Book Title: Yogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Author(s): Nainmal V Surana
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यागिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य । . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनूठा प्रकाशन ! योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी! एवं उनका काव्य जैनधर्मदिवाकर परम पूज्य प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुखोल सूरीश्वरजी महाराज सा. एवं पूज्य पंन्यासप्रवर श्री जिनोत्तम विजयजी गणिर्य महाराज सा. - लेखक एवं सम्पादक - नैनमल विनयचन्द्र सुराणा ... एम.ए., बी.एड., साहित्यरत्न ___सिरोही (राजस्थान) - प्रकाशन सहयोग - : । श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ । मेड़तासिटी (राजस्थान) irror----.-.-.-.-.-.-.-. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक आशीर्वचन - योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं ___उनका काव्य - परम पूज्य प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. - ननमल विनयचन्द्र सुराणा एम.ए., बी.एड., साहित्य रत्न सिरोही (राजस्थान) लेखक श्री वीर सं. २५२३ • श्री विक्रम सं. २०५३ . श्री नेमि सं.४६ प्रथमावृत्ति-१००० . मूल्य-२१-००२ . -: प्रकाशन सहयोग :श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ मेड़तासिटी (राजस्थान) प्रकाशक - श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति जोधपुर (राजस्थान) प्राप्ति-स्थान – श्री जैन श्वेताम्बर आदेश्वर मूत्तिपूजक संघ मु. पो. मेड़तासिटी-३४१५१० जि. नागौर (राज.) १११५६०-२०३१२ - ताज प्रिन्टर्स, जोधपुर 0 624435/621853 * । मुद्रक ... Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक नगरी मेड़ता (मेदिनीपुर) शणगार विश्वशान्तिप्रदायक - प्राचीन मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान । DOOD करीब ३७५ वर्ष प्राचीन ६१ इंच की भव्य प्राचीन प्रतिमा जीर्णोद्धारित श्री शान्तिनाथ जिनमन्दिर, मेड़तासिटी उPTER Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्री आनन्दघनजी स्मृति मन्दिर, मेड़ता सिटी (राज.) कारण चाहिन taben song as १७वीं सदी के महान् योगिराज श्री आनन्दघनजी महाराज की भव्य गुरुप्रतिमा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र भावपूर्ण कोटिशः वन्दन हो ... 卐 शासनसम्राट् ॥ W RJ शासन के सम्राट् अलौकिक, दिव्य गुणों के अनुपम धाम । तीर्थोद्धार धुरन्धर गुरुवर, नेमिसूरीश्वर तुम्हें प्रणाम ।। 卐 साहित्ययमाद । परस्परोपग्रहो जीवानाम साहित्य सुधा सम्राट् सुपावन, काव्य-कला मन्दिर अभिराम । अत्र-जग में जगमग है गुरुवर, लावण्यसूरीश्वर तुम्हें प्रणाम।। संयम के सम्राट् कलाधर, गुणगरिमा-युत सार्थक नाम। अमल-कमल शोभित गुरुवर, दक्ष सूरीश्वर तुम्हें प्रणाम ।। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं.पू. आचार्य भगवन्त श्री विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. प. पू. उपाध्याय श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य म. GK Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 我我我我我我获我我我我秋我我我 ॥ स म प ण है M 张秋秋秋我我我我我我我我我我我就是我我我我我我我既狀戏我我 १७ वीं सदी के महान संत, प्राध्यात्मिक अद्भुतयोगी । श्री आनन्दघनजी [लाभानन्दजी] महाराज महामहो पाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज के समकालीन थे। ___'पानन्दघन चौबीसी' उनकी श्रेष्ठतम कृति है। इन + स्तवनों में श्री मानन्दघनजी म. श्री ने अपने अन्तर-हृदय के भावों को अभिव्यक्त किया है । इन स्तवनों के माध्यम * से उन्होंने समस्त मुक्ति-मोक्षमार्ग का अनुपम अवतरण, कर लिया है। वास्तविकता में यह जिन-स्तवन चौबीसी - 'गागर में सागर' समान है । * भले शब्द-देह से इन स्तवनों का कद छोटा लगता * है, किन्तु अर्थ-दृष्टि से ये प्रति विराट् हैं। ये महायोगी * श्री आनन्दघनजी महाराज की अन्तरात्मा के उद्गार स्वरूप हैं। भक्तात्मा जब इन स्तवनों के गीत-गानादिक में मग्न हो जाती है, तब उसे विशिष्ट प्रात्मानन्द की। * अनुपम अनुभूति होती जाती है। ऐसे रचनाकार, अध्यात्मयोगी श्री आनन्दघनजी महाराज की यह श्रेष्ठतम कृति-भावार्थ युक्त उन्हीं को सादर समर्पित है.... -जैनमल सुराणा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह नमः ॥ PMMMMMMAMAMAMAMTAMAMMIMIMAMMomma परम पूज्य प्राचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. के * आशीर्वचन * Lwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwes सत्तरहवीं सदी के महान् सन्त, प्राध्यात्मिक अद्भुतयोगी 'श्री आनन्दघनजी [लाभानन्दजी] महाराज' सुप्रसिद्ध विश्वविख्यात हो गये हैं। ** उन्होंने-श्री जिनवाणी के सिन्धु-सागर को अपनी अनुपम कवित्वशक्ति से पदादिरूप गागर में भर दिया है। * भेदज्ञान के द्वारा जड़ और चेतन दोनों का पृथक्करण किया है। * आगम एवं निगम को आत्मसात् किया है । सम्यग्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र (आचरण) को ही प्रादर्श जीवन का कार्यक्षेत्र बनाया है। . * अपनी स्वरूपस्थ सुन्दर साधना ने सर्वथा ही प्रतिबन्ध मुक्त कर दिया है। * रजकण एवं रत्नकण को समान दृष्टि से देखकर. उन्हें पुद्गल समझकर देखा-अनदेखा कर दिया है । xxwwwwwwwwwwwwwwws Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनुभूतिजन्य शब्दों की शृखला ने श्री नमस्कार महा'मन्त्रादिक के स्वरूप को समझाने में, संसार की असारता को दिखाने में एवं जिनपद-स्तवनादिक की रम्य रचना करने में अनमोल होरे जैसे समय का सदुपयोग सक्षम रहकर के सुन्दर किया है। जिसकी अभिव्यक्ति उनको रचनामों में अनेक जगह संकेतरूप में मिलती है। ऐसे श्री प्रानन्दघनजी महाराज की पदस्तवनादिक को उत्तम रचनाएँ साधकों को प्रबल प्रेरणा देकर साध्य के प्रति सदैव जागरूक रखती हैं। आपके जीवन में प्रतिक्षण प्रात्मानुभूति रूप देदीप्य मान दीपक सदा जलता रहा है। .. प्रस्तुत ग्रन्थ-श्री प्रानन्दघन-पदावली में हिन्दी भावार्थ का सुन्दर प्रालेखन सिरोही-निवासी श्रावक श्रीमान् नैनमल विनयचन्द्रजी सुराणा ने किया है। . ॥ श्रीरस्तु । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHAH प्राक्कथन नैनमल विनयचंद्रजी सुराणा, सिरोही मेड़ता शहर में श्रीमद अानन्दघनजी योगिराज का मन्दिर बना। मन्दिर में श्रीमद् की मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया। उस समय मेड़ता शहर निवासी श्री मांगीलालजी मंगलचंदजी तातेड़ ने अपनी इच्छा व्यक्त की कि योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनके काव्य पर एक ग्रन्थ का प्रकाशन होना चाहिए। परम पूज्य आचार्य भगवन् श्री सुशील सूरीश्वरजी महाराज साहिब तथा प. पू. पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी गरिणवर्य म. सा. ने उनकी विनती स्वीकार करके मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा कि इस ग्रन्थ का 'सुशील साहित्य-प्रकाशन समिति' के माध्यम से प्रकाशन हो जाये तो कैसा रहेगा? मैंने भी प्राचार्य भगवन् की बात को शिरोधार्य कर लिया और निवेदन किया कि उक्त ग्रन्थ का सम्पादन तथा लेखन मैं कर लूगा। श्रीमद् के समस्त पदों, स्तवनों तथा उनकी अन्य रचनाओं के शब्दार्थ, अर्थ, भावार्थ एवं विवेचन मैं तैयार कर लगा और उनका सम्पूर्ण काव्य अर्थ-भावार्थ-विवेचन सहित पाठकों के समक्ष शीघ्र ही प्रस्तुत कर सकूगा। 'सुशील-सन्देश' के अनेक आजीवन सदस्यों एवं संरक्षकों की भी उत्कट अभिलाषा थी कि योगिराज श्रीमद अानन्दधनजी के पदों, स्तवनों तथा अन्य रचनाओं के अर्थ एवं विवेचन सहित एक संकलन प्रकाशित होना ही चाहिए। तदनुसार श्रीमद् पर अनेक पुस्तकों तथा ग्रन्या का अवगाहन करके कार्य प्रारम्भ किया। श्री प्रानन्दघन पद संग्रह' प्रकाशक-श्री अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, मुम्बई तथा श्री विजयचन्द जरगड़, जयपुर द्वारा प्रकाशित 'अानन्दधन ग्रन्थावली' का अवलोकन करके और कुछ अन्य पुस्तकों की सहायता से पदों एवं स्तवनों के अर्थलेखन का कार्य प्रारम्भ किया गया। अन्य पुस्तकों में दिये गये प्रथों में उचित प्रतीत हुअा वहाँ अमुक संशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्धन करके मैंने पदों एवं स्तवनों के अर्थ सरल एवं हृदयंगम करने योग्य बनाकर प्रस्तुत किये हैं। यथासम्भव प्रत्येक पद तथा स्तवन का विवेचन प्रस्तुत करके पाठकों की रुचि को जागृत करने का कार्य किया गया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ } मेरे पास नोटबुकों में लगभग पचास पदों के अर्थ लिखे हुए थे 1 मेरे मित्रों से भी एक-दो नोट बुकें मिलीं जिनमें लगभग पैंतीस पदों के अर्थ लिखे हुए थे । इस तरह उन सबकी सहायता से तथा अपने अनुभव एवं ज्ञान से एक-एक पद का अर्थ लिखना प्रारम्भ किया। पदों तथा स्तवनों के विवेचनों से उनमें निहित भावों को स्पष्ट रूप से समझने में सहायता मिलती है । मैंने अपनी योग्यतानुसार, प्राप्त अनुभव के आधार पर और अन्य विद्वान् लेखकों द्वारा लिखित भावार्थ आदि की सहायता से पदों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है । श्रीमद् आनन्दघनजी के पद, स्तवन तथा अन्य रचनाएँ आध्यात्मिकता से परिपूर्ण हैं, जिनका अर्थ गूढ़ है, रहस्यमय है | उनका वास्तविक भावार्थ तो वे ही जानते थे क्योंकि उन्होंने किस • दृष्टिकोण से अमुक पद की रचना की थी और उसके माध्यम से वे आध्यात्मिक तथ्य उजागर करना चाहते थे ? तत्कालीन देशीय परिस्थिति क्या थी और पदों के रूप में उनके अन्तर से निकले उद्गार यदि हम समझना चाहें तो तनिक कठिनाई तो होगी ही, फिर भी यथासम्भव उनके उद्गारों को ध्यान में रखकर उनकी रचनाओं के अर्थ लिखे गये हैं और तदनुरूप विवेचन के द्वारा पाठकों को सरलता से पदों में निहित भाव समझ में आ जायें, ऐसा प्रयास किया गया है । विविध ग्रन्थों तथा विभिन्न प्रतियों में पदों की संख्या में भिन्नता है । अतः मैंने उस झंझट में न पड़कर उनके समस्त उपलब्ध पदों का इस संग्रह में समावेश किया है । जो पद अन्य व्यक्तियों एवं सन्तों तथा कवियों के प्रतीत होते थे उनके भो यथासम्भव अर्थ भावार्थ आदि देकर पाठकों को सुविधा प्रदान की गई है । ने पदों का अर्थ लिखते समय अनेक श्रीपूज्यों से सम्पर्क करके सही अर्थ उनके अर्थों का आधार लेकर आवश्यक पदों का भावार्थ तथा विवेचन लिखा श्रावक भीमसिंह माणेक यतियों, मनीषियों, विद्वानों एवं प्रस्तुत करने का प्रयास किया। सुधार के साथ इस संग्रह में गया है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी अध्यात्म ज्ञान के रसिक शिरोमणि थे । 'उनके हृदय में पदों का अध्यात्म पक्ष ही उनका मान्य सिद्धान्त था, अत: उनके पदों का अध्यात्म पक्ष उजागर करना तो किसी ज्ञानी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) मुनीश्वर के बस की बात है । जिस व्यक्ति को उनके अध्यात्म ज्ञानमय पदों में रुचि हो वही व्यक्ति उनके हृदय की व्यथा समझकर तदनुसार पाठ देकर हमारी ज्ञानवृद्धि कर सकता है । योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी के पदों में उनका क्या आशय था, यह जानने के लिए हमें उन पदों का, उन रचनात्रों का गहन चिन्तन करना चाहिए । इसी बात को ध्यान में रखकर अनेक मुनियों एवं विद्वानों की सहायता से अर्थ की गम्भीरता को जानने का प्रयास किया गया है । इसीलिए तो किसी विद्वान् ने कहा है श्राशय श्रानन्दघनतणो, अति गंभीर उदार । बालह बाँह पसारीने, कहे उदधि विस्तार ॥ उनके पदों में व्यक्त उद्गार जैन आगमों के अनुरूप हैं और उसी को लक्ष्य में रखकर उनके पदों का भावार्थ, अर्थ तथा विवेचन प्रस्तुत किया गया है । श्रीमद् के उद्गार युगों-युगों तक जन-जन को प्रेरित करते रहेंगे । श्रीमद् श्रानन्दघनजी के पदों में अध्यात्मज्ञान, भक्तिज्ञानं' और योग - ज्ञान के रहस्य छिपे हुए हैं । वे अध्यात्मज्ञान कोटि के महापुरुष थे । उनके पदों के अर्थ भावार्थ आदि अनेक विद्वानों के द्वारा लिखे गये हैं, परन्तु अभी तक भावार्थ-लेखक एवं पाठक सन्तुष्ट नहीं हुए क्योंकि उनमें निहित गूढ़ार्थ को समझना उनके बस की बात नहीं है । उनके अध्यात्म ज्ञान सम्बन्धी पदों में गम्भीर अर्थ भरे हुए हैं । उनके भावार्थ सागर तुल्य हैं, उनमें गहरे उतरने पर ही हम मोती और रत्न निकाल सकते हैं । कहा भी है कि - सागर के किनारे तो कंकड़-पत्थर ही मिला करते हैं । मोती पाने की तमन्ना हो तो उतरो सागर की गहराई में ॥ अत: यह निश्चित है कि श्रीमद् श्रानन्दघनजी की समस्त रचनाएँ अध्यात्म ज्ञान से परिपूर्ण हैं । अध्यात्म ज्ञान समस्त ज्ञानों में श्रेष्ठ ज्ञान है । हमारे शुभ संस्कार दृढ़ होने पर जिन भक्ति, शास्त्र का अध्ययन तथा आवश्यक क्रियाएँ करने का अभ्यास हो जाता है । श्रीमद् आनन्दघनजी जैसे योगी पुरुष ने आध्यात्मिक प्रानन्द प्राप्त करने का ढंग अपने पदों में स्पष्ट किया है । उनके पदों में संसार की विचित्रता इस प्रकार व्यक्त हुई है -- Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गगनमंडल में गौत्रों वीपारणी, धरती दूध जमाया।' 'ससरो हमारो बालो भोलो, सासु बाल कुवारी।' इत्यादि उलटबांसियों के द्वारा संसार के स्वरूप का ज्ञान, नय, निक्षेप, प्रमाण एवं सप्तभंगी से प्रात्म-सिद्धि, सुमति-कुमति के संवाद, समता-ममता संवाद, प्रात्मा के अलक्ष्य स्वरूप को प्राप्त करने का तरीका, आशा-तृष्णा को दासी बनाने का तरीका, व्यावहारिक परिवारजनों के नामों के द्वारा आध्यात्मिक सम्बन्धों का संयोजन, आत्मारूप नटनागर की बाजो, अनुभव प्याले के रस की मादकता, षड्दर्शन का जैन दर्शन में समन्वय, स्याद्वाद का स्वरूप, आगमों की अगोचरता, आत्मा रूपी पति की अनुपस्थिति के कारण सुमति (समता) की विरह-व्यथा, सच्चे सद्गुरु की पहचान, सुमति एवं प्रात्मा का मेल. करानेवाले विवेक एवं अनुभवमित्रों का स्वरूप, मूलधन एवं ब्याज के रूप में आत्म-स्वरूप एवं कर्म का सम्बन्ध, सम्यक्त्व-प्राप्ति के पश्चात् आत्मा की अमरता तथा अन्वय व्यतिरेक से आत्मा का दर्शन आदि वर्णनों से युक्त पदों की रचनाएँ की हैं। ये पद एवं अन्य रचनाएँ उनके अन्तःकरण की मंगल वाणी हैं जो युगों तक जन-मानस को उद्वेलित करती रहेंगी। .: 'मानन्दघन चौबीसी' के स्तवनों द्वारा प्रभु-भक्ति के साथ प्रात्मा का अध्यात्म सम्बन्ध स्थापित किया गया है । वे सरस अध्यात्म-शिरोमणि थे। उनके स्तवनों में अनेक तत्त्वों का समावेश है। श्री ऋषभ जिनेश्वर के स्तवन में उनका प्रेम प्राप्त करने के लिए परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण है। श्री अजितनाथ प्रभु के स्तवन में परमात्मा का मार्ग-प्रदर्शन है। श्री सम्भवनाथ के स्तवन में प्रभु-दर्शन की उत्सुकता एवं उत्कट अभिलाषा व्यक्त की गई है। श्री अभिनन्दन स्वामी के स्तवन में बताया गया है कि परमात्म-स्वरूप का दर्शन कितना दुर्लभ है ! श्री सुमतिनाथ प्रभ के स्तवन में श्रीमद आनन्दघन जी ने तीन प्रकार का आत्म-स्वरूप बतलाया है। भगवान श्री पद्मप्रभु के स्तवन में आत्मा का कर्म से विच्छेद होने पर जीव कितना मुक्त होता है यह बताया गया है। श्री सुपार्श्वनाथ के स्तवन में विविध स्वरूप-सूचक अनेक नाम हैं। श्री चन्द्रप्रभु के स्तवन में भगवान के स्वरूप-दर्शन से होने वाला हर्ष व्यक्त किया गया है। श्री सुविधिनाथ परमात्मा के स्तवन में प्रभु की द्रव्य एवं भाव-पूजा के प्रकार बताये गये हैं। श्री शीतलनाथ भगवान के स्तवन में करुणा, कोमलता, तीक्ष्णता एवं उदासीनता स्वरूप परमात्मा के आत्मा में विद्यमान गुणों का दर्शन है। श्री श्रेयांसनाथ भगवान के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवन में भाव-अध्यात्म की विशेषता बताई गई है। भगवान श्री वासुपूज्य के स्तवन में कर्मचेतना, कर्मफल-चेतना तथा ज्ञान-चेतना का स्वरूप-दर्शन कराया गया है। श्री विमलनाथ प्रभु के स्तवन में जिनदर्शन से आनन्दयुक्त आश्चर्य होना बताया गया है। श्री अनन्तनाथ प्रभु के स्तवन में उत्सूत्रवचन के त्याग एवं सत्य-वचन से देव-गुरु-धर्म की शुद्धि का दर्शन है। श्री धर्मनाथ भगवान के स्तवन में परमात्मा के साथ अपनी आत्मा की प्रगति का आह्वान किया गया है। श्री शान्तिनाथ परमात्मा के स्तवन में प्रात्म-शान्ति का स्वरूप बताने के साथ प्रात्मा को धन्यता बताई गई है। श्री कुन्थुनाथ प्रभु के स्तवन में मनोनिग्रह की दुर्लभता बताई गई है। श्री अरनाथ भगवान के स्तवन में स्व-समय और पर-समय स्वरूप परमधर्म समझाते हुए द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूपदर्शन कराया गया है। श्री मल्लिनाथ परमात्मा के स्तवन में बताया गया है कि तीर्थंकर अठारह दोषों से रहित होते हैं। श्री मुनिसुव्रतस्वामी के स्तवन में षड्दर्शनों में से तत्त्व खींचकर स्याद्वाद की सिद्धि बताई गई है। श्री नमिनाथ परमात्मा के स्तवन में श्रीमद् ने बताया है कि जैनदर्शन रूपी महासागर में षड्दर्शन रूपी नदियों का विलीनीकरण होता है तथा जैनदर्शन रूपी पुरुष के षड्दर्शनों रूपी अंगों का समन्वय बताते हुए चूणि, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति, परम्परा एवं अनुभव को स्वीकार किया गया है। श्री नेमिनाथ प्रभु के स्तवन में राजीमती एवं नेमिनाथ के व्यावहारिक सम्बन्ध में से होने वाले आध्यात्मिक रूपान्तरण को बताया गया है। भगवान श्री पार्श्वनाथ प्रभु के स्तवन में अगुरुलघु गुण का स्वरूप-दर्शन है और शासन-नायक श्री महावीर स्वामी के स्तवन में आत्मिक वीर्य की शक्ति के द्वारा आत्मा में से आनन्दघन पद प्रकट करने के साधनों का स्पष्टीकरण किया गया है। ___ श्रीमद् प्रानन्दघनजी की समस्त रचनाएँ काव्य में हैं.। काव्यमय साहित्य पद्य में होने से अन्तर की भावनाओं को स्पर्श करता है और जीवन को रसमय बनाता है। जो साहित्य आत्मा को कल्याणकारी प्रवृत्ति की ओर ले जाता है वही सच्चा काव्य-साहित्य है। इस प्रकार का साहित्य हमें जीवन जीना सिखाता है, हमारे प्राचारों को पवित्र करके विवेक की वृद्धि करता है, हमारे भीतर धर्म-भावना जागृत करता है, पापों के प्रति तिरस्कार भाव उत्पन्न करता है, चरित्र का निर्माण करता है, मैत्री भावना प्रवाहित करता है और आत्मोन्नति करता है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के पद पाठकों के हृदय पर अमिट प्रभाव डालते हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) श्रीमद् आनन्दघनजी अनुभवों के भण्डार थे। 