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तृतीयं पर्व
कल्पद्रम इवोत्तुङ्गफलशाली' महाद्युतिः । स बभार यथास्थानं नानामरणमन्जरीः ॥१३१॥ तस्य काले प्रजास्तोक मुखं वीक्ष्य सकौतुकम् । आशास्थाक्रीडनं चक्रुर्निशि चन्द्रा मिदर्शनैः ॥१३२॥ ततोऽमिचन्द्र इत्यासीद्यतश्चन्द्रममिस्थिताः । पुत्रानाक्रीडयामासुस्तस्काले तन्मताज्ञ्जनाः ॥ १३३॥ पुनरन्तरमुलङ्घय तत्प्रायोग्यसमाशतैः । चन्द्राभ इत्यभूत् ख्यातश्चन्द्रास्यः कालविन्मनुः ॥१३४॥ "नयुतप्रमितायुष्को विलसल्लक्षणोज्ज्वलः । धनुषां षट्छतान्युचैः प्रोद्यदर्कसमद्युतिः ॥ १३५॥
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पुष्कला: कला विदुदितो "जगतां प्रियः । स्मितज्योत्स्नामिराह्नादं शशीव समजीजनत् ॥ १३६ ॥ तस्य कालेऽतिसंप्रीताः पुत्रःशासनदर्शनैः । ' तुग्भिः सह स्म जीवन्ति दिनानि कतिचित् प्रजाः ॥१३७॥ ततो लोकान्तरप्राप्तिमभजन्त यथासुखम् । स तदाह्लादनादासीच्चन्द्राम इति विश्रुतः ॥ १३८ ॥ मरुद्देवोऽभवत् कान्तः 'कुलटरादनन्तरम्' । स्त्रोचितान्तरमुल्लङ्घय प्रजानामुत्सवो दृशाम् ॥१३९॥ शतानि पञ्च पञ्चानां सप्ततिं च समुच्छ्रितः । धनूंषि नयुताङ्गायुर्विवस्वानिव भास्वरः ॥ १४० ॥ शरीर के धारक थे । यथायोग्य अवयवोंमें अनेक प्रकारके आभूषणरूप मंजरियोंको धारण किये हुए थे । उनका शरीर महाकान्तिमान् था और स्वयं पुण्यके फलसे शोभायमान थे इसलिए फूले-फले तथा ऊँचे कल्पवृक्षके समान शोभायमान होते थे । उनके समय प्रजा अपनीअपनी सन्तानोंका मुख देखने लगी- उन्हें आशीर्वाद देने लगी तथा रातके समय कौतुकके साथ चन्द्रमा दिखला - दिखलाकर उनके साथ कुछ क्रीड़ा भी करने लगी। उस समय प्रजाने उनके उपदेशसे चन्द्रमाके सम्मुख खड़ा होकर अपनी सन्तानोंको क्रीड़ा करायी थी— उन्हें खिलाया था इसलिए उनका अभिचन्द्र यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ ।।१२९ - १३३ ।। फिर उतना ही अन्तर व्यतीत कर चन्द्राभ नामके ग्यारहवें मनु हुए। उनका मुख चन्द्रमाके समान था, ये समयकी गतिविधिके जाननेवाले थे । इनकी आयु नयुत प्रमाण वर्षोंकी थी। ये अनेक शोभायमान सामुद्रिक लक्षणोंसे उज्ज्वल थे । इनका शरीर छह सौ धनुष ऊँचा था तथा उदय होते हुए सूर्य के समान देदीप्यमान था । ये समस्त कलाओं - विद्याओंको धारण किये हुए ही उत्पन्न हुए थे, जनताको अतिशय प्रिय थे, तथा अपनी मन्द मुसकानसे सबको आह्लादित करते थे इसलिए उदित होते ही सोलह कलाओंको धारण करनेवाले लोकप्रिय और चन्द्रिकासे युक्त चन्द्रमाके समान शोभायमान होते थे । इनके समयमें प्रजाजन अपनी सन्तानोंको आशीर्वाद देकर अत्यन्त प्रसन्न तो होते ही थे, परन्तु कुछ दिनों तक उनके साथ जीवित भी रहने लगे थे, तदनन्तर सुखपूर्वक परलोकको प्राप्त होते थे। उन्होंने चन्द्रमाके समान सब जीवोंको आह्लादित किया था इसलिए उनका चन्द्राभ यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ था ॥१३४-१३८।। तदनन्तर अपने योग्य अन्तरको व्यतीत कर प्रजाके नेत्रोंको आनन्द देनेवाले, मनोहर शरीरके धारक मरुदेव नामके बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए । उनके शरीरकी ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुषकी
और आयु प्रमाण वर्षोंकी थी। वे सूर्यके समान देदीप्यमान थे अथवा वह स्वयं ही एक विलक्षण सूर्य थे, क्योंकि सूर्यके समान तेजस्वी होनेपर भी लोग उन्हें सुखपूर्वक देख सकते थे जबकि चकाचौंधके कारण सूर्यको कोई देख नहीं सकता । सूर्यके समान उदय होनेपर भी वे कभी अस्त नहीं होते थे- उनका कभी पराभव नहीं होता था जब कि सूर्य
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१ शालो स०, ल० । २. तोकः पुत्रः । ३ संवत्सरशतैः । ४. विशतिशून्यानं षट्प्रमितचतुरशीतिसंगुणनं नयुतवर्षप्रमाणम् । ५ षट्शतान्युच्चैः अ०, प०, स०, ६०, ल० । ६. पुष्कलाः (पूर्णाः) । ७. जनताप्रियः अ०, प०, म०, स०, ६०, ल० । ८. पुत्रः । ९. कुलभृत्त - ६०, प०, म० । कुलकृत्त - अ०, स० । १०--नन्तरः प० । ११. पत्रवाग्रसप्ततिश्च अ० । १२. समुच्छ्रिति: म०, ल० । १३. पञ्चदशशून्याषिक पञ्चमितिचतुरशीतिसंवर्गानयुताङ्गवर्ष प्रमा ।
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