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तृतीयं पर्व
मन्दगन्धवहाधूतचलदं शुकपल्लवाः । निस्यालोको विराजन्ते कल्पोपपदपादपाः ॥३६॥ कालानुभवसंभूतक्षेत्रसामर्थ्यबृंहिताः । कल्पद्रमास्तथा तेषां कल्पन्तेऽभीष्टसिद्धये ॥३॥ मनोमिरुचितान् मोगान् यस्मात् पुण्यकृतां नृणाम् । कल्पयन्ति ततस्तनिरुक्काः कल्पपादपाः ॥३८॥. मद्यतूर्यविभूषानगज्योतिर्दीपगृहागकाः । भोजनामवस्त्राङ्गा दशधा कल्पशाखिनः॥३९॥ इति स्वनामनिर्दिष्टां कुर्वन्तोऽर्थक्रियाममी । संज्ञाभिरेव विस्पष्टा ततो नातिप्रतन्यते ॥४०॥ तथा भुक्ता चिरं भोगान् स्वपुण्यपरिपाकजान् । स्वायुरन्ते विलीयन्ते ते घना इव शारदाः ॥४१॥ जम्भिकारम्ममात्रेण तत्कालोस्थक्षुतेन वा। जीवितान्ते तनुं त्यक्त्वा ते दिवं यान्त्यनेनसः ॥४२॥ स्वभावमार्दवायोगवक्रतादिगुणैर्यताः। भद्रकास्त्रिदिवं यान्ति तेषां नान्या गतिस्ततः ॥४३॥ इत्याचः कालभेदोऽवसर्पिण्यां वर्णितो मनाक । उदक्कुरुसमः शेषो विधिरत्रावधार्यताम् ॥४४॥ ततो यथाक्रमं तस्मिन् काले गलति मन्दताम् । यातासु वृक्षवीर्यायुः शरीरोत्सेधवृत्तिषु ॥४५॥ सुषमालक्षणः कालो द्वितीयः समवर्तत । सागरोपमकोटीनां तिस्रः कोव्योऽस्य संमितिः ॥४६॥ तदास्मिन् मारते वर्षे मध्यभोगभुवां स्थितिः । जायते स्म परां भूतिं तन्वाना कल्पपादपैः ॥४७॥ तदा मा समामा द्विपल्योपमजीविताः । चतुःसहस्रचापोचविग्रहाः शुभचेष्टिताः ॥१८॥
इन्हें इच्छा करते ही कल्पवृक्षोंसे प्राप्त हो जाती है ।।३५।। जिनके पल्लवरूपी वस्त्र मन्द सुगन्धित वायुके द्वारा हमेशा हिलते रहते हैं। ऐसे सदा प्रकाशमान रहनेवाले वहाँके कल्पवृक्ष अत्यन्त शोभायमान रहते हैं ॥३६॥ सुषमासुषमा नामक कालके प्रभावसे उत्पन्न हुई क्षेत्रकी सामर्थ्यसे वृद्धिको प्राप्त हुए वे कल्पवृक्ष वहाँ के जीवोंको मनोवांछित पदार्थ देनेके लिए सदा समर्थ रहते हैं ॥३७॥ वे कल्पवृक्ष पुण्यात्मा पुरुषोंको मनचाहे भोग देते रहते हैं इसलिए जानकार पुरुषोंने उनका 'कल्पवृक्ष' यह नाम सार्थक ही कहाहै॥३८॥ वे कल्पवृक्ष दस हैं-१ मद्याङ्ग, २ तूर्याङ्ग, ३ विभूषाङ्ग, ४ स्रगङ्ग ( माल्याङ्ग), ५ ज्योतिरङ्ग, ६ दीपाङ्ग, ७ गृहाङ्ग, ८ भोजनाङ्ग, ९ पात्राङ्ग और १० बनाङ्ग । वे सब अपने-अपने नामके अनुसार ही कार्य करते हैं इसलिए इनके नाम मात्र कह दिये हैं; अधिक विस्तारके साथ उनका कथन नहीं किया है ।।३९-४०। इस प्रकार वहाँ के मनुष्य अपने पूर्व पुण्यके उदयसे चिरकाल तक भोगोंको भोगकर आयु समाप्त होते ही शरदऋतुके मेघोंके समान विलीन हो जाते हैं ।।४।। आयुके अन्त में पुरुषको जम्हाई आती है और खीको छींक । उसीसे पुण्यात्मा पुरुष अपनाअपना शरीर छोड़कर स्वर्ग चले जाते हैं ।।४२।। उस समयके मनुष्य स्वभावसे ही कोमलपरिणामी होते हैं, इसलिए वे भद्रपुरुष मरकर स्वर्ग ही जाते हैं। स्वर्गके सिवाय उनकी और कोई गति नहीं होती ।।४।। इस प्रकार अवसर्पिणी कालके प्रथम सुषमासुषमा नामक कालका कुछ वर्णन किया है । यहाँकी और समस्त विधि उत्तरकुरुके समान समझना चाहिए ॥४४॥ इसके अनन्तर जब क्रम-क्रमसे प्रथम काल पूर्ण हुआ और कल्पवृक्ष, मनुष्योंका बल, आयु तथा शरीरकी ऊँचाई आदि सब घटतीको प्राप्त हो चले तब सुषमा नामक दूसरा काल प्रवृत्त हुआ। इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागर था ॥४५-४६।। उस समय इस भारतवर्षमें कल्पवृक्षोंके द्वारा उत्कष्ट विभूतिको विस्तृत करती हुई मध्यम भोगभूमिकी अवस्था प्रचलित हुई ॥४७॥ उस वक्त यहाँ के मनुष्य देवोंके समान कान्तिके धारक थे, उनकी आयु दो पल्यकी
१. अंशुकं वस्त्रम् । २. नित्यप्रकाशाः । ३. समर्था भवन्ति ।४.-भिलषितान् प०,म०, ल०। ५. अमत्रं भाजनम् । ६ प्रतन्वते अ०, ५०, म०, द० । ७. -धकाल अ०, स० । ८. -वधार्यते ५०, म० । ९. भुवः म०, क.। १०. जीवितः अ०, स०।