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द्वितीयं पर्व
३१ विज्ञाप्यमन्यदप्यस्ति समाधाय मनः शृणु । 'यतो भगवतश्चित्तं दृढं स्यान्मदनुग्रहे ॥२१॥ पुरा चरितमज्ञानान्मया दुश्चरितं महत् । तस्यैनसः प्रशान्त्यर्थ प्रायश्चित्तं चराम्यहम् ॥ २२॥ हिंसानृतान्यरैरामारत्यारम्मपरिग्रहैः । मया संचितमशंन पुरैनो निरयोचितम् ॥२३॥ कृतो मुनिवधानन्दस्तीतो मिथ्यादृशा मया । येनायुष्कर्म दुर्मोचं बद्धं श्वाभ्रीं गातें प्रति ॥२४॥ तत्प्रसीद विमो वक्तुमामूलात् पावनी कथाम् । निष्क्रयों दुष्कृतस्यास्तु मम पुण्यकथाश्रुतिः ॥२५॥ इति प्रश्रयिणी वाचमुदीर्य मगधाधिपः । व्यरमदशनज्योत्स्नाकृतपुष्पार्चनस्तुतिः ॥२६॥ ततस्तमृषयो दीप्ततपोलक्ष्मीविभूषणाः । प्रशशंसुरिति प्रीता धार्मिकं मगधेश्वरम् ॥२७॥ साधु भो मगधाधीश! साधु प्रभविदां वर!। पृच्छताद्य त्वया तत्त्वं साधु नः प्रीणितं मनः ॥२८॥ "पिपृच्छिषितमस्मामिर्यदेव परमार्थकम् । तदेवाय त्वया पृष्टं संवादः पश्य कीदृशः ॥२९॥ 'बुभुसावेदन' प्रश्नः स ते धर्मो बुभुत्सितः । त्वया बुभुत्सुना धर्म "विश्वमेव बुभुत्सितम् ॥३०॥
पश्य धर्मतरोरर्थः फलं कामस्तु तद्रसः । सत्रिवर्गत्रयस्यास्य मूलं "पुण्यकथाश्रुतिः ॥३१॥ यह पुराण कहिए ।।२०।। हे भगवन् , इसके सिवाय एक बात और कहनी है उसे चित्त स्थिर कर सुन लीजिए जिससे मेरा उपकार करने में आपका चित्त और भी दृढ़ हो जाये ॥२॥ वह बात यह है कि मैंने पहले अज्ञानवश बड़े-बड़े दुराचरण किये हैं। अब उन पापोंकी शान्तिके लिए ही यह प्रायश्चित्त ले रहा हूँ ॥२२॥ हे नाथ, मुझ अज्ञानीने पहले हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन और अनेक प्रकारके आरम्भ तथा परिग्रहादिके द्वारा अत्यन्त घोर पापोंका संचय किया है ।२३॥ और तो क्या, मुझ मिथ्यादृष्टिने मुनिराजके वध करने में भी बड़ा आनन्द माना था जिससे मुझे नरक ले जानेवाले नरकायु कर्मका ऐसा बन्ध हुआ जो कभी छूट नहीं सकता ।२४|| इसलिए हे प्रभो, उस पवित्र पुराणके प्रारम्भसे कहने के लिए मुझपर प्रसन्न होइए क्योंकि उस पुण्यवर्धक पुराणके सुननेसे मेरे पापांका अवश्य ही निराकरण हो जायेगा ।।२५।। इस प्रकार दाँतोंकी कान्तिरूपी पुष्पोंके द्वारा पूजा और स्तुति करते हुए मगधसम्राट् विनयके साथ ऊपर कहे हुए वचन कहकर चुप हो गये ॥२६॥
तदनन्तर श्रेणिकके प्रश्नसे प्रसन्न हुए और तीव्र तपश्चरणरूपी लक्ष्मीसे शोभायमान मुनिजन नीचे लिखे अनुसार उन धर्मात्मा श्रेणिक महाराजकी प्रशंसा करने लगे ॥२७॥ हे मगधेश्वर, तुम धन्य हो, तुम प्रश्न करनेवालोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ हो, इसलिए और भी धन्य हो, आज महापुराणसम्बन्धी प्रश्न पछते हुए तुमने हम लोगोंके चित्तको बहुत ही हर्षित किया है।॥२८॥ हे श्रेणिक, श्रेष्ठ अक्षरोंसे सहित जिस पुराणको हम लोग पछना चाहते थे उसे ही तुमने पूछा है। देखो, यह कैसा अच्छा सम्बन्ध मिला है ।।२९।। जाननेकी इच्छा प्रकट करना प्रश्न कहलाता है। आपने अपने प्रश्नमें धर्मका स्वरूप जानना चाहा है। सो हे श्रेणिक, धर्मका स्वरूप जाननेकी इच्छा करते हुए आपने सारे संसारको जानना चाहा है अर्थात् धर्मका स्वरूप जाननेकी इच्छासे आपने अखिल संसारके स्वरूपको जाननेकी इच्छा प्रकट की है ॥३०॥ हे श्रेणिक, देखो, यह धर्म एक वृक्ष है। अर्थ
१ विज्ञापनात् समाधानात् । २ भवतः । ३ अन्यधनवनितारति । ४ दति निकाचितम् अ०, स०, द०,५०। ५ निःक्रिया ट०। ६ उक्त्वा । ७ प्रष्ट्रमिष्टम। ८ परमाक्षरम अ०, स०,५०, ल०, द. ६ प्रकृतार्थादविचलनं संवादः । १. बोधुमिच्छा । ११ वेदनं विज्ञापनम् । वेदनः अ०, स०, द०। १२ बुभुत्सता द०, स०, १०,५०,म०, ल०। १३ सर्वमेव द०, प० । १४ धर्मकथा म०, ५०।