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आदिपुराणम् तत्र देवसमे देवं स्थितमत्यद्भुतस्थितिम् । प्रणनाम मुदाभ्येत्य भरतो भक्तिनिर्मरः ॥१५२॥ स तं स्तुतिभिरर्थ्याभिरभ्यय॑ नृसुराचिंतम् । यथोचितं सभास्थानमध्यास्त विनयानतः ॥१५३।। समा समासुरसुरा पीत्वा धर्मामृतं विभोः। पिप्रिये पमिनीवोचदंशुजालमलं रवेः ॥१५४॥॥ मध्येसममथोत्थाय भरतो रचिताञ्जलिः। व्यजिज्ञपदिदं वाक्यं प्रश्रयो मूर्तिमानिव ॥१५५॥ त्रुवतोऽस्य मुखाम्भोजालसदन्तांशुकेसरात् । निर्ययौ मधुरा वाणी प्रसन्नेव सरस्वती ॥१५६॥ त्वत्तः प्रबोधमायान्ती सभेयं ससुरासुरा। प्रफुल्लवदनाम्मोजा व्यक्तमम्मोजिनीयते ॥पणा तमःप्रलयलीनस्य जगतः सर्जनं प्रति । त्वयामृतमिवासिक्तमिदमालक्ष्यते वचः ॥१५॥ नोदभास्यन् यदि ध्वान्तविच्छिदस्त्वद्वचोंऽशवः । तमस्यन्धे जगत्कृत्स्नमपतिष्यदिदं ध्रुवम् ॥१५९॥ युष्मत्संदर्शनादेव देवाभन्म कृतार्थता । कस्य वा नु कृतार्थत्वं संनिधौ महतो निधेः ॥१६०॥ श्रुत्वा पुनर्मवद्वाचं कृतार्थतरकोऽस्म्यहम् । दृष्ट्वामृतं कृती लोकः किं पुनस्तद्रसोपयुक् ॥१६१॥ इष्ट एव किलारण्ये वृष्टो देव इति श्रुतिः। स्पष्टीभूताद्य मे देव घृष्टं धर्माम्बु यत्त्वया ॥१६२॥
॥१५१|| देवाधिदेव भगवान आश्चर्यकारी विभूतिके साथ जब समवसरण सभामें विराजमान थेतव भक्तिसे भरे हुए महाराज भरतने हर्षके साथ आकर उन्हें नमस्कार किया ॥१५२।। महाराज भरतने मनुष्य और देवोंसे पूजित उन जिनेन्द्रदेवकी अर्थसे भरे हुए अनेक स्तोत्रों-द्वारा पूजा की और फिर वे विनयसे नत होकर अपने योग्य स्थानपर बैठ गये ॥१५३।। देदीप्यमान देवोंसे भरी हुई वह सभा भगवानसे धर्मरूपी अमृतका पान कर उस तरह संतुष्ट हुई थी जिस तरह कि सूर्यके तेज किरणोंका पान कर कमलिनी संतुष्ट होती है ॥१५४|| इसके अनन्तर मूर्तिमान विनयकी तरह महाराज भरत हाथ जोड़ सभाके बीच खड़े होकर यह वचन कहने लगे ॥१५५|| प्रार्थना करते समय महाराज भरतके दाँतोंकी किरणरूपी केशरसे शोभायमान मुखसे जो मनोहर वाणी निकल रही थी वह ऐसी मालम होती थी मानो उनके मुखसे प्रसन्न हुई उज्ज्वलवर्णधारिणी सरस्वती ही निकल रही हो ॥१५६।। हे देव, देव और धरणेन्द्रोंसे भरी, हुई यह सभा आपके निमित्तसे प्रबोध-प्रकृष्ट ज्ञानको (पक्षमें विकासको) पाकर कमलिनीके समान शोभायमान हो रही है क्योंकि सबके मुख, कमलके समान अत्यन्त प्रफुल्लित हो रहे हैं ।।१५७।। हे भगवन् , आपके यह दिव्य क्चन अज्ञानान्धकाररूप प्रलयमें नष्ट हुए जगत्की पुनरुत्पत्तिके लिए सींचे गये अमृतके समान मालूम होते हैं ॥१५८।। हे देव, यदि अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले आपके वचनरूप किरण प्रकट नहीं होते तो निश्चयसे यह समस्त जगत् अज्ञानरूपी सघन अन्धकारमें पड़ा रहता ॥१५९।। हे देव, आपके दर्शन मात्रसे ही मैं कृतार्थ हो गया हूँ, यह ठीक हो है महानिधिको पाकर कौन कृतार्थ नहीं होता? ॥१६०॥ आपके वचन सुनकर तो मैं और भी अधिक कृतार्थ हो गया क्योंकि जब लोग अमृतको देखकर ही कृतार्थ हो जाते हैं तब उसका स्वाद लेनेवाला क्या कृतार्थ नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा ॥१६१।। हे नाथ, वनमें मेघका बरसना सबको इष्ट है यह कहावत जो सुनी जाती थी सो आज यहाँ आपके द्वारा धर्मरूपी जलकी वर्षा देखकर मुझे प्रत्यक्ष हो गयो । भावार्थजिस प्रकार वनमें पानीकी वर्षा सबको अच्छी लगती है उसी प्रकार इस कैलासके काननमें
१. सभास्थाने । 'शोङ्स्थासोरधेराधारः' इति सूत्रात्सप्तम्यर्थे द्वितीया। २. तमःप्रलयःअज्ञानमूर्छा । 'प्रलयो मृत्युकल्पान्तमूर्छाद्येषु प्रयुज्यते ।' अथवा 'प्रलयो नष्टचेष्टता' इत्यमरः । ३. भवद्वाक्यं अ०। ४. -रसोपभुक् न०, अ०, ५०, स०, द०, म०, ल०। ५. इन्द्रः मेघः । ६. यस्मात् कारणात् ।