'मेरे घट ज्ञान-भानु भयो भोर' आदि पदों के द्वारा उन्होंने जैनों की स्वभाव-रमणता प्राप्त की है और आत्म-परिणति के रूप में उनमें ज्ञान-क्रिया का परिणमन हुआ था। - योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के पदों में चारों अनुयोग स्पष्ट किये गये हैं। यह उनके ज्ञान को विशालता है। श्रीमद् आनन्दघनजी की समन्वय शैली भी आध्यात्मिक प्रगति का अमोघ साधन है। उनका एक-एक पद अमृत-बिन्दु तुल्य शीतल एवं मधुर है तथा आत्म-जागृति के पुरुषार्थ से परिपूर्ण है। उनके पदों की एक-एक पंक्ति जगमगाते वैराग्य के तेजस्वी दीपकों का स्मरण कराती है। उनके पदों की प्रत्येक पंक्ति आत्मिक दीपावली के लिए दीपमालाओं का स्मरण कराती है और उनके पदों के अक्षर आत्म-जागृति हेतु रत्न-मंजूषा तुल्य हैं। उनके पदों की अमुक पंक्तियों से ज्ञात होता है कि उन्हें योग का गहन अभ्यास था। . श्रीमद् आनन्दघनजी ने अनेक नयों से परिपूर्ण पदों में आत्म-सिद्धि एवं आनन्द का समूह प्रकट करने के लिए आत्मा की अनेक गूढ़ शक्तियों का वर्णन किया है, जिससे ज्ञात होता है कि उन्हें आगमों का अगाध ज्ञान था। ये आगमों तथा अध्यात्म के सतत अध्ययन में रत थे और एक योगी का जीवन उन्होंने जिया। उन्होंने आत्म स्वरूप के चिन्तन एवं अनुभव में एकान्त निर्जन गुफाओं में अथवा सुदूर पर्वतों पर अध्यात्म एवं योग की साधना में अनेक वर्ष व्यतीत किये। - योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी अर्थात् दिव्य विभूति के दर्शन, श्रीमद् आनन्दघनजी अर्थात् अध्यात्मयोगी की साधना, श्रीमद् आनन्दघनजी अर्थात् अध्यात्म दृष्टि का तेजपुंज, श्रीमद् आनन्दघनजी अर्थात् सुमति, कुमति, विवेक, ममता, समता, निश्चय, व्यवहार, तृष्णा, नटनागर, लालन, चेतन आदि अनेक पात्रों का एकीकरण और उनके पद अर्थात् अध्यात्मयोगी का तेजोमय दर्शन तथा उनकी मंगलमय वाणी अर्थात् अध्यात्म-द्रष्टा का पैगाम । उनका ज्ञान इतना अगाध था कि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२ ) उनका अभिवादन करने के लिए शब्दकोश में · शब्द भी उपलब्ध नहीं हैं। अन्त में, यही कहा जा सकता है कि श्रीमद् आनन्दघनजी स्वयं इतने समर्थ आध्यात्मिक विद्वान् थे, फिर भी उन्होंने अपने पदों तथा स्तवनों में संक्षेप में दान, दया, तप एवं मानव-सेवा आदि में तन्मय होने के लिए मार्गदर्शन किया है। इतने समर्थ विद्धान होते हुए भी उनके पदों में यत्र-तत्र उनकी अनुपम नम्रता दृष्टिगोचर होती है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के सभी पद गेय हैं और विभिन्न राग-रागिनियों में हैं, जिन्हें गाकर जैन-अजैन सभी तन्मय हो जाते हैं । उन्होंने सुन्दर रचनाओं के द्वारा वीतराग परमात्मा की स्तुति की है, स्तवना की है, ऐसे परम संवेगी, वैरागी, नि:स्पृह, ध्यान-लीन श्रीमद् . आनन्दघनजी के पद अध्यात्म साहित्य की अमूल्य थाती हैं। . मैंने अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार विद्वान् , लेखकों के अर्थ-भावार्थ का अवलोकन करके अपनी ओर से अर्थ-भावार्थ लिखे हैं, उनमें कोई त्रुटि रह गई हो तो पाठक सूचित करें ताकि द्वितीय प्रावृत्ति में उन त्रुटियों को सुधारा जा सके। अर्थ-भावार्थ के आधार पर पदों, स्तवनों एवं अन्य रचनाओं का उचित विवेचन भी मैंने चिन्तन-मनन करने के पश्चात् लिखा है। आशा है, पाठक उससे लाभान्वित होंगे और रचनाओं को समझने में उन्हें उससे सहायता मिलेगी। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ऐतिहासिक नगर मेड़ता में श्री शान्तिनाथ जिनमन्दिर व योगिराज श्री प्रानन्दघनजी स्मृति मन्दिर प्राचीन संस्कृति का प्रतीक मेड़ता नगर मरुधरा का ही नहीं, अपितु भारत के समुन्नत नगरों में से एक रहा है। सभ्यता-संस्कृति-कलाशौर्य-भक्ति व वीरता के क्षेत्र में अतीतकाल से ही यह अग्रगण्य रहा है। ...राजस्थान राज्य की पवित्र भूमि में श्री फलवद्धि पार्श्वनाथ जैन तीर्थ के निकटवर्ती श्री मेड़ता पुरातन नगर है। इस शहर को करीबन दो हजार वर्ष पहले पवार राजा मानधाता ने बसाया था, इसका नाम मानधातृपुर कहलाता था, संस्कृत-लेखादि में इसका नाम मेडन्तक भी मिलता है, जिसका अपभ्रश मेड़ता है। जैन साहित्य में इसका नाम मेदिनीपुर-मेदनीपुर भी मिलता है ।. 'हिन्दुस्तान-निवासियों का संक्षिप्त इतिहास' पुस्तक से ज्ञात होता है कि नागभट्ट प्रथम (७२५-४० ई.) ने मेड़ता को अपनी राजधानी बनाया था, इसके बाद का एवं पूर्व का इतिहास अनुपलब्ध है। वि. सं. १५१८ में जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी के कुंवर वीरसिंहजी व दूदाजी ने कोट की नींव रखकर इस शहर को पुनः बसाया था। यहाँ कई योद्धा शासक हुए हैं। इन शासकों में वीरवर जयमलजी का नाम इतिहास के पृष्ठों को गौरवमयी गाथाओं से सुवासित कर रहा है। यहाँ के प्रसिद्ध स्थलों में श्री चारभुजानाथ एवं श्री मीराबाई का मन्दिर, जामा मस्जिद मालाकोट आदि स्थल ऐतिहासिक व दर्शनीय हैं। इस शहर में वर्तमान में १४ प्राचीन जैन मन्दिर हैं। उनकी प्रतिमानों पर वि. सं. १४५० से १८८३ (ई. सन् १३६३ से १८२६) तक के लेख हैं । “परगने मेड़ता की बस्ती" जिसे मुहणोत नैणसी ने सं. १७२० में लिखा है, उसमें मेड़ता के प्रोसवालों की संख्या १३७१ लिखी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई है। इससे पूर्व यहाँ जैनों के ३२०० घर होने का उल्लेख मिलता है। उस समय यह शहर वैभवशाली था, यहाँ कई लखपति रहते थे, विशेष कारणवश यहाँ के ३५ लखपति मेड़ता को छोड़कर अजमेर चले गये थे, वह स्थान आज भी लाखनकोटड़ी के नाम से विख्यात है। यहाँ ८४ गच्छों के ८४ उपाश्रय भी विद्यमान थे, वर्तमान में तपागच्छ के उपाश्रय में पू. प्राचार्य श्री होरसूरीश्वरजी म. की गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा सं. १६५३ में हुई थी, वह भी है। भक्तिमती श्री मीरा की नगरी मेड़ता कई वीरों, संतों, भक्तों, कवियों, इतिहासकारों व साधकों की पावन स्थली रही है। इन साधकों में अनुमानतः वि. सं. १६५० से वि. सं. १७४० के मध्य हुए श्री प्रानन्दघनजी म. का नाम विशेषत: उल्लेखनीय है । __ अध्यात्मयोगी-विश्वविभूति श्री आनन्दघन जी म. का भी शिक्षादीक्षा क्षेत्र मेड़ता रहा है। ऐसा कहा भी जाता है कि चौबीस भगवान के स्तवनों की व आध्यात्मिक पदों की अनेक रचनाएँ भी उन्होंने यहीं पर की है। राजा-रानी सतीत्व आदि के कई प्रसंग भी, यहीं पर हुए हैं तथा उनको अन्तिम साधना व कालधर्म भी यहीं पर हुआ था। सत्रहवीं सदी में महान् योगिराज श्री प्रानन्दघनजी महाराज की साधना से यह भूमि पवित्रता को प्राप्त हुई है। यह उनकी अन्तिम साधना-भूमि भी रही है । योगिराज का जैन समाज पर असीम उपकार रहा है। वैसे स्मृति स्वरूप समाधि पर एक छत्री बनी हुई है। श्रीसंघ के सौभाग्य से मेड़ता रोड (श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ) में उपधानतप करने हेतु पधारते शासन-प्रभावक प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कलापूर्ण सूरीश्वरजी महाराज सा. यहाँ पधारे, उनकी देवी प्रेरणा मिली कि ऐसे महान् योगिराज का उचित एवं गरिमामय स्मारक न होना सारे समाज के लिए खटकने जैसी बात है। उपधान के माला महोत्सव पर उन्होंने भव्य प्रेरणा दी एवं परमपूज्य प्राचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. एवं पूज्य पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी गणिवर्य म. के सदुपदेश से मेड़ता श्रीसंघ ने यह महान् कार्य करवाने का शुभ निर्णय लिया। तत्पश्चात् २८ जनवरी, १९८८ का शुभ दिन Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) शासनरत्न प. पू. प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. की शुभ निश्रा में श्री शान्तिनाथ जिनमन्दिर के निकट मुख्य रोड पर स्मृति मन्दिर का खनन व शिलान्यास संपन्न हुआ। इसके साथ ही यहाँ के भव्य प्राचीन मन्दिरों की श्रृंखला में सर्वप्रथम ३७५ वर्ष प्राचीन श्री शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा वाले मन्दिर का जीर्णोद्वार करवाने का निर्णय कर संपूर्ण किया गया। पूज्य गुरुदेव की महान् प्रेरणा से मूलनायक भगवान को स्थापित रखकर सम्पूर्ण मन्दिर का नवीन स्वरूप में निर्माण भव्यातिभव्य रूप से हो गया है। संक्षेप में, मेड़ता नगर का इतिहास अनुकरणीय है। इस नगर की गौरव-गाथाएँ इतिहास-पटल पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है। श्री शान्तिनाथ जिनालय एवं योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी गुरुमन्दिर की महामंगलकारी अंजनशलाका-प्रतिष्ठा जैन धर्म-दिवाकर परम पूज्य प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. एवं पूज्य पंन्यासप्रवर श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य म. की शुभ निश्रा में वैशाख सुद-६ बुधवार, २८ अप्रेल, १६६३ के शुभ दिन भव्य समारोह पूर्वक सम्पन्न हुई है। 卐 जैनं जयति शासनम् ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REDDEDEREDDEDEDEDEDEDEDA सुकृत के सहयोगी पावन स्मृति श्री मेड़तासिटी (मेदिनीपुर) की पावन वसुन्धरा पर राजस्थान दीपक प. पू. प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म.सा. एवं पू. पंन्यासप्रवर . श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य म. की शुभ निश्रा में वैशाख सुद-६, बुधवार २८ अप्रेल, १९९३ के शुभ दिन योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी स्मृति मन्दिर की महामंगलकारी प्रतिष्ठा महोत्सव की __ पावन स्मृति में यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। सहयोगकर्ता पुण्यशाली महानुभावों का हार्दिक आभार ... धन्यवाद ! -श्री सुशील साहित्य-प्रकाशन समिति .. जोधपुर DDEDEDEDEDEDEDEREDEREDEDS RDEREDEDEDEDEDDEREDEDEDEREDEREDEREDEEDEDEO BEDEDEDEREDEEDEDEEDEDEDEDEDEREDEDEDEREDEDEDO Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stede geddede detectadata toodesede de dedesisto detestade de desobedade destes श्यकक्वयक - प्रकाशकीय निवेदन है testostogosestestest ककककककककककककककककककककककककककककर विश्वविभूति १७वीं सदी के महान् आध्यात्मिक योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघन जी महाराज के दिव्य जीवन चरित्र एवं उनके द्वारा रचित काव्य रचनाओं पर विशद विवेचन युक्त 'योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघन जो एवं उनका काव्य' ग्रन्थ प्रकाशन का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है। इसे हम श्री सुशील साहित्य-प्रकाशन समिति के लिए बहुत दुर्लभ गौरव समझते हैं। श्री आनन्दघन जी अर्थात् दिव्य-विभूति के दर्शन । श्री प्रानन्दघन जी अर्थात् अध्यात्म-दृष्टि का तेजपुञ्ज । श्री प्रानन्दघन जी अर्थात अध्यात्म-योग की साधना। श्री प्रानन्दघन जी अर्थात् अध्यात्मयोगी का तेजोमय दर्शन। ऐसे महापुरुष ने कहा था 'अवधू क्या मांगू गुन-हीना, में गुणगान न प्रवीणा', उनका निरन्तर रटन था-- हे प्रभु ! मैं तुझसे क्या सहायता मांगू ? मेरे पाँवों में बंधन हैं। सिर पर बोझा है। मैं मार्ग से अनभिज्ञ हूँ, पंथ अत्यन्त कठिन है। मेरे पास कोई साधन नहीं है। प्रभु ! तूं अपनी कृपा की एक बूद मुझ पर भी वृष्टि कर ताकि मेरा आत्मपद तेरे आत्मपद में सम्मिलित होकर आनन्द पद प्राप्त करे। . ऐसे आध्यात्मिक योगी श्री आनन्दघनजी महाराज के जीवनचरित्र एवं उनके काव्यों पर विवेचन लिखने का महान् कार्य गुरुभक्त सुविख्यात साहित्यकार सुशील-सन्देश के मानद सम्पादक श्री ननमल जी विनयचन्द जी सुराणा ने किया है। उनके इस सुकृत के लिए हम उनका हार्दिक आभार मानते हैं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासनसम्राट् प.पू. आचार्य श्रीमद विजयनेमि सूरीश्वर जी म.सा. के पट्टप्रभावक साहित्यसम्राट आचार्य श्रीमद् विजय लावण्य सूरीश्वर जी • म.सा. के पट्टालंकार कविदिवाकर जैनाचार्य श्रीमद् विजय दक्ष सूरीश्वर जी म.सा. के पट्टधर जैनधर्मदिवाकर राजस्थानदीपक आचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज ने आशीर्वचन लिखकर इस कृति को शोभनीय बना दिया है। उनके पद-पद्मों में कोटिशः नमन । इस ग्रन्थ के प्रकाशन में जैनधर्मदिवाकर, राजस्थानदीपक आचार्यश्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज के 'शिष्यरत्न' 'पंन्यासप्रवर श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य म.सा. की मंगल-प्रेरणा रही है, जो वन्दनीय है। डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी, जोधपुर के प्रति ग्रन्थ के प्रफ संशोधन, साज-सज्जा एवं सुनियोजन के लिए आभार ... नयनाभिराम मुद्रण के लिए श्रीमान् अ. जब्बार सा., ताज.प्रिण्टर्स, जोधपुर वालों को हमारा हादिक धन्यवाद। उनके अनुभव, श्रम और कौशल के बिना यह सुरुचिपूर्ण प्रकाशन प्रस्तुत कर पाना हमारे लिए सम्भव न था। . इस महान् ग्रन्थ के प्रकाशन में मेड़ता सिटी के उन दानी मानी महानुभावों के प्रति भी अपना हार्दिक आभार प्रकट करते हैं, जिन्होंने आर्थिक सहायता के रूप में अपने विज्ञापन ग्रन्थ में प्रकाशनार्थ दिये हैं। ग्रन्थ-प्रकाशन में अर्थसहयोग हेतु कर्मठ कार्यकर्ता परम गुरुभक्त श्री मांगीलाल जी तातेड़ एवं उनके सुपुत्र श्री गौतमचन्द जी तातेड़ ने अथक प्रयास किया है। उसके लिए उन्हें साधुवाद ! प्रस्तुत प्रकाशन में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जिन महानुभावों का मार्गदर्शन तथा सहयोग प्राप्त हुआ है। उन सभी के प्रति हम हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। आशा है, यह ग्रन्थ सुधी पाठकों, धर्मजिज्ञासुत्रों का मार्ग प्रशस्त करेगा। ॐ जैनं जयति शासनम् 5 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम ४. ५. ६. क्र. सं. १. जीवन - झाँकी २. पद एवं स्तवन : भूमिका ३. श्री आनन्दघन पदावली - भावार्थ सहित ( पद संख्या १-७७ ) शंकास्पद पद (पद संख्या १-४६ ) विषय कुछ ज्ञातव्य श्री प्रानन्दघन चौबीसी स्तवन • श्री ऋषभ जिन स्तवन . श्री अजित जिन स्तवन श्री सम्भव जिन स्तवन • श्री अभिनन्दन जिनं स्तवन श्री सुमति जिन स्तवन • श्री पद्मप्रभु जिन स्तवन ● श्री सुपार्श्व जिन स्तवन श्री चन्द्रप्रभु जिन स्तवन • श्री सुविधि जिन स्तवन श्री शीतल जिन स्तवन • श्री श्रेयांस जिन स्तवन 2 श्री वासुपूज्य जिन स्तवन ● श्री विमल जिन स्तवन • श्री अनन्त जिन स्तवन ● श्री धर्म जिन स्तवन • श्री शान्ति जिन स्तवन C पू. सं. १-२७ २८-३० ३१-१६८ १६६-२८० २८१-२८२ २८३-३७२ २८३ २८५ २८८ २६१ २६४ २६६ २६ε ३०२ ३०५ ३०८ ३११ ३१३ ३१६ ३१८ ३२२ ३२६ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. सं. mr mr mr mr. mr क्र. सं. विषय • श्री कुन्थु जिन स्तवन • श्री अरनाथ जिन स्तवन • श्री मल्लि जिन स्तवन • श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन • श्री नमिनाथ जिन स्तवन • श्री नेमि जिन स्तवन • श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन • श्री महावीर जिन स्तवन ७. श्री आनन्दघनजी कृत चौबीसी के अतिरिक्त स्तवन एवं उनके नाम से प्रकट अन्य रचनायें ८. श्री अगरचन्दजी नाहटा के संग्रह से प्राप्त दो स्तवन ६. पाँच समिति की पाँच ढाल १०. आनन्दघनजी के कतिपय अप्रकाशित पद । ३३५. ३३८ ३४२ ३४७ ३५३ ३५६ ३६२ mm ३६५-३७२ ३७३-३७५ ३७६-३८४ ३८५-४१० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीसद्गुरुभ्यो नमः ॥ "महान् अध्यात्मयोगी श्रीमानन्दघनजी म. की प्रारती। . [ ॐ जय जगदीश हरे........राग.] [१] ___ॐ जय जय गुरुदेवा, स्वामी जय जय गुरुदेवा; अनुभव प्रातमज्ञानी (२) प्रानन्दघन जेवा। ॥ॐ जय गुरुदेवा ।। [२] अध्यातम वैरागी, स्व-पर के ज्ञाता; पति परमेश्वर मानी (२) अन्तर अध्येता। ॥ ॐ जय गुरुदेवा ।। । तरतम भावे गावे, मिथ्यातम त्यागी; घट घट रोमे रोमे, (२.) प्रभु भक्ति जागी। ॥ ॐ जय गुरुदेवा ॥ [४] तिमिर विनाशक गुरुजी, भविजन मन प्यारा; एक अरिहन्त शरण की, (२) आभ्यन्तर धारा । ॥ॐ जय गुरुदेवा ॥ रमता समता रंग में, रंजित नर-नारी; गाते मस्त मगन हो, (२) जिन गुरण बलिहारी । . ॥ॐ जय गुरुदेवा ॥ अलख अलौकिक, प्रतिभा के धारी; नित प्रति ध्यान में रहते, (२) जिनवर जयकारी। . ॥ ॐ जय गुरुदेवा ॥ लाभानन्द गवाही, मेड़ता सुखकारी; सुन्दर अनुपम मूत्ति, (२) वन्दो भवहारी। ॥ ॐ जय गुरुदेवा ॥ प्रानन्दघन की प्रारती, जो कोई नित गावे; सूरि दक्ष-सुशील को, (२) जिनोत्तम ध्यावे । ॥ ॐ जय गुरुदेवा ।। CCSSZZZZZZZZ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन मांही निज तत्त्व है, देखे कोई पूरा। तत्त्व मिला था तत्त्व में, बाजे अनहद तूरा ।। -श्रीमद् प्रानन्दघनजी "प्रात्मवाद एवं कर्मवाद के प्रति सच्ची श्रद्धा होने से सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। आत्मविश्वास एवं आत्मवाद का वास्तविक मूल्य समझे बिना सच्चा वैराग्य प्रकट नहीं हो सकता। M श्रद्धा-विहीन कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। सच्चो प्रात्मश्रद्धा ही परम पुरुषार्थ की बीज है।".. इस प्रकार के प्राध्यात्मिक विचारों में तन्मय योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी को कोटि-कोटि वन्दन। CDEO श्री महावीर ऑयल मिल्स जगरायो (पंजाब)-१४२ ०२६ (सुनहरी किरण एवं बुलबुल ब्राण्ड शुद्ध सरसों का तेल . प्रयोग कीजिये) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गुरवे नमः # अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी की जीवन-झाँकी शाश्वत प्रेम .एवं भक्ति की भावात्मक भूमि अनिर्वचनीय है। इस दशा में न किसी प्रकार का अहंकार रहता है, न द्वेष, न पद-प्रतिष्ठापरम्परा प्रादि का लेश भी. व्यामोह। बस ! समर्पण ही समर्पण । जिनेश्वर भक्ति के सन्दर्भ में प्रांनन्दघन जैसा अनूठा भक्त क्वचित् है। शिक्षणशालाओं में अध्ययन न करने पर भी आपके अन्तस् में करुणा एवं ज्ञान का अनुपम संगम था । — श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज एक उपासक थे। वे स्वयं को ऋषभ जिनेश्वर रूप प्रीतम की प्रिंया मानते थे। उनके नेत्रों में प्रतिपल विरह के अश्रु चमकते थे। वे प्रीतम के वियोग में रो-रोकर उनके दर्शन के लिए अधीर रहते थे। वे स्वयं को 'कंचन वरणा नाह' की हृदय-रानी, प्रारण-वल्लभा मानते थे और उस कञ्चनवर्णी कान्ता के रूप में वे भगवान के प्रबल उपासक थे। वे कोई समर्थ उपदेशक नहीं थे। जब-जब उनकी विरह-वेदना पर विचार किया जाता है तो नेत्रों के समक्ष एक कल्पना-चित्र खड़ा होता है, मानो वे निर्जन पर्वत-शृखलाओं में होकर गुजरती पगडण्डियों पर भटकते हुए वन के वृक्षों के तनों पर अपना सिर पटक-पटक कर उन्हें निवेदन कर रहे हों कि 'मुझे अपने प्रीतम का पता बताओ, अन्यथा उन प्रीतम के वियोग में मैं अपने प्राण दे दूंगा, इस गहन कन्दरा से जुड़ी खाई में कूद पडूगा।' वे भगवान ऋषभदेव से मिलने के लिए इतने आतुर थे। वे अपने प्रीतम के लिए विरहाग्नि में जलते रहते थे। विरह के आँसू बहाना ही उनकी साधना थी। वे आँसू ही उनका व्रत, पूजा, प्रार्थना, स्वाध्याय और ध्यान था। योगिराज श्री प्रानन्दघनजी महाराज का कोई तारतम्य पूर्वक लिखा हुमा जीवन-चरित्र तो कहीं भी उपलब्ध नहीं है। उनके सम्बन्ध Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२ में चली आ रही किंवदन्तियों, उनके द्वारा रचित स्तवनों तथा पदों में से निकलते हृदय के उद्गारों के द्वारा ही उनका जीवन-चरित्र लिखा जा — सकता है। श्रीमद अानन्दघनजी की जन्म-भूमि कौनसी थी और उनका जन्म किस परिवार में हुआ था, इसका निर्णय होना कठिन है। कुछ लोग उनकी जन्मभूमि मारवाड़ बताते हैं, कुछ उत्तर प्रदेश बताते हैं, कुछ गुजरात बताते हैं और कुछ लोग काठियावाड़ बताते हैं। उनके जन्म के सम्बन्ध में एक अन्य मत भी है। श्री आनन्दघनजी जैन परम्परा के एक महान् सन्त योगी थे। इनका दीक्षा नाम श्री लाभानन्दजी था। मेड़ता में आप जिस स्थान पर निवास करते थे, उस स्थान का नाम लाभानन्द गवाड़ी बताया जाता है जो आज भी उसी तरह प्रचलित है। इसी गवाड़ी में आपकी छत्री बनी हुई है। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री अगरचन्दजी नाहटा ने 'पानन्दघन ग्रन्थावली' की भूमिका में अपने गुरु श्री सहजानन्दघनजी का मत व्यक्त किया है कि योगिराज श्री आनन्दघनजी मेड़ता के ही एक श्रावक के तृतीय पुत्र थे। यह बात तो सर्वविदित है कि योगिराज श्री आनन्दघनजी की साधना-स्थली एवं कर्म-स्थली मेड़ता ही रही है और वे जीवन में अधिकांश समय तक मेड़ता की धरा को ही पावन करते रहे। फिर भी अनेक व्यक्ति उनके स्तवनों एवं पदों में प्रयुक्त भाषा एवं शब्दावली के आधार पर उन्हें गुजरात का ही मानते हैं और अनेक व्यक्ति उन्हें राजस्थान का मानकर अपने अनेक तर्क प्रस्तुत करते हैं। . योगिराज का जन्म अनुमानतः विक्रम संवत् १६६० का ही माना जाता है और उनका समय अनुमानत: विक्रम संवत् १६६० से विक्रम संवत् १७३० माना गया है। श्रीमद् ने ज्ञान एवं वैराग्य के योग से किन्हीं तपागच्छीय मुनिवर के पास दीक्षा अंगीकार की थी। वे श्रीमद यशोविजयजी उपाध्याय के समकालीन थे। दीक्षित होने के पश्चात् उनका चित्त वैराग्य एवं अध्यात्म में अनुरक्त रहता था। उन्होंने जैन श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों के अनेक शास्त्रों का पठन किया था। अपने गुरु की तरह वे तपागच्छ की समाचारी के अनुसार साधु धर्म की आवश्यक आदि क्रिया करते थे। गच्छ भेद से दूर रहकर वे अध्यात्म ज्ञान के द्वारा अपनी आत्मा को विशुद्ध एवं निर्मल बनाने का प्रयास करते थे। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झाँकी-३ इनकी प्रायु के सम्बन्ध में विचार करते हुए विद्वानों ने लिखा है कि ये उपाध्याय श्री यशोविजयजी के समकालीन थे और उपाध्यायजी का इनसे मिलन हुआ था। उपाध्यायजी इनसे आयु में कुछ छोटे थे। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने इनकी स्तुति में एक अष्टपदी की रचना भी की थी जो इस प्रकार है . प्रथम पद (राग कानड़ा) मारग चलत चलत जात, प्रानन्दघन प्यारे रहत प्रानन्द भरपूर । ताको सरूप भूप त्रिह लोक ते न्यारो वरषत मुख पर नर ॥१॥ सुमति सखी के संग नितनित दोरत कबहुँ न होत ही दूर । 'जसविजय' कहे सुनो प्रानंदघन! हम तुम मिले हजर ॥२॥ द्वितीय पद प्रानंदघन को आनंद सुजश हो गावत रहत प्रानंद सुमता संग। सुमति सखी और नवल आनंदघन मिल रहे गंग-तरंग ॥१॥ मन मंजन करके निर्मल कियो है चित्त, तापर लगायो है अविहड रंग। 'जसविजय' कहे सुनत ही देखो, सुख पायो भोत अभंग ॥२॥ - तृतीय पद (राग-नायकी, चम्पक ताल) प्रानंद कोउ नहीं पावे, 'जोइ पावे सोई प्रानंदघन ध्यावे । प्रानंद कौन रूप कौन प्रानंदघन, प्रानन्द गुरण कौन लखावे ॥१॥ सहज सन्तोष प्रानन्द गुरण प्रकटत, सब दुविधा मिट जावे । 'जस' कहे सो हो प्रानन्दघन पावत, अन्तर ज्योति जगावे ॥२॥ चतुर्थ पद प्रानंद ठोर ठोर नहीं पाया, आनन्द प्रानन्द में समाया। रति अरति दोउ सङ्ग लिये, वरजित प्ररथ ने हाथ तपाया ॥१॥ कोउ प्रानन्दघन छिद्रहि पेखत, जसराश सङ्ग चढ़ि पाया। प्रानन्दघन प्रानन्दरस झोलत, देखत हो 'जस' गुण गाया ॥२॥ पंचम पद (राग नायकी) प्रानन्द कोऊ हम दिखलावो। कह ढूढत तू मूरख पंछी, प्रानन्द हाट न बिकावो॥१॥ ऐसी दसा प्रानन्द सम प्रकटत, ता सुख अलख लखावो। नोइ पावे सोड कछु न कहावत, 'सुजस' गावत ताको वधावो ॥२॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-४ षष्ठ पद (राग - कानड़ो, ताल रूपक) आनन्द की गति श्रानन्द जारणे । वाही सुख सहज अचल अलख पद वा सुख 'सुजस' बखाने ॥ १ ॥ सुजस विलास जब प्रकटे श्रानन्द रस, श्रानन्द अक्षय खजाने । ऐसी दशा जब प्रकटे चित श्रन्तर, सो ही श्रानन्दघन पिछाने ॥ २ ॥ सप्तम पद एरी आज आनन्द भयो मेरे, तेरो मुख निरख निरख । रोम रोम सीतल भयो अंग अंग ॥ एरी ॥ सुद्ध समझरण समता रस भीलत, श्रानन्दघन भयो अनन्त रंग ॥ १ ॥ ऐसी प्रानन्द दशा प्रकटी चित श्रन्तर ताको प्रभाव चलत निरमल गंग । बा ही गंग समता दोउ मिल रहे, 'जसविजय' सीतलता के संग ॥ २ ॥ अष्टम पद आनंदघन के संग सुजस ही मिले जब, तब श्रानंद सम भयो 'सुजस' । पारस संग लोहा जे फरसत, कंचन होत ही ताके कस ॥ १ ॥ खीर नीर जो मिल रहे 'श्रानंद' 'जस' सुमति सखी के संग, भयो है एक रस । भव खपाइ 'सुजस' विलास भयो, सिद्ध स्वरूप लिये घसमस ॥ २ ॥ अष्टपदी से आनन्दघनजी के जीवन की एक झलक प्राप्त होती है । प्रथम बात तो यह है कि जिस समय उपाध्याय यशोविजयजी उनसे मिले, उस समय प्रानन्दघनजी अपनी उत्कृष्ट साधना में लीन थे और वे एकान्तवास में थे । वे तत्कालीन जैन साधुनों को गच्छभेद, कदाग्रह और पंथों के झगड़ों में फँसे हुए देखकर अत्यन्त खिन्न थे । श्रीमद् श्रानन्दघनजी का जन्म वि. संवत् १६६० के आसपास तथा स्वर्गवास वि. संवत् १७३० मानने का कारण यह है कि उपाध्याय श्री यशोविजयजी का स्वर्गवास वि संवत् १७४५ में बड़ौदा ( वड़ोदरा ) के समीप डभोई में हुआ था । इस आधार पर श्री यशोविजयजी का जन्म वि. संवत् १६७० के आसपास माना गया है। श्री यशोविजयजी से श्री प्रानन्दघनजी ज्येष्ठ थे, अतः इनका जन्म संवत् १६६० के आसपास माना गया है । तदुपरान्त श्री प्राणलालजी महाराज के जीवनचरित्र में उल्लेख है कि वे वि. संवत् १७३१ में मेड़ता गये तब वहाँ श्री लाभानन्दजी अर्थात् श्रानन्दघनजी से उनकी मुलाकात हुई थी और उसी वर्ष में अर्थात् वि. संवत् १७३१ में ही उनका स्वर्गवास हुआ था । इससे यह Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झाँकी-५ निश्चित हो गया कि श्री आनन्दघनजी का स्वर्गवास वि. संवत् १७३१ में ही हुआ था। श्री प्रानन्दघनजी का गच्छ-निर्णय : - यों तो वे गच्छातीत थे परन्तु वे सचमुच खरतरगच्छ के थे। उनका उपाश्रय मेड़ता में खरतरगच्छ संघ के ही अधीन था तथा लाभानन्द नाम रखने की परम्परा खरतरगच्छ में ही रही है। एक लिखित उल्लेख और भी प्राप्त हना है कि खरतरगच्छीय पं० सुगुणचन्द्र उस समय लाभानन्दजी के पास अष्टसहस्रो ग्रन्थ पढ़ रहे थे। उस काल में मुनिगण प्रायः अपने ही गच्छ के विद्वानों से अध्ययन करते थे । अतः प्रानन्दघनजी मूलतः खरतरगच्छ के ही सिद्ध होते हैं। उनका मिलन केवल तपागच्छीय उपाध्याय यशोविजयजी से हुआ था, उस आधार पर आनन्दघनजी को तपागच्छीय मानना न्यायसंगत नहीं है । उपाध्याय यशोविजयजी के अतिरिक्त श्री विनयविजयजी उपाध्याय, श्री मानविजयजी उपाध्याय, श्री लावण्यविजय गणि, श्री विजयदेवसूरि, श्री विजयप्रभसूरि, श्री ज्ञानविमलसूरि, श्री सत्यविजय जी पंन्यास, श्री विजयरत्नसूरि, श्री जिनहर्षगणि, श्री राजसागरसूरि, श्री सकलचंदजी उपाध्याय, श्री विजयसिंहसूरि आदि मुनिवर योगिराज श्री आनन्दघनजी के समकालीन थे। इनका अनेक गच्छों के साधुओं से परिचय हया था। इन्होंने आगमों का अध्ययन करने के साथ तर्कशास्त्र एवं अलंकारशास्त्र में दक्षता प्राप्त की थी। पूर्व भव के संस्कारों के कारण इनका झुकाव अध्यात्म की अोर हुमा जहाँ इनकी आत्मा को परितृप्ति मिली। ये गच्छों के झगड़ों से तंग आ गये थे, अतः अध्यात्म की ओर इनकी रुचि बढ़ गई। वैराग्य-वृत्ति एवं शास्त्र-दृष्टि : उनके अन्तर में विचार उठने लगे कि कर्म के साथ प्रात्मा का प्रनादि काल से संयोग है तो अब शीघ्रातिशीघ्र संसार से मुक्त कैसे हो सकते हैं ? साधुजीवन में तो आत्मिक गुणों की साधना की जानी चाहिए। यदि साधू-जीवन में भी झंझटों में, प्रपंचों में उलझे रहे तो आत्मा के शुद्ध धर्म की साधना कैसे होगी? इस प्रकार की वैराग्य-भावना में वे बहने लगे। वे आत्मार्थी मुनियों से सम्पर्क करने लगे। व्यर्थ की चर्चाओं, विकथाओं, वितंडावादों तथा गृहस्थों के अधिक परिचय से वे दूर रहने लगे। अध्यात्म ज्ञान के शास्त्रों में ज्यों-ज्यों उनकी रुचि बढ़ने Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६ लगी, त्यों-त्यों अध्यात्मज्ञान की मादकता उन पर छाने लगी। उनका हृदय अध्यात्म-ज्ञान से सराबोर हो गया। वे विचार करने लगे कि आगमों में श्रुतज्ञान की ज्योति की स्पष्ट झलक है, फिर जगत् के लोग आगमों की उपासना के द्वारा ज्ञान-ज्योति क्यों नहीं प्राप्त करते ? स्पृहा-त्याग एवं ध्यान-मग्नता : ज्यों-ज्यों अानन्दघनजी में ज्ञान की अभिवृद्धि होती गई, त्यों-त्यों वे गृहस्थ की स्पृहा से दूर रहने लगे। वे नहीं चाहते थे कि उनके संयमजीवन पर कोई दोष लगे। वे अपनी क्रियाओं को नियमित करते थे। वे आवश्यक क्रिया करने के पश्चात् शास्त्र-पठन, मनन, स्मरण एवं पृच्छा आदि में अपना समय व्यतीत करते। पंचाचार पालने के सम्बन्ध में उनकी दृढ़ श्रद्धा थी। वे गुरु के पूर्ण अनुशासन में रहते थे। अपना अधिकतम समय वे ध्यान में व्यतीत करते थे। वे अपनी आत्मा का ध्यान करते और इस प्रकार प्रतिदिन वैराग्य-ध्यान-दशा में वृद्धि होने लगी। व्याख्यान पर प्रतिबन्ध नहीं : . ___ एक बार वे गुजरात के किसी शहर में पर्युषण का व्याख्यान दे रहे थे। उस शहर में नियम था कि सेठ के आने के पश्चात् ही व्याख्यान प्रारम्भ होता था। श्रोताओं की भीड़ लग गई हो तो भी सेठ के आगमन की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। श्रीमद् अानन्दघनजी ने कल्पसूत्र का प्रवचन प्रारम्भ किया तो सेठ की माता बोली-"मेरा पुत्र न पाये तब तक प्रवचन प्रारम्भ नहीं होगा।" सेठ को बुलाने के लिए व्यक्ति को भेजा, पर वे आने में विलम्ब करते रहे। इस पर आनन्दघनजी ने विचार किया कि श्रावकों के प्रतिबन्ध के कारण आगमों से विरुद्ध चलना उचित नहीं है। वे सोचने लगे - "माता-पिता आदि के प्रतिबन्ध से छूट कर आत्म-कल्याणार्थ मैं दीक्षित हुआ और यहाँ पाकर आगमों की आज्ञा के विरुद्ध गृहस्थों की सुविधा का ध्यान रखना शास्त्रविरुद्ध है। सेठ को बुरा लगे तो लगे और वह चाहे वसति-दान न दे, अपना उपाश्रय संभाल कर रखे, मैं तो आगमों की आज्ञानुसार ही कार्य करूंगा।" ऐसा दृढ़ संकल्प करके उन्होंने कल्पसूत्र का पठन प्रारम्भ कर दिया। - सेठ अत्यन्त क्रोधित हुए। वे कहने लगे—“आपने प्रवचन प्रारम्भ करके ठीक नहीं किया।" श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा, "मैं तो आगमों Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झांकी-७ की आज्ञानुसार साधु-धर्म का पालन करता हूँ। मैं आप जैसे दुराग्रही व्यक्तियों के प्रतिबन्ध से अपना चारित्र खूटी पर नहीं टाँग सकता।" सेठ बार-बार कहते रहे कि मेरे उपाश्रय में तो मेरे कथनानुसार ही व्याख्यान प्रारम्भ होगा, अन्यथा आपको इस उपाश्रय में नहीं ठहरना चाहिए। श्रीमद् आनन्दघनजी को सेठ के ऊटपटांग शब्द चुभ गये, अतः वे रजोहरण, मुहपत्ति, चोलपट्ट, तर्पनी, पात्र आदि अल्प उपधि रख कर गाँव-गाँव विहार करने लगे और रात्रि के समय गाँव के बाहर श्मसान में अथवा किसी शून्य यक्ष-मन्दिर आदि में पड़े रहते। कहीं स्थान नहीं मिलता तो किसी फक्कड़ को मढ़ी में ही एकान्त में पड़े रहते । वे अपने मन में किसी निन्दक के प्रति न तो द्वष रखते थे और न किसी वन्दक के प्रति रांग रखते थे। वे एकलविहारी के रूप में विचरण करते रहे। कुछ लोग कहते थे कि वे साधु-वेष छोड़ कर घूमते थे, परन्तु यह बात असत्य है। कहीं भी ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि उन्होंने साधु-वेष का त्याग कर दिया. हो। कई महात्माओं का कथन है कि वे साधु-वेष में ही विचरते थे। पंन्यास श्री दयाविमलजी वयोवृद्ध थे। उन्होंने भी बताया था कि वे गाँव के बाहर गुफाओं में अधिक रहते थे, परन्तु रहते थे साधु-वेष में ही। उनके रोम-रोम में जैनधर्म के प्रति अंटूट श्रद्धा थी। एक बार तपागच्छ के श्री विजयप्रभ सूरि विहार करते-करते मेड़ता के समीप एक गाँव में अानन्दघनजी से मिले। आनन्दघनजी ने उनको वन्दन किया। विजयप्रभसूरि ने श्रीमद् प्रानन्दघनजी को एक वस्त्र प्रोढ़ा कर कहा, "आप अपने प्रात्म-ध्यान में नित्य प्रवृत्त रहें।" श्री विजयप्रभसूरि श्री आनन्दघनजी की सरलता, त्याग एवं वैराग्य-दशा देखकर अंत्यन्त प्रसन्न हुए। श्री प्रानन्दघनजी ने पंच महाव्रतों की आराधना करने के लिए दीक्षा ग्रहण की थी और मृत्यु पर्यन्त वे साधु वेष में रहे। वे नित्य जैन धर्म की पाराधना करने में तत्पर रहते थे और सात नय, सप्तभंगी, चार निक्षेप एवं नौ तत्त्वों के विशिष्ट ज्ञाता थे। प्रानन्दघन के रूप में ख्याति और उनका