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आदिपुराणम्
इत्यसाधनमेवैतदीश्वरास्तित्वसाधने । विशिष्टसन्निवेशा देरन्यथाप्युपपतितः ॥३३॥ चेतनाधिष्ठितं हीदं' 'कर्मनिर्मातृचेष्टितम् । नन्वक्षसुखदुःखादि वैश्वरूप्याय कल्प्यते ॥३४॥ * निर्माणकर्मनिर्मातृकौशलापादितोदयम् । श्रङ्गोपाङ्गादिवैचित्र्यमङ्गिनां "संगिरावहे ॥३५॥ तदेतत्कर्मवैचित्र्याद् भवन्नानात्मकं जगत् । विश्वकर्माणमात्मानं साधयेत् कर्मसारथिम् ॥३६॥ विधिः स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः ||३७|| स्रष्टारमन्तरेणापि ब्योमादीनां च संगरात् । सृष्टिवादी स निर्माः शिष्टैर्दुर्मतदुर्मदी ||३४|| ततोऽसावकृतोऽनादिनिधनः कालतस्ववत् । लोको जीवादितत्त्वानामाधारात्मा प्रकाशते ॥ ३९ ॥ असृज्योऽयमसंहार्यः स्वभावनियतस्थितिः । अधस्तिर्यगुपर्याख्यैस्त्रिमिमेदैः समन्वितः ॥ ४० ॥ वेत्रविष्टरझल्लयों मृदङ्गश्च यथाविधाः । संस्थानैस्तादृशान् प्राहुस्त्रींल्लोकाननुपूर्वशः ॥४१॥
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सकती है क्योंकि उनकी रचना एक विशेष प्रकारकी है। जिस प्रकार किसी ग्राम आदिको रचना विशेष प्रकारकी होती है अतः वह किसी बुद्धिमान् कारीगरका बनाया हुआ होता है उसी प्रकार जीवोंके शरीरादिककी रचना भी विशेष प्रकारकी है अतः वे भी किसी बुद्धिमान् कर्ताके बनाये हुए हैं और वह बुद्धिमान् कर्ता ईश्वर ही है' ||३२|| परन्तु आपका यह हेतु ईश्वरका अस्तित्व सिद्ध करने में समर्थ नहीं क्योंकि विशेष रचना आदिकी उत्पत्ति अन्य प्रकारसे भी हो सकती है ||३३|| इस संसार में शरीर, इन्द्रियाँ, सुख-दुःख आदि जितने भी अनेक प्रकारके पदार्थ देखे जाते हैं उन सबकी उत्पत्ति चेतन - आत्माके साथ सम्बन्ध रखनेवाले कर्मरूपी विधाताके द्वारा ही होती है ||३४|| इसलिए हम प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि संसारी जीवोंके अंग- उपांग आदिमें जो विचित्रता पायी जाती है वह सब निर्माण नामक नामकर्मरूपी विधाताकी कुशलतासे ही उत्पन्न होती है ||३५|| इन कर्मोंकी विचित्रतासे अनेकरूपताको प्राप्त हुआ यह लोक ही इस बातकों सिद्ध कर देता है कि शरीर, इन्द्रिय आदि अनेक रूपधारी संसारका कर्ता संसारी जीवोंकी आत्माएँ ही हैं और कर्म उनके सहायक हैं। अर्थात् ये संसारी जीव ही अपने कर्मके उदयसे प्रेरित होकर शरीर आदि संसारकी सृष्टि करते हैं ||३६|| विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्मरूपी ईश्वरके पर्याय वाचक शब्द हैं इनके सिवाय और कोई लोकका बनानेवाला नहीं है ||३७|| जब कि ईश्वरवादी पुरुष आकाश काल आदिको सृष्टि ईश्वरके बिना ही मानते हैं तब उनका यह कहना कहाँ रहा कि संसारकी सब वस्तुएँ ईश्वरके द्वारा ही बनायी गयी हैं ? इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग होनेके कारण शिष्ट पुरुषोंको चाहिए कि वे ऐसे सृष्टिवादीका निग्रह करें जो कि व्यर्थ ही मिथ्यात्वके उदयसे अपने दूषित मतका अहंकार करता है ||३८|| इसलिए मानना चाहिए कि यह लोक काल द्रव्यकी भाँति ही अकृत्रिम है अनादि निधन है-आदि-अन्तसे रहित है और जीव, अजीव आदि तत्वोंका आधार होकर हमेशा प्रकाशमान रहता है ||३९||
इसे कोई बना सकता है न इसका संहार कर सकता है, यह हमेशा अपनी स्वाभाविक स्थिति में विद्यमान रहता है तथा अधोलोक तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक इन तीन भेदोंसे सहित है ।। ४० ।। वेत्रासन, झल्लरी और मृदंगका जैसा आकार होता है अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकका भी ठीक वैसा ही आकार होता है । अर्थात् अधोलोक वैत्रासनके
१. तं देहं कर्म - म० । २. नामकर्म । ३. सकलरूपत्वाय । वैश्वरूपाय अ०, स०, ल०, ८० । ४. निर्माणनामकर्म । ५. प्रतिज्ञां कुर्महे । ६. सहायम् । ७. अङ्गीकारात् ।