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आदिपुराणम्
इति तद्वचनात्तेषां प्रत्याश्वासो महानभूत्। ['क्षेत्रे सोडतः परं चास्मिन् नियोगान् भाविनोऽन्वशात् ] ॥ ७२ ॥ प्रतिश्रुतिरयं धीरो यक्षः प्रत्यवणोद् वचः । इतीडां चक्रिरे नाम्ना ते तं संप्रीतमानसाः ॥७३॥ अहो धीमन् महाभाग चिरंजीव प्रसीद नः । यानपात्रायितं येन त्वयास्मद्द्व्यसनार्णवे ॥७४॥ इति स्तुत्वार्यकास्ते तं सत्कृत्य च पुनः पुनः । लब्धानुशास्ततः स्वं स्वमोको जग्मुः सजानयः ॥ ७५ ॥ मनौ याति दिवं तस्मिन काळे गछति च क्रमात् । मन्वन्तरमसंख्येया वर्षकोटीर्व्यतीत्य च ॥ ७६ ॥ सम्मतिः सम्मतिर्नाम्ना द्वितीयोऽभून्मनुस्तदा । प्रोत्सर्पदंशुकः प्रांशुअल स्कल्पतरूपमः ॥७७॥ सकुन्तली किरीटी च कुण्डली हारभूषितः । स्रग्वी महबजालिप्तवपुरत्यन्तमावमौ ॥७८॥ तस्यायुरमेमप्रक्यमासीत् संख्येयहायमम् । सहस्रं त्रिशतीयुक्तमुत्सेधो धनुषां मतः ||९|| ज्योतिर्विटपिनां भूयोऽप्यासीत् कालेन मन्दिमा । प्रहाणामिमुखं तेजो निर्वास्यति हि दीपवत् ॥८०॥ नभोऽङ्गणमथापूर्य तारकाः प्रचकाशिरे । नात्यन्धकारकलुषां वेलां प्राप्य तमीमुखे ॥८१॥ अकस्मात् तारका दृष्ट्वा संभ्रान्तान् भोगभूभुवः । भीतिर्विचलयामास प्राणिहत्येव योगिनः ||८२||
वशसे ज्योतिरङ्ग वृक्षोंका प्रभाव कम हो गया है अतः दिखने लगे हैं। इनसे तुम लोगोंको कोई भय नहीं है अतः भयभीत नहीं होओ ॥ ७०-७१ ॥ प्रतिश्रुतिके इन वचनोंसे उन लोगोंको बहुत ही आश्वासन हुआ । इसके बाद प्रतिश्रुतिने इस भरतक्षेत्रमें होनेवाली व्यवस्थाओंका निरूपण किया || ७२ || इन धीर-वीर प्रतिश्रुतिने हमारे वचन सुने हैं इसलिए प्रसन्न होकर उन भोगभूमिजोंने प्रतिश्रुति इसी नामसे स्तुति की और कहा कि अहो महाभाग, अहो बुद्धिमान्, आप चिरंजीव रहें तथा हमपर प्रसन्न हों क्योंकि आपने हमारे दुःखरूपी समुद्र में नौकाका काम दिया है अर्थात् हितका उपदेश देकर हमें दुःखरूपी समुद्रसे उद्धृत किया है ।।७३-७४ || इस प्रकार प्रतिश्रुतिका स्तवन तथा बार-बार सत्कार कर वे सब आर्य उनकी आज्ञानुसार अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ अपने-अपने घर चले गये ||७५ || इसके बाद क्रम-क्रमसे समयके व्यतीत होने तथा प्रतिश्रुति कुलकरके स्वर्गवास हो जानेपर जब असंख्यात करोड़ वर्षोंका मन्वन्तर ( एक कुलकरके बाद दूसरे कुलकरके उत्पन्न होने तक बीचका काल ) व्यतीत हो गया तब समोचीन बुद्धिके धारक सन्मति नामके द्वितीय कुलकरका जन्म हुआ । उनके वस्त्र बहुत ही शोभायमान थे तथा वे स्वयं अत्यन्त ऊँचे थे इसलिए चलते-फिरते कल्पवृक्षके समान मालूम होते थे ||७६-७७|| उनके केश बड़े ही सुन्दर थे, वे अपने मस्तकपर मुकुट बाँधे हुए थे, कानों में कुण्डल पहिने थे, उनका वक्षःस्थल हारसे सुशोभित था, इन सब कारणोंसे वे अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे || ७८|| उनकी आयु अममके बराबर संख्यात वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष थी ॥७९॥ इनके समयमें ज्योतिरङ्ग जातिके कल्पवृक्षोंकी प्रभा बहुत ही मन्द पड़ गयी थी तथा उनका तेज बुझते हुए दीपक के समान नष्ट होनेके सम्मुख ही था ||८०|| एक दिन रात्रिके प्रारम्भमें जब थोड़ा-थोड़ा अन्धकार था तब तारागण आकाशरूपी अङ्गणको व्याप्त कर - सब ओर प्रकाशमान होने लगे ॥८१॥ उस समय अकस्मात् तारोंको देखकर भोगभूमिज मनुष्य अत्यन्त भ्रममें पड़ गये अथवा अत्यन्त व्याकुल हो गये । उन्हें भयने इतना कम्पायमान कर दिया
१. तसंशिते ताडपत्र पुस्तके कोष्ठकान्तर्गतः पाठो लेखकप्रमादात्प्रभ्रष्टोऽतः ब०, अ०, प०, ल०, म०, द०, स०, संज्ञितपुस्तकेभ्यस्तत्पाठो गृहीतः । २. कारणेन । ३. सभार्याः । ४. उन्नतः । ५. पञ्चपञ्चाशत् शून्यानं विंशतिप्रमाणचतुरशीतीनां परस्परगुणनम् अममवर्षप्रमाणम् । ६ प्रहीणाभिमुखं अ०, प०, म०, ल० । ७. अत्यन्धकारकलुषा न भवतीति नात्यन्धकारकलुषा ताम् । ८. प्राणिहतिः ।