अध्यात्म-ज्ञान : .. उनका दोक्षा नाम तो लाभानन्दजी था, परन्तु जब उनकी. आत्मदशा में वृद्धि होने लगी और वे आत्मानन्द में तन्मय रहने लगे तब लोग उन्हें प्रानन्दघन कहने लगे। फिर तो वे स्वयं भी अपना नाम आनन्दघन ही बताने लगे। जब उनके पास मनुष्य आते तब वे उन्हें Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८ आत्मा से सम्बन्धित उपदेश देते थे और अध्यात्म ज्ञान का अविरल प्रवाह करते थे तब जैन एवं अजैन सब उन्हें अध्यात्मज्ञानी साधु कहते थे। जो-जो व्यक्ति उनके सम्पर्क में आते थे, उन्हें ही उनके अगाध अध्यात्मज्ञान का पता लगता था। वे अपनी निर्भयता की परीक्षा करने के लिए गाँव के बाहर स्थित श्मसान में रात्रि के समय ध्यान-मग्न रहते थे। वे भूत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी और वैताल आदि से कदापि भयभीत नहीं होते थे, बल्कि उनके ध्यान के प्रभाव से भूत-पिशाच उनको कोई उपद्रव नहीं कर सकते थे। वे दो-दो दिन, तीन-तीन दिन पश्चात् भिक्षा ग्रहण करते थे अर्थात् क्षुधा-निवारणार्थ, संयम-साधनार्थ तथा देह की रक्षार्थ आहार-पानी ग्रहण करते थे। यशोविजयजी का अध्यात्म प्रवचन : आगम-ज्ञाता एवं जन-शासन के अनन्य हीरे उपाध्याय श्री यशोविजयजी विहार करते-करते अाबू पाये। उस समय वे एक ख्याति प्राप्त एवं बहुश्रुत सन्त माने जाते थे। उन्होंने सुना था कि आनन्दघनजी अध्यात्म-ज्ञान के प्रबुद्ध विद्वान् हैं। आनन्दघनजी ने भी यशोविजयजी की विद्वत्ता की प्रशंसा सुनी थी। वे उनको उस प्रदेश में पाया हया जानकर उनसे मिलने की इच्छा से अकेले निकल पड़े और उपाश्रय में साधुओं के मध्य बैठ गये। यतियों के साथ बैठने से उपाध्यायजी ने उन्हें पहचाना नहीं। यशोविजयजी ने अध्यात्म ज्ञानविषयक प्रभावशाली प्रवचन किया, जिसका साधु-साध्वियों, श्रावक तथा श्राविकाओं पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वे सब डोलने लगे। जब उपाध्यायजी की दृष्टि उन जीर्ण वेषधारी साधु पर पड़ी तो उन्होंने उनमें कोई परिवर्तन नहीं पाया। इस पर वे बोले, 'अरे, वृद्ध साधु ! तुम्हारे पल्ले कुछ पड़ा अथवा नहीं ?' आनन्दघनजी ने उत्तर दिया-'आपश्री शास्त्रों में अधिक दक्ष प्रतीत होते हैं।" इस उत्तर से उन्हें पता लग गया कि यह कोई ज्ञानी है। उपाध्यायजी को ज्ञात हुआ कि यह प्रानन्दघन है। इस पर उन्होंने आनन्दघनजी को मानपूर्वक उस श्लोक की व्याख्या करने को कहा, जिसकी व्याख्या वे स्वयं कर रहे थे। उनके अत्यन्त प्राग्रह से प्रानन्दघनजी ने श्लोक की व्याख्या प्रारम्भ की ओर वह व्याख्या तीन घंटे तक चली। श्री आनन्दघनजी के व्याख्या सम्बन्धी प्रवचन से श्रोता मुग्ध हो गये। स्वयं उपाध्यायजी भी मुग्ध हो गये। उन्होंने अानन्दघनजी की स्तुति की, क्योंकि हीरे की परीक्षा जौहरी ही कर सकता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झाँकी-६ प्रानन्दघनजी एकान्त में एकाकी रहकर साधना, भक्ति में लीन रहना चाहते थे। वे लोगों के अधिक सम्पर्क में आना नहीं चाहते थे। वे आबू पर्वत की गुफाओं में निवास करने लगे और आत्म-समाधि में सहज सुख का उपभोग करने लगे। वे राग-द्वेष से दूर रहने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य में जहाँ भावना शान्त रहे, ऐसे स्थान पर आन्तरिक चित्त की स्थिरता ज्ञान-दशा, ध्यान-दशा प्राप्त करने के लिए रहना चाहते थे। उन्होंने जन्म, जरा, मृत्यु, देह आदि के प्रति ममत्व एवं भय को अत्यन्त शिथिल कर दिया था। ऐसी ध्यान-दशा के कारण उन्हें बाह्य का भान नहीं था। श्री यशोविजयजी की स्तुति स्वरूप रचित अष्टपदी : श्री आनन्दघनजी ने भी उपाध्याय श्री यशोविजयजी के गुणों के प्रति राग के कारण अपने हृदय के उद्गारों के रूप में उनकी 'अष्टपदी' की रचना की थी। उक्त अष्टपदी उपलब्ध नहीं है परन्तु बीजापुर (गुजरात) निवासी शा सूरचन्द सरूपचन्द का कथन है कि उन्होंने संवत् १६४५ में सूरत में अष्टपदी पढ़ी है, जिसमें उपाध्यायजी के गुणों का वर्णन है। .. श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उपाध्याय श्री यशोविजयजी में प्रगाढ़ प्रम था, जिसका प्रमाण निम्नलिखित पद है निरंजन यार मोहे कैसे मिलेंगे ?? निरंजन०॥ दूर देखू मैं दरिया डूंगर, ऊँचे बादर नीचे जमोयुतले । निरंजन० ॥१॥ धरती में गडुता न पिछानु, अग्नि सहूँ तो मेरी देही जले। निरंजन० ॥२॥ अानन्दघन कहे जस सुनो बातां, ये ही मिले तो मेरी फेरी टले । निरंजन० ॥३॥ भावार्थ-योगिराज आनन्दघनजी कहते हैं कि कर्म रूपी अञ्जन से रहित परमात्मारूप शुद्ध मित्र का मिलाप मुझे कब होगा ? निराकार परमात्मा की प्राप्ति मुझे कैसे होगी? मैं दूर देखता हूँ तो सागर तथा पर्वत दृष्टिगोचर होते हैं और यदि गगन में ऊपर देखता हूँ तो बादल दृष्टिगोचर होते हैं और नीचे देखता हूँ तो धरातल दृष्टिगोचर होता है, परन्तु निरंजन परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, अरूपी परमात्म-स्वरूप का मिलाप नहीं होता। मैं क्या उपाय करूं कि Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१० मुझे निरंजन मित्र का मिलाप हो ? यदि मैं धरती में प्रविष्ट होकर देखता हूँ तो वहाँ भी मुझे निरंजन परमात्मा के दर्शन नहीं होते। कुछ व्यक्ति मित्र की प्राप्ति के लिए पंचाग्नि-साधना करते हैं। यदि मैं अग्नि को सहता हूँ तो मेरी देह जलती है। मैं अनेक कष्ट सहन करता हूँ, फिर भी मुझे निरंजन यार का मिलाप नहीं होता। अतः पंचाग्निसाधना भी उपयोगी प्रतीत नहीं होती। तो फिर मैं क्या उपाय करूँ कि जिससे निरंजन परमात्मा-मित्र की प्राप्ति हो? आत्मा की आत्मा के रूप में स्थिति होने को निरंजन यार का मिलाप कहा जाता है। प्रानन्दघनजी महाराज कह रहे हैं कि हे यशोविजयजी महाराज़.! आप मेरी बात सुनें। निरंजन यार का मिलाप होने से ही मेरा भव-भ्रमण का फेरा टलेगा। समस्त वस्तुओं की प्राप्ति की जा सकती है, परन्तु निरंजन परमात्म पद की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। निरंजन यार के मिलाप के लिए तो अनुभव ज्ञान की आवश्यकता है। उसका मिलाप हुए बिना स्थिरता नहीं हो सकती। श्री आनन्दघनजी अपने मित्र यशोविजयजी को कह रहे हैं कि राग-द्वेष का पूर्णतः नाश हुए बिना निरंजन,, निराकार, ज्योतिस्वरूप परमात्मा का आविर्भाव नहीं होता। आत्मा का धर्म सचमुच आत्मा में समाविष्ट है। आत्मा के धर्म की प्राप्ति के लिए समाधि लेने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा की परमात्म-दशा होने के पश्चात् जन्म, जरा, मृत्यु के कष्ट नहीं रहते। श्रीमद् आनन्दघनजी ने निराकार प्रभु का ध्यान करने की अमुक अंश में योग्यता प्राप्त की थी। इस कारण ही वे निरंजन यार के विरह के उद्गार प्रकट कर सके। उन्होंने जीवित समाधि लेने का खण्डन किया है। निराकार परमात्मा की प्राप्ति के लिए अग्नि में देह को भस्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है। देह जल जाने से कोई कर्म नहीं जल जाते। श्रीमद् आनन्दघनजी ने परमात्मा को अपना मित्र कहकर उनकी प्राप्ति की कामना की है। निराकार परमात्मा को मित्र कहने से पूर्व उनका मित्र बनने के लिए स्वयं में कितने गुण पाये हैं उनका यदि विचार किया जाये तो स्वयं के अधिकार का ज्ञान होता है और परमात्मा का मित्र बनने से क्या लाभ है यह भी ज्ञात हो जाता है। हम जिसके मित्र बनना चाहते हैं उसके समान गुण हमें अपने भीतर प्रकट करने चाहिए। परमात्मा को मित्र के रूप में सम्बोधन करने से पूर्व यदि उन्हें पहचान नहीं सके तो उनकी मित्रता केवल नाम मात्र की माननी चाहिए। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झाँकी-११ श्रीमद् प्रावन्दघनजी ने निरंजन सिद्ध परमात्मा को मित्र के रूप में सम्बोधित किया है। सचमुच उनमें परमात्मा से मित्रता करने की योग्यता थी, इसी कारण उनके हृदय से निरंजन मित्र के विरह के उद्गार निकले हैं। दुर्ध्यान हटाये बिना परमात्मा के सुध्यान में स्थिरता नहीं पाती। आध्यात्मिक ज्ञान-रस ही अमृत-रस है जिसका पान ज्ञानी ही कर सकते हैं। वे अपने उद्गारों के द्वारा अन्य मनुष्यों को लाभान्वित कर सकते हैं। ज्ञानियों के अन्तर में सर्वस्व का समावेश हो जाता है। उनके अगाध ज्ञान को कोई नाप नहीं सकता। ध्यान से ही समस्त दुःखों का क्षय होता है। अतः कुसंगति का त्याग करके ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुण से युक्त प्रात्मा का नित्य ध्यान करना चाहिए। ध्यान का वास्तविक अधिकार तो त्यागी एवं पंच महाव्रतधारी मुनिवरों को है। मान, पूजा एवं धन की आशा से रहित तथा आगमों के अनुरूप चलने वाले शान्त मुनिवर शुभ-ध्यानी बन सकते हैं। अतः भव्य जीवों को ध्यान की प्राप्ति के लिए अध्यात्म-ज्ञानी सद्गुरुओं एवं शास्त्रों की निरन्तर उपासना करनी चाहिए। ध्यान में उच्च दशा : तत्पश्चात् योगिराज श्री आनन्दघनजी आबू पर्वत की कन्दराओं, मंडलाचल गिरि की कन्दराओं, सिद्धाचल, तलाजा, गिरनार, ईडर, तारंगा आदि निर्जन स्थानों में रहकर ध्यान-लीन रहने लगे। उस समय आबू पर्वत की कन्दराओं में अनेक फक्कड़ निवास करते थे, जिनमें कई तो विशिष्ट योगी थे। वे समय-समय पर श्रीमद् आनन्दघनजी से मिलते थे और उनसे मित्रता करते थे। श्रीमद् उनके साथ अनुभवों एवं विचारों का आदान-प्रदान करके उन्हें वीतराग धर्म का उपदेश देकर प्रानन्द-रस के प्रति रसिक बनाते थे। उस समय योग की ध्यान-दशा में रात्रि के समय कभी-कभी उनके पास साँप पाकर पड़े रहते। श्रीमद् के अहिंसा परिणाम की प्रतिष्ठा के कारण वे हिंसक एवं विषैले प्राणी उन्हें तनिक भी कष्ट नहीं देते थे। कभी-कभी तो आनन्दघनजी की गुफा के बाहर सिंह आकर कुत्तों की तरह बैठे रहते थे। रात्रि के समय सिंहों की दहाड़ मात्र से कायरों के हृदय दहल उठते थे, ऐसे पर्वत-शिखरों पर वे ध्यान-लीन होकर अपनी देह तक का भान भूल कर आनन्द में Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२ तल्लीन हो जाते थे। वे सिंह भी योगिराज को कोई हानि नहीं पहुँचाते थे, क्योंकि श्रीमद् ने अपने तपोबल से स्वयं में ऐसी आत्म-शक्ति विकसित कर ली थी। ध्यान एवं योग से उनमें अनेक लब्धियाँ उत्पन्न हो गई थीं। प्रथम जैन पद-रचयिता: ___ श्री प्रानन्दघनजी के समय में भजनों की प्रथा चल चुकी थी। मीराबाई, कबीर तथा तुलसीदास आदि के पदों तथा भजनों का मारवाड़ और गुजरात में भी प्रचार हो गया था। इस कारण जनों में भी पदरचना का क्रम चला और पदों को गाने की ओर भी लोगों की रुचि बढ़ी। श्रीमद् ने सुमति एवं कुमति के माध्यम से अध्यात्म के ऐसे सुन्दर पदों की रचना की, जिन्हें गाकर लोगों के प्रानन्द में वृद्धि होने लगी। श्रीमद के पदों में भाषा की सजीव झलक दृष्टिगोचर होती है। जैन श्वेताम्बरों में पद-पद्धति से हृदयोद्गारों को भाषा के माध्यम से बाहर निकालने का प्रारम्भ श्रीमद् प्रानन्दघनजी ने किया। इनका अनुकरण श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय, श्री विनयविजयजी उपाध्याय तथा श्री ज्ञानसागरजी आदि ने किया और तब से पदों की रचना होती रही है। जिनाज्ञानुसार धर्मोपदेश : प्रत्येक गच्छ के साधु 'अपने गच्छ में धर्म है और हमारा गच्छ ही वास्तव में आगमों के अनुसार, जिनाज्ञा के अनुरूप चल रहा है'--यह कहकर अन्य गच्छों में दोष बताकर अपने गच्छ का प्रतिपादन करते थे। ऐसी दशा देखकर अनेक श्रावक संशय में पड़ गये और किसी सच्चे ज्ञानी की शोध करने लगे। कतिपय जैनों को प्रतीत हुआ कि श्री आनन्दघनजी को गच्छ का कोई पक्षपात नहीं है। जैनागमों एवं अनेक सुविहित आचार्यों के ग्रन्थों का उन्होंने पठन किया है। अतः उनके पास जाकर हम स्पष्टीकरण करें कि वर्तमान में प्रामाणिक गीतार्थ वक्ता कौन है ? वे श्रीमद् के पास आये और उन्होंने यही प्रश्न पूछा। श्रीमद् आनन्दघनजी ने श्रावकों को कहा, "वर्तमान समय में उपाध्याय श्री यशोविजयजी समस्त सिद्धान्तों के ज्ञाता एवं उपदेशक हैं। उनकी व्यवहार एवं निश्चय में समान दृष्टि पहुँचती है। अतः आप लोग उनका प्रवचन श्रवण करके स्पष्टीकरण करो।" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन - झाँकी - १३ इस प्रकार श्रीमद् बाल- जीवों को योग्य गुरु की सूचना देते थे और अपने शुद्ध धर्म के ध्यान में उपयोगी रहते थे । श्रीमद् के परिचय से यशोविजयजी उपाध्याय की उत्तर अवस्था अध्यात्म ज्ञान की रमरणता में एवं अध्यात्म-ज्ञान की पुस्तकों के लेखन में व्यतीत हुई । सती बनने वाली स्त्री को प्रतिबोध : 1 एक बार श्रीमद् जब मेड़ता में थे, तब एक सेठ की युवा पुत्री विधवा हो गई । वह अपने पति की चिता में जल मरने के लिए तत्पर हुई । उसका सतीत्व उद्वेलित हो उठा। वह सती नारी के भेष में मेड़ता से बाहर निकली । उस समय श्रीमद् आनन्दघनजी गाँव के बाहर श्मशान की तरफ एक स्थान पर बैठे हुए थे I सती होने के लिए तत्पर सेठ की पुत्री वहाँ से निकली | श्रीमद् श्रानन्दघनजी के मन में उसे उपदेश देने की इच्छा हुई । वे उस स्त्री के पास गये और कहने लगे कि तू अपने पति को पहचाने बिना किसके साथ जल मरने रही है ? स्त्री ने उत्तर दिया- "मेरे पति को जलाने के जा रहा है । उसकी आज ही मृत्यु हुई है । अतः मैं चिता में उसका आलिंगन करने के लिए उसके पीछे जा रही हूँ ।" आनन्दघनजी ने उसे कहा - " पुत्री ! तेरा प्रीतम देह है अथवा देह में स्थित आत्मा है ? देह को प्रीतम समझ कर उससे प्रालिंगन करने के लिए जा रही है तो यह अनुचित है, क्योंकि देह तो जड़ है, नश्वर है । देह किसी की नहीं होती । अतः देह को तो प्रीतम नहीं माना जा सकता । यदि तू आत्मा को प्रीतम (स्वामी) मानती है तो वह श्रात्मा तो अपने कर्मानुसार पर-भव में चला गया । अब बता तू किसका आलिंगन करेगी ।" का प्रयत्न कर लिए ले जाया सेठ - पुत्री बोली - "मैं स्त्री हूँ और मेरा पति देवलोक में गया है, अतः मैं उसके साथ चिता में जल कर अपने पति के पास जाऊंगी । " इस प्रकार के प्रश्नोत्तरों के द्वारा श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने उस सेठ - पुत्री को समझाया कि हमारी आत्मा परमात्मा है । ऋषभदेव भगवान को स्वामी रूप मान कर उनकी सेवा करनी चाहिए और उन्होंने स्वरचित चौबीसी का प्रथम स्तवन ललकारा - "ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ रे कन्त ।" Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १४ स्तवन एवं उपदेश सुनकर सेठ-पुत्री के ज्ञान चक्षु खुल गये और उसकी भ्रान्ति नष्ट होने से देह भस्म करने का उसका 'सत्' टल गया । वह उनकी अनन्य श्राविका बन गई और श्रीमद् के आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने लगी । चौबीसी के सम्बन्ध में किंवदन्ती : श्रीमद् रचित चौबीसी के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि वे एक बार शत्रु जय पर जिनेश्वर भगवान के दर्शनार्थ गये थे । उनके पीछे उपाध्याय श्री यशोविजयजी एवं श्री ज्ञानविमल सूरि दो मुनिवर गये । उस समय श्री आनन्दघनजी एक जिनालय में भाव -स्तवना में लीन हो गये । वे दोनों मुनिवर छिप कर उनकी चौबीसी का श्रवण करने लगे और याद रखते रहे । आनन्दघनजी ने श्री ऋषभदेव से लगा कर श्री नेमिनाथ तक बाईस तीर्थंकरों की स्तवना की । इतने में उन्होंने अचानक पीछे देखा तो उन दोनों मुनिवरों को देख लिया । इससे उनके उद्गार निकलने बन्द हो गये और वे वहाँ से चले गये, जिससे श्री पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी के स्तवनों की रचना नहीं हो सकी । उपाध्यायजी. में इतना सामर्थ्य था कि एक हजार श्लोक श्र्वरंग करके वे उन्हें ज्यों के त्यों स्मरण रख सकते थे । आनन्दघनजी आशु कवि होने के कारण एक साथ बाईस स्तवनों की रचना कर सके, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । इस सम्बन्ध में सच्चाई तो यह है कि श्रीमद् आनन्दघनजी जहाँ-जहाँ विचरते गये, वहाँ उनके अन्तर में भगवान की भक्ति के जो विचार उठे, उन्हें वे प्रकट करते गये और भिन्न-भिन्न जिनेश्वर परमात्मा के स्तवनों की रचना करते-करते चौबीसी की रचना कर दी । श्रीमद् श्रानन्दघनजी के साथ श्रीमद् ज्ञानविमल सूरि के सम्बन्ध : अठारहवीं शताब्दी के जैन कवियों में श्रीमद् ज्ञानविमल सूरि अत्यन्त विख्यात हैं । उन्होंने रासा, चौबीसी, स्तुतियाँ, सज्झाय, देववन्दन तथा श्री सिद्धाचलजी के अनेक स्तवनों आदि की रचना की है । श्री ज्ञानविमल सूरिजी योगाभ्यास में अत्यन्त प्रवीण थे I पाटन में उपाश्रय के समीपस्थ नीम के एक वृक्ष को सरकारी सिपाही गिरा रहे थे । वे किसी भी तरह रुकने को तैयार नहीं थे । श्रीमद् ज्ञानविमल सूरि ने चमत्कार बता कर नीम की रक्षा की थी। इनके श्रावक नेमीदास थे । वि. संवत् १७६६ में चैत शुक्ला पंचमी के दिन ध्यानमाला बनाई है जिसमें नेमीदास ने लिखा है Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन - झाँकी - १५ मासमधुउज्ज्वलपखे । संवत् रसऋतुमुनीशशोभित पंचमी दिवसे चित्तविकसे, लही लीला जिम मुखे ।। १ ।। श्रीज्ञानविमलसूरि गुरुकृपा लही तास वचन श्राधार । एम रची नेमिदासे व्रतधार ।। २ ॥ ध्यानमाला श्री ज्ञानविमल सूरि ने श्रीमद् श्रानन्दघनजी को पूज्य मानकर उनके सम्पर्क में रह कर अध्यात्म-ज्ञान प्राप्त किया था । उस युग में श्री ज्ञानविमल सूरि, श्री यशोविजयजी उपाध्याय एवं श्री सत्यविजयजी इन तीनों का पुरुषार्थ अधिक था । इन तीनों की त्रिपुटी मानी जाती थी । श्री ज्ञानविमल सूरि का श्रीमद् आनन्दघनजी के प्रति प्रत्यन्त राग था । अठारहवीं शताब्दी के महान् मुनिवरों का भी श्री श्रानन्दघनजी के प्रति प्रगाढ़ राग था । प्रतिमा - पूजा की मान्यता : श्रीमद् आनन्दघनजी अध्यात्मज्ञानी थे । वे प्रतिमा पूजा मानते थे जिसे वे आगमों के आधार पर सिद्ध करके बताते थे । साकार का ध्यान करने के पश्चात् ही हम में निराकार ध्यान की योग्यता उत्पन्न होती है । श्री श्रानन्दघनजी मध्यस्थ तथा अध्यात्मज्ञानी होने के साथ वैरागी, त्यागी एवं सत्य - भाषी थे । अतः उनके प्रति अन्य धर्मावलम्बी लोग भी विश्वास रखते थे । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने श्री सुविधिनाथ भगवान के स्तवन में शास्त्रों के आधार पर प्रतिमा-पूजन विधि स्पष्ट की है सुविधि जिरणेसर पाय नमी ने, शुभकरणी एम कीजे रे । प्रतिघरणो उलट अंगधरी ने, प्रह उठी पूजीजे रे ॥ १ ॥ 'उपर्युक्त स्तवन में आगे जाकर अष्टप्रकारी पूजा श्रादि का विधान बताया है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी की उत्कट विरह वेदना : उन्होंने अपने प्रभु, प्रीतम को पाने के लिए विरह के प्रश्रु बहाये थे । विरह के अश्रु बहाना ही उनकी साधना थी। प्रीतम की याद आते ही उन्होंने अविरल आँसू बहाये थे, फूट-फूटकर रुदन किया था, परन्तु वह रुंदन किसी निराधार संसारी का न होकर आत्म-प्रतिष्ठित योगी का था, कायर का न होकर एक महान् शूर-वीर का था । उन्हें कभी जीवन में ऐसा भी प्रतीत हुना होगा कि 'ऋषभ' के बिना, अब तो मैं Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १६ एक पल भी जीवित नहीं रह सकूंगा और उनके अन्तर से उद्गार निकले - "श्रानन्दघन प्रभु वद्य वियोगे किम जीवे मधुमेही ।" विरह की इतनी उत्कट वेदना प्रकृति भी सहन नहीं कर सकती । उसे भी वहाँ पराजित होना पड़ता है, पराजय स्वीकार करनी पड़ती है । उनके उद्गार थे - "हे प्रभो ! जिस प्रकार मधुमेह का रोगी वैद्य की सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार मैं भी तेरे बिना अब जीवित नहीं रह पाऊँगा ।" श्रानन्दघन के इस एक आँसू को सम्हालने की शक्ति सम्पूर्ण प्रकृति के राजतंत्र में भी नहीं थी । उनका रुदन देखकर स्वयं प्रकृति भी काँप उठी होगी और उसने श्रीमद् को छाती से लगा लिया होगा । जीवन की कठोर धरा पर चलने वालों को पता है कि प्रीतम की याद में कितने प्राँसू बहाने पड़ते हैं, कितना नाक रगड़ना पड़ता है, अपनी हड्डियों और मांस को सुखाना पड़ता है ? उनका प्रणय-संवेदन अत्यन्त प्रचण्ड था । 'ऋषभ' शब्द बोलते समय उनका स्वर काँपता होगा, उनकी देह में थरथराहट होती होगी, छिप-छिप कर सिसकने के कारण उनका सिर एवं सीना हिल उठता होगा । विदेश गये पति की याद में कोई नवोढ़ा विरहिणी जितने आँसू बहाती है, उससे अधिक आँसू प्रानन्दघनजी ने बहाये होंगे, क्योंकि उनका प्रीतम विदेश में नहीं था, वह तो उनके अन्तर की गहराई में कहीं खो गया था । वह सशरीरी नहीं था, अशरीरी था । मन को वश में करने पर बल : श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने कहा, "मन को वश में करने पर ही मुक्ति शीघ्र प्राप्त होती है। शुभ-अशुभ अध्यवसायों का कारण मन ही है क्योंकि -- 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ' मन में होने वाले रागादि अध्यवसाय यदि टल जायें तो आत्मा परमात्म-स्वरूप बन जाये । मन को वश में करने के लिए वे नित्य के अभ्यास करते थे । इस प्रकार का भाव उन्होंने भगवान श्री कुन्थुनाथ स्तवन में व्यक्त किया है । गहन विषयों एवं शास्त्रों का अध्ययन करना सरल है, परन्तु मन को वश में करना कठिन है । मिथ्या प्रक्षेप : कहते हैं कि एक सेठ की पत्नी को आनन्दघनजी ने सती होने से Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झांकी-१७ रोका था। वह स्त्री उनके पास ज्ञान उपार्जन करने के लिए आया करती थी। यह बात मारवाड़ के एक गाँव की है। वह स्त्री अधिक समय श्रीमद् आनन्दघनजी के पास रहकर अध्यात्म-ज्ञान का अनुभव प्राप्त करती थी और आत्मा को उच्च दशा में ले जाने का प्रयत्न करती थी। कुछ विघ्न-सन्तोषी व्यक्तियों ने अफवाह फैला दी कि श्रीमद् का सेठ की पत्नी के साथ गलत सम्बन्ध है। श्रीमद् तो उच्च कोटि के पुरुष थे, अतः उन्होंने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ व्यक्ति उन्हें पाखण्डी, धूर्त प्रादि कहकर उनकी छवि को धूमिल करना चाहते थे, तो भी आनन्दघनजी उनका बुरा नहीं मानते थे। वे तो आत्म-गुणों को प्रात्म-साक्षी से सेवन करके मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे। राजा की पुत्रियों को प्रतिबोध : - कहते हैं कि प्रानन्दघनजी एक बार मारवाड़ के मेड़ता गाँव में अथवा अन्य किसी गाँव में गये। वहाँ के राजा की दो पुत्रियाँ कुछ समय पूर्व ही विधवा हो गई थीं। अतः वे प्रतिदिन रुदन किया करती थीं। राजा ने उनका शोक दूर करके उन्हें सान्त्वना देने के अनेक उपाय किये, परन्तु उन पुत्रियों का शोक दूर नहीं हुआ। राजा ने आनन्दघनजी को उनका शोक दूर करने के लिए निवेदन किया। श्रीमद् ने संसार की असारता समझा कर उन्हें प्रात्म-स्वरूप समझाया, जिससे उनका शोक टल गया और वे धर्म की ओर उन्मुख हुईं। तत्पश्चात् वे प्रानन्दघनजी के पास अधिक आने लगी और उनकी सेवा करने लगीं। दुर्जन मनुष्यों ने अफवाह फैलाई कि श्रीमद् का उन राजपुत्रियों के साथ गलत सम्बन्ध है। बात गाँव-गाँव फैल गई। अन्त में राजा ने भी बात सुनी। इस बात का गुप्त रूप से पता लगाने के लिए राजा तथा गाँव के अन्य प्रागेवान वहाँ गये। उस समय आनन्दघनजी ने उन्हें अद्भुत उपदेश दिया और अग्नि में दोनों हाथ रखकर चमत्कार बताया जिससे लोगों को शंका दूर हो गई और उनके चारित्र के प्रति उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया। राजा ने उनसे क्षमा-याचना की। इस किंवदन्ती में कितनी सच्चाई है, यह तो पाठकगण स्वयं निर्णय करें। दुर्जनों की चाल : - प्रानन्दघनजी अध्यात्म-ज्ञान का उपदेश देते थे। अतः एकान्त क्रिया के अनुयायी साधुओं ने ऐसा उपदेश दिया कि श्रीमद् निश्चयवादी Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८ हैं। अतः उन्हें कोई उपाश्रयों में ठहरने न दें और कोई जैन उनके पास उपदेश सुनने के लिए न जाये। कुछ स्थानों पर बाल-जीवों पर • इसका प्रभाव पड़ा, जिससे उन स्थानों पर उन्हें उपाश्रयों में ठहरने तक नहीं दिया गया। आनन्दघनजी यत्र-तत्र मठों आदि में ठहर कर अपना चारित्र पालन करते रहे। जो-जो परिषह आये उन्हें वे सहन करते रहे। प्रानन्दघनजी की निर्भयता : . वे स्वभाव से प्रफुल्लित मन के थे। वे जीवन में निर्भयता की ओर अग्रसर होते गये। वे जैनशास्त्र-सम्मत ध्यान-दशा में भय-मुक्त बने प्रविष्ट होते थे और घनघोर जंगलों में निवास करते थे। वे इतने निर्भीक हो गये थे कि सिंहों की गुफाओं में तथा अन्य हिंसक प्राणियों की गुफाओं में निवास करते थे। वे अंधेरी रात्रि में श्मसान में काउस्सग्गध्यान करते थे। देह का ममत्व छूटने पर ही निर्भीकता पाती है। वे लोक-निन्दा की तनिक भी परवाह नहीं करते थे। वे तो आत्म-साक्षी से वीतराग वचनों की आराधना में सदा तत्पर रहते थे। कुछ अज्ञानी लोग उन्हें सताते थे, पर वे उन पर करुणा-भाव रखकर ही अपनी आत्मा को उच्च बनाते थे। उनके सम्पर्क से लाभान्वित : श्रीमद् आनन्दघनजी के सम्पर्क से उपाध्याय यशोविजयजी तथा श्री सत्यविजयजी पंन्यास आदि अध्यात्म-ज्ञान से अत्यन्त लाभान्वित हुए। उनके सम्पर्क से उनके शान्त विचारों का उन पर उत्तम प्रभाव पड़ता था। उनके सम्बन्ध में विरुद्ध विचार वाले व्यक्ति भी जब उनके सम्पर्क में पाये तो अपनी भूल के लिए पश्चाताप करते और श्रीमद् आनन्दघनजी के भक्त बन जाते थे। उनके वैराग्यमय शब्दों का प्रभाव उनके पास पाने वालों पर पड़े बिना नहीं रहता था। प्रानन्दघनजी जैन-शास्त्रों एवं सिद्धान्तों के आधार पर ही उपदेश देते थे। उनके उपदेश का लाभ लेने वाले अधिकांश उच्च कोटि के जीव थे। जगत् के लोगों के प्रति उनकी बेपरवाही : श्रीमद् अानन्दघनजी सदा आत्मिक विचारों में लीन रहते थे। वे तो आध्यात्मिक पद गा-गाकर अपनी धुन में मस्त रहते थे। वे मानते थे कि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झांकी-१६ 'मुझे तो काम ईश्वर से, जगत् रूठे तो रूठन दे।' लोग उनके सम्बन्ध में क्या कहते हैं, इस पर वे तनिक भी ध्यान नहीं देते थे। उनका तो लक्ष्य था-मुक्ति की आराधना। वे तो अपने विरोधियों एवं निन्दकों को भी कहते कि आत्म-कल्याण करो। मैं विपरीत विचार वालों की बातों का कब तक उत्तर देता रहूंगा। मनुष्यजन्म लोगों की प्रशंसा पाने के लिए नहीं है, आत्मा के शुद्ध धर्म में रमण करने के लिए मनुष्य-जन्म है। प्रात्म-कल्याण के अभिलाषियों को अपने गुणों की ओर ध्यान देना चाहिए। शासन के प्रति उनका राग : श्रीमद् आनन्दघनजी के हृदय में जिन-शासन के प्रति अनन्य राग था। शासन के प्रति अगाध प्रेम के कारण ही उन्होंने श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय को शासन-सेवा के लिए प्रोत्साहित किया था। श्रीमद् आनन्दघनजी जैन-शासन की सेवा के लिए उत्तम विचारों के भण्डार थे । प्रतीत होता है कि उनका परिचय होने के पश्चात् ही उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने अध्यात्म ग्रन्थों की रचना की। अपनी आन्तरिक प्रेरणा से ही श्रीमद् ने चौबीसी, बहोत्तरी आदि का प्रणयन करके जैनशासन की अनन्य सेवा की है, जिसका आज जैन एवं अजैन सभी लोग लाभ ले रहे हैं। शासन-सेवा के प्रति प्रेम के कारण ही उन्होंने पंन्यास श्री सत्यविजयज़ी को क्रियोद्धार में सहायता की थी। आनन्दघनजी की प्रकृति एवं स्वभाव : वे प्रकृति से सरल-स्वभावी एवं मिलनसार थे। उनके चेहरे पर गम्भीरता के साथ मधुरता रहती थी। वे प्रत्येक पंथ के अनुयायियों के साथ बिना किसी प्रकार के भेदभाव के अध्यात्म की चर्चा करते थे, जिसके कारण उनके पास अजैन भी उमड़ते रहते थे। जैनों की अपेक्षा अजैन उनका अधिक सम्मान करते थे और उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखते थे। वे मत-सहिष्णु थे। उनके सम्पर्क से सभी आगन्तुक प्रसन्न रहते थे। वे कदापि किसी के साथ कलह करना नहीं चाहते थे। उनको देखते ही प्रतीत होता था कि वे कोई वैरागी सन्त, महात्मा हैं। वे दयालु एवं सत्य-वक्ता थे। सत्य बात कहने के कारण यदि कोई आपत्ति आती तो वे उसे हँसते-हँसते सहन करते थे और तनिक भी भयभीत नहीं होते थे। वे मस्त तबियत के अल्हड़ योगी थे। वे न तो किसी की निन्दा करना Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२० अथवा सुनना चाहते थे और न अपनी प्रशंसा सुनने में उन्हें कोई रुचि थी। प्रानन्दघनजी के जीवन की प्रमुख विशेषताएं: उनका आनन्द ठोस था, जिसके साथ पहाड़ भी यदि टकराये तो चूर्ण-चूर्ण हो जाये। उनका आनन्द जन्म, जरा, मृत्यु को भी तोड़ डालने वाला था। यही कारण था कि मृत्यु भी वहाँ महोत्सव स्वरूप थी। आनन्दघनजी की सूक्ष्म भाषा हम संसारियों की नहीं है। उनके भाव हमारी तंग गलियों में समाविष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी विराट भावना फिल्मी गीत गुन-गुनाने वालों के लिए समझ पाना कठिन है, दुष्कर है। उनके पदों को समझने के लिए किसी अध्यात्म-ज्ञानी का मार्ग-दर्शन अनिवार्य है। उनकी रचना को समझने के लिए ज्ञान विमलसूरिजी जैसे ज्ञानियों की टिप्पणी एवं टीका की आवश्यकता रहती है, अन्यथा अपरिपक्व जनसमूह के पल्ले कुछ नहीं पड़ सकता। इसीलिए तो श्री ज्ञानविमलसूरिजी ने अपनी टीका में कहा है प्राशय प्रानन्दघन तणो रे, अति गम्भीर उदार । बालक बाहु पसारी जिम कहे उदषि विस्तार ॥ आनन्दघनजी प्रानन्द में ही घुले-मिले रहते थे। वे चारों ओर से आनन्द से ही घिरे रहते थे। उनके रोम-रोम से निष्कासित होने वाले प्रस्वेद में, नासिका द्वारा ली जाने वाली उनकी प्राणवायु में, उनके नेत्रों में, नाक में, मुट्ठी में और पाँवों के तलवों में आनन्द-ही-पानन्द व्याप्त था। वे स्वयं अानन्द की प्रतिमूत्ति थे। उनकी थाह पाना अत्यन्त दुष्कर था। अनुभव की चाबी के बिना श्रीमद् आनन्दघनजी के प्रासाद में भला कौन प्रविष्ट हो सकता था। उनके प्रासाद में प्रविष्ट होने की चाबी केवल श्री ज्ञानविमलसूरिजी के पास थी। प्रानन्दघनजी ने अपने पदों की रचना अन्य व्यक्तियों के लिए नहीं की थी। वे तो अपनी मौज में गाते गये और उनके होठों पर पदों की रचना होती गई। उनके स्तवनों, पदों आदि की उन्होंने रचना नहीं की। उनका तो अनायास सृजन हो गया। आनन्द की उमियाँ उठने के साथ उनके होठ खुल गये, उनका मन-मयूर नाच उठा और उनकी कृतियों का सृजन हो गया। इस कारण ही जन-साधारण पचा न सके, ऐसा बहुत-कुछ उनकी रचनाओं में है। इस कारण लोक-कल्याणार्थ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झाँकी-२१ भगवान महावीर का स्तवन मंजूषा में बन्द कर दिया गया ताकि अपरिपक्व जन-समूह उसके अर्थ का अनर्थ न कर ले। कुछ समय पश्चात् वह स्तवन अचानक पुनः प्राप्त हो गया, जो ग्रानन्दघन जी की समस्त रचनाओं में उनकी एक अमूल्य रचना माना जाता है। आनन्दघनजी के लिए जो सत्य है, वह हमारे लिए असत्य है। उनके लिए जो शक्ति-वर्द्धक है, वही हमारे लिए विष है। आनन्दघनजी को याचना करना पाया और याचना करके उसे प्राप्त करना आया। इस कारण तीर्थंकर परमात्मा उनके लिए कल्पवृक्ष एवं काम-धेनु बन गये। यदि तीर्थंकर परमात्मा आपके निकट होंगे तो समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ आपके निकट रहेंगी। समस्त सम्पत्ति प्राप्त करनी हो तो वीतराग को अन्तर में आगे करो और अन्य सब उनके पीछे करो। उनकी साधना को प्रांतरिक आकर्षण से गति मिली थी। उसमें किसी का दबाव नहीं था। उनकी साधना का प्रवाह नैसर्गिक था। अगाध गहराई में डुबकी लगाती उनकी साधना का नैसर्गिक वेग ही उन्हें लक्ष्य पर ले गया। मुझे तो आश्चर्य होता है कि ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे गाने वाले ने गाते-गाते अाँसुओं की झड़ी लगा दी, फिर भी प्रानन्दघनजी को महाविदेह में क्यों जाना पड़ा? महाविदेह उनके पास क्यों नहीं पाया? सच्ची भक्ति में वह शक्ति है, वह जादू है कि भक्त भगवान के पास नहीं जाता, भगवान स्वयं चल कर भक्त के पास पाते हैं । सूक्ष्म रूप में यदि देखा जाये तो महाविदेह क्षेत्र तथा श्री सीमंधर स्वामी श्री आनन्दघनजी के घट में आये । सच्ची क्रियाओं के सम्बन्ध में श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा कि 'जो क्रिया करने से हमारा क्रोध, मान, माया एवं लोभ घटे; जिस क्रिया से हमारे प्रात, रौद्र ध्यान की वृद्धि हो; मन की अशान्ति में वृद्धि हो; वह क्रिया संसार की वृद्धि करने वाली है। वह सच्ची क्रिया नहीं है, अध्यात्म नहीं है। सच्ची क्रिया वह है जो आत्मा के अप्रकट गुणों को प्रकट करे, हमारे प्रशान्त मन को शान्ति प्रदान करे और निर्बल अन्तर को पुष्ट करे। 'जो आत्मा की अनन्त शक्तियों को जीवन में गतिशील करे वही अध्यात्म है।' सच्चा अध्यात्म पहचानने की चाबी योगिराज श्री आनन्दघनजी ने हमें प्रदान की है। आनन्दघनजी महाराज ने विकास की भूमिका बताई है कि पहले स्वप्न, तत्पश्चात् संकल्प, फिर साधना और अन्त में साक्षात्कार होगा। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- २२ श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं यशोविजयजी की तुलना : श्रीमद् आनन्दघनजी एक उच्चकोटि के सन्त थे, जबकि उपाध्याय श्री यशोविजयजी जिन - शासन के रक्षक थे । श्रीमद् श्रानन्दघनजी गच्छ निश्रा के बिना रहते थे, जबकि उपाध्यायजी गच्छ की निश्रा में रहकर जैन - शासन की प्रभावना करते थे, फिर भी वे आत्म-कल्याण करते थे । श्रीमद् यशोविजयजी ने जैनधर्म की रक्षा करने के लिए कठोर परिश्रम किया था और संस्कृत में एक सौ आठ ग्रन्थों की रचना की थी । जैन शासन की प्रभावना के लिए उन्होंने प्रबल पुरुषार्थ किया था और जीवन समर्पित करने में कोई कमी नहीं रखी थी । उपाध्यायजी का कार्य अन्य कोई व्यक्ति कर नहीं सकता था । उपाध्यायजी की कार्य करने की दिशा भिन्न थी और श्रीमद् श्रानन्दघनजी की कार्य करने की दिशा भिन्न थी । उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने जैन श्वेताम्बरों की जो सेवा की, वैसी सेवा कोई अन्य नहीं कर सका । उपाध्यायजी को अपने साधुनों की ओर से भी बहुत अधिक सहन करना पड़ा था। श्रीमद् श्रानन्दघन जी ने अध्यात्म मार्ग खुला करके शान्त रस की सरिता प्रवाहित की । अध्यात्म बताने वाले तो अनेक मिल जाते हैं, परन्तु अध्यात्म की प्रतिमूर्ति बन कर अध्यात्म रस प्रवाहित करने का सामर्थ्य तो उस शताब्दी में श्री आनन्दघनजी के अतिरिक्त अन्य किसी में देखा नहीं गया । निवृत्ति के मार्ग में आनन्दघनजी के समान उस काल में अन्य कोई नहीं था । अध्यात्म-ज्ञान में प्रानन्दघनजी के समान अध्यात्म - रसिक अन्य कोई मुनि नहीं था । