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द्वितीयं पर्व इदमेव युगस्यादौ पप्रच्छ मरतः पुरुम् । ततोऽनुयुयुजे सम्राट सागरोऽजितमच्युतम् ॥४२॥ इति प्रमाणभूतेयं वक्तृश्रोतृपरम्परा । त्वयाद्यालकृता धीमन् ! पृच्छतेमं महाधियम् ॥४३॥ त्वं प्रष्टा भगवान वक्ता सहशुश्रुषवो वयम् । सामग्री नेहशी जातु जाता नैव जनिष्यते ॥४४॥ तस्मात् पुण्यकथामेनां शृणुयाम समं वयम् । प्रज्ञापारमितो देवो वक्तुमुत्सहतामयम् ॥४५॥ इति प्रोत्साह्य तं धर्म ते समाधानचक्षुषः । ततो गणधरस्तोत्रं पेटुरित्युच्चकैस्तदा ॥४६॥ त्वां प्रत्यक्षविदां बोधैरप्यबुद्धमहोदयम् । प्रत्यक्षस्तवनैः स्तोतुं वयं चाद्य किलोग्रताः ॥४७॥ चतुर्दशमहाविद्यास्थानाकुपारपारगम् । त्वामृषे ! स्तोतुकामाः स्मः केवलं भक्तिचोदिताः ॥४८॥ भगवन् मन्यसार्थस्य नेतुस्तव शिवाकरम् । पताकेवोच्छ्रिता भाति कीर्तिरेषा विधूज्वला ॥४९॥ "आलवालीकृताम्भोधिवलया कीर्तिवल्लरी । जगनाडीतरोरग्रमाक्रामति तवोच्छिखा ॥५०॥ स्वामामनन्ति मुनयो योगिनामधियोगिनम् । त्वां गण्यं गणनातीतगुणं गणधरं विदुः ॥५१॥
सन्मार्ग, काल और सत्पुरुषोंका चरित्र आदिका आधारभूत है ॥४१॥ हे बुद्धिमान श्रेणिक, युगके आदिमें भरत चक्रवर्तीने भगवान आदिनाथसे यही प्रश्न पूछा था, और यही प्रश्न चक्रवर्ती सगरने भगवान् अजितनाथसे पूछा था। आज तुमने भी अत्यन्त बुद्धिमान् गौतम गणधरसे यही प्रश्न पूछा है । इस प्रकार वक्ता और श्रोताओंकी जो प्रमाणभूत-सच्ची परम्परा चली आ रही थी उसे तुमने सुशोभित कर दिया है ।।४२-४३॥ हे श्रेणिक, तुम प्रश्न करनेवाले, भगवान महावीर स्वामी उत्तर देनेवाले और हम सब तुम्हारे साथ सुननेवाले हैं। हे राजन् , ऐसी सामग्री पहले न तो कभी मिली है और न कभी मिलेगी ॥४४॥ इसलिए पूर्ण श्रुतज्ञानको धारण करनेवाले ये गौतम स्वामी इस पुण्य कथाका कहना प्रारम्भ करें
और हम सब तुम्हारे साथ सुनें ॥४॥ इस प्रकार वे सब ऋषिजन महाराज श्रेणिकको धर्ममें उत्साहित कर एकाग्रचित्त हो उच्च स्वरसे गणधर स्वामीका नीचे लिखा हुआ स्तोत्र पढ़ने लगे ॥ ४६॥
हे स्वामिन् , यद्यपि प्रत्यक्ष ज्ञानके धारक बड़े-बड़े मुनि भी अपने ज्ञान-द्वारा आपके अभ्युदयको नहीं जान सके हैं तथापि हम लोग प्रत्यक्ष स्तोत्रोंके द्वारा आपकी स्तुति करनेके लिए तत्पर हुए हैं सो यह एक आश्चर्यकी ही बात है ॥४७॥ हे ऋषे, आप चौदह महाविद्या (चौदह पूर्व ) रूपी सागरके पारगामी हैं अतः हम लोग मात्र भक्तिसे प्रेरित होकर ही आपकी स्तुति करना चाहते हैं ॥४८॥ हे भगवन् , आप भव्य जीवोंको मोक्षस्थानकी प्राप्ति करानेवाले हैं, आपकी चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कीर्ति फहराती हुई पताकाके समान शोभायमान हो रही है ॥४९॥ देव, चारों ओर फैले हुए समुद्रको जिसने अपना आलबाल (क्यारी) बनाया है ऐसी बढ़ती हुई आपकी यह कीर्तिरूपी लता इस समय सनाड़ीरूपी वृक्षके अग्रभागपर आक्रमण कर रही है-उसपर आरूढ़ हुआ चाहती है ।।५०।। हे नाथ, बड़े-बड़े मुनि भी यह मानते हैं कि आप योगियोंमें महायोगी हैं, प्रसिद्ध हैं, असंख्यात गुणोंके धारक हैं तथा संघके अधिपति-गणधर हैं ।।५।।
१. प्रश्नमकरोत् । २. ऋषयः । ३. चत्वारो वेदाः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं छन्दोविचितिः ज्योतिषं निरुक्तम् इतिहासः पुराणं मीमांसा न्यायशास्त्रं चेति चतुर्दशमहाविद्यास्थानानि चतुर्दशपूर्वाणि वा चतुर्दशमहाविद्या. स्थानानि । ४. नोदिताः अ०, स० । ५. संघस्य । ६. मोक्षखनिम् । ७. आलवाल: आवापः ।