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आदिपुराणम् गुणानाश्रित्य सामग्री प्राप्य ग्यादिलक्षणाम् । संरूढान्यवरावस्थाप्रभृत्याकणिशातितः ॥१८॥ शनैश्शनैर्विवृद्धानि क्षेत्रेवविरलं तदा । सस्यान्यकृष्टपच्यानि नानाभेदानि सर्वतः ॥१८२॥ प्रजानां पूर्वसुकृतात् कालादपि च ताशात् । सुपकानि यथाकालं फलदायीनि रेजिरे १८३॥ तदा पितृग्यतिक्रान्तावपत्यानीव तत्पदम् । कल्पवृक्षोचितं स्थानं तान्यध्यासिषत स्फुटम् ॥१८४॥ नातिवृष्टिरवृष्टिर्वा तदासीत् किंतु मध्यमा । वृष्टिस्त सर्वधान्यानां फलावाप्तिरविप्लुता ॥१८५॥ पाष्टिकाः कलमत्रीहियवगोधूमकावः । श्यामाककों द्रवो दार नोवारवरको स्तथा ।ट॥
तिलातस्यौ मसूराश्च सर्षपो धान्यजीरको ।
"मुद्गमाषा को"राज"माष 'निष्पाक्काचणाः ॥१८॥ "कुलित्थत्रिपुटौ चेति धान्यभेदास्त्विमे मताः । सकुसुम्माः सकांसाः प्रजाजीवनहेतवः ॥१८॥ उपभोग्येषु धान्येषु सरस्वप्येषु तदा प्रजाः । तदुपायमजानानाः स्वतोऽमूर्मुमुहुर्मुहुः ॥१८९n कल्पद्रमेषु कात्स्येन प्रलीनेषु निराश्रयाः । युगस्य परिवर्तेऽस्मिन्मभूवनाकुलाः कुलाः ॥१९॥
तीबाया मशनायाया मुदीर्णाहारसंज्ञकाः । जीवनोपायसंशीति व्याकुलीकृतचेतसः ॥१९॥ पृथ्वीका आधार, आकाशका अवगाहन, वायुका अन्तर्नीहार अर्थात् शीतल परमाणुओंका संचय करना और धूपकी उष्णता इन सब गुणोंके आश्रयसे उत्पन्न हुई द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूपी सामग्रीको पाकर खेतोंमें अनेक अंकुर पैदा हुए, वे अंकुर पास-पास जमे हुए थे तथापि अंकुर अवस्थासे लेकर फल लगने तक निरन्तर धीरे-धीरे बढ़ते जाते थे। इसी प्रकार और भी अनेक प्रकारके धान्य बिना बोये ही सब ओर पैदा हुए थे। वे सब धान्य प्रजाके पूर्वोपार्जित पुण्य कर्मके उदयसे अथवा उस समयके प्रभावसे ही समय पाकर पक गये तथा फल देनेके योग्य हो गये ॥१८०-१८३।। जिस प्रकार पिताके मरनेपर पुत्र उनके स्थानपर आरूढ़ होता है उसी प्रकार कल्पवृक्षोंका अभाव होनेपर वे धान्य उनके स्थानपर आरूढ हए थे ॥१८४।। उस समय न तो अधिक वृष्टि होती थी और न कम, किन्तु मध्यम दरजेकी होती थी इसलिए सब धान्य बिना किसी विघ्न-बाधाके फलसहित हो गये थे ॥१८५।। साठी, चावल, कलम, ब्रीहि, जौ, गेहूँ, कांगनी, सामा, कोदो, नीवार (तिन्नी), बटाने, तिल, अलसी, मसूर, सरसों, धनियाँ, जीरा, मूंग, उड़द, अरहर, रोंसा, मोठ, चना, कुलथी और तेवरा आदि अनेक प्रकारके धान्य तथा कुसुम्भ (जिसकी कुसुमानी-लाल रंग बनता है) और कपास आदि प्रजाकी आजीविकाके हेतु उत्पन्न हुए थे ॥१८६-१८८। इस प्रकार भोगोपभोगके योग्य इन धान्योंके मौजूद रहते हुए भी उनके उपयोगको नहीं जाननेवाली प्रजा बार बार मोहको प्राप्त होती थी-वह उन्हें देखकर बार-बार भ्रममें पड़ जाती थी ॥१८९।। इस युगपरिवर्तनके समय कल्पवृक्ष बिलकुल ही नष्ट हो गये थे इसलिए प्रजाजन निराश्रय होकर अत्यन्त व्याकुल होने लगे॥१९०।। उस समय आहार संज्ञाके उदयसे उन्हें तीन भूख लग
१. -लक्षणीम् अ०, प० । २. जज्ञिरे अ०, द०, ५०, स०, म०। ३. -चितस्थानं म०, ल० । ४. तत्कारणात् । ५. अबाधिता। ६. पोततण्डुलाः । ७. 'श्यामाकस्तु स्मयाकः स्यात् । ८. कोरदूषः । ९-द्रवोदाल-द०। १०. उदारनीवारः तृणधान्यम् । ११. [ मटर इति हिन्दीभाषायाम् ] १२. तुन्दुभ १३. धान्यकम् । १४. जीरणः। १५. मुङ्गः पीतमुद्गो वा “खण्डीरः पीतमुङ्गः स्यात् कृष्णमुद्गस्तु शिम्बिका" इत्यभिधानात् । १६. वृष्यः। १७. तुवरिका । १८. अलसान्द्र [ 'रोंसा' इति हिन्दी]। १९. निष्पावः ['मोठ' इति हिन्दी] 'समी तु वल्क-निष्पावो'। २०. हरिमन्यकाः । २१. कुलत्यिका "कुलत्थिका पिलकुलः"। २२. त्रिपुटः ['तेवरा' इति, हिन्दीभाषायाम् ] । २३. स्वतो मूढा मुहुर्मुहः प० । २४. मुह्यन्ति स्म । २५. बुभुक्षायाम् । २६. उदीर्णा उदिता । २७. -संज्ञया द०, स०, ल० । २८. संशयः।