________________
चतुर्थ पर्व
यस्त्रिपर्वीमिमी पुण्यामधीते मतिमान् पुमान् । सोऽधिगम्य पुराणार्थमिहामुत्र च नन्दति ॥१॥ अथावस्य पुराणस्य महतः पोठिकामिमाम् । प्रतिष्ठाप्य ततो वक्ष्ये चरितं वृषभेशिनः ॥२॥ लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थ दानतपोऽन्वयम् । पुराणेष्वष्टवाल्येयं गतयः फलमिस्थापि ॥३॥ 'लोकोद्देशनिरुक्त्यादिवर्णनं यत् सविस्तरम् । लोकाख्यानं तदाम्नातं "विशोधितदिगन्तरम् ॥४॥ तदेकदेशदेशाद्रिद्वीपाभ्यादिप्रपञ्चनम् । देशाल्यानं तु तज्ज्ञेयं तज्जैः संज्ञानलोचनैः ॥५॥ मरतादिषु वर्षेषु राजधानीप्ररूपणम् । पुराख्यानमितीष्टं तत् पुरातनविदा मते ॥६॥ "भमुष्मिबधिदेशोऽयं नगरं चेति तत्पतेः । आल्यानं यत्तदाख्यातं राज्याल्यानं जिनागमे ॥७॥ संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते । 'चेष्टितं जिननाथानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा ॥८॥ याशं स्वासपोदानमनीशगुणोदयम् । कथनं ताशस्यास्य तपोदानकयोच्यते ॥९॥ नरकादिप्रभेदेन चतस्रो गतयो मताः। तासां संकीर्तनं यदि गस्याख्यानं तदिष्यते ॥१०॥ पुण्यपापफलावाप्तिर्जन्तूनां यारशी मवेत् । तदाख्यानं फलाख्यानं तच निःश्रेयसावधि ॥११॥ लोकाल्यामं यथोदेशमिह तावत् प्रतन्यते । यथावसरमन्येषां प्रपश्चो वर्णयिष्यते ॥१२॥
जो बुद्धिमान मनुष्य ऊपर कहे हुए पवित्र तीनों पाका अध्ययन करता है वह सम्पूर्ण पुराणका अर्थ समझकर इस लोक तथा परलोकमें आनन्दको प्राप्त होता है ॥१॥ इस प्रकार महापुराणकी पीठिका कहकर अब श्री वृषभदेव स्वामीका चरित कहूँगा ॥२॥ पुराणों में लोक, देश, नगर, राज्य, तीर्थ, दान, तप, गति और फल इन आठ बातोंका वर्णन अवश्य ही करना चाहिए ॥३॥ लोकका नाम कहना, उसकी व्युत्पत्ति बतलाना, प्रत्येक दिशा तथा उसके अन्तरालोंकी लम्बाई, चौड़ाई आदि बतलाना इनके सिवाय और भी अनेक बातोंका विस्तारके साथ वर्णन करना लोकाख्यान कहलाता है ॥४॥ लोकके किसी एक भागमें देश, पहाड़, द्वीप तथा समुद्र आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेको जानकार सम्यग्ज्ञानी पुरुष देशाख्यान कहते हैं ।।५।। भारतवर्ष आदि क्षेत्रोंमें राजधानीका वर्णन करना, पुराण जाननेवाले आचार्योंके मतमें पुराख्यान अर्थात् नगरवर्णन कहलाता है ।।६।। उस देशका यह भाग अमुक राजाके आधीन है अथवा वह नगर अमुक राजाका है इत्यादि वर्णन करना जैन शास्त्रोंमें राजाख्यान कहा गया है ।।७। जो इस अपार संसार समुद्रसे पार करे उसे तीर्थ कहते हैं ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवान्का चरित्र ही हो सकता है अतः उसके कथन करनेको तीर्थाख्यान कहते हैं ॥८॥ जिस प्रकारका तप और दान करनेसे जीवोंको अनुपम फलकी प्राप्ति होती हो उस प्रकारके तप तथा दानका कथन करना तपदानकथा कहलाती है ।। नरक आदिके भेदसे गतियोंके चार भेद माने गये हैं उनके कथन करनेको गत्याख्यान कहते हैं ॥१०॥ संसारी जीवोंको जैसा कुछ पुण्य और पापका फल प्राप्त होता है उसका मोक्षप्राप्ति पर्यन्त वर्णन करना फलाख्यान कहलाता है ॥११।। ऊपर कहे हुए आठ आख्यानोंमें-से यहाँ नामा
१. इमां पूर्वोक्ताम् । २. दानतपोद्वयम् म०, स०, द०, ५०, ल•। ३. सम्बन्धः । ४. नामोच्चारणमुद्देशः । ५. निष्काशितोपदेशान्तरम् । ६. विस्तारः । ७. 'स्वे स्वधना' इति सूत्रेण सप्तमीदेशः । ८. -रं वेति अ०, स०, म०, द०,५०, ल० । जलोत्तारम् । ९. चरितम् । १०. अनिर्वचनीयम ।