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आदिपुराणम् 'तत्फलाभ्युदयाङ्गत्वादर्थकामकथा कथा । अन्यथा विकथैवासावपुण्यास्रवकारणम् ॥१९॥ यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसार्थसंसिद्धिरम्जसा । सद्धर्मस्तनिबद्धा या सा सद्धर्मकथा स्मृता ॥१२०॥ प्राहुर्धर्मकथाङ्गानि सप्त सप्तर्धिभूषणाः । यैर्भूषिता कथाऽऽहाय नेटीव रसिका भवेत् ॥१२॥ द्रव्यं क्षेत्रं तथा तीर्थ कालो भावः फलं महत् । प्रकृतं चेत्यमून्याहुः सप्ताङ्गानि कथामुखे ॥१२२॥ द्रव्यं जीवादि षोढा स्यारक्षेत्रं त्रिभुवनस्थितिः । जिनेन्द्रचरितं तीर्थ कालस्त्रेधा प्रकीर्तितः ॥१२३॥ प्रकृतं स्यात् कथावस्तु फलं तत्त्वावबोधनम् । भावः क्षयोपशमजस्तस्य स्यारक्षायिकोऽथवा ॥१२४॥ इत्यमूनि कथाङ्गानि यत्र सा सत्कथा मता । यथावसरमेवैषां प्रपो दर्शयिष्यते ॥१२५।। तस्यास्तु कथकः सूरिः सद्वृत्तः स्थिरधीर्वशी। 'कल्येन्द्रियः प्रशस्ताङ्गः स्पष्टमष्टेष्टगीर्गुणः ॥१२६॥ यः सर्वज्ञमताम्भोधिवाधौतविमलाशयः। अशेषवाङमलापायादज्ज्वला यस्य मारती ॥१२॥
श्रीमाम्जितसभो वाग्मो प्रगल्मः प्रतिमानवान् । यः मतां संमतव्याख्यो"वाग्विमर्दभरक्षमः॥१२८॥ धर्मका विशेष निरूपण होता है उसे बुद्धिमान् पुरुष सत्कथा कहते हैं ॥११८॥ धर्मके फलस्वरूप जिन अभ्युदयोंकी प्राप्ति होती है उनमें अर्थ और काम भी मुख्य हैं अतः धर्मका फल दिखानेके लिए अर्थ और कामका वर्णन करना भी कथा कहलाती है। यदि यह अथे और कामकी कथा धर्मकथासे रहित हो तो विकथा ही कहलायेगी और मात्र पापास्रवका ही कारण होगी ॥११९।। जिससे जीवोंको स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है वास्तव में वही धर्म कहलाता है उससे सम्बन्ध रखनेवाली जो कथा है उसे सद्धर्मकथा कहते हैं ॥१२०॥ सप्त ऋद्धियोंसे शोभायमान गणधरादि देवोंने इस सद्धर्मकथाके सात अंग कहे हैं। इन सात अङ्गोंसे भूषित कथा अलङ्कारोंसे सजी हुई नटोके समान अत्यन्त सरस होजाती है ।।१२।। द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। ग्रंथके आदिमें इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए ॥१२२।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊर्ध्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेवका चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकारका काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञानका होना फल कहलाता है. और वर्णनीय कथावस्तुको प्रकृत कहते हैं ।। १२३-१२४॥ इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथामें पाये जायें उसे सत्कथा कहते हैं। इस ग्रन्थमें भी अवसरके अनुसार इन अंगोंका विस्तार दिखाया जायेगा। ॥१२५।।
वक्ताका लक्षण ऊपर कही हुई कथाका कहनेवाला आचार्य वही पुरुष हो सकता है जो सदाचारी हो, स्थिरबुद्धि हो, इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला हो, जिसकी सब इन्द्रियाँ समर्थ हों, जिसके अंगोपांग सुन्दर हों, जिसके वचन स्पष्ट परिमार्जित और सबको प्रिय लगनेवाले हों, जिसका आशय जिनेन्द्रमतरूपी समुद्रके जलसे धुला हुआ और निर्मल हो, जिसकी वाणी समस्त दोषोंके अभावसे अत्यन्त उज्ज्वल हो, श्रीमान हो, सभाओंको वशमें करनेवाला हो, प्रशस्त वचन बोलनेवाला हो, गम्भीर हो, प्रतिभासे युक्त हो, जिसके व्याख्यानको सत्पुरुष पसंद करते हों, अनेक
१. धर्मफलरूपाभ्युदयाङ्गत्वात् । २. कथनम् । ३. -कारिणी म०, ल०,। ४. भूषणः । ५. -मेतेषां स०, द०। ६. कल्पेन्द्रियः म०, ल०, १० । प्रशस्तनयनादिद्रव्येन्द्रियः । ७. मष्टा शुद्धा । ८. गम्भीराशयः । 'विद्वत्सुप्रगल्भाविशौ'। ९. 'आशूत्तरप्रदात्री भा प्रतिभा सर्वतोमुखी' । १०. प्रश्नसहः ।