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तृतीयं पर्व
पुराणं मुनिमानम्य जिनं वृषभमच्युतम् । महतस्तत्पुराणस्य पीठिका ब्याकरिष्यते ॥१॥ अनादिनिधनः कालो वर्तनालक्षणो मतः । लोकमात्रः सुसूक्ष्माणुपरिच्छिन्ने प्रमाणकः ।।२।। सोऽसंख्येयोऽप्यनन्तस्य वस्तुराशेरुपग्रहे । वर्त्तते स्वगतानन्तसामर्थ्यपरिबृंहितः ॥३॥ यथा कुलालचक्रस्य भ्रान्तेहेंतुरश्शिला । तथा कालः पदार्थानां वर्शनोपग्रह मतः ॥४॥ 'स्वतोऽपि वर्तमानानां सोऽर्थानां परिवर्तकः । यथास्वं गुणपर्यायैरतो नान्योऽन्यसंप्लवः ॥५॥ सोऽस्तिकायेष्वसंपाठानास्तीत्येके विमन्वते । षड्दन्येष्पदिष्टत्वाद्युतियोगाच्च तद्गशिः ॥६॥
मैं उन वृषभनाथ स्वामीको नमस्कार करके इस महापुराणकी पीठिकाका व्याख्यान करता हूँ जो कि इस अवसर्पिणी युगके सबसे प्राचीन मुनि हैं, जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लिया है और विनाशसे रहित हैं।शा
____ कालद्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है (जो द्रव्योंकी पर्यायोंके बदलने में सहायक हो उसे वर्तना कहते हैं) यह कालद्रव्य अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु बराबर है
और असंख्यात होनेके कारण समस्त लोकाकाशमें भरा हुआ है । भावार्थ-कालद्रव्यका एकएक परमाणु लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर स्थित है ।।२।। उस कालद्रव्यमें अनन्त पदार्थोके परिणमन करानेकी सामर्थ्य है अतः वह स्वयं असंख्यात होकर भी अनन्त पदार्थोके परिणमनमें सहकारी होता है ।।३।। जिस प्रकार कुम्हारके चाकके घूमनेमें उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थोके परिणमन होने में काल द्रव्य सहकारी कारण है । संसारके समस्त पदार्थ अपने-अपने गुणपर्यायों-द्वारा स्वयमेव ही परिणमनको प्राप्त होते रहते हैं और कालद्रव्य उनके उस परिणमनमें मात्र सहकारी कारण होता है। जब कि पदार्थोंका परिणमन अपने-अपने गुणपर्याय रूप होता है तब अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि वे सब पदार्थ सर्वदा पृथक्-पृथक रहते हैं अर्थात् अपना स्वरूप छोड़कर परस्परमें मिलते नहीं हैं ॥४॥ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं अर्थात् सत्स्वरूप होकर बहुप्रदेशी हैं। इनमें कालद्रव्यका पाठ नहीं है, इसलिए वह है ही नहीं इस प्रकार कितने ही लोग मानते हैं परन्तु उनका वह मानना ठीक नहीं है क्योंकि यद्यपि एक प्रदेशी होनेके कारण काल द्रव्यका पंचास्तिकायोंमें पाठ नहीं है तथापि छह द्रव्योंमें तो उसका पाठ किया गया है । इसके सिवाय युक्तिसे भी काल द्रव्यका सद्भाव सिद्ध होता है। वह युक्ति इस प्रकार है कि संसारमें 'ओ घड़ी, घण्टा आदि व्यवहार कालप्रसिद्ध है वह पर्याय है। पर्यायका मूलभूत कोई-न-कोई पर्यायी अवश्य होता है क्योंकि बिना पर्यायीके पर्याय नहीं हो सकती इसलिए व्यवहार कालका मूल--------
१. परिच्छिन्नः निश्चितः। २. उपकारे । -रुपग्रहः म०। ३. -ग्रहो मत: प० । ४. स्वसामर्थ्यात् । ५. विवर्त-द०, स०, प०, म०, ल० । ६. यथायोग्यम्। ७. -स्वगुण-स०, ल०। ८. परस्परसंकरः । . ९. द्राविडाः । १० उपायः ।