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने जो चमत्कार बताये, वैसे चमत्कार बताने वाला उस शताब्दी में अन्य कोई नहीं था । त्यागी, वैरागी तथा देह के प्रति ममता का परित्याग करके वन एवं कन्दराओं में निवास करने वाले उनकी जितनी प्रशंसा करें, उतनी कम है । उन पर विघ्नं सन्तोषियों ने कितने आरोप और कलंक लगाये परन्तु उन क्षमाशील महापुरुष ने चेहरे पर बल तक नहीं आने दिया । जिन शासन की प्रभावना करने के लिए उन्होंने अन्य साधुनों को जो अमूल्य परामर्श दिया वह सदा स्मरण रखने योग्य है । अध्यात्म ज्ञान के प्रचारक, प्रसारक एवं उद्धारक के रूप में जिन - शासन में उनका नाम चिरस्थायी रहेगा । अठारहवीं शताब्दी में अध्यात्म-ज्ञान के उत्प्रेरक के रूप में हम श्रीमद् श्रानन्दघनजी, उपाध्याय श्री यशोविजयजी, श्रीमद् सत्यविजयजी, श्रीमद् विनयविजयजी उपाध्याय तथा श्रीमद् ज्ञानविमलसूरि आदि महान् सन्तपुरुषों को भूल नहीं सकते । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झांकी-२३ श्रीमद् प्रानन्दघनजी की आत्मा जागृत थी। उनके उपदेश श्रोताओं एवं पाठकों के हृदय में गहराई में पहँच कर उन्हें ज्ञान की गरिमा समझाने के लिए सक्षम थे। श्रीमद् यशोविजयजी ने जैन-शासन की सेवा करके जो उपकार किया है उसे कदापि विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनके द्वारा रचित ग्रन्थों से सदा बोध मिलता रहेगा। श्रीमद् अानन्दघनजी ने अध्यात्म-पदों की रचना करके अत्यन्त उपकार किया। श्रीमद् प्रानन्दघनजी के वैराग्य का प्रकार : श्रीमद् अानन्दघनजी में उत्तम कोटि का वैराग्य था। शास्त्रों में वैराग्य के तीन.भेद बताये गये हैं--- (१) दुःखगभित वैराग्य, (२) मोहगभित वैराग्य और (३) ज्ञानभित वैराग्य । श्रीमद् प्रानन्दघनजी में ज्ञानगर्भित वैराग्य था। उनकी वृद्धावस्था : __ आनन्दघनजी ने वृद्धावस्था में वनों में रहना छोड़ कर मेड़ता में निवास करना प्रारम्भ किया और वे आत्म-ध्यान में जीवन यापन करने लगे। ज्ञान-पिपासु भक्तों ने उनकी अत्यन्त सेवा की। मेड़ता में वे जिस उपाश्रय में निवास करते थे, वह उपाश्रय उनके स्वयं के नाम से जाना जाता था। आज भी. उसके खण्डहर दृष्टिगोचर होते हैं। मेड़ता में चौरासी गच्छों के उपाश्रय थे । उनके समय के प्राचार्यगण : ___ श्रीमद् आनन्दघनजी का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। इनका जन्म उपाध्याय श्री यशोविजयजी से पहले हुआ होना चाहिए। इनके जन्म के समय प्राचार्य श्री हीरसूरीश्वरजी थे और उनके दोक्षित होने के समय श्री देवसूरिजी, श्री तिलकसूरिजी, श्री प्रानन्दसूरि जी, श्री राजसागर सूरिजी, श्री विजयसिंह सूरिजी, श्री विजयप्रभसूरिजी और श्री रत्नसूरिजी आदि प्राचार्य थे। इससे प्रतीत होता है कि इनका सम्पर्क अनेक प्राचार्यों से हुआ होगा। उनकी स्थिरता एवं अन्तिम उपदेश : ___श्री आनन्दघनजी में जब तक शक्ति थी, तब तक तो वे गाँवों तथा नगरों से बाहर गुफाओं, कन्दरामों आदि में निवास करते रहे और वृद्धावस्था प्राने पर एवं घुटनों की शक्ति क्षीण होने पर वे मेड़ता के एक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४ उपाश्रय में निवास करते रहे। उपाश्रय में रहकर वे एकान्त में ध्यानलीन रहते थे। वे देह में फिर भी देह से रहित निःसंग दशा का अनुभव करते थे। उनका अन्तिम उपदेश था- "संसार में मोह जीत कर शुद्धता प्राप्त करें। संसार में कोई अमर रहने वाला नहीं है। अनेक चक्रवर्ती भी आकर चले गये। यदि अनन्त संसार का पार पाना हो तो वीतराग के वचनों का अवलम्ब लें। राग-द्वेष रूपी शत्रुओं से मुक्त होकर प्रात्मप्रदेशों में रमण करना ही मोक्ष का मार्ग है। मूनि-वेष पहन कर मोह के अधीन कदापि नहीं होना चाहिए। सर्वज्ञों ने जो मोक्ष का मार्ग बताया है, वह राग-द्वोष से रहित मार्ग है। उसको ही अंगीकार करें। ऐसी तीव्र वैराग्य-दशा धारण करें कि संसार में पुनः पुनः जन्म न लेना पड़े। राग आदि दोषों का त्याग ही वास्तविक त्याग है। संसार में निवृत्ति ही शान्ति का मार्ग है। किसी के अवगुणों पर ध्यान न दें। साधु बन कर सद्गुणों में प्रवृत्त होना ही ज्ञान-प्राप्ति का सार है। प्रमाद के वशीभूत होने वाले जीव अपनी आत्मा को समर्थ नहीं बना पाते। जिस प्रकार की प्रवृत्ति करने से राग-द्वेष घटता हो और प्रात्मा में शान्ति एवं आनन्द प्रादि सद्गुणों की उत्पत्ति होती हो, वैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए।" भक्तों को इस प्रकार का उपदेश देकर उन्होंने प्रात्म-ध्यान में चित्त लगाया और नश्वर एवं औदारिक देह का परित्याग किया। उनकी पार्थिव देह का महोत्सव पूर्वक अग्नि संस्कार किया गया। भक्तजन शोकाकुल हो गए। उनकी रचनाएँ हमें उनका स्मरण कराती है। संसार में उनकी रचनाओं ने उन्हें अमरत्व प्रदान किया। श्रीमद् प्रानन्दघनजी का मेड़ता में स्वर्गवास : उनका देहान्त मेड़ता में हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि वहाँ उनके नाम की एक प्राचीन देहरी है। उक्त देहरी का उनकी स्मृति में उनके भक्तों ने निर्माण किया था, जो आज भी विद्यमान है। अध्यात्म-ज्ञान के प्रेमी उक्त देहरी के दर्शनार्थ मेड़ता जाते हैं। उनके सम्बन्ध में लोगों का मत है कि वे महाविदेह के क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं और केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्तिपद प्राप्त करेंगे। वे अपनी अध्यात्म-दशा तथा ज्ञानभित वैराग्य के कारण तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त करेंगे, इसमें कोई पाश्चर्य की बात नहीं है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झांकी-२५ उनकी भक्ति : - वे वीतराग परमात्मा की भक्ति के प्रति समर्पित थे। आत्मा की उपासना की ओर उनका विशेष ध्यान था। वे प्रति-पल भगवद् भक्ति में तन्मय रहा करते थे। तत्कालीन मारवाड़ आदि में मीराबाई के भजनों के प्रभाव से राधा-कृष्ण का विशेष प्रचार था। श्रीमद् अानन्दघनजी ने भी उस काल की मांग के अनुसार आत्मा को कृष्ण, सुमति को राधा तथा कुमति को कुब्जा की उपमा देकर अनेक प्रकार से प्रात्म-प्रभु का गुण-गान किया है। तत्कालीन स्थिति : श्रीमद् आनन्दघनजी के समय में आगमों के ज्ञाता विद्वान् थे, जो अन्य दर्शनों के विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करने में पीछे नहीं हटते थे। उस समय गच्छ-भेद जोरों पर था जिससे प्राचार्यों एवं मुनियों में फूट, ईर्ष्या तथा क्रिया की शिथिलता थी। अध्यात्म-ज्ञान के प्रति लोगों में विशेष रुचि नहीं थी। उस समय श्वेताम्बर जैनों में प्रायः एकता का प्रभाव था, परन्तु धर्म के प्रति लोगों में पूर्ण श्रद्धा थी। प्राचार्यों का प्रभाव तो अधिक था, परन्तु उत्सवों आदि के आडम्बरों के कारण लोग वैरागी साधुंओं की ओर अधिक आकृष्ट थे। अठारहवीं शताब्दी ज्ञानोदय से युक्त थीं। प्रानन्दघनजी की जीवनी से सम्बन्धित दो अन्य पुस्तकें : मानन्दघनजी से सम्बन्धित विशेष वृत्तान्त उपलब्ध नहीं हैं। श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिजी, श्री मोतीचन्द गिरधारीलाल कापड़िया आदि लेखकों ने जो सामग्री उन्हें प्राप्त हुई, उसे अपने ग्रन्थों में लिपिबद्ध किया है। यह उल्लेख करना आवश्यक है कि श्री आनन्दघनजी के सम्बन्ध में गुजराती में दो स्वतन्त्र पुस्तकें भी प्रकाशित हई हैं। लगभग ६०-७० वर्ष पूर्व श्री धीरजलाल टोकरशी द्वारा प्रकाशित 'बाल-ग्रन्थावली' में आनन्दघनजी से सम्बन्धित एक छोटी पुस्तक भी है । बम्बई के एक लेखक स्व. श्री वसन्तलाल कान्तिलाल ने श्री आनन्दघनजी पर एक स्वतन्त्र पुस्तक 'महायोगी आनन्दघन' के नाम से प्रकाशित की। उक्त पुस्तक में १०४ पृष्ठ हैं। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६ विशिष्ट परिचय : अध्यात्म साधना की प्रखरता के कारण वे लाभानन्द से आनन्दघन हो गये। उनमें अध्यात्म-योग एवं भक्ति का सुन्दर योग था। कोई भी अध्यात्म-योगी वीतराग से अछता नहीं रह सकता। वह किसी साम्प्रदायिकता में भी नहीं उलझ सकता। आनन्दघनजी में उक्त दोनों विशेषताएं थीं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से जैन परम्परा के एक प्रतिनिधि के रूप में सामने आते हैं। वे अध्यात्म-परम्परा के भी प्रतिनिधि हैं। अपनी इस विशिष्ट क्षमता के कारण ही उपाध्याय श्री यशोविजयजी जैसे महान् प्रतिभाशाली विद्वान् भी असाधारणं रूप से प्रभावित हुए। मुनि श्री जिनविजयजी का अभिप्राय : मुनि श्री जिनविजयजी के अभिप्राय के अनुसार प्रानन्दघनजी जैन यति थे। ऐसे यति अजैन साधु-मुनियों के सम्पर्क में आते, उनका परस्पर सत्संग होता। अतः यतियों का समस्त धर्मों के प्रति समभाव होता था। वे अपनी धार्मिक भावनाओं को संकीर्णता के दायरे में न रख कर अपने आस-पास के समाज में तथा अन्य धर्मावलम्बियों में भी फैलाते थे। इतना ही नहीं परन्तु वे अन्य धर्मावलम्बियों की भावनाओं को भी समभाव से समझने का प्रयास करते थे। इसी कारण से जो बातें अपने धर्म में नहीं होती थी, वे भी यति-समाज के व्यवहार में दृष्टिगोचर होती थीं। कभी-कभी जैन मुनि (यति) शक्ति-पूजा करते हुए भी दृष्टिगोचर होते थे। ऐसे मुनियों का दृष्टिकोण व्यापक होता था। सूफी, दादूपंथी, कबीर-पंथी तथा नानक-पंथी सब साथ बैठते और एक-दूसरे के विचारों, भावनाओं तथा अनुभवों का आदान-प्रदान करते। इस कारण उनकी रचनाओं में उनकी छाया अवश्य आ जाती थी। कभी-कभी यति, चारण, भाट आदि सम्मिलित होते और भंग पीने का कार्यक्रम भी बनता। इन लोगों की मण्डली में आने वाले यति को वे 'प्राइये गुरांसा' कहकर सम्मान देते। ___ मुनि श्री जिनविजयजी का अभिप्राय था कि उस समय के यति निरन्तर विहार करते थे। वे एक वर्षावास सौराष्ट्र में करते तो दूसरा वर्षावास गुजरात में करते और तीसरा वर्षावास फिर राजस्थान के किसी नगर अथवा गाँव में करते। इस प्रकार के विहार के कारण विभिन्न क्षेत्रों की भाषा के शब्दों का उनकी रचनाओं में प्रयुक्त होना स्वाभाविक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-झांकी-२७ था। आनन्दघनजी ऐसे हो किसी यति के शिष्य होंगे। उन्होंने उस समय के रहस्यवादी संतों का सहवास किया था और मस्त जीवन जिया था। उनका विहार-क्षेत्र : जैन साधु विभिन्न स्थानों पर वर्षावास करते हैं और तत्पश्चात् वे निरन्तर विहार (भ्रमण) करते रहते हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी ने किन-किन प्रदेशों में विहार किया होगा? कहाँ-कहाँ वर्षावास किये होंगे? इसका विवरण उपलब्ध नहीं है। उनके स्तवनों, पदों आदि में भी स्थलों का कोई उल्लेख नहीं है। अतः उनके विहार-क्षेत्र के सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते। माना जाता है कि उनका स्वर्गवास मेड़ता में हुआ था। अतः गुजरात, राजस्थान और ब्रज उनका विहार-क्षेत्र प्रतीत होता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा का मानना है कि आनन्दघनजी का विहार अधिक लम्बा नहीं है। जीवन के अन्तिम दिनों में वे निश्चित रूप से मेड़ता में थे। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने तो मेड़ता (राजस्थान) को ही उनकी जन्म-भूमि माना है, परन्तु इसका . कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पद एवं स्तवन . प्रात्म-ज्ञान की धुन में रमण करने वाले साधक को अद्भुत, अनुभूति होती रहती है। उक्त अनुभूति जब शब्दों में प्रकट होती है, तब उसके इतने स्वरूप होते हैं कि उसे एक ही व्यक्ति के अन्तर का आविष्कार मानने की इच्छा नहीं होती। आनन्दघन जी के स्तवनों में गहन सिद्धान्तों का बोध, मार्मिक शास्त्र-दृष्टि एवं योगानुभव बरबस हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, जबकि उनके पदों में भावोन्मुखं वाणी, और विद्युत् की तरह अन्तर से अद्भुत अनुभूति प्राप्त होती है। स्तवनों में प्रानन्दघनजी जैन-शास्त्र सम्मत योगवाणी का आलेखन करते हैं। पदों में उन्होंने कहा वेद न जान', कतेब न जान, जानन लक्षण छन्दा। . तारकवाद विवाद न जान, न जान कवि फन्दा ॥... (प्रानन्दघन ग्रन्थावली पद-१०) पदों में भक्ति एवं वैराग्य का निर्भर बहता है । स्तवनों में अनुभवी भक्त एवं शास्त्र-साता की वाणी है तो पदों में कवि की वाणी है । स्तवनों की भाषा जैनत्व का चोला धारण किये हुए है तो पदों में प्रेम-लक्षणा भक्ति के उद्गार सुनाई देते हैं। स्तवनों में प्रात्म-ज्ञान-विषयक विचार हैं, तो पदों में हृदय से निकलने वाले आनन्दानुभूति के उद्गार हैं । निष्कर्ष यह है कि प्रानन्दधनजी के पद स्तवनों की तुलना में उच्चकोटि के हैं। श्री आनन्दघनजी के स्तवनों का स्थान जैन परम्परा में गौरवमय है, तो उनके पद कबीर, नरसी भगत एवं मीराबाई के पदों से किसी प्रकार कम नहीं हैं। स्तवनों की भाषा गुजराती प्रावरण से युक्त है, जबकि पदों की छटा राजस्थानी भाषा से युक्त है। __ स्तवनों तथा पदों की भिन्नता के कारण प्रश्न उत्पन्न होता है कि श्री आनन्दघनजी ने पहले स्तवनों की रचना की अथवा पदों की ? इस सम्बन्ध में आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी, मुनि श्री जिन विजयजी एवं श्री अगरचन्दजी नाहटा का मत है कि प्रथम स्तवनों की तथा तत्पश्चात् पदों की रचना की गई, जबकि श्री मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया का मत है कि प्रथम पदों की रचना हुई, तत्पश्चात् स्तवनों की रचना हुई। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद एवं स्तवन-२९ श्री जिनविजयजी मुनि का कथन है कि प्रानन्दघन चौबीसी में प्रारम्भिक ज्ञान की झलक है, परन्तु तत्पश्चात् व्यापक दृष्टिकोण की झलक उनके पदों में दृष्टिगोचर होती है। यही निर्णय उचित प्रतीत होता है। श्री अगरचन्दजी नाहटा ने भी माना है कि स्तवन अध्यात्म-ज्ञान की प्राथामिक दशा के द्योतक हैं तथा पद परिपक्वता के द्योतक प्रतीत होते हैं । पदों में वे साम्प्रदायिकता से ऊपर उठे हुए दिखाई देते हैं। श्री कापड़िया जी का मत है कि श्रीमद् प्रानन्दघनजी ने प्रथम पदों की रचना की और तत्पश्चात् स्तवनों की। स्तवनों की भाषा, विचारप्रौढ़ता एवं अपूर्ण रहे हुए स्तवनों को ध्यान में लिया जाये तो यह बात सत्य ठहरती है। उनकी मान्यता है कि आनन्दघनजी की मूल भाषा राजस्थानी थी, अतः भाषा की दृष्टि से पद अत्यन्त सौष्ठव-युक्त हैं और उत्तर अवस्था में रचित स्तवनों में गुजराती भाषा का पुट है। स्तवनों में पदों के समान संवरी हुई भाषा नहीं है। इनके पदों का कोई क्रम प्रतीत नहीं होता। विभिन्न प्रतियों में पदों का क्रम भिन्न है क्योंकि श्री आनन्दघनजी के हाथ की लिखी हुई कोई प्रति तो उपलब्ध ही नहीं है। अतः जिसको जितने पद कण्ठस्थ रहे उतने उस क्रम में लिख लिये गये। अन्य कवियों के पद भी आनन्दघनजी के पदों में सम्मिलित हो गये हैं, जिससे क्रम बराबर नहीं रह पाया। श्रीमद् आनन्दघनजी के पद राजस्थानी भाषा में हैं परन्तु स्तवनों में गुजराती का पुट आ गया है। भाषा की दृष्टि से राजस्थानी उनकी मातृ-भाषा होने के कारण पदों में वे सफल रहे क्योंकि मातृ-भाषा पर व्यक्ति का अधिकार रहता है। स्तवनों की भाषा भी मूलतः तो राजस्थानी ही है परन्तु बाद में गुजरात, सौराष्ट्र प्रादि में विहार करने से भाषा में गुजराती के शब्द आ गये प्रतीत होते हैं। स्तवन उत्तर अवस्था में लिखे गये, जिसका एक प्रमाण यह भी है कि उनके बाईस स्तवन उपलब्ध हैं। सामान्यतया तो कोई भी स्तवनरचयिता चौबीसी पूर्ण करना चाहेगा, अपूर्ण क्यों रहने देगा? कदाचित् चौबीसी पूर्ण करते-करते उनका स्वर्गवास हो गया हो और दो स्तवन शेष रह गये हों। ऐसा भी हो सकता है कि कोई पद स्तवनों की रचना करते-करते विचार आ जाने से मध्य में भी लिख लिया गया हो। अतः निर्णय यही हो सकता है कि इनके अधिकांश पद पूर्व जीवन में रचित हैं और स्तवन उत्तर जीवन में रचित प्रतीत होते हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३० _ 'प्रानन्दघन बोहत्तरी' के नाम से श्रीमद् प्रानन्दघनजी के पद विख्यात हैं, जिससे ज्ञात होता है कि आनन्दघनजी ने ७२ पदों की रचना की होगी, परन्तु श्रीमद् अानन्दघनजी ने बाईस स्तवनों की रचना की, फिर भी उसे 'मानन्दघन चौबीसी' के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार 'प्रानन्दघन बोहत्तरी' नाम भी बाद में दिया हुआ हो सकता है। हस्तलिखित प्रतियों में भिन्न-भिन्न पद-संख्या है, परन्तु उनमें अन्य कवियों के पद तथा किसी अज्ञात कवि द्वारा प्रानन्दघन जी के नाम पर लगाये गये पद भी अनेक हैं, जैसे 'अब हम अमर भये न मरेंगे' पद प्रागरा निवासी श्री द्यानतरायजी का माना जाता है तथा 'अवधू वैरांग बेटा ज़ाया', 'अवधू सो जोगी गुरु मेरा', और 'तज मन कुमता कुटिल को संग' पद क्रमशः बनारसीदास, कबीर और सूरदास के हैं। इसी प्रकार जैन कवि भूधरदास, आनन्दघन, पंकज, देवेन्द्र एवं सुखानन्द नामक कवियों की रचनाएँ आनन्दघन के नाम से लग गई प्रतीत होती हैं। 