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विषयानुनमाणिका
विषय
पृष्ठ । विषय दीक्षाभिषेक होना। भगवान् देवनिर्मित
भगवान के साथ दीक्षित हुए चार हजार पालकी पर आरूढ़ हुए। उस पालकी को
राजा धैर्य से विचलित होने लगे। वे भूखसर्वप्रथम भूमिगोचरी राजा उठाकर सात
प्यास की बाधा नहीं सह सके अतः तपश्चरण कदम ले गये। फिर विद्याधर राजा और
से भ्रष्ट हो गये और तरह-तरह के वेष उसके बाद देवगण ले गये
धारण कर अपनी प्राणरक्षा की। उन भ्रष्ट पति-वियोग के शोक से दुःखी यशस्वती और
मुनियों में भगवान का पोता मरीचि प्रधान सुनन्दादेवी मन्त्रियों के साथ पीछे-पीछे
था जिसने परिव्राजक बनकर कापिल मत चल रही थीं। उनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त
का संस्थापन किया
३६७-४०३ थे अतः उनके पैर ऊँचे-नीचे पड़ रहे थे।
भगवान् के पास कच्छ-महाकच्छ के पुत्र अन्तःपूर की स्त्रियों का शोक वर्णन। कुछ
नमि-विनमि का कुछ मांगने के लिए आना दूर चलकर प्रतीहारों ने अन्य स्त्रियों को
और धरणेन्द्र का उन्हें समझाकर विजयार्ध आगे जाने से रोक दिया। सिर्फ यशस्वती
पर्वत पर ले जाना
४०३-४१० और सुनन्दा कुछ मुख्य-मुख्य स्त्रियों के
कवि की प्रांजल भाषा में विजयार्ध पर्वत का साथ भागे जा रही थीं। मरुदेवी और
विस्तृत वर्णन
४११-४१८ नाभिराज भी इन सब के साथ भगवान्
__ एकोनविंश पर्व का दीक्षाकल्याणक देखने के लिए जा
विजयार्ध पर्वत पर पहुंचकर धरणेन्द्र ने दोनों रहे थे
३८७-३८८ राजकुमारों के लिए उसकी विशेषता का जगद्गुरु भगवान् ने सिद्धार्थक वन में सब
परिचय कराया
४१६-४२१ परिग्रह का त्याग कर पूर्वाभिमुख हो सिद्ध नगरियों के नाम तथा विस्तार आदि का भगवान् को नमस्कार कर शिर के केश
वर्णन
४२१-४२७ उखाड़कर फेंक दिये। इस प्रकार चैत्र कृष्ण
पर्वत की प्राकृतिक शोभा का विविध छन्दोंनवमी के दिन सायंकाल में भगवान् ने दीक्षा
में वर्णन
४२७-४४१ ग्रहण की। इन्द्र ने भगवान् के पवित्र केश रत्नमय पिटारे में रखकर क्षीर-समुद्र में
धरणेन्द्र द्वारा विजयाध का अद्भुत वर्णन जाकर क्षेप दिये। भगवान् के साथ चार
सुनकर नमि-विनमि उसके साथ आकाश हजार अन्य राजा भी दीक्षित हुए । परन्तु
से नीचे उतरे । धरणेन्द्र ने नमि को दक्षिण वे दीक्षा के रहस्य को नहीं समझते थे अतः
श्रेणी का और विनमि को उत्तर श्रेणी का द्रव्यलिंग के ही धारक थे
राजा बनाया। विविध विद्याएँ प्रदान की __ ३८८-३६२
तथा तत्रस्थ विद्याधरों से इनका परिचय इन्द्र द्वारा भगवान का स्तवन ३९२-३
कराया । समस्त विद्याधरों ने इनकी आज्ञा राजा भरत भगवान् की विधिविधानपूर्वक
मस्तकारूढ़ की
४४२-४४४ पूजा कर सूर्यास्त के समय अयोध्या
विश पर्व नगरी में वापस आये
| एक वर्ष तक अन्तराय होने के बाद अष्टादश पर्व
हस्तिनापुर नगर में श्रेयांस महाराज को भगवान् ऋषभदेव छह माह का योग लेकर
पूर्वभव का स्मरण होने से आहारदान की शिलापट्ट पर आसीन हुए। उन्हें दीक्षा विधि का ज्ञात होना और उनके यहाँ लेते ही मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया था।
इक्षुरस का आहार लेना, देवों का पंचाश्चर्य