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प्रथमं पर्व दयालुवत्सलो धीमान् परेङ्गित विशारदः । योऽधीती विश्वविद्यासु स धीरः कथयेत् कथाम् ॥१२९॥ नानोपाख्यानकुशलो नानाभाषाविशारदः । नानाशास्त्रकलामिज्ञः स भवेत् कथकाग्रणीः ॥१३०॥ नाङ्गुलीमम्जनं कुर्याश्च ध्रुवौ नर्तयेद् ब्रुवन् । नाधिक्षिपेन च हसेनात्युच्चैर्न शनैर्वदेत् ॥१३१॥ उच्चैः प्रभाषितव्यं स्यात् सभामध्ये कदाचन । तत्राप्यनुद्धतं ब्रूयाद् वचः 'सभ्यमनाकुलम् ॥१३२॥ हितं यान्मितं ब्रूयाद् ब्रूयाद् धम्यं यशस्करम् । प्रसङ्गादपि न यादधर्म्यमयशस्करम् ॥१३३॥ इत्यालोच्य कथायुक्तिमयुक्तिपरिहारिणीम् । प्रस्तूयाद् यः कथावस्तु स शस्तो वदतां वरः ॥१३॥ आक्षेपिणी कथां कुर्यात् प्राज्ञः स्वमतसंग्रहे । विक्षेपिणी कथां तज्ज्ञः कुर्याद् दुर्मतनिग्रहे ॥१३५॥ संवेदिनी कथा पुण्यफलसंपत्प्रपञ्चने । 'निर्वेदिनी कथां कुर्याद् वैराग्यजननं प्रति ॥१३६॥ इति धर्मकथाङ्गत्वादाक्षिप्त चतुष्टयीम् । कथां यथाह श्रोतृभ्यः कथकः प्रतिपादयेत् ॥१३७n धर्मश्रुतौ नियुक्ता ये श्रोतारस्ते मता बुधैः । तेषां च सदसद्भावब्यक्तौ दृष्टान्तकल्पना ॥१३८॥
प्रश्न तथा कुतर्कोको सहनेवाला हो, दयालु हो, प्रेमी हो, दूसरेके अभिप्रायको समझने में निपुण हो, जिसने समस्त विद्याओंका अध्ययन किया हो और धीर, वीर हो ऐसे पुरुषको ही कथा कहनी चाहिए ॥१२६-१२९।। जो अनेक उदाहरणोंके द्वारा वस्तुस्वरूप कहने में कुशल है, संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओंमें निपुण है, अनेक शास्त्र और कलाओंका जानकार है वही उत्तम वक्ता कहा जाता है ॥१३०।। वक्ताको चाहिए कि वह कथा कहते समय अंगुलियाँ नहीं चटकावे, न भौंह ही चलावे, न किसीपर आक्षेप करे, न हँसे, न जोरसे बोले और न धीरे ही बोले ॥१३१।। यदि कदाचित् सभाके बीच में जोरसे बोलना पड़े तो उद्धतपना छोड़कर सत्यप्रमाणित वचन इस प्रकार बोले जिससे किसीको क्षोभ न हो ॥१३२॥ वक्ताको हमेशा वही वचन बोलना चाहिए जो हितकारी हो, परिमित हो, धर्मोपदेशसे सहित हो और यशको करनेवाला हो। अवसर आनेपर भी अधर्मयुक्त तथा अकीर्तिको फैलानेवाले वचन नहीं कहना चाहिए ॥१३३।। इस प्रकार अयक्तियोंका परिहार करनेवालो कथाकी युक्तियोंका सम्यक प्रकारसे विचार कर जो वर्णनीय कथावस्तुका प्रारम्भ करता है वह प्रशंसनीय श्रेष्ठ वक्ता समझा जाता है ॥ १३४ ॥ बुद्धिमान वक्ताको चाहिए कि वह अपने मतकी स्थापना करते समय आक्षेपिणी कथा कहे, मिथ्या मतका खण्डन करते समय विक्षेपिणी कथा कहे, पुण्यके फलस्वरूप विभूति आदिका वर्णन करते समय संवेदिनी कथा कहे तथा वैराग्य उत्पादनके समय निर्वेदिनी कथा कहे ॥ १३५-१३६ ॥ इस प्रकार धर्मकथाके अंगभूत आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी रूप चारों कथाओंका विचार कर श्रोताओंकी योग्यतानुसार वक्ताको कथन करना चाहिए ॥१३७॥ अब आचार्य श्रोताओंका लक्षण कहते हैं
श्रोताका लक्षण जो हमेशा धर्मश्रवण करने में लगे रहते हैं विद्वानोंने उन्हें श्रोता माना है। अच्छे और बुरेके भेदसे श्रोता अनेक प्रकारके हैं, उनके अच्छे और बुरे भावोंके जाननेके लिए नीचे लिखे
१. इङ्गितं चित्तविकृतिः। २. बहुकथानिपुणः । ३. धिक्कारं कुर्यात् । ४. सत्य-द०, स०, १०, प०म०, ल० । ५. प्रारभेत । ६. शास्तां प०, द. । ७. संवेजनी स०, ५०, द०। ८. पुण्यां फल-म०, ल० । ९. निवेदनी प०, स०, द०। १०. अर्थायातम् ।