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आदिपुराणम्
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किं तेषामायुषो मानं किं वर्ष्म किमथान्तरम् । कुतूहलमिदं ज्ञातुं विश्वं विश्वजनीन मे ॥ १७३ ॥ कस्मिन् युगे कियन्तो वा 'युगांशाः किं युगान्तरम् । युगानां परिवर्ती वा कतिकृत्वः प्रवर्तते ॥१७४॥ युगस्य कथिते[कतियें ]भागे मनवो मम्वते च किम् । किं वा मन्वन्तरं देव तत्त्वं मे ब्रूहि तत्वतः ॥ १७५ ॥ लोकं कालावतारं च ‘वंशोत्पत्तिलयस्थितीः । वर्णसंभूतिमन्यश्च बुभुत्सेऽहं भवन्मुखात् ।।१७६।। अनादिवासनोद्भूतमिथ्याज्ञानसमुत्थितम् । नुद मे संशयध्वान्तं जिनार्कवचनांशुभिः ॥ १७७॥ इति प्रश्नमुपन्यस्य भरतः शातमातुरः । " विरराम यथास्थानमासीनख २ कथोत्सुकः ।। १७८।। लब्धावसरभिद्धार्थं सुसंबद्धमनुद्धतम् । अभ्यनन्दत् सभा कृत्स्ना प्रश्नमस्येशितुर्विशाम् ॥१७९ ॥ तत्क्षणं सत्कथाप्रश्नात्तदर्पितडशः सुराः । पुष्पवृष्टिमिवातेनुः प्रतीता भरतं प्रति ॥ १८० ॥ साधु भो भरताधीश प्रतीक्ष्योऽसि त्वमद्य नः । प्रशशंसुरितीन्द्रास्तं प्रश्रयात् को न शस्यते ॥ १८१ ॥ प्रश्नाद्विनैव तद्भावं जानन्नपि स सर्ववित् । तत्प्रभान्तमुदैक्षिष्ट " प्रतिपत्रनुरोधतः ॥ १८२ ॥
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आभूषण होंगे ? उनके क्या-क्या अस्त्र होंगे ? उनकी आयु और शरीरका प्रमाण क्या होगा ? एक-दूसरे में कितना अन्तर होगा ? किस युगमें कितने युगोंके अंश होते हैं ? एक युगसे दूसरे युगमें कितना अन्तर होगा ? युगोंका परिवर्तन कितनी बार होता है ? युगके कौन-से भागमें मनु-कुलकर उत्पन्न होते हैं ? वे क्या जानते हैं ? एक मनुसे दूसरे मनुके उत्पन्न होने तक कितना अन्तराल होता है ? हे देव, यह सब जाननेका मुझे कौतू• उत्पन्न हुआ है सो यथार्थ रीतिसे मुझे इन सब तत्वोंका स्वरूप कहिए ।।१७२ - १७५।। इसके सिवाय लोकका स्वरूप, कालका अवतरण, वंशकी उत्पत्ति, विनाश और स्थिति, क्षत्रिय आदि वर्णोंकी उत्पत्ति भी मैं आपके श्रीमुखसे जानना चाहता हूँ ॥ १७६॥ हे जिनेन्द्रसूर्य, अनादिकालकी वासनासे उत्पन्न हुए मिथ्याज्ञानसे सातिशय बढ़े हुए मेरे इस संशयरूपी अन्धकारको आप अपने वचनरूप किरणोंके द्वारा शीघ्र ही नष्ट कीजिए ॥ १७७॥ इस प्रकार प्रश्न कर महाराज भरत जब चुप हो गये और कथा सुननेमें उत्सुक होते हुए अपने योग्य आसनपर बैठ गये तब समस्त समाने भरत महाराजके इस प्रश्नकी सातिशय प्रशंसा की जो कि समयके अनुसार किया गया था, प्रकाशमान अर्थोंसे भरा हुआ था, पूर्वापर सम्बन्धसे सहित था तथा उद्धतपनेसे रहित था । १७८ - १७९ ।। उस समय उनके इस प्रश्नको सुनकर सब देवता लोग महाराज भरतकी ओर आँख उठाकर देखने लगे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वे उनपर पुष्पवृष्टि ही कर रहे हैं ॥ १८०॥ हे भरतेश्वर, आप धन्य हैं, आज आप हमारे भी पूज्य हुए हैं। इस प्रकार इन्द्रोंने उनकी प्रशंसा की थी सो ठीक ही है, विनयसे किसकी प्रशंसा नहीं होती ? अर्थात् सभीकी होती है ।। १८१ ॥ संसारके सब पदार्थोंको एक साथ • जाननेवाले भगवान् वृषभनाथ यद्यपि प्रश्नके बिना ही भरत महाराजके अभिप्रायको जान गये तथापि वे श्रोताओंके अनुरोधसे प्रश्नके पूर्ण होनेकी प्रतीक्षा करते रहे ॥१८२॥
१. वर्ष्म प्रमाणं शरीरोत्सेध इत्यर्थः । २. विश्वजनेभ्यो हित । ३. युगान्ताः म० । सुषमादयः । ४. अवधिः । ५. कतीनां पूरणम् । ६. जानन्ति । ७. तत् त्वमिति पदविभागः । ८. वंशोत्पत्ति लयस्थिती ल० । ९. बोद्धुमिच्छामि । १०. शतस्य माता शतमाता, शतमातुरपत्यं शातमातुरः । ' संख्यासम्भद्रान्मस्तु जुर्' । ११. तूष्णीं स्थितः । १२. उपविष्टः । १३. इद्धः समृद्धः । १४. विशामीशितुः राशः । १५ प्रतीतां द० म०, ल० । प्रतीतं प० । १६. पूज्यः । १७ विनापि द०, प० । १८ प्रतिपत्रविरोधतः स० ।