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विषयाक्रमाणिका
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विषय पृष्ठ । विषय
पृष्ठ तब से कुबेर ने रत्नवृष्टि शुरू कर दी । रत्न
चतुर्दश पर्व वृष्टि का कल्पनामय वर्णन २५७-२५६ | अभिषेक के बाद इन्द्राणी ने जिनबालक के मरुदेवी का सोलह स्वप्न-दर्शन २५६-२६२ शरीर में सुगन्धित द्रव्यों का लेप लगाकर प्रबुद्ध रानी प्रातःकालिक कार्य कर सभा- उन्हें वस्त्राभूषण से सुसज्जित किया ३०४-३०५ मण्डप में पहुंची और राजा के द्वारा सम्मान इन्द्र द्वारा जिनबालक की विस्तृत स्तुति ३०५-३०६ पाकर रात्रि में देखे हुए सोलह स्वप्नों का स्तुति के बाद इन्द्र पूर्वोक्त वैभव के साथ फल पूछने लगी
२६२-२६३ अयोध्या नगरी में वापस आया, अयोध्या की नाभिराज ने अवधिज्ञान से स्वप्नों का फल
सजावट का वर्णन
३०६-३११ जानकर मरुदेवी के समक्ष प्रत्येक स्वप्न का नगर में इन्द्र का ताण्डवनृत्य करना और जुदा-जुदा फल बतलाया
भगवान् का 'वृषभ' नाम रखना । इन्द्र का उसी समय से श्री, ह्री आदि देवियां माता
बालदेवों को सेवा में नियुक्त करना ३११-३१६ मरुदेवी की सेवा-शुश्रूषा करने लगीं। उनकी
भगवान् की वाल्यावस्था का वर्णन । उनके सेवा का वर्णन, साथ ही प्रहेलिका, मात्रा
अन्तरंग और बहिरंग गुणों का व्याख्यान तथा च्युतक, विन्ध्यच्युतक आदि शब्दालंकार का
यौवन के पूर्व में अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं सुन्दर और सरस वर्णन
२६४-२७६ का वर्णन
३१६-३२४ मरुदेवी की गर्भावस्था का वर्णन २७६-२८२
पंचदश पर्व त्रयोदश पर्व
यौवन पूर्ण होने पर भगवान के शरीर में स्वयचैत्र मास, कृष्ण पक्ष, नवमी तिथि के शुभ
मेव सुन्दरता प्रकट हो गयी। उनके शरीर मुहर्त में भगवान् का जन्म । आकाश निर्मल
में एक सौ आठ लक्षण और नौ सौ व्यंजन हो गया। दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं। २८३ प्रकट थे। यौवन की सुषमा उनके अंग-प्रत्यंग इन्द्र के द्वारा जन्माभिषेक के उत्सव के लिए से फूट रही थी, परन्तु उनका सहज विरक्त अयोध्या नगरी में चतुनिकाय देवों के साथ स्वभाव कामकला से अछूता था। उनके रूप. जाना और भगवान् की स्तुति कर गोद में ले
लावण्य, यौवन आदि गुणरूपी पुष्पों से बाकृष्ट ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो सुमेरु पर्वत पर
हए नेत्ररूपी भ्रमर अन्यत्र कहीं भी आनन्द ले जाना। वहाँ पाण्डकवन और उसकी
नहीं पाते थे
३२५-३२९ ऐशान दिशा में पाण्डुक शिला का वर्णन २८६-२९१ | एक दिन पिता नाभिराज के मन में इनके सुसज्जित अभिषेक-मण्डप के मध्य में पूर्व दिशा विवाह के विकल्प का उठना। पिता की की ओर मुंह कर पाण्डुक शिला पर जिन
आज्ञानुसार भगवान् की विवाह के लिए बालक विराजमान किये गये। दोनों ओर
मौन स्वीकृति । इन्द्र की सम्मति से कच्छ खड़ी हुई देवों की पंक्तियों द्वारा क्षीरसागर के
और महाकच्छ की बहनें यशस्वती और जल से १००८ कलश भरकर लाना। सौधर्म
सुनन्दा से ऋषभदेव का विवाह । यशस्वती और ऐशान इन्द्र द्वारा जलधारा से भगवान्
और सुनन्दा का नख-शिख वर्णन ३२६-३३४ का अभिषेक । जलधारा का वर्णन, फैले हुए एक दिन महादेवी यशस्वती ने सोते समय अभिषेक का वर्णन, अनेक मांगलिक बाजों प्रसी हुई पृथ्वी, सुमेरु पर्वत, चन्द्रमा सहित का बजना, अप्सराओं का सुन्दर नृत्यगान, मूर्य, हंससहित सरोवर तथा चंचल लहरों पुप्पवृष्टि आदि का वर्णन
२६२.३०३ वाला समुद्र देखा। इसी समय बन्दी जनों
वाला समुद्र दखा। सा सन