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आदिपुराणम् धर्मादर्थश्च कामश्च स्वर्गश्चेत्यविगानतः'। धर्मः कामार्थयोः सूतिरित्यायुष्मन् विनिचिनु ॥३२॥ धर्मार्थी सर्वकामार्थी धर्मार्थी धनसौल्यवान धर्मो हि मूलं सर्वासां धनर्दिसुखसंप्रदाम् ॥३३॥ धर्मः कामदुधा धेनुर्धर्मचिन्तामणिमहान् । धर्मः कल्पतरुः स्थेयान् धर्मो हि निधिरक्षयः ॥३॥ पश्य धर्मस्य माहात्म्यं योऽपायात्परिरक्षति । यत्र स्थितं नरं दूराचा तिक्रामन्ति देवताः ॥३५॥ "विचारनृपलोकात्मदिव्यप्रत्ययतोऽपि च । धीमन् धर्मस्य माहात्म्यं निर्विचारमवेहि मोः ॥३६॥ स धर्मो विनिपातेभ्यो यस्मात् संधारयेवरम् । धत्ते चाभ्युदयस्थाने निरपायसुलोदये ॥३७॥ सच धर्मः पुराणार्थः पुराणं पनवा विदुः । क्षेत्रं कालम तीर्थ च सरसस्तद्विचेष्टितम् ॥३८॥ क्षेत्रं त्रैलोक्यविन्यासः कालस्त्रकाल्पविस्तरः । मुक्त्युपायो भवेत्तीर्थ पुरुषास्तनिषेविणः ॥३९॥ न्यास्यमाचरितं तेषां चरितं दुरितच्छिदाम् । इति कृत्स्नः पुराणार्थः प्रश्ने संभावितस्त्वया ॥४०॥
महो प्रसनगम्मीरः प्रश्नोऽयं विश्वगोचरः। क्षेत्रक्षेत्रज्ञसन्मार्गकाखसमरिता ॥४॥ उसका फल है और काम उसके फलोंका रस है। धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंको त्रिवर्ग कहते हैं, इस त्रिवर्गको प्राप्तिका मूल कारण धर्मका सुनना है ॥३१॥ हे आयुष्मन् , तुम यह निश्चय करो कि धर्मसे ही अर्थ, काम, स्वर्गकी प्राप्ति होती है। सचमुच वह धर्म ही अर्थ और कामका उत्पत्तिस्थान है ॥३२॥ जो धर्मकी इच्छा रखता है वह समस्त इष्ट पदार्थोंको इच्छा रखता है। धर्मकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य ही धनी और सुखी होता है क्योंकि धन, ऋद्धि, सुखनजि आदि सबका मल कारण एक धमे हीहै॥३३॥ मनचाही वस्तओंको देनेके लिए धमें ही कामधेनु है, धर्म ही महान चिन्तामणि है, धर्म ही स्थिर रहनेवाला कल्पवृक्ष है और धर्म ही अविनाशी निधि है ॥३४॥ हे श्रेणिक, देखो धर्मका कैसा माहात्म्य है, जो पुरुष धर्म में स्थिर रहता है-निर्मल भावोंसे धर्मका आचरण करता है वह उसे अनेक संकटोंसे बचाता है। तथा देवता भी उसपर आक्रमण नहीं कर सकते, दूर-दूर ही रहते हैं ॥३५॥ हे बुद्धिमन् , विचार, राजनीति, लोकप्रसिद्धि, आत्मानुभव और उत्तम ज्ञानादिकी प्राप्तिसे भी धर्मका अचिन्त्य माहात्म्य जाना जाता है। भावार्थ-द्रव्योंकी अनन्त शक्तियोंका विचार, राज-सम्मान, लोकप्रसिद्धि, आत्मानुभव और अवधि मनःपर्यय आदि शान इन सबकी प्राप्ति धर्मसे ही होती है। अतः इन सब बातोंको देखकर धर्मका अलौकिक माहात्म्य जानना चाहिए ॥३६॥ यह धर्म नरक निगोद आदिके दुःखोंसे इस जीवकी रक्षा करता है और अविनाशी सुखसे युक्त मोक्षस्थानमें इसे पहुँचा देता है इसलिए इसे धर्म कहते हैं ॥३७॥ जो पुराणका अर्थ है वही धर्म है, मुनिजन पुराणको पाँच प्रकारका मानते हैं-क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाएँ ॥३८॥ ऊर्ध्व, मध्य और पातालरूप तीन लोकोंकी जो रचना है उसे क्षेत्र कहते हैं । भूत, भविध्यत् और वर्तमानरूप तीन कालोंकाजो विस्तार है उसे काल कहते हैं। मोक्षप्राप्तिके उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको तीर्थ कहते हैं। इस तीर्थको सेवन करनेवाले शलाकापुरुष सत्पुरुष कहलाते हैं और पापोंको नष्ट करनेवाले उन सत्पुरुषोंके न्यायोपेत आचरणको उनकी चेष्टाएँ अथवा क्रियाएँ कहते हैं। हे श्रेणिक, तुमने पुराणके इस सम्पूर्ण अर्थको अपने प्रश्नमें समाविष्ट कर दिया है ।।३९-४०॥ अहो श्रेणिक, तुम्हारा यह प्रश्न सरल होनेपर भी गम्भीर है, सब तत्त्वोंसे भरा हुआ है तथा क्षेत्र, क्षेत्रको जाननेवाला आत्मा,
१ विवादतः । २ कारणमित्यर्थः । ३ धर्मे । ४ अतिशयेन । ५ विचारं नृप लोकात्म-द। ६ प्रत्ययः शपः