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तृतीयं पर्व
क्वचिद् गिरिसरित्पूराः प्रावर्तन्त महारयाः' । धातुरागारुणा मुक्ता रक्तमोक्षा इवादिषु ॥१.२॥ ध्वनन्तो ववृषुर्मुक्तस्थूलधारं पयोधराः । रुदन्त इव शोकार्ताः कल्पवृक्षपरिक्षये ॥१३॥ 'मार्दशिककरास्फालादिव वातनिधट्टनात् । पुष्करेष्विव गम्मोरं ध्वनस्सु जलवाहिषु ॥१७॥ विद्युबटी नमोरङ्गे विचित्राकारधारिणी । प्रतिक्षणविवृत्तानी नृत्तारम्ममिवातनोत् ॥१७५॥ पयः पयोधरासक्तैः पिबद्भिरवितृप्तिमिः । कृच्छु लन्धमतिप्रीतैश्चातकैरमकायितम् ॥१७६॥ तडिस्कलन्त्रसंसक्तः कालापेक्षैर्महाजलैः । कृषिप्रवृत्तकैमें धैर्यतं पामरकायितम् ॥१७७॥ अबुद्धिपूर्वमुत्सृज्य वृष्टिं सथः पयोमुचः । "नैकवा विक्रियां भेजुवैचित्र्यात् पुदलात्मनः ॥१७॥ तदा जलधरोन्मुक्तामुक्ताफलरुचोऽप्सटाः" । मही"निर्वापयामासुर्दिवाकरकरोष्मतः ॥१७९॥ ततोऽन्दमुक्तवारिश्माखानिलातपगोचरान् । 'क्लेदाधारावगाहान्त नीहारोष्मत्वलक्षणान् ॥१०॥
निर्झर निकल रहे हैं ऐसे पर्वतोंका अभिषेक करनेके लिए तत्पर हुए हों ॥१७१।। पहाड़ोंपर कहीं-कहीं गेरूके रंगसे लाल हुए नदियोंके जो पूर बड़े वेगसे बह रहे थे वे ऐसे मालूम होते थे मानो मेघोंके प्रहारसे निकले हुए पहाड़ोंके रक्तके प्रवाह ही हों ॥१७२।। वे बादल गरजते हुए मोटी धारसे बरस रहे थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कल्पवृक्षोंका क्षय हो जानेसे शोकसे पीड़ित हो रुदन ही कर रहे हों-रो-रोकर आँसू बहा रहे हों ॥१७३।। वायुके आघातसे उन मेघोंसे ऐसा गम्भीर शब्द होता था मानो बजानेवालेके हाथको चोटसे मृदङ्गका ही शब्द हो रहा हो । उसी समय आकाशमें बिजली चमक रही थी, जिससे ऐसा मालूम होता था मानो आकाशरूपी रङ्गभूमिमें अनेक रूप धारण करती हुई तथा क्षण-क्षणमें यहाँ-वहाँ अपना शरीर घुमाती हुई कोई नटी नृत्य कर रही हो ॥१७४-१७५।। उस समय चातक पक्षी ठीक बालकोंके समान आचरण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार बालक पयोधर-माताके स्तनमें आसक्त होते हैं उसी प्रकार चातक पक्षी भी पयोधर-मेघोंमें आसक्त थे, बालक जिस तरह कठिनाईसे प्राप्त हए पय-धको पीते हए तृप्त नहीं होते उसी तरह चातक पक्षी भी कठिनाईसे प्राप्त हुए पय-जलको पीते हुए तृप्त नहीं होते थे, और बालक जिस प्रकार मातासे प्रेम रखते हैं उसी प्रकार चातक पक्षी भी मेघोंसे प्रेम रखते थे ॥१७६॥ अथवा वे बादल पामर मनुष्योंके समूहके समान आचरण करते थे क्योंकि जिस प्रकार पामर मनुष्य त्रीमें आसक्त हुआ करते हैं उसी प्रकार वे भी बिजलीरूपी सीमें आसक्त थे, पामर मनुष्य जिस प्रकार खेतीके योग्य वषोकालकी अपेक्षा रखते ह उसी प्रकार वेभी वषीकालकी अपेक्षा रखते थे,पामर मनुष्य जिस प्रकार महाजड़ अर्थात् महामूर्ख होते हैं उसी प्रकार वे भी महाजल अर्थात् भारी जलसे भरे हुए थे (संस्कृत-साहित्यमें श्लेष आदिके समय ड और ल में अभेद होता है) और पामर मनुष्य जिस प्रकार खेती करने में तत्पर रहते हैं उसी प्रकार मेघ भी खेती कराने में तत्पर थे ॥१७७।। यद्यपि वे बादल बुद्धिरहित ये तथापि पुद्गल परमाणुओंकी विचित्र परिणति होनेके कारण शीघ्र ही बरसकर अनेक प्रकारकी विकृतिको प्राप्त हो जाते थे ॥१७८॥ उस समय मेघोंसे जो पानीकी
गिर रही थी वे मोतियोंके समान सुन्दर थीं तथा उन्होंने सूर्यको किरणोंके तापसे तपी हई पृथ्वीको शान्त कर दिया था ॥१७९॥ इसके अनन्तर मेघोंसे पड़े हुए अलकी आर्द्रता,
१. वेगाः । २. रक्तमोचनाः । ३. -स्थूलधाराः म०, ल०। ४. मृदङ्गवादकः । ५. वाद्यवक्त्रेषु । ६. मेषेषु। ७. लम्धमिव प्री-म०, स०, ल०।८. महातोयैः महाजडेश्च । ९. पामर इव आचरितम् । १०. अनेकपा । ११.-रुचोप्छटा अ०,५०, द०।-रुचश्छटा स० ।-रुचो घटा म०।-रुचो छटा ल०। १२. शैत्यं नयन्ति स्म इत्यर्थः । १३. आर्द्रता । १४. अन्तहितशोषणत्वम् ।