________________
आदिपुराणम्
"प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसरः । सिद्धसेनकविजयाद् विकल्पनखराङ्कुरः ॥ ४२ ॥ नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचोवज्रपातेन निर्मिनाः कुमताद्वयः ॥ ४३ ॥
3
'कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः 'सामन्तभद्दीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥ ४४ ॥ श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ॥ ४५ ॥ "विदुब्विणीषु सत्सु यस्य नामापि कीर्तितम् । 'निखर्वयति तद्भवं यशोमन्द्रः स पातु नः ॥ ४६ ॥ चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥४७॥ चन्द्रोदयकृतस्तस्य यशः केन न शस्यते । यदाकल्पमनाम्लानि सतां शेखरतां गतम् ॥ ४८ ॥ "शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयम् । मोक्षमार्गं स पायानः शिवकोटिर्मुनीश्वरः ॥४९॥ काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रबलवृत्तयः । श्रर्थान् 'स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥५०॥ धर्मसूत्रानुगा हृद्या यस्य वाङ्मणयोऽमलाः । कथालंकारतां भेजुः काणभिक्षुर्जयत्यसौ ॥ ५१ ॥
१२
१०
०
१४
हैं- मूलभूत होते हैं ॥४१॥ | वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों जो कि प्रवादीरूप हाथियोंके झुण्डके लिए सिंहके समान हैं, नैगमादि नय ही जिनकी केसर ( अयाल - गरदनपर - के बाल ) तथा अस्ति नास्ति आदि विकल्प ही जिनके पैने नाखून ॥४२॥ मैं उन महाकवि समन्तभद्रको नमस्कार करता हूँ जो कि कवियों में ब्रह्माके समान हैं और जिनके वचनरूप वज्रके पातसे मिथ्यामतरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते थे ||४३|| स्वतन्त्र कविता करनेवाले कवि, शिष्यों को प्रन्थके मर्म तक पहुँचानेवाले गमक टीकाकार, शास्त्रार्थ करने वाले वादी और मनोहर व्याख्यान देनेवाले वाग्मी इन सभीके मस्तकपर समन्तभद्र स्वामीका यश चूड़ामणिके समान आचरण करनेवाला है, अर्थात् वे सबमें श्रेष्ठ थे ||४४ || मैं उन श्रीदत्तके लिए नमस्कार करता हूँ जिनका शरीर तपोलक्ष्मीसे अत्यन्त सुन्दर है और जो प्रवादीरूपी हस्तियोंके भेदनमें सिंहके समान थे ||४५|| विद्वानोंकी सभामें जिनका नाम कह देने मात्र से सबका गर्व दूर हो जाता है वे यशोभद्र स्वामी हमारी रक्षा करें || ४६ || मैं उन प्रभाचन्द्र कविकी स्तुति करता हूँ जिनका यश चन्द्रमा की किरणोंके समान अत्यन्त शुक्ल है और जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगतको हमेशा के लिए आह्लादित किया है ||४७|| वास्तवमें चन्द्रोदयकी ( न्यायकुमुदचन्द्रोदयकी ) रचना करनेवाले उन प्रभाचन्द्र आचार्यके कल्पान्त काल तक स्थिर रहनेवाले तथा सज्जनोंके मुकुट - भूत यशकी प्रशंसा कौन नहीं करता ? अर्थात् सभी करते हैं ||४८ || जिनके वचनोंसे प्रकट हुए चारों आराधनारूप मोक्षमार्ग ( भगवती आराधना ) की आराधना कर जगत् के जीव सुखी होते हैं वे शिवकोटि मुनीश्वर भी हमारी रक्षा करें || ४२ || जिनकी जटारूप प्रबल - युक्तिपूर्ण वृत्तियाँ - टीकाएँ काव्योंके अनुचिन्तनमें ऐसी शोभायमान होती थीं मानो हमें उन काव्योंका अर्थ ही बतला रही हों, ऐसे वे जटासिंहनन्दि आचार्य ( वराङ्गचरितके कर्ता) हम लोगोंकी रक्षा करें ॥५०॥ वे काणभिक्षु जयवान् हों जिनके धर्मरूप सूत्रमें पिरोये हुए मनोहर वचनरूप निर्मल मणि कथाशास्त्र के अलंकारपनेको प्राप्त हुए थे अर्थात् जिनके द्वारा रचे गये कथाग्रन्थ
१. परवादि । २. नैगमादिः । ३. “कविर्नूतनसन्दर्भों गमकः कृतिभेदगः । वादी विजयवाग्वृत्तिर्वाग्मी तु जनरञ्जकः ॥" ४. समन्तभ - अ०, स० । ५. चूडामणिरिवाचरति । ६ विद्वांसः अत्र सन्तीति विदुष्विण्यस्तासु । ७. सभासु । ८. नितरां ह्रस्वं करोति । ९. ग्रन्थविशेषम् । १०. ईषद्द्मलानि । न आम्लानि अनाम्लानि । -मनाम्लायि द०, स०, अ०, प०, ल० । ११. सुखीभूतम् । १२. आराधनाचतुष्टयम् । १३. तु हिच स्माह वै पादपूरणे । १४. सार्थकं पुनर्वचनम् अनुवादः । १५. क्वापभिक्षु अ०, स० ।