ओर जाती हैं || ७३ ॥ उस देशमें तालाबोंके किनारे कण्ठमें मृणालका
१. स्वर्गभूमि: । २. वणिक्पथाः । "वेदनगरवणिक्पथेषु निगमः" इत्यभिवानात् । ३. कुरुः उत्तमभोगभूमिः । ४. नागा कन्या दिक्- म० । ५. अयं श्लोको 'म' पुस्तके नास्ति । ६. पानीयशालिकासदृशाः । सुपः प्राग्बहुर्वेति पदपरिसमाप्त्यर्थो सुपः प्राक् बहुप्रत्ययो भवति । ७. - तडागाद्याः अ० । ८. धाराः जडबुद्धय इति ध्वनिः । ९. चित्रार्थपक्षे ग्राहशब्दः स्वीकारार्थः । तथाहि पङ्कयुक्तानामियं स्वनिक्षिप्तस्य ग्राहः स्वीकारो घटते एता नद्यस्तु विपङ्का अपि ग्राहवत्य इति चित्रम्, उत्तरत्र चित्रार्थः सुगमः, अथवा विपङ्का निष्पापा: ग्राहवत्यः स्वीकारवत्य इति विरोधः । विचित्राः नानास्वभावाः ।