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आदिपुराणम्
"मुख्यकल्पेन कालोऽस्ति व्यवहारप्रतीतितः । मुख्याइते न गौणोऽस्ति सिंहो माणवको यथा ॥ ७॥ प्रदेशप्रचयापायात् कालस्यानस्तिकायता । गुणप्रचययोगोऽस्य द्रव्यत्वादस्ति सोऽस्स्यतः ॥८॥ अस्तिकायश्रुतिर्वति कालस्यानस्तिकायताम् । सर्वस्य सविपक्षत्वाज्जीवकायश्रुतिर्यथा ||९|| कालोऽन्यो व्यवहारात्मा मुख्य कालव्यपाश्रयः । परापरत्वसंसूच्यो वर्णितः सर्वदर्शिभिः ॥१०॥ वर्त्ततो द्रव्यकालेन वर्त्तनालक्षणेन यः । काल: पूर्वापरीभूतो व्यवहाराय करूप्यते ॥११॥ समयावलि कोच्छ्वास- नालिकादिप्रभेदतः । ज्योतिश्चक्रभ्रमायत्तं कालचक्रं विदुर्बुधाः ॥१२॥
वायुष्काय कर्मादिस्थितिसंकलनात्मकः " । सोऽनन्तसमयस्तस्य परिवर्त्तोऽप्यनन्ता ॥१३॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ द्वौ भेदौ तस्य कीर्तितौ । उत्सर्पादव सर्पाच्च बलायुर्देह वर्मणाम् ॥१४ ॥
सकता,
भूत मुख्य काल द्रव्य है । मुख्य पदार्थके बिना व्यवहार - गौण पदार्थकी सत्ता सिद्ध नहीं होती । जैसे कि वास्तविक सिंहके बिना किसी प्रतापी बालक में सिंहका व्यवहार नहीं किया जा , वैसे ही मुख्य कालके बिना घड़ी, घण्टा आदिमें काल द्रव्यका व्यवहार नहीं किया जा सकता । परन्तु होता अवश्य है इससे काल द्रव्यका अस्तित्व अवश्य मानना पड़ता है ।५-७॥ यद्यपि इनमें एकसे अधिक बहुप्रदेशोंका अभाव है इसलिए इसे अस्तिकायोंमें नहीं गिना जाता है तथापि इसमें अगुरुलघु आदि अनेक गुण तथा उनके विकारस्वरूप अनेक पर्याय अवश्य हैं क्योंकि यह द्रव्य है, जो-जो द्रव्य होता है उसमें गुणपर्यायोंका समूह अवश्य रहता है । द्रव्यत्वका गुणपर्यायोंके साथ जैसा सम्बन्ध है वैसा बहुप्रदेशोंके साथ नहीं है । अतः बहुप्रदेशोंका अभाव होनेपर भी काल पदार्थ द्रव्य माना जा सकता है और इस तरह काल नामक पृथक पदार्थकी सत्ता सिद्ध हो जाती है ॥८॥ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको अस्तिकाय कहने से ही यह सिद्ध होता है कि काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है क्योंकि विपक्षीके रहते हुए ही विशेषणकी सार्थकता सिद्ध हो सकती है। जिस प्रकार छह द्रव्योंमें चेतनरूप आत्मद्रव्यको जीव कहना ही पुद्गलादि पाँच द्रव्योंको अजीव सिद्ध कर देता है उसी प्रकार जीवादिको अस्तिकाय कहना ही कालको अनस्तिकाय सिद्ध कर देता है || ९ || इस मुख्य कालके अतिरिक्त जो घड़ी, घण्टा आदि है वह व्यवहारकाल कहलाता है। यहाँ यह याद रखना आवश्यक होगा कि व्यवहारकाल मुख्य कालसे सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है वह उसीके आश्रयसे उत्पन्न हुआ उसकी पर्याय ही है। यह छोटा है, यह बड़ा है आदि बातोंसे व्यवहारकाल स्पष्ट जाना जाता है ऐसा सर्वज्ञदेवने वर्णन किया है ||१०|| यह व्यवहारकाल वर्तना लक्षणरूप निश्चय काल द्रव्यके द्वारा ही प्रवर्तित होता है और वह भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान रूप होकर संसारका व्यवहार चलानेके लिए समर्थ होता है अथवा कल्पित किया जाता है ||११|| वह व्यवहारकाल समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदिके भेदसे अनेक प्रकारका होता है। यह व्यवहारकाल सूर्यादि ज्योतिश्चक्रके घूमनेसे ही प्रकट होता है ऐसा विद्वान् लोग जानते हैं ॥ १२ ॥ | यदि भव, आयु, काय और शरीर आदिकी स्थितिका समय जोड़ा जाये तो वह अनन्त समयरूप होता है और उसका परिवर्तन भी अनन्त प्रकारसे होता है || १३ ||
१. स्वरूपेण । २. अगुरुलघुगुणः । ३. जीवास्तिकायः । ४. संश्रयः । ५. मुख्यकालेन । ६. कल्पितः म० । ७. यु: काय -ल० अ० म०, स०, प०, द० । ८. संकल्पनात्मकः प० । ९ - नन्तकः स० । १० वर्ष्म प्रमाणम् । " वर्ष्म देहप्रमाणयोः" इत्यमरः ।