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प्रथमं पर्व
कवीनां तीर्थकृद्देवः 'किंतरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥५२॥ महाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः । विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ॥५३॥ कवित्वस्य परा सीमा वाग्मित्वस्य परं पदम् । गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्च्यते न कैः ॥५४॥ श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । स नः पुनातु पूतात्मा कविवृन्दारको मुनिः ॥५५॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वामिताऽवाङ्मिता यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥५६॥ सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्विरम् । मन्मनःसरसि स्थेयान् मृदुपादकुशेशयम् ॥५७॥ धवलां भारतीं तस्य कीर्ति च विधुनिर्मलाम् । धवलीकृतनिश्शेषभुवनां नमीम्यहम् ॥५०॥ जन्मभूमिस्तपोलक्ष्म्याः श्रुतप्रशमयोनिधिः । जयसेनगुरुः पातु बुधवृन्दाग्रणीः स नः ॥५९।। स पूज्यः कविमिर्लोके कवीनां परमेश्वरः । वागर्थसंग्रहं कृत्स्नं पुराणं यः "समग्रहीत् ।।६०॥ कवयोऽन्येऽपि सन्त्येव "कस्तानुद्देष्टुमप्यलम् । सस्कृता ये जगत्पूज्यास्ते मया मङ्गलार्थिना ॥१॥ त एव कवयो लोके त एव च विचक्षणाः । येषां धर्मकथाङ्गत्वं भारती प्रतिपद्यते ॥ २॥
सब ग्रन्थोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ हैं ॥५१॥ जो कवियोंमें तीर्थकरके समान थे अथवा जिन्होंने कवियोंको पथप्रदर्शन करनेके लिए किसी लक्षणग्रन्थकी रचना की थी और जिनका वचनरूपी तीर्थ विद्वानोंके शब्दसम्बन्धी दोषोंको नष्ट करनेवाला है ऐसे उन देवाचार्य-देवनन्दीका कौन वर्णन कर सकता है ? ॥५२॥ भट्टाकलक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्योंके अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानोंके हृदयमें मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं ॥५३॥ वे वादिसिंह कवि किसके द्वारा पूज्य नहीं हैं जो कि कवि, प्रशस्त व्याख्यान देनेवाले और गमकों-टीकाकारोंमें सबसे उत्तम थे ॥५४॥ वे अत्यन्त प्रसिद्ध वीरसेन भट्टारक हमें पवित्र करें जिनकी आत्मा स्वयं पवित्र है, जो कवियोंमें श्रेष्ठ हैं, जो लोकव्यवहार तथा काव्यस्वरूपके महान् ज्ञाता हैं तथा जिनकी वाणीके सामने औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं सुरगुरु बृहस्पतिकी वाणो भो सीमित-अल्प जान पड़ती है ॥५५-५६॥ धवलादि सिद्धान्तोंके ऊपर अनेक उपनिबन्ध-प्रकरणोंके रचनेवाले हमारे गुरु श्रीवीरसेन भट्टारकके कोमल चरणकमल हमेशा हमारे मनरूप सरोवर में विद्यमान रहें॥५७॥ श्रीवीरसेन गुरुकी धवल, चन्द्रमाके समान निर्मल और समस्त लोकको धवल करनेकाली वाणी (धवलाटीका) तथा कीर्तिको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ॥५८॥ वे जयसेन गुरु हमारी रक्षा करें जो कि तपोलक्ष्मीके जन्मदाताथे, शास्त्र और शान्तिके भाण्डार थे, विद्वानोंके समूह के अग्रणी-प्रधान थे, वे कवि परमेश्वर लोकमें कवियों। द्वारा पूज्य थे जिन्होंने शब्द और अर्थके संग्रहरूप समस्त पुराणका संग्रह किया था ।।५९-६०॥
- इन ऊपर कहे हुए कवियोंके सिवाय और भी अनेक कवि हैं उनका गुणगान तो दूर रहा नाम मात्र भी कहनेमें कौन समर्थ हो सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। मङ्गल प्राप्तिकी अभिलाषासे मैं उन जगत्पूज्य सभी कवियोंका सत्कार करता हूँ ॥६१।। संसारमें वे ही पुरुष कवि हैं और वे ही चतुर हैं जिनकी कि वाणी धर्मकथाके अंगपनेको प्राप्त होती है अर्थात्
१. कवीनां तीर्थकृदित्यनेनैव वर्णनेनालम् । तत्र देवे अन्यत् किमपि अतिशयेन न वर्णनीयमिति भावः । तदेव तीर्थकृत्त्वं समर्थम् । इतरमपरार्द्धमाह । २. जलम् । ३. वागरूपम् । ४. वादिवृन्दा- स०, द० । ५. श्रेष्ठः । ६. वाग्मिनो स०, द०। ७. अवामिता अत्यीकृता । ८. व्याख्यानानाम । ९. तां नमाम्य-द०। १०. शब्दः । ११. संग्रहमकरोत् । १२. नाममात्रेण कथयितुम् । १३. समर्थः ।