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विषयानुक्रमाणिका
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विषय
पृष्ठ | मार्ग तथा मार्ग का फल आदि के स्वरूप के जानने की इच्छा प्रकट करना ५७७-५८१ भरत के प्रश्न के बाद भगवान आदिनाथ की दिव्यध्वनि का होना। उन्होंने उसमें जीवाजीवादि तत्त्वों का तथा षद्रव्य का विस्तृत विवेचन किया
५८१-५६० श्री जिनेन्द्र के मुख से दिव्यध्वनि सुनकर भरत चक्रधर बहुत ही प्रसन्न हुए । तथा सम्यग्दर्शन और व्रत की शुद्धि को प्राप्त हुए । अन्य भव्य जीव भी यथायोग्य विशुद्धि को प्राप्त हुए ५६०-५६१ पुरिमताल नगर के स्वामी भरत के अनुज वृषभसेन नामक मुख्य गणधर हुए । राजा श्रेयांस तथा सोमप्रभ आदि भी दीक्षा लेकर गणधर हुए । ब्राह्मी और सुन्दरी भी दीक्षा लेकर गणिनी पद को प्राप्त हुईं, मरीचि को छोड़कर प्रायः सभी भ्रष्ट मुनि भगवान् के समीप में प्रायश्चित्त लेकर फिर से मुनि
विषय गये । भरतराज भगवान की पूजा कर बड़े वैभव के साथ अपनी राजधानी में वापस लौटे
५६१-५६३ पंचविंश पर्व भरत के चले जाने और दिव्यध्वनि के बन्द हो जाने के कारण जब वहाँ बिलकुल शान्ति छा गयी तब आठ प्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय और अनन्त चतुष्टय से सुशोभित आद्य जिनेन्द्र की सौधर्मेन्द्र स्तुति करने लगा। इसी के अन्तर्गत जन्म, केवलज्ञान के तथा देवकृत अतिशयों का वर्णन । साधारण स्तुति करने के बाद पीठिका द्वारा सहस्रनाम रूप महास्तवन की भूमिका
५६४-६०३ सहस्रनाम स्तवन
६०३-६३० स्तवन के बाद इन्द्र ने भगवान् से विहार करने की प्रार्थना की । तदनन्तर भगवान् का विहार हआ । विहार का वर्णन ६३०-६३६