________________
चतुर्थ पर्व लोक्यन्तेऽस्मिनिरीक्ष्यन्ते जीवाथर्थाः सपर्ययाः । इति लोकस्य लोकत्वं निराहुस्तस्वदर्शिनः ॥१३॥ क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन् जीवादिदम्पविस्तराः । इति क्षेत्रं निराहुस्तं लोकमन्वर्थसंज्ञया ॥१४॥ लोको प्रकृत्रिमो ज्ञेयो जीवाचावगाहकः । नित्यः स्वभावनिर्वृत्तः सोऽनन्ताकाशमध्यगः ॥१५॥ स्वष्टास्य जगतः कश्चिदस्तीत्येके जगुर्जडाः । तदुर्णयनिरासार्थ सृष्टिवादः परीक्ष्यते ॥१६॥ स्रष्टा सर्गबहिर्भूतः क्वस्थः सृजति तजगत् । निराधारश्च कूटस्थः सृष्ट्वैनत् क्व निवेशयेत् ॥१७॥ नैको विश्वात्मकस्यास्य जगतो घटने पटुः । वितनोश्च न तन्वादिमूर्तमुत्पत्तुमर्हति ॥१८॥ कथं च स मुजेल्लोकं विनान्यैः करणादिमिः । तानि सृष्ट्वा मजेल्लोकमिति चेदनवस्थितिः ॥१९॥
नुसार सबसे पहले लोकाख्यानका वर्णन किया जाता है । अन्य सात आख्यानोंका वर्णन भी समयानुसार किया जायेगा ।।१२।। जिसमें जीवादि पदार्थ अपनी-अपनी पर्यायोंसहित देखे जायें उसे लोक कहते हैं। तत्त्वोंके जानकार आचार्योंने लोकका यही स्वरूप बतलाया है [लोक्यन्ते जीवादिपदार्था यस्मिन् स लोकः ] ॥१३॥ जहाँ जीवादि द्रव्योंका विस्तार निवास करता हो उसे क्षेत्र कहते हैं। सार्थक नाम होनेके कारण विद्वान् पुरुष लोकको ही क्षेत्र कहते हैं ॥१४॥ जीवादि पदार्थों को अवगाह देनेवाला यह लोक अकृत्रिम है-किसीका बनाया हुआ नहीं है, नित्य है इसका कभी सर्वथा प्रलय नहीं होता, अपने-आप ही बना हुआ है और अनन्त आकाशके ठीक मध्य भागमें स्थित है ।।१५।। कितने ही मूर्ख लोग कहते हैं कि इस
बनानेवाला कोई-न-कोई अवश्य है। ऐसे लोगोंका देराग्रह दर करनेके लिए यहाँ सर्व-प्रथम सृष्टिवादकी ही परीक्षा की जाती है ।।१६।। यदि यह मान लिया जाये कि इस लोकका कोई बनानेवाला है तो यह विचार करना चाहिए कि वह सृष्टिके पहले-लोककी रचना करनेके पूर्व सृष्टि के बाहर कहाँ रहता था ? किस जगह बैठकर लोककी रचना करता था ? यदि यह कहो कि वह आधाररहित और नित्य है तो उसने इस सृष्टिको कैसे बनाया और बनाकर कहाँ रखा ? ॥१७॥ दूसरी बात यह है कि आपने उस ईश्वरको एक तथा शरीररहित माना है इससे भी वह सृष्टिका रचयिता नहीं हो सकता क्योंकि एक ही ईश्वर अनेक रूप संसारकी रचना करने में समर्थ कैसे हो सकता है ? तथा शरीररहित अमूर्तिक ईश्वरसे मूर्तिक वस्तुओंकी रचना कैसे हो सकती है ? क्योंकि लोकमें यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि मूर्तिक वस्तुओंकी रचना मूर्तिक पुरुषों-द्वारा ही होती है जैसे कि मूर्तिक कुम्हारसे मूर्तिक घटकी ही रचना होती है ॥१८॥ एक बात यह भी है-जब कि संसारके समस्त पदार्थ कारण-सामग्रीके बिना नहीं बनाये जा सकते तब ईश्वर उसके बिना ही लोकको कैसे बना सकेगा ? यदि यह कहो कि वह पहले कारण-सामग्रीको बना लेता है बादमें लोकको बनाता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इसमें अनवस्था दोष आता है। कारण-सामग्रीको बनानेके लिए भी कारण-सामग्रीकी आवश्यकता होती है, यदि ईश्वर उस कारण-सामग्रीको भी पहले बनाता है तो उसे द्वितीय कारण-सामग्रीके योग्य तृतीय कारण-सामग्रीको उसके पहले भी बनाना पड़ेगा। और इस तरह उस परिपाटीका कभी अन्त नहीं होगा ॥१९।।
१.-स्मिन् समीक्ष्य-स०, द०, ५०, म०, ल० । २. निरुक्तिं कुर्वन्ति । ३. शाश्वतः ईश्वरानिर्मितश्च । . ४. नैयायिकवैशेषिकादयः । ५. सृष्टि । ६. अपरिणामी । 'एकरूपतया तु यः । कालव्यापी कूटस्थः' इत्यभि. धानात् । ७. 'त्यदां द्वितीयाटौस्येनदेनः' इति अन्वादेशे एतच्छब्दस्य एनदादेशो भवति । ८. विमूर्तेः सकाशात् । ९. तनुकरणभवनादिमूर्तद्वयम् ।
।