________________
आदिपुराणम् स तेजस्वी सुखालोकः सोदयोऽनस्तसंगतिः । भूमिष्ठोऽप्यम्बरोदाली मास्वानिव विलक्षणः ॥१४१॥ तस्प काले प्रजा दीर्घ प्रजामिः स्वामिरन्विताः । प्राणिपुस्तन्मुखालोकतदङ्गस्पर्शनोत्सवैः ॥१४२॥ स तदुच्छ्वसितं यस्मात् तदायत्तस्वजीविकाः । प्रजा जीवन्ति तेनामिर्मरुदेव इतीरितः ॥१३॥ नौद्रोणीसंक्रमादीनि जलदुर्गेष्वकारयत् । गिरिदुर्गेषु सोपानपद्धतीः सोऽधिरोहणे ॥१४४॥
तस्यैव काले [काले तस्यैव] कुत्शलाः कुसमुद्राः कुनिम्नगाः ।
जाताः सासारमेघाश्च "किंराजान इवास्थिराः ॥१४५॥ ततः प्रसेनजिजज्ञे प्रभविष्णुमनुर्महान् । कर्मभूमिस्थितावेवमभ्यर्णायां शनैः शनैः ॥१४६॥ पर्वप्रमितमाम्नातं मनोरस्यायुरजसा । शतानि पञ्चचापानां शताद्धं च तदुच्छृितिः ॥१४॥ प्रजानामधिकं चक्षुस्तमोदोषैरविप्लुतः । सोऽभाद्रविरिवाभ्युचन्'' "पमाकस्परिग्रहात् ॥१४॥ तदाभूदर्भकोत्पत्तिर्जरायुपटलावृता । ततस्तस्कर्षणोपायंस प्रजानामुपादिशत् ॥१४९॥
तनुसंवरणं यत्राजरायुपटलं नृणाम् । स प्रसेनो जयात्तस्य प्रसेनजिदसौ स्मृतः ॥१५०॥ अस्त हो जाता है और जमीनमें स्थित रहते हुए भी वे आकाशको प्रकाशित करते थे जब कि सूर्य आकाशमें स्थित रहकर ही उसे प्रकाशित करता है (पक्षमें वस्त्रोंसे शोभायमान थे)। इनके समयमें प्रजा अपनी-अपनी सन्तानोंके साथ बहुत दिनों तक जीवित रहने लगी थी तथा उनके मुख देखकर और शरीरको स्पर्श कर सुखी होती थी। वे मरुद्देव ही वहाँ के लोगोंके प्राण ये क्योंकि उनका जीवन मरुद्देवके ही आधीन था अथवा यों समझिए-वे उनके द्वारा ही जीवित रहते थे इसलिए प्रजाने उन्हे मरुद्देव इस सार्थक नामसे पुकारा था। इन्हीं मरदेवने उस समय जलरूप दुर्गम स्थानोंमें गमन करनेके लिए छोटी-बड़ी नाव चलानेका उपदेश दिया था तथा पहाड़ रूप दुर्गम स्थानपर चढ़नेके लिए इन्होंने सीढ़ियाँ बनवायी थीं। इन्हींके समयमें अनेक छोटे-छोटे पहाड़, उपसमुद्र तथा छोटी-छोटी नदियाँ उत्पन्न हुई थी तथा नीच राजाओंके समान अस्थिर रहनेवाले मेघ भी जब कभी वरसने लगे थे॥ १३९-१४५॥ इनके बाद समय व्यतीत होनेपर जब कर्मभूमिकी स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी-अर्थात् कर्मभूमिको रचना होनेके लिए जब थोड़ा ही समय बाकी रह गया था तब बड़े प्रभावशाली प्रसेनजित् नामके तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए । इनकी आयु एक पर्व प्रमाण थी और शरीरकी ऊँचाई पाँच-सौ पचास धनुषकी थी। वे प्रसेनजित् महाराज मार्ग-प्रदर्शन करनेके लिए प्रजाके तीसरे नेत्र के समान थे, अज्ञानरूपी दोषसे रहित थे और उदय होते ही पद्मा-लक्ष्मीके करग्रहणसे अतिशय शोभायमान थे, इन सब बातोंसे वे सूर्य के समान मालूम होते थे क्योंकि सूर्य भी मार्ग दिखानेके लिए तीसरे नेत्रके समान होता है, अन्धकारसे रहित होता है और उदय होते ही कमलोंके समूहको आनन्दित करता है। इनके समयमें बालकोंकी उत्पत्ति जरायुसे लिपटी हुई होने लगी अर्थात् उत्पन्न हुए बालकोंके शरीरपर मांसकी एक पतली झिल्ली रहने लगी। इन्होंने अपनी प्रजाको उस जरायुके खींचने अथवा फाड़ने आदिका उपदेश दिया था। मनुष्योंके शरीरपर जो आवरण होता है उसे जरायुपटल अथवा प्रसेन कहते हैं। तेरहवें मनुने उसे जीतने दूर करने आदिका उपदेश दिया था इसलिए
भूमिस्थो ८०, ५०, म०, ०। २. स्वामतिवि-1०, १० । स्वानिति वि - द०, ५०, ल० । -TEF:४:जीवन्ति स्म । ५. तासां प्रजानामुच्छ्वासः प्राण इत्यर्थः। ६. कुत्कीलाः अ०, द०,५०, स। पुछिलाROR७. कुत्सितभूपा॥८. समीपस्थायाम् । ९. पावशशून्याग्रं चतुःप्रमाणचतुरशीतिसंगुणनं विषप्रमाणम्ने १०६-अनुपद्रुतः १९१ म्युचत् स०, म०, ल०। १२. पायाः लक्ष्म्याः करा हस्ताः, पक्षे पमानां कमलानाम् आकरः समूहः । १३. कर्षणं छेदनम् ।