'आनन्दघन ग्रन्थावली' के पद संख्या १०१ का रचयिता श्रीमद् अानन्दघनजी को माना गया है, जबकि उक्त पद 'कबीर' का है जो 'कबीर ग्रन्थावली' में पृष्ठ संख्या १६६ पर ३२१ वाँ पद है। 'पानन्दघन" के नाम से कुल १२१ पद मिलते हैं, जिनमें से कौन से पद अन्य कवियों द्वारा रचित हैं, यह निर्णय नहीं हो पाया है। प्रानन्दघन ग्रन्थावली में श्री उमरावचन्द जरगड एवं श्री मेहताबचन्द खारेड ने संशोधन करके इसके ७३ पद अलग निकाले हैं जो श्रीमद् आनन्दघनजी के बताये हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली ( भावार्थ सहित ) (१) राग-वेलावल क्या सोवे उठ जाग बाउरे । अंजलि जल ज्यू आयु घटत है, देत पहोरियाँ घरिय घाउ रे ॥ - क्या० ॥१॥ इन्द्र चन्द्र नागिंद मुनिंद चले, कौन राजा पतिसाह राउ रे । भ्रमत-भ्रमत भव जलधि पाई के, भगवंत भगति सुभाव नाउ रे ।। . क्या० ।।२।। कहा विलंब करे अब बाउरे, तरि भव-जल-निधि पार पाउ रे । प्रानन्दघन चेतनमय मूरति, सुद्ध 'निरंजन देव ध्याउ रे ।। __ क्या० ॥३॥ भावार्थ-अरे भोले मूर्ख मानव ! तू मोह-निद्रा में क्या पड़ा है ? उठ जाग्रत हो जा। तेरा आयुष्य अंजलि में भरे पानी के समान घट रहा है । पहरेदार घड़ियाल पर टकोरे मार-मार कर तुझे सचेत कर रहा है। इस प्रकार घड़ियाल पर चोट लगाते-लगाते उस स्थान पर घाव सा दृष्टिगोचर होने लग गया है, परन्तु तेरे हृदय पर कोई प्रभाव नहीं हुआ है। तू सचेत क्यों नहीं हो रहा ? बीता हुआ आयुष्य कदापि लौट कर नहीं आयेगा। चिन्तामणि रत्न से भी दुर्लभ मनुष्य-भव तुझे प्राप्त हुआ है। मोह-नींद में ऐसा अमूल्य मानव-जन्म नष्ट करना उचित नहीं है। प्रतः हे चेतन ! जाग्रत हो जा, सचेत हो जा। देवताओं के राजा इन्द्र, ज्योतिष-चक्र के स्वामी चन्द्र, नागलोक के स्वामी धरणेन्द्र और मुनियों के स्वामी तीर्थंकर भगवान भी इस देह का त्याग करके चले गये तो राजा, बादशाह और शाह तथा चक्रवर्ती की बात ही क्या है अर्थात् इन्द्र एवं तीर्थंकर जैसों की देह भी प्रायुष्य का क्षय होने Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-३२ पर छूट जाती है। मृत्यु के समय उनका भी कुछ भी जोर नहीं चलता तो हे भोले मूढ़ ! तू निश्चय समझ कि मृत्यु के सामने तू किसी गिनती में नहीं है । तेरा भला क्या सामर्थ्य है ! भव-सागर में परिभ्रमण करतेकरते मनुष्य जन्म में भगवान की भक्ति रूपी स्वाभाविक नाव इस भवसागर से पार होने के लिए तुझे प्राप्त हुई है। तू इस नाव का उपयोग करके अपने लक्ष्य पर पहुँच। तू भव-सागर से पार जाने के लिए प्रभुभक्ति रूपी नाव में क्यों नहीं बैठता ? अरे बावरे ! अब तू विलम्ब क्यों कर रहा है ? प्रभु की भक्ति रूपी नाव से संसार-सागर से पार लग। जब तुझे भव-सागर को पार करने की सामग्री प्राप्त हुई है.तो फिर प्रमाद क्यों कर रहा है ? आनन्दघनजी कह रहे हैं कि प्रानन्द का घन जिसमें है ऐसी शुद्ध, निरंजन, चैतन्यमय, राग-द्वेष रहित देव का ध्यान कर जिससे तू भी उसके समान बन जाये । ' प्रभुभक्ति से बढ़कर संसार-सागर से पार पाने का अन्य कोई साधन नहीं है। अतः आनन्दघनजी कहते हैं कि हे आत्मन् ! तू प्रभु का स्मरण कर, विलम्ब मत कर। आयुष्य का कोई विश्वास नहीं है। जब चक्रवर्ती और तीर्थंकर भी नहीं रहे तो अन्य प्राणियों की क्या बिसात है ? अतः तू विलम्ब किये बिना भगवान का स्मरण कर, शुद्ध आत्म-स्वरूप का ध्यान कर ताकि तू अपनी स्वाभाविक स्थिति प्राप्त कर सके। (२). राग-बेलावल एकताली रे घरियारी बाउरे, मत घरिय बजावे । नर सिर बाँधत पाघरी, तू क्यों घरीय बजावे ॥ रे घरि० ॥१।। केवल काल कला कले, पै तू अकल न पावे । अकल कला घट में घरी, मुझ सो घरी भावे ॥रे घरि० ॥२॥ आतम अनुभव रस भरी, यामें और न मावे । प्रानन्दघन अविचल कला, विरला कोई पावे ।। रे घरि० ॥३॥ अर्थ-हे घड़ी बजाने वाले पगले ! तू घड़ी मत बजा, तेरा यह प्रयास व्यर्थ है। पुरुष तो घड़ी के चौथे भाग का निर्देश प्राप्त हो तथा वैराग्य का प्रभाव रहे, अतः सिर पर पगड़ी बांधते हैं, जिससे यह निर्देश मिलता है कि जगत् में चौथाई (पाव) घड़ी के जीवन का भी भरोसा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-३३ नहीं है। कोई स्वयं को अमर मत मान लेन।। मनुष्यों के सिर पर काल घूमता है। वह मनुष्यों के प्रारण का अपहरण करने में पाव घड़ी का भी विलम्ब नहीं करेगा। अतः चेतना चाहो तो चेत जायो। मस्तक पर पगड़ी बाँधने का तात्पर्य ही यह है कि वह हर दम यह जानता है कि काल मेरे सिर पर है। इसलिए हे घड़ियाली ! तेरे घड़ियाल बजाने का अब कोई प्रयोजन नहीं है। श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि इस जगत् में पाव घड़ी जीने का भी भरोसा नहीं है। कौन जाने किस समय, कहाँ, कैसी स्थिति में प्राण चले जायेंगे, यह बात मनुष्य नहीं जानते । अतः मृत्यु से पूर्व धर्म-पाराधना कर लेनी चाहिए। हे आत्मन् ! तू सचेत हो जा। हे घड़ियाली ! तू तो मात्र समय बताने की ही युक्ति जानता है, परन्तु तुझे तनिक भी ऐसी बुद्धि नहीं है जिससे तू समय का सदुपयोग कराने वाली ज्ञान-घड़ी को, जो अन्तर में ही है, बता सके। अन्तर में जो काल नापने की अकलकला है उसे तू नहीं जान सकता। मुझे तो आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घड़ियाल प्रिय लगती है। यह घड़ी आत्मानुभव रस से भरी हुई है। इसमें अन्य कोई विजातीय वस्तु राग-द्वेष आदि का समावेश नहीं हो सकता। अतः यह अन्तर की घड़ी ही श्रेष्ठ है। श्री प्रानन्दघनजी कहते हैं कि अन्तर के घड़ियाल में आनन्द का समूह व्याप्त है। बाह्य घड़ियाल में प्रानन्द प्रतीत नहीं होता। अतः हे घड़ियाली! तू बाह्य घड़ियाल छोड़ कर अन्तर को ज्ञानादि गुण-युक्त घड़ी में प्रेम रख। वह घड़ियाल अनुभवरस से परिपूर्ण है और अनन्त आनन्द से युक्त है। उसकी अकलकला है। तू. तेरी सहज मूल अानन्द रूप घड़ियाल को बजा। श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि इस अचल, अबाधित, अानन्ददायिनी घड़ी की कला को कोई बिरला ही प्राप्त कर सकता है। (राग-बिलावल) जीउ जाने मेरी सफल घरी । सुत वनिता धन यौवन मातो, गर्भतणी वेदन विसरी ॥ जीउ० ॥ १ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४ अति अचेत कछु चेतत नाही, पकरी टेक हारिल लकरी। आइ अचानक काल तोपची, गहेगो ज्यू नाहर बकरी ॥ जीउ० ।। २ ।। सुपन राज साच करी माचत, राचत छांह गगन बदरी। आनन्दघन हीरो जन छारै, नर मोह्यो माया कँकरो । जीउ० ।। ३ ।। अर्थ-मोह-दृष्टि से देखने वाला जीव यह जामता है कि आज की घड़ी मेरी सफल है। धन-यौवन पाकर मानव अपना जन्म सफल समझने लगता है। वह गर्भावस्था की समस्त वेदना भूल कर स्त्री, पुत्र, धन एवं यौवन में मग्न रहता है, मन में प्रसन्न होता है और मानता है कि मैं कितना सुखी हूँ ? हे भोले मानव ! यह तेरी कितनी अज्ञान दशा है। तू अत्यन्त असावधान है। तनिक भी सचेत नहीं होता। तूने तो हारिल पक्षी की लकड़ी पकड़ने की हठ के समान मोह-माया में रचे-पचे रहने की टेक पकड़ ली है। यदि इतने में काल-तोपची पा गया तो जैसे-सिंह बकरी को पकड़ लेता है, वैसे तुझे धर दबायेगा। फिर तेरा कोई जोर नहीं चलेगा। अतः हे मानव ! तू संसार में अपनी घड़ी सफल मानने की भूल मत कर। हे मूढ़मति ! तू स्वप्न में प्राप्त हुए राज्य को सत्य समझ कर उसी में मग्न हो रहा है। अरें भोले जीव ! तू तो आकाश में छाई हुई बदली की छाया में ही प्रसन्न हो रहा है। क्या तू यह नहीं जानता कि बदली हट जाने पर तुझे पुनः सूर्य की प्रचण्ड गर्मी सहन करनी पड़ेगी ? अतः तू इस मनुष्य-जन्म को व्यर्थ मत गँवा। तुझे पूर्व पुण्य के कारण जो धन, यौवन, कुलीन सुलक्षणी पत्नी, प्राज्ञाकारी पुत्र प्रादि का योग मिला है, उसमें मत फूल। आनन्दघनजी कहते हैं कि मनुष्य प्रात्म-रूप हीरा छोड़ कर माया रूप कंकरी में मुग्ध हो गया है। कितना आश्चर्य है कि परमानन्द स्वरूप शाश्वत-सुख रूपी हीरे को छोड़कर मानव कंकड़पत्थर रूपी माया में मस्त हो रहा है। माया में लुब्ध ऐसे मानव को श्रीमद् आनन्दघनजी वैराग्य-भाव की ओर उन्मुख करते हुए कहते हैं कि परमानन्द स्वरूप हीरा त्याग कर मोह-माया रूपी कंकड़-पत्थर पर मोहित हो रहा है। यह ठीक नहीं है। मूर्ख मानव में ही माया रूप कंकर को ग्रहण कर ले, परन्तु कंकर तो कंकर ही है। . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३५ ( ४ ) (राग - आसावरी ) साधो भाई समता संग रमीजे, अवधू ममता संग न कीजे ॥ संपत्ति नाहि नाहि ममता में रमता माम समेटे । खाट पाट तजि लाख खटाऊ, अंत खाक में लेटे || ।। अवधू.....।। १ ।। धन धरती में गाड़े बौरा, धूरि आप मुख लावे | मूषक साँप होइगो प्रखर, ताते अलछि कहावे || ।। अवधू..... ।। २ ।। समता रतनागर की ज़ाई, अनुभव चंद सुभाई । कालकूट तजि भव में सेणी, प्राप अमृत ले आई ।। ।। अवधू०. लोचन चरण सहस. चतुरानन, इनते बहुत श्रानन्दघन पुरुषोत्तम नायक, हितकरी कंठ O... ।। ३ ।। डराई । लगाई || ।। अवधू...............।। ४॥ अर्थ - हे साधु पुरुषो! हे सुज्ञ बन्धुप्रो ! समता के साथ रमण करो, राग-द्वेष का परित्याग करके सम-भावी बन जाओ । अब ममता की संगति मत करो। हे अवधू ! ममता में सच्ची सम्पत्ति नहीं है । स्त्री, पुत्र आदि तथा धन और यौवन में लुब्ध नहीं होना है । क्योंकि ममता में हमारी किसी प्रकार की उन्नति नहीं है । इसके साथ रमण करने से तो अपनी आत्म- सम्पत्ति सिमट कर अल्प हो जाती है । ममता का संग करने से कालिख लगती है । लाखों रुपये तथा स्वर्ण मुद्राएँ कमाने वाले अपनी रत्न जटित शय्या श्रौर बैठने के सिंहासन को यहीं पर छोड़ कर चले गये, अन्त में उनकी देह की राख हो गई । वे जिस मिट्टी में उत्पन्न हुए थे उसी में समा गये । अर्थात् अनेक चक्रवर्ती राजा आदि यहाँ से चले गये, परन्तु उनका सांसारिक वैभव उनके साथ नहीं गया । में एक छोटे बालक से लगाकर वृद्ध तक समस्त मनुष्यों के हृदय ममता व्याप्त है । मनुष्यों की दृष्टि में मलिनता उत्पन्न करने वाली एवं मनुष्यों में परस्पर संघर्ष कराने वाली ममता है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६ भोले एवं मूढ मनुष्य धन की सुरक्षा के लिए धन को भूमि में गाड़ते हैं और ऊपर से मिट्टी डालते हैं। यह धन पर मिट्टी डालना नहीं है, अपने ही मुह पर मिट्टी डालना है क्योंकि जिन लोगों की धन पर अत्यन्त आसक्ति होती है, वे ही उसे भूमि में गाड़ते हैं। दृढ़ प्रासक्ति के कारण ही वे मर कर वहीं चूहे अथवा साँप होते हैं और अनेक दुःख सहन करते हैं। अतः उक्त धन लक्ष्मी नहीं है, अलक्ष्मी है। यदि वह लक्ष्मी होती तो साँप, मूषक का जन्म क्यों प्राप्त होता? असली लक्ष्मी तो आत्मिक गुण हैं, जिनसे वास्तविक सुख प्राप्त होता है । वैदिक मतानुसार समुद्र में से चौदह रत्न निकले थे। अतः उसे रत्नाकर कहा जाता है। अब भी समुद्र में से मोती, मूगा आदि रत्न निकलते हैं, परन्तु इन रत्नों से जीव का आत्मिक उत्थान नहीं हो सकता। अतः ये द्रव्य-रत्न हैं। क्षमा, सन्तोष आदि भावरत्न मनुष्य के हृदय से प्रकट होते हैं। इसलिए मनुष्य का हृदय ही भाव रत्नाकर है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि समता हृदय रूपी रत्नाकर की पुत्री है। अनुभव रूपी चन्द्रमा इसका श्रेष्ठ भाई है। समता पात-रौद्र ध्यान रूपी हलाहल विष को त्याग कर शुभ परिणाम-धर्मशुक्ल रूपी अमृत को स्वयं ले पाती है। ___ समता की ऐसी अपूर्व शक्ति है कि जो विष का त्याग करके स्वयं अमृत का आकर्षण करती है और अमर-पद प्राप्त करने के लिए अमृत का संग्रह करती है, अतः समता की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है। समता से दो घड़ी में केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। समता की प्राप्ति होने पर अनुभव अनायास ही आ जाता है। ___ समता रूपी लक्ष्मी हजार नेत्रों वाले, हजारों चरणों वाले और चार मुंह वाले मोहरूपी राक्षस को देखकर अत्यन्त भयभीत हो गई, अर्थात् मोह रूपी महाराक्षस जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी चार मुह हैं, हजार नेत्र और पाँव हैं, जिनके द्वारा वह समता का नाश करता है, उसको देखकर समता भयभीत हो जाती है। श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि राग-द्वोष रहित, प्रानन्दस्वरूप, पुरुषों में श्रेष्ठ वीतराग परमात्मा ने प्रेमपूर्वक समता को गले लगाया अर्थात् जो व्यक्ति समता से स्नेह रखते हैं वे ही परम-पद के अधिकारी होते हैं। - समता से उत्तम सुख की प्राप्ति होती है, इससे अनेक भवों में संचित कर्मों का क्षय होता है। समता ही प्रात्मा का शुद्ध धर्म है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३७ अतः उठते-बैठते, चलते और बातें करते हुए अन्तर में समता का परिणाम रखना चाहिए । ( ५ ) (राग - बिलाबल ) सुहागण जागी अनुभव प्रीत | नींद अज्ञान अनादि की, मिट गई निज रीत || सुहा० 11811 घट मंदिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप । आप पराई श्रापु ही, ठानत वस्तु अनूप ॥ सुहा० ....।।२।। कहा दिखावु और कु, कहाँ समझाउं भोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहै ठोर ।। सुहा०....।।३।। नादविद्धो प्राण कुं, गिने न तृण मृगलोय | आनन्दघन प्रभु प्रेम का, अकथ कहानी कोय || सुहा० ॥४॥ श्रर्थ–श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि मुझे सौभाग्यवती अनुभव प्रीति जाग्रत हो गई है । इसके जाग्रत होने से मैंने अनादिकालीन मोहनिद्रा ( अज्ञान रूपी निद्रा) का नाश करके स्वाभाविक दशा रूप निज परिणति ग्रहरण कर ली है । अब मैंने शुद्ध धर्म की रीति ग्रहण कर अब मैं शुद्ध धर्म - रीति के अनुसार चलूंगा । है। मैंने हृदय-मन्दिर में विवेक ज्ञान रूप स्वाभाविक ज्योति युक्त दीपक प्रज्वलित कर दिया है । ज्ञान-रूप दीपक के द्वारा मैंने अपना तथा पर जड़ वस्तुओं का भेद मालूम कर लिया है । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व प्राप्त होने पर हेय उपादेय, आत्मभाव एवं जड़-भाव का निर्णय अनोखी रीति से स्वतः ही तुरन्त हो जाता है । मैंने अपनी वस्तुनों को अपना जान लिया है और परर वस्तुनों को ज्ञान- दीपक से पर जान लिया है । सहज ज्योति स्वरूप यह आत्मा में दूसरों को कैसे बताऊँ तथा भोले स्त्री-पुरुषों एवं धन में प्रासक्त लोगों को कैसे समझाऊँ ? यह सौभाग्यवती अनुभव प्रीति आँखों से दिखाई नहीं देती तथा वाणी के द्वारा इसके रूप का वर्णन नहीं किया जा सकता । इस अनुभव प्रीति के Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८ स्वाद का जिन्होंने आस्वादन नहीं किया है, ऐसे भोले मनुष्यों को इसका स्वरूप कैसे समझाया जा सकता है ? इसके लिए तो यह कहा जा सकता है कि इस अनुभव-प्रीति का तीर अचूक है, रामबाण है, जिसे यह तीर लग जाता है वह स्थिर हो जाता है। मुझे अनुभव-प्रेम का बाण लग गया है जिससे मैं स्थिर हो गया है। जिसके यह तीर लग जाता है वह विषय-वासना में न जाकर प्रात्म-ध्यान में लीन हो जाता है, उसका मन बहिरात्म भाव में नहीं जाता और उसकी समस्त क्रियाएँ सहज भाव से होती हैं, उसे बल-प्रयोग नहीं करना पड़ता। इसके लिए एक व्यावहारिक विषय-प्रेम का दृष्टान्त देकर बताया गया है कि जिस प्रकार नाद पर आसक्त हिरन अपने प्राणों को तिनके के समान भी नहीं गिनता, उसी प्रकार प्रानन्द स्वरूप प्रभु-प्रेम में लीन व्यक्ति अपने प्राणों की तनिक भी परवाह नहीं करता। इस. प्रभु-प्रेम की कथा तो अकथ है। इसे विरले ही जानते हैं। इसी प्रकार से जिसको अनुभव ज्ञान-प्रीति लगी है वह संसार में किसकी परवाह करेगा? स्वर की शक्ति भी कितनी बलवती होती है कि हिरन उस पर लुब्ध होकर अपने प्राणों की तंनिक भी परवाह नहीं करता, तो फिर चैतन्य सत्ता तो उस स्वर से अनन्तगुनी प्रबल है। उस सत्ता में समस्त वासनाओं की बलि देकर अपनी वृत्ति का लीन होना स्वाभाविक है; परन्तु धन, परिवार आदि को ममता में फंसे मनुष्य इस स्वाभाविक दशा को भी नहीं समझ सकते। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे चेतन ! तेरे साथ हुए अनुभव प्रेम की कोई अनिर्वचनीय कथा है जिसका वर्णन किसी अन्य के समक्ष नहीं किया जा सकता। (राग-रामगिरि) क्यारे मुने मिलसे महारो संत सनेही। . संत सनेहो सूरिजन पाखे, राखे न धीरज देही ।।क्यारे०....।१। जन-जन आगल अन्तरगतनी, वातलडी कहुं केही। प्रानन्दघन प्रभु वैद्य वियोगे, किम जीवै मधुमेही ?? क्यारे ।