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आदिपुराणम् तेषां स्वभावसिद्धस्खे कोकेऽप्येतत् प्रसज्यते । चिनिर्मातृवद् विश्व स्वतःसिद्धिमवाप्नुरात् ॥२०॥ सृजेद विनापि सामनया स्वतन्त्रः प्रभुरिछया। इतीच्छामात्रमेवैतत् कः श्राध्यादयक्तिकम् ॥२१॥ कृतार्थस्य विनिर्मित्सा कथमेवास्य युज्यते । अकृतार्थोऽपि न स्रष्टुं विश्वमीप्टे कुलालवत् ॥२२॥ ममतों निष्क्रियो ब्यापी कथमेष जगत् सृजेत् । न सिसृक्षापि तस्यास्ति विक्रियारहितात्मनः ॥२३॥ तथाप्यस्य जगत्सगें फलं किमपि मृग्यताम् । निष्ठितार्थस्य धर्मादिपुरुषार्थेष्वनर्थिनः ॥२४॥ स्वभावतो विनैवार्थात् सृजतोऽनर्थसंगतिः । क्रीडेवं कापि चेदस्य दुरन्ता मोहसन्ततिः ॥२५॥
यदि यह कहो कि वह कारण-सामग्री स्वभावसे ही-अपने-आप ही बन जाती है, उसे ईश्वरने नहीं बनाया है तो यह बात लोकमें भी लागू हो सकती है-मानना चाहिए कि लोक भी स्वतः सिद्ध है उसे किसीने नहीं बनाया। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी विचारणीय है कि उस ईश्वरको किसने बनाया ? यदि उसे किसीने बनाया है तब तो ऊपर लिखे अनुसार अनवस्था दोष आता है और यदि वह स्वतः सिद्ध है-उसे किसीने भी नहीं बनाया है तो यह लोक भी स्वतः सिद्ध हो सकता है-अपने आप बन सकता है ॥२०॥ यदि यह कहो कि वह ईश्वर स्वतन्त्र है तथा सृष्टि बनानेमें समर्थ है इसलिए सामग्रोके बिना ही इच्छा मात्रसे लोकको बना लेता है तो आपकी यह इच्छा मात्र है। इस युक्तिशून्य कथनपर भला कौन बुद्धिमान् मनुष्य विश्वास करेगा ? ॥२१।। एक बात यह भी विचार करने योग्य है कि यदि वह ईश्वर कृतकृत्य है-सब कार्य पूर्ण कर कर चुका है-उसे अब कोई कार्य करना बाकी नहीं रह गया है तो उसे सृष्टि उत्पन्न करनेको इच्छा ही कैसे होगी ? क्योंकि कृतकृत्य पुरुषको किसी प्रकारकी इच्छा नहीं होती। यदि यह कहो कि वह अकृतकृत्य है तो फिर वह लोकको बनानेके लिए समर्थ नहीं हो सकता। जिस प्रकार. अकृतकृत्य कुम्हार लोकको नहीं बना सकता ।।२२॥
एक बात यह भी है कि आपका माना हुआ ईश्वर अमूर्तिक है, निष्क्रिय है, व्यापी है और विकाररहित है सो ऐसा ईश्वर कभी भी लोकको नहीं बना सकता क्योंकि यह ऊपर लिख आये हैं कि अमूर्तिक ईश्वरसे मूर्तिक पदार्थों की रचना नहीं हो सकती। किसी कार्यको करनेके लिए हस्त-पादादिके संचालन रूप कोई-न-कोई क्रिया अवश्य करनी पड़ती है परन्तु आपने तो ईश्वरको निष्क्रिय माना है इसलिए वह लोकको नहीं बना सकता। यदि सक्रिय मानो तो वह असंभव है क्योंकि क्रिया उसीके हो सकती है जिसके कि अधिष्ठानसे कुछ क्षेत्र बाकी बचा हो परन्तु आपका ईश्वर तो सर्वत्र व्यापी है वह क्रिया किस प्रकार कर सकेगा ? इसके सिवाय ईश्वरको सृष्टि रचनेकी इच्छा भी नहीं हो सकती क्योंकि आपने ईश्वरको निर्विकार माना है। जिसकी आत्मामें राग-द्वेष आदि विकार नहीं है उसके इच्छाका उत्पन्न होना असम्भव है ।।२३।। जब कि ईश्वर कृतकृत्य है तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्षमें किसीकी चाह नहीं रखता तब सृष्टि के बनाने में इसे क्या फल मिलेगा ? इस बातका भी तो विचार करना चाहिए, क्योंकि बिना प्रयोजन केवल स्वभावसे ही सृष्टिकी रचना करता है तो उसकी वह रचना निरर्थक सिद्ध होती है । यदि यह कहो कि उसकी यह क्रीड़ा ही है, क्रीडा मात्रसे ही जगत्को बनाता है तब तो दुःखके साथ कहना पड़ेगा कि आपका ईश्वर बड़ा मोही है, बड़ा अज्ञानी है जो कि बालकोंके समान निष्प्रयोजन कार्य करता है ।।२४-२५।।
१. ईश्वरवत् जगत् । २. विनिर्मातुमिच्छा ।