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आदिपुराणम् इदं पुण्याश्रमस्थानं पवित्रं त्वत्प्रतिश्रयात् । रक्षारण्यमिवामाति तपोलक्ष्म्या निराकुलम् ॥१०॥ अत्रैते पशवो वन्या' पुष्टा मृष्टैस्तृणाकुरैः । न करमृगसंबाधां जानन्स्यपि कदाचन ॥११॥ पादप्रधावनोत्सृष्टेः२ कमण्डलुजलैरिम । अमृतैरिव वढन्ते मृगशावाः पवित्रिताः ॥१२॥ सिंहस्तनन्धयानत्र करिण्यः पाययन्त्यमूः । सिंहधेनुस्तनं स्वैरं स्पृशन्ति कलमा इमे ॥१३॥ अहो परममाश्चर्य यदवाचोऽप्यमी मृगाः । मजन्ति भगवत्पादच्छायां मुनिगणा इव ॥१४॥ अकृत्तवल्कलाश्वामी प्रसूनफलशालिनः । धर्मारामतस्यन्ते परितो वनपादपाः ॥१५॥ इमा वनलता रम्याः प्रफुल्ला भ्रमरैर्वृताः । न विदुः करसंवार्धा राजन्वत्य इस प्रजाः ॥१६॥ तपोवनमिदं रम्यं परितो विपुलाचलम् । दयावनमिवोतं प्रसादयति मे मनः ॥१०॥ इमे तपोधना दीप्ततपसो वातवल्कलाः । मवेत्पादप्रसादेन मोक्षमार्गमुपासते ॥१८॥ इति प्रस्पष्टमाहात्म्यः कृती जगदनुग्रहे । भगवन् 'भव्यसार्थस्य "सार्थवाहायते भवान् ॥१९॥ ततो हि महायोगिन् न ते कश्चिदगोचरः । तव ज्ञानांशवो दिव्याः प्रसरन्ति जगस्त्रये ॥२०॥
अग्निकी सात शिखाएँ ही हों॥९॥ हे भगवन् , आपके आश्रयसे ही यह समवसरण पुण्यका आश्रमस्थान तथा पवित्र हो रहा है अथवा ऐसा मालूम होता है मानो तपरूपो लक्ष्मीका उपद्रवरहित रक्षावन ही हो ॥१०॥ हे नाथ, इस समवसरणमें जो पशु बैठे हुए हैं वे धन्य हैं, इनका शरीर मीठी घासके खानेसे अत्यन्त पुष्ट हो रहा है, ये दुष्ट पशुओं (जानवरों ) द्वारा होनेवाली पीडाको कभी जानते ही नहीं हैं ॥११॥ पादप्रक्षालन करनेसे इधर-उधर फैले हुए कमण्डलुके जलसे पवित्र हुए ये हरिणोंके बच्चे इस तरह बढ़ रहे हैं प्रानो अमृत पीकर ही बढ़ रहे हो ॥१२॥ इस ओर ये हथिनियाँ सिंहके बच्चेको अपना दूध पिला रही हैं और ये हाथीके बच्चे स्वेच्छासे सिंहिनीके स्तनोंका स्पर्श कर रहे हैं-दूध पी रहे हैं ॥१३॥ अहो ! बड़े आश्चर्यकी बात है कि जिन हरिणोंको बोलना भी नहीं आता वे भी मुनियोंके समान भगवानके चरणकमलोंको छायाका आश्रय ले रहे हैं ॥१४॥ जिनकी छालोंको कोई छील नहीं सका है तथा जो पुष्प और फलोंसे शोभायमान हैं ऐसे सब ओर लगे हुए ये वनके वृक्ष ऐसे मालूम होते हैं मानो धर्मरूपी बगीचेके ही वृक्ष हैं ।।१५।। ये फूली हुई और भ्रमरोंसे घिरी हुई वनलताएँ कितनी सुन्दर हैं ? ये सब न्यायवान राजाकी प्रजाकी तरह कर-बाधा (हाथसे फल-फूल आदि तोड़नेका दुःख, पक्षमें टैक्सका दुःख) को तो जानती ही नहीं हैं ॥१६॥ आपका यह मनोहर तपोवन जो कि विपुलाचल पर्वतके चारों
ओर विद्यमान है, प्रकट हुए दयावनके समान मेरे मनको आनन्दित कर रहा है ॥१७॥ हे भगवन् , उग्र तपश्चरण करनेवाले ये दिगम्बर तपस्वीजन केवल आपके चरणोंके प्रसादसे ही मोक्षमार्गकी उपासना कर रहे हैं ।।१८।। हे भगवन् , आपका माहात्म्य अत्यन्त प्रकट है, आप जगत्के उपकार करने में सातिशय कुशल हैं अतएव आप भव्य समुदायके सार्थवाह-नायक 'गिने जाते हैं ।।१९।। हे महायोगिन् , संसारमें ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो आपके ज्ञानका विषय न हो, आपकी मनोहर ज्ञानकिरणें तीनों लोकोंमें फैल रही हैं इसलिए हे देव, आप हीं
१. धन्याः अ०,१०,द०, स०, म०, ल०। २. पादप्रधावनोत्सष्टविशिष्टसलिलैरिमे १०, द०। ३. अकृत्तः अच्छिन्नः। ४. विकसिताः। ५. करः हस्तः वलिश्च । ६. विपुलगिरेरभितः। "हाधिकसमयानिकषापयुपर्यवोऽत्यन्तरान्तरेणतस्पर्यभिसरोऽभयैश्चाप्रधानेऽमौटशस् ।" ७. वायुर्वल्कलं येषां ते दिगम्बराः। ८. कुशलः । ९. भव्यसार्थस्य सार्थस्य अ०, स.। १०. सङ्गस्य । ११. सार्थवाहः बणिश्रेष्ठः । १२. दीप्ताः अ०, स० ।