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द्वितीयं पर्व सरस्वतीपरिक्लेशमनिच्छन्निव नाधिकम् । तीव्रयन् करणस्पन्दमभिन्नमुखसौष्ठवः ॥११॥ न २स्विद्या परिश्राम्यनो वस्या परिस्खलन् । सरस्वतीमतिप्रौढामनायासेन योजयन् ॥१२॥ सममृज्वायतस्थानमास्थाय रचितासनः । पल्यथेन परां कोटी वैराग्यस्येव रूपयन् ॥९३।। करं वामं स्वपर्यके निधायोत्तानितं शनैः । देशनाहस्तमुक्षिप्य मार्दवं नाटयन्निव ॥९॥ न्याजहारातिगम्मीरमधुरोदारया गिरा । भगवान् गौतमस्वामी श्रोतून संबोधयनिति ॥९५॥ श्रुतं मया श्रुतस्कन्धादायुप्मन्तो महाधियः । निबोधत पुराणं में यथावत् कथयामि वः ॥१६॥ यत् प्रजापतये ब्रह्मा भरतायादितीर्थकृत् । प्रोवाच तदहं तेऽद्य वक्ष्ये श्रेणिक भोः शृणु ॥९७॥ महाधिकाराश्चत्वारः श्रुतस्कन्धस्य वर्णिताः । तेषामायोऽनुयोगोऽयं सतां सच्चरिताश्रयः ॥९८॥ द्वितीयः करणादिः स्यादनुयोगः स यत्र । त्रैलोक्यक्षेत्रसंख्यानं कुलपत्रेऽधिरोपितम् ॥१९॥ चरणादिस्तृतीयः स्यादनुयोगो जिनोदितः । यत्र चर्याविधानस्य परा शुद्धिरुदाहृता ॥१०॥ तुर्यो द्रव्यानुयोगस्तु द्रव्याणां यत्र निर्णयः । प्रमाणनयनिक्षेपैः सदायैश्च' किमादिभिः ॥१०॥
आनुपूर्व्यादिभेदेन पञ्चधोपक्रमो मतः । स पुराणावतारेऽस्मिन् योजनीयो यथागमम् ।।१०२।। बोलते समय उनके मुखका सौन्दर्य भी नष्ट नहीं हुआ था। उस समय उन्हें न तो पसीना आता था, न परिश्रम ही होता था, न किसी बातका भय ही लगता था और न वे बोलते-बोलते स्खलित ही होते थे-चूकते थे। वे बिना किसी परिश्रमके ही अतिशय प्रौढ़-गम्भीर सरस्वतीको प्रकट कर रहे थे। वे उस समय सम, सीधे और विस्तृत स्थानपर पर्यकासनसे बैठे हुए थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो शरीर-द्वारा वैराग्यकी अन्तिम सीमाको ही प्रकट कर रहे हों । उस समय उनका बायाँ हाथ पर्यकपर था और दाहिना हाथ उपदेश देनेके लिए कुछ ऊपरको उठा हुआ था जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो वे मार्दव ( विनय ). धर्मको नृत्य हो करा रहे हों अर्थात उच्चतम विनय गणको प्रकट कर रहे हों।। ८५-९५॥ वे कहने लगे-हे आयुष्मान् बुद्धिमान् भव्यजनो, मैंने श्रुतस्कन्धसे जैसा कुछ इस पुराणको सुना है सो ज्योंका-त्यों आप लोगोंके लिए कहता हूँ, आप लोग ध्यानसे सुनें ॥९६॥ हे श्रेणिक, आदि ब्रह्मा प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेवने भरत चक्रवर्तीके लिए जो पुराण कहा था उसे ही मैं आज तुम्हारे लिए कहता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो ॥१७॥
श्रुतस्कन्धके चार महा अधिकार वर्णित किये गये हैं उनमें पहले अनुयोगका नाम प्रथमानुयोग है। प्रथमानुयोगमें तीर्थकर आदि सत्पुरुषोंके चरित्रका वर्णन होता है॥९८॥ दूसरे महाधिकारका नाम करणानुयोगहै। इसमें तीनों लोकोंका वर्णन उस प्रकार लिखा होता है जिस प्रकार किसी ताम्रपत्रपर किसीकी वंशावली-लिखी होती है ।।१९।। जिनेन्द्रदेवने तीसरे महाधिकारको चरणानुयोग बतलाया है। इसमें मुनि और श्रावकोंके चारित्रकी शुद्धिका निरूपण होता है ॥१००। चौथा महाधिकार द्रव्यानुयोग है इसमें प्रमाण नय निक्षेप तथा सत्संख्या क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व, निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान आदिके द्वारा द्रव्योंका निर्णय किया जाताहै ॥१०१।।आनुपूर्वी आदिके भेदसे उपक्रमके पाँच भेद माने गये हैं।
१.[इन्द्रियं शरीरं वा] । २. खिद्यन् अ० । ३.-मज्वासनस्थान-द०, प० । मृज्वागतः स्थान-स० । ४. दर्शयन् । ५. जानीत । ६. पुराणार्थ स०, ल०। ७. मे इत्यव्ययम् 'अहमित्यर्थः'। ८. सन्तानक्रमादामतताम्रमयादिपत्रं कुलपत्रमिति वदन्ति । ९. चर्या चरित्रम् । १०. निक्षेपः न्यासः । ११. सत् अस्ति किं स्यात् । अथवा सदाद्यैः सत्संख्याक्षेत्रादिभिः । १२. निर्देशस्वामित्वादिभिः ।