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.. प्रथम पर्व
१३ आप्तपाशमतान्यन्ये कवयः पोषयन्त्यलम् । कुकवित्वाद् वरं तेषामकवित्वमुपासितम् ॥७२॥ अनभ्यस्तमहाविद्याः कलाशास्त्रबहिष्कृताः । काव्यानि कर्तु मोहन्ते केचित्पश्यत साहसम् ॥७३॥ तस्मादभ्यस्य शास्त्रार्थानुपास्य च महाकवीन् । धयं शस्यं यशस्यं च काव्यं कुर्वन्तु धीधनाः ॥७॥ परेषां दूषणाजातु न बिभेति कवीश्वरः । किमुलूकमयाद धुन्वन् ध्वान्तं नोदेति 'मानुमान् ॥७५॥ परे तुष्यन्तु वा मा वा कविः स्वार्थ प्रतीहताम् । न पराराधनाच्छे यः श्रेयः सन्मार्गदेशनात ॥६॥ पुराणकवयः कंचित् कंचिन्नवकवीश्वराः। तेषां मतानि मिनानि कस्तदाराधने क्षमः ॥७॥ केचित् सौशब्यमिच्छन्ति केचिदर्थस्य संपदम् । केचित् समासभूयस्त्वं परे ब्यस्ता पदावलीम् ॥७॥ मृदुबधार्थिनः केचित् स्फुटबन्धैषिणः परे । मध्यमाः केचिदन्येषां रुचिरन्यैव लक्ष्यते ॥७९॥ इति भिन्नाभिसन्धिवा हराराधा मनीषिणः । "पृथग्जनोऽपि सूकानामनभिज्ञः सुदुर्ग्रहः ॥८॥ सतीमपि कथा रम्यां दूषयन्त्येव दुर्जनाः । भुजङ्गा इव सच्छायां चन्दनमवल्लरीम् ॥८॥
बहुकुटुम्बी व्यक्तिके समान दुखी होते हैं ॥७१॥ कितने हो कवि अपनी कविता-द्वारा कपिल आदि आप्ताभासोंके उपदिष्ट मतका पोषण करते हैं-मिथ्यामार्गका प्रचार करते हैं। ऐसे कवियोंका कविता करना व्यर्थ है क्योंकि कुकवि कहलानेकी अपेक्षा अकवि कहलाना ही अच्छा है ॥७२॥ कितने ही कवि ऐसे भी हैं जिन्होंने न्याय, व्याकरण आदि महाविद्याओंका अभ्यास नहीं किया है तथा जो संगीत आदि कलाशास्त्रोंके ज्ञानसे दूर हैं फिर भी वे काव्य करनेकी चेष्टा करते हैं, अहो! इनके साहसको देखो ॥७३॥ इसलिए बुद्धिमानोंको शास्त्र और अर्थका अच्छी तरह अभ्यास कर तथा महाकवियोंकी उपासना करके ऐसे काव्यकी रचना करनी चाहिए जो धर्मोपदेशसे सहित हो, प्रशंसनीय हो और यशको बढ़ानेवाला हो ॥७४।। उत्तम कवि दूसरोंके द्वारा निकाले हुए दोषोंसे कभी नहीं डरता। क्या अन्धकारको नष्ट करनेवाला सूर्य उलूकके भयसे उदित नहीं होता ? ॥७५।। अन्यजन सन्तुष्ट हों अथवा नहीं कविको अपना प्रयोजन पूर्ण करनेके प्रति ही उद्यम करना चाहिए। क्योंकि कल्याणकी प्राप्ति अन्य पुरुपोंकी आराधनासे नहीं होती किन्तु श्रेष्ठ मार्गके उपदेशसे होती है ।।७६।। कितने हो कवि प्राचीन हैं और कितने ही नवीन हैं तथा उन सबके मत जुदे-जुदे हैं अतः उन सबको प्रसन्न करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है ? ॥७७। क्योंकि कोई शब्दोंकी सुन्दरताको पसंद करते हैं, कोई मनोहर अर्थसम्पत्तिको चाहते हैं, कोई समासकी अधिकताको अच्छा मानते हैं और कोई पृथक्-पृथक् रहनेवालो अलमस्त पदावलीको ही चाहते हैं ॥७८।। कोई मृदुल-सरल रचनाको चाहते हैं, कोई कठिन रचनाको चाहते हैं, कोई मध्यम श्रेणीको रचना पसन्द करते हैं और कोई ऐसे भी हैं जिनकी रुचि सवसे विलक्षण-अनोखी है ॥७९॥ इस प्रकार भिन्न-भिन्न विचार होनेके कारण बुद्धिमान पुरुषोंको प्रसन्न करना कठिन कार्य है । तथा सुभाषितोंसे सर्वथा अपरिचित रहनेवाले मूर्ख मनुष्यको वशमें करना उनकी अपेक्षा भी कठिन कार्य है ।।८०॥ दुष्ट पुरुष निर्दोष और मनोहर कथाको भी दूषित कर देते हैं, जैसे चन्दनवृक्षकी मनोहर कान्तिसे युक्त नयी कोपलोंको सर्प दूषित कर देते हैं ॥ ८१ ।।
१. भास्करः । २. दर्शनात स०। ३. अभिप्रायाः। ४. सौष्ठवम् । ५. व्यस्तपदावलीम् अ०, व्यस्तपदावलिम् म०। ६. श्लिष्टबन्धः । गाढ़बन्ध इत्यर्थः। ७. अभिप्रायः। ८. दुराराध्या अ०,५०, स०, द०, म०, ल०, 8. विपश्चित: अ०म०। १०. पामरः । ११. सुष्टु दुःखेन महता कष्टेन ग्रहीतुं शक्यः । १२. मञ्जरीम् ल.।