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प्रथमं पर्व श्रोता न चैहिकं किंचित्फलं वाम्छेत्कथाश्रुतौ । नेच्छेद् वक्ता च सरकारधनभेषजसरिक्रयाः' ॥१४३॥ श्रेयोऽयं केवलं ब्रूयात् सन्मार्ग शृणुयाच बै। श्रेयोऽर्था हि सतां चेष्टा न लोकपरिपक्तये ॥१४४॥ श्रोता शुश्रषताथैः स्वैर्गुणयुकः प्रशस्यते । वक्ता च वत्सलत्वादियथोक्तगुणभूषणः ॥१४५॥ शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । स्मृत्यूहापोहनिर्णीतीः श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥१४६॥ सरकथाश्रवणात् पुण्यं श्रोतुर्यदुपचीयते । तेनाभ्युदयसंसिद्धिः क्रमानैःश्रेयसी स्थितिः ॥१४७॥ इत्यातोक्त्यनुसारेण कथितं वः कथामुखम् । कथावतारसंबन्धं वक्ष्यामः शृणुताधुना ॥१४८॥ इत्यनुश्रूयते देवः'पुराकल्पे स नाभिजः । अध्युवास भुवो मौलि कैलासादि यहच्छया ॥१४९॥ तत्रासीनं च तं देवाः परिचेरुः सपर्यया। तुष्टुवुश्च किरीटाप्रसंदष्टकरकुड्मलाः ॥१५०॥ समाविरचनां तत्र सुत्रामा त्रिजगद्गुरोः। प्रीतः प्रवर्तयामास प्राप्तकैवल्यसंपदः ॥१५॥
रत्नके परीक्षक माने गये हैं॥१४२॥ श्रोताओंको शास्त्र सुनने के बदले किसीसांसारिक फलकी चाह नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार वक्ताको भी श्रोताओंसे सत्कार, धन, ओषधि और आश्रयघर आदिकी इच्छा नहीं करनी चाहिए ॥१४३॥ स्वर्ग, मोक्ष आदि कल्याणोंकी अपेक्षा रखकर ही वक्ताको सन्मार्गका उपदेश देना चाहिए तथा श्रोताको सुनना चाहिए क्योंकि सत्पुरुषोंकी चेष्टाएँ वास्तविक कल्याणकी प्राप्तिके लिए ही होती हैं अन्य लौकिक कार्योंके लिए नहीं ॥१४४।। जो श्रोता शुश्रूषा आदि गुणोंसे युक्त होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है। इसी प्रकार को वक्ता वात्सल्य आदि गुणोंसे भूषित होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है ॥१४५॥ शश्रषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, स्मृति, ऊह. अपोह और निर्णीति ये श्रोताओंके आठ गुण जानना चाहिए ।। भावार्थ-सत्कथाको सुननेकी इच्छा होना शुश्रूषा गुण है, सुनना श्रवण है, समझकर ग्रहण करना ग्रहण है, बहुत समय तक उसकी धारणा रखना धारण है, पिछले समय ग्रहण किये हुए उपदेश आदिका स्मरण करना स्मरण है, तर्क-द्वारा पदार्थके स्वरूपके विचार करनेकी शक्ति होना ऊह है, हेय वस्तुओंको छोड़ना अपोह है और युक्ति द्वारा पदार्थका निर्णय करना निर्णीति गुण है। श्रोताओंमें इनका होना अत्यन्त आवश्यक है ॥१४६॥ सत्कथाके सुननेसे श्रोताओंको जो पुण्यका संचय होता है उससे उन्हें पहले तो स्वर्ग आदि अभ्युदयोंकी प्राप्ति होती है और फिर क्रमसे मोक्षकी प्राप्ति होती है . ॥ १४७ ॥ इस प्रकार मैंने शास्त्रोंके अनुसार आप लोगोंको कथामुख (कथाके प्रारम्भ ) का वर्णन किया है अब इस कथाके अवतारका सम्बन्ध कहता हूँ सो सुनो ॥१४८।।
____ कथावतारका वर्णन गुरुपरम्परासे ऐसा सुना जाता है कि पहले तृतीय कालके अन्तमें नाभिराजके पुत्र भगवान् ऋषभदेव विहार करते हुए अपनी इच्छासे पृथिवीके मुकुटभूत कैलास पर्वतपर आकर विराजमान हुए ॥१४९।। कैलासपर विराजमान हुए उन भगवान् वृषभदेवकी देवोंने भक्तिपूर्वक पूजा की तथा जड़े हए हाथोंको मकटसे लगाकर स्तति की ॥१५०| उसी पर्वतपर भगवान्को केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई, उससे हर्षित होकर इन्द्रने वहाँ समवसरणकी रचना करायी
१. संश्रयात् अ०, ५०, स०, द०, म०, ल०। २. परिपङ्क्तये द०, ल०, म०, अ० । परिपाकाय । ३. गुणाः स्मृताः म०। ४. वक्ष्यामि अ०, स०, द०।-५. पूर्वशास्त्रे। 'कल्प: स्यात् प्रलये न्याये शास्त्र ब्रह्मदिने विधौ।' अथवा पुराकल्पे युगादो। ६. कैलासाद्रो। 'वसामनपाध्याङ्' इति सूत्रात् सप्तम्यर्थ द्वितीया। ७. तिरीटाग्र-ल०, म०, अ०। ८. कुट्मला: म०, ल०।