२। अर्थ-सन्त पुरुषों का स्नेही मेरा आत्म-स्वामी अब मुझे कब मिलेगा? उसके बिना अब तो देह में निवास करने वाले मेरे प्राण भी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३६ धर्य नहीं रख सकते। मैं अपने सन्त-स्नेही चेतन के बिना कैसे रह सकता हूँ ? उसके अभाव में मुझे सम्पूर्ण जगत् शून्यवत् प्रतीत होता है। अब मैं उसका विरह सहन कर सकू, ऐसी शक्ति मुझमें नहीं है। उसे मिलने की मेरी उत्कट इच्छा प्रति पल बढ़ती ही जा रही है। मैं उसके बिना प्रचेत-सा हो गया हूँ। मुझे पलभर के लिए भी चैन नहीं मिल रहा। अब मुझे मेरे स्वामी से मिलन कब होगा? मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। इस प्रकार प्रानन्दघनजी शुद्ध प्रेम के उद्गारों के द्वारा अन्तर-चेतना की दशा व्यक्त करते हैं ।। १ ॥ मैं प्रत्येक व्यक्ति के समक्ष अपने अन्तर की कितनी बातें कहूँ ? अब तो उनके वियोग की चरम दशा का मैं अनुभव कर रहा हूँ। अब शुद्ध चेतन के स्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु का मुझे स्मरण नहीं होता। आनन्दघनजी कहते हैं कि अब मैं जीवित नहीं रह सकता। जिस प्रकार मधु-प्रमेह का रोगी वैद्य के बिना जीवित नहीं रह सकता, उसे वैद्य के उपचार की निरन्तर आवश्यकता रहती है; उसी प्रकार से मैं भी अपने अानन्द-स्वरूप आत्म-स्वामी के बिना कैसे जीवित रह सकता हूँ? मैं क्या करू ? मेरा यह जीवन व्यर्थ है। आत्म-स्वरूप प्राप्त करने की मेरी उत्कट अभिलाषा है ।। २ ।। (७) (राग-रामगिरि) जगत गुरु मेरा, मैं जगत का चेरा। मिट गया वाद-विवाद का घेरा ।। जगत० ।। १ ।। गुरु के घर में नवनिधि सारा, चेले के घर में निपट अंधारा । गुरु के घर सब जरित जराया, चेले को मढिया में छप्पर छाया । ॥ जगत० ।। २ ।। गुरु मोहि मारे शबद को लाठी, चेले की मति अपराधनी नाठी। गुरु के घर का मरम न पाया, अकथ कहानी आनन्दघन माया । । जगत० ।। ३ ।। अर्थ--श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि यह संसार सद्गुणों की शाला है। यहाँ से अनेक गुरण ग्रहण करने योग्य हैं। ज्ञानामत का Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४० पान कराने वाले गुरु संसार में पंच महाव्रतों का पालन करते हुए विचरण करते हैं। चतुर्विध संघ भी संसार में उत्पन्न होता है। तीर्थकर भी संसार में उत्पन्न होते हैं। अतः यह संसार अनेक गुणवान पुरुषों का स्थान होने के कारण यहाँ से अनेक सद्गुण प्राप्त किये जा सकते हैं। यहाँ से नित्य मुझे कुछ-न-कुछ शिक्षा प्राप्त होती रहती है। अतः सम्पूर्ण संसार को मैं अपना गुरु मानता हूँ और स्वयं को उसका शिष्य मानता हूँ। संसार में से अनेक प्रकार के गुण ग्रहण किये जा सकते हैं और अपने दोषों का परित्याग किया जा सकता है। अतः संसार को गुरु मानकर उससे गुण ग्रहण करते हुए अध्यात्म की अपेक्षा वाद-विवाद अथवा तर्क-वितर्क की समस्त परिधि ही समाप्त हो जाती है ॥ १॥ जगत् रूपी गुरु के घर में सब प्रकार की ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ और नौ निधियां हैं। यह सद्गुणों तथा विविध ज्ञान का भण्डारं है, यहाँ किसी प्रकार का प्रभाव नहीं है। परन्तु मुझ शिष्य की कुटिया में प्रज्ञान का अन्धकार छाया हुआ है। मेरे पास तो केवल मिट्टी का एक भिक्षा-पात्र है। जगत् रूपी गुरु के घर में तो सब प्रकार के रत्न-जड़ित आभूषण हैं अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप आभूषणों की शोभा है, परन्तु मेरी मढ़ी में तो पुद्गल की वर्गणा रूप छप्पर की छाया है अर्थात् मेरे तो कर्मों का प्रावरण ही आवरण है ।। २ ।। गुरु मुझे शब्द रूप लाठी से अर्थात् अपने उपदेशों से ताड़ना करते हैं किन्तु मेरी बुद्धि तो घोर अपराधिनी है, कुण्ठित है। जगत रूप गुरु ने उपदेश रूप लाठी से अपराधिनी कुमति को भगाने का अत्यन्त प्रयत्न किया पर मुझ पर तो उन सदुपदेशों का प्रभाव पड़ता ही नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि गुरु के घर का भेद पाना कठिन है अर्थात् ज्ञान, उपदेश आदि का मर्म समझना कठिन है। उसकी तो कथा ही अकथनीय है। गुरु की कृपा से उस अकथनीय स्वरूप प्रात्मा को मैंने प्राप्त कर लिया। मैंने आत्मा को पहचान लिया ॥३॥ (८) (राग-प्रासावरी) साधुभाई अपना रूप जब देखा। करता कौन करनी फुनि कैसी, कौन मांगेगो लेखा । ॥ साधु० ॥१॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४१ साधु संगति अरु गुरु की कृपा तें, मिट गई कुल की रेखा । प्रानन्दघन प्रभु परचो पायो, उतर गयो दिल भेखा । ।। साधु० ।।२।। अर्थ-हे सज्जन साधु बन्धुप्रो ! जब मैंने अपना आत्म-स्वरूप देखा, स्वयं को पहचाना तो प्रश्न उत्पन्न हुअा कि कर्त्ता कौन है ? करनी (कर्म) क्या है और अच्छे-बुरे कार्य का हिसाब मांगने वाला कौन है ? मैं स्वयं ही कर्ता हूँ, मेरे कार्य ही मेरी करनी हैं और इनका हिसाब मांगने वाला भी मैं ही हूँ। जैसी करनी की है, जैसे कर्म किये हैं, उसका भोक्ता मैं ही हूँ। मेरी करनी का हिसाब मांगने वाला कोई अन्य नहीं है, मैं स्वयं ही हूँ। मेरी करनी के अनुसार ही मुझे फल मिलता है। मन कभी निश्चल नहीं रहता। वह कुछ-न-कुछ करता ही रहता है। किन्तु इन कार्यों में जब तक राग-द्वष है, तब तक बन्ध है। राग-द्वेष रहित करनी इस जीव को बन्धन में नहीं डाल सकती। शुभ कार्य का फल शूभ मिलता है और अशुभ कार्य का फल अशुभ मिलता है। इसमें लेखा रखने वाले की आवश्यकता नहीं रहती ॥ १ ॥ . वैरागी, त्यागी एवं ज्ञानी साधुओं की संगति से और गुरुदेव की कृपा-दृष्टि से अब कुल की रेखा टल मई अर्थात् कुल, जाति, वेश आदि का अभिमान नष्ट हो गया। आनन्द के समूह से मेरा परिचय हो गया अर्थात् अब मुझे आत्म-तत्त्व का अनुभव हो गया, जिससे मेरे हृदय से बाह्य रूप का मोह दूर हो गया। श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि अध्यात्म तत्त्व में रमणता होने पर अभिमान नष्ट हो गया और आत्मा आत्मस्वरूप में प्रतीत हुआ ।। २ ।। - ( 8 ) (राग-सारंग) अब मेरे पति गति देव निरंजन । भटकू कहाँ-कहाँ सिर पटकू, कहा करूं जनरंजन ।। ।। अब० ।। १ ।। खंजन दृग दृग नांहि लगायु, चाहु न चित-चित अंजन । संजन घट अन्तर परमातम, सकल दुरित भय भंजन ।। || अब० ।। २ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४२ एहि काम-गवि, एहि कामघट, एहि सुधारस मंजन । प्रानन्दघन घटवन केहरि, काम मतंगज गंजन । । अब० ।। ३ ।। अर्थ-श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि अब तो मेरे निरंजन देव पति ही मेरे शरण-भूत हैं। अर्थात् निश्चय नय से कर्म-मल रहित मेरा निरंजन आत्मा ही मेरा पाराध्य है, यह अात्मा ही मेरा स्वामी है। मुझे इसका ही पालम्बन है। अत: मैं तीर्थों आदि पर क्यों भटकू ? कहाँ-कहाँ जाकर अपना मस्तक झुकाऊँ ? किसलिए जन-रंजन करता रहूँ ? अब मैंने जान लिया है कि मेरे स्वामी निरंजन हैं। वे ही मेरे स्वामी हैं, फिर मैं अन्य स्वामी को क्यों ढूढता फिरू। बाह्य स्वामी सदा एक नहीं रहते। बाह्य स्वामी के पौद्गलिक देह होती है, परन्तु मेरे अन्तर का सिद्ध परमात्म रूप स्वामी तो कर्म से न्यारा है। उसके जन्म-जरा-मृत्यु नहीं है। निरंजन देव का रूप कदापि नहीं बदलता। शुद्ध परिणति का कथन है कि सत्य, स्वाभाविक पति निरंजन आत्मदेव है। अतः अब मैं बाह्य पति के लिए क्यों भटकू ? मैं किसी के समक्ष सिर क्यों झुकाऊँ ? मैंने अपने पति को परख लिया है। अब मेरा भ्रम दूर हो गया है। मैंने अनादि काल से अनेक पति बनाये, परन्तु चतुर्गति के मेरे फेरे नहीं टले। मैं तो शुद्ध परिणति हूँ। अतः मैं तो शुद्धात्मपति से प्रेम करूंगी ।। १ ॥ परमात्म स्वरूप को देखने के लिए खंजन पक्षी के समान लम्बे एवं सुन्दर नेत्र मुझे नहीं चाहिए और न मुझे उन नेत्रों को सुन्दर बनाने के लिए अंजन की आवश्यकता है। मैं तो अपने पति के स्वरूप में लीन हूँ। समस्त पापों एवं भयों को दूर करने वाला परमात्मा तो मेरे अन्तर में ही है ॥ २॥ मेरी आत्मा ही कामधेनु है। कामधेनु जिस प्रकार मनोवांछित फल प्रदान करती है, उसकी अपेक्षा मेरा शुद्ध आत्मदेव अनन्तगुणा अधिक सुख प्रदान करने में समर्थ है। आत्मस्वामी ही कामघट है, काम-कुम्भ है और यही अमृत-रस का स्नान है। आनन्द का घन जिसमें है ऐसा आत्मप्रभु ही मेरे मनरूपी वन के हाथी का नाश करने वाला सिंह है। मेरे मन रूपी वन में आत्मस्वामी एक सिंह के समान है। जिस प्रकार सिंह को देखकर अन्य पशु पलायन कर जाते हैं, उसी प्रकार शुद्ध परिणति के हृदय में आत्म-स्वामी का ध्यान होते ही कामरूप गज तुरन्त पलायन हो जाता है ।। ३ ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री आनन्दघन पदावली-४३ ( १० ) (राग-प्रासावरी) अवधू नटनागर की बाजी, जाणे न बामण काजी। थिरता एक समय में ठाने, उपजे विणसे तबही । उलट-पलट ध्र व सत्ता राखे, या हमसुनी न कबही ।।अवधू०॥१।। एक अनेक अनेक एक फुनी, कुण्डल कनक सुभावे । जल-तरङ्ग घट मादी रविकर अगनित ताहिं समावे ॥अवधू०॥२॥ है नांही है वचन अगोचर, नयप्रमाण सत्तभंगी। निरपख होय लखे कोई विरला, क्या देखे मत जंगी ।।अवधू०।।३।। सर्वमयी सरवंगो माने, न्यारी सत्ता भावे । आनन्दघन प्रभु वचन सुधारस, परमारथ सो पावे ॥प्रवधू०।।४।। .. अर्थ- इस पद में जनदर्शन के अनोखे सिद्धान्त-द्रव्य-गुण और पर्याय का सुन्दर वर्णन किया गया है। द्रव्य सदा एक-सा रहता है चाहे उसके रूप सदा परिवर्तित होते ही रहें। द्रव्य के द्रव्यत्व का कदापि नाश नहीं होता। रूप सदा परिवर्तनशील होते हैं। प्रात्मा पर्यायों के कारण रूप बदलता रहता है, किन्तु प्रात्मा-आत्मा ही रहता है। स्वर्ण बार-बार गलकर अंगूठी, कड़ा, कुण्डल आदि का रूप धारण करता है, परन्तु वह स्वर्ण का स्वर्ण ही रहता है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे अवधू ! 'देह रूपी नगर में निवास करने वाले प्रात्मा रूप नागरिक चतुर नट का खेल अत्यन्त ही आश्चर्यजनक है। आत्मा के खेल के रहस्य को वेदज्ञ ब्राह्मण तथा कुरान के पूर्ण ज्ञानी काजी जैसे विद्वान् पुरुष भी जान नहीं सकते। आत्मा में जिस समय ध्र वता है, उसी समय में ज्ञानादि पर्यायों का उत्पाद-व्यय होता है, परन्तु आत्मा अपनी द्रव्य रूप सत्ता को तो स्थिर रखता है। उत्पाद-व्यय की उथलपुथल सदा चलती रहती है। उत्पन्न होना, विनाश होना तथा उसी समय स्थिर रहना यह बड़ी विचित्रता है, जो हमने कभी नहीं सुनी। हमने ही नहीं वेदों के पारंगामी विद्वान् ब्राह्मणों और कुरान के ज्ञाता काजी-मुल्लाओं ने भी नहीं सुनी ।। १ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-४४ प्रात्मा में द्रव्य, गुण एव पर्याय की अपेक्षा ध्रौव्य, उत्पाद एवं व्यय कहलाता है। प्रात्मा में जिस समय में अन्य पर्याय का उत्पाद है, उसी समय में पूर्व पर्याय का व्यय है और उसी समय में प्रात्म-सत्ता का ध्रौव्य है। इस प्रकार प्रात्मा में समय-समय पर अनन्त धर्मों का उत्पाद व्यय होता है और समय-समय पर सत्तारूप ध्रौव्य होता है। जिस समय में नित्य है, उसी समय में अनित्य है। आत्मा का स्याद्वाद के अनुसार जैसा आश्चर्यजनक स्वरूप है वैसा स्वरूप अन्य एकान्त दर्शनों में नहीं बताया गया। प्रात्मा के उत्पाद-व्यय को दृष्टान्त के द्वारा बताया है कि स्वर्ण के अनेक प्रकार के आभूषण बनते हैं। . कुण्डल गलाकर अँगूठी बनाई जाती है तब कुण्डल आकार का व्यय और अंगूठी आकार का उत्पाद होता है, पर स्वर्ण तो दोनों में विद्यमान ही है। जल-तरंगों में भी पूर्व तरंगाकार का व्यय एवं अन्य तरंगाकार की उत्पत्ति होती है और जलत्व तो दोनों में ध्रौव्य रूप से दिखाई देता है। वैसे ही मिट्टी का घड़ा प्राकार रूप उत्पाद टूटने पर ठीकरों के रूप में व्यय, परन्तु इन दोनों अवस्थानों में मिट्टी का रूप एक ही है। सूर्य की किरणों में भी उत्पाद, व्यय एवं धं वता है, अर्थात् सूर्य की किरणें अनेक दिशाओं में फैलकर अगणित दिखाई देती हैं। किन्तु सूर्य के रूप में वे एक ही हैं। इसी प्रकार से आत्मा एक द्रव्य तथा मनुष्य, गाय, बैल, · अश्व, तोता, मैना, कबूतर, देव, नारक आदि उसके पर्याय हैं। इन पर्यायों में प्रात्मा सदा के लिए वैसा ही रहता है ।। २ ।। है, नहीं है और वचन से जो कहा नहीं जा सकता, ऐसा स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्याद् अवक्तव्य-इन तीनों भेदों के चार उत्तर भेद (स्याद् अस्ति नास्ति, स्याद् अस्ति वक्तव्य, स्यान्नास्ति प्रवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति प्रवक्तव्य) मिलने से सप्तभंगी स्याद्वादनय, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक, निश्चय और व्यवहार नय और नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत नयों के प्रमाणों से परीक्षा करके प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को कोई भाग्यशाली ही अपना पक्षपात त्याग कर जान सकता है। कोई एकान्तवाद रूप पक्ष का त्याग करके अनेकान्तवाद रूप निष्पक्षता स्वीकार करके यदि आत्मा का स्वरूप देखे तो उसे प्रात्मज्ञान होता है, परन्तु विरले ही इस प्रकार सप्तभंगी, सात नय और चार प्रमाणों से प्रात्मा का स्वरूप पहचान सकते हैं। प्रात्मा में एकान्त धर्म स्वीकार करने वाले मत के कदाग्रही मनुष्य, विवादो मनुष्य इसका वास्तविक स्वरूप कैसे जान सकते हैं ? ॥३॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ४५ कितने ही मनुष्य - परमात्मा को समस्त जड़-जंगम तथा समस्त स्थानों में व्याप्त मानते हैं, किन्तु फिर भी उसकी अलग सत्ता स्वीकार करते हैं । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि जो आनन्दस्वरूप भगवान के अमृतमय वचनों को जानते हैं, उनके वचनों पर विश्वास करते हैं, वे ही परमार्थ (मुक्ति) को प्राप्त करते हैं ॥ ४ ॥ ( ११ ) (राग - कल्याण) मोकु कोऊ कैसइहु तको । मेरे काम इक प्रान जीवन सुं, और भावे सो बको || कु० ।। १ ।। हूँ आयो प्रभु शरण तुम्हारी, लागत नाहि धको । भुजन उठाइ कहूँ श्रौरन सों, करहों जु करही सको || मोकु० || २ | अपराधी चित्त ठान जगतज़न, कोरिक भाँति चको । श्रानन्दघन प्रभु निहचे मानो, इहजन रावरो थको ।। मोकु०।।३।। । अर्थ – मुझे कोई कैसी ही दृष्टि से देखे, मुझे तो मेरे प्रारण-जीवन से आराध्य से काम है । संसार के लोग भले ही मेरे लिए कुछ भी कहते रहें, मुझे उनकी ओर नहीं देखना है । अपने प्रारण - जीवन को प्राप्त करने के लिए मैं कुछ भी करूंगा । मैं दीवानी दुनिया की बात पर ध्यान देने वाला नहीं हूँ संसार के लोग प्रत्येक व्यक्ति की आलोचना किये बिना नहीं रहते । लोगों की आलोचना से कोई नहीं बचा । तीर्थंकर भी नहीं बचे, हमें अपने कार्य में ही ध्यान देना चाहिए । संसार चाहे कुछ भी कहे, परन्तु मुझे तो अपने ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप भाव प्रारण के पति ऐसे प्रात्म-स्वामी से ही काम है । जो व्यक्ति मेरे कार्य का प्रयोजन नहीं जान सकते हैं, वे मेरी निन्दा करें, क्या हानि है ? उसमें मेरी संसार के लोग महान् महात्मानों की भी आलोचना जिससे वे आत्म-धर्म प्राप्ति के कार्य का परित्याग नहीं कर देते करते हैं । ।। १ ।। हे प्रभो ! हे स्वामी ! मैं प्रापकी शरण में आ गया हूँ । संसार की निन्दा - स्तुति मुझे धक्का नहीं दे सकती, मुझे अपने ध्येय से हटा नहीं सकती । मैं तो हाथ उठा-उठाकर, पुकार पुकार कर कह Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-४६ रहा है कि आप अपनी शक्ति लगाकर जो भी कर सकते हो, वह कर लो। ज्ञान, दर्शन और शाश्वत सुखमय स्वामी का शरण ग्रहण करने के पश्चात् मुझे अब किसी का कोई भय नहीं रहा। मैं राग-द्वेष आदि शत्रुनों को भी नहीं गिनता ॥ २॥ .... संसार के लोग मुझे अपराधी समझकर भले ही भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखें, मन में करोड़ों प्रकार की आशंकाएं करें, मुझे इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं है। हे आनन्दघन प्रभो! आप यह निश्चय मानो कि यह सेवक तो आप ही का हो चुका है। लोग करोड़ों रीतियों से मुझे दोष-दृष्टि से देखें तो भी मेरी कोई हानि नहीं है। बाह्य दृष्टि से लोग अच्छी तरह मेरा स्वरूप न समझ सकें और मेरे दोष देखें जिससे मैं अपने निश्चय से डिगने वाला नहीं हूँ। हे प्रानन्दघनभूत चेतन ! आप निश्चय मानें कि मैं आपका ही हूँ। मुझे केवल.आपकी कृपादृष्टि चाहिए ॥ ३ ॥ __ (राग-आसावरी) प्रवधू क्या माँगू गुनहीना, वै तो गुन गगन प्रवीना। गाय न जानू बजाय न जानू, न जानूँ सुरभेवा । रीझ न जाने रिझाय न जानू, न जानू पद-सेवा । ॥अवधू० ।। १॥ वेद न जानू, कतेब न जा, जानें न लक्षण छंदा । तरक वाद-विवाद न जानू, न जाने कवि फंदा । - ॥ अवधू० ॥ २ ॥ जाप न जानू जुवाब न जानू, न जाने कथ वाता । भाव न जानू, भगति न जान, जानू न सीरा ताता। ॥ अवधू० ॥ ३ ॥ ज्ञान न जानू, विज्ञान न जानू, न जानू भज नामा। प्रानन्दघन प्रभु के घर द्वारे, रटन करूँ गुन धामा । ॥ अवधू० ॥ ४ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४७ अर्थ -प्रानन्दघनजी कहते हैं कि हे अवधू ! मैं गुण-हीन क्या मांगू? मैं क्या याचना करूं? मुझ में याचना करने की तनिक भी योग्यता नहीं है। वे प्रभु तो आकाश के समान अनन्त गुणों वाले परम चतुर हैं। मैं किसी भी प्रकार से प्रवीण नहीं हूँ। मुझ में परमात्म-पद प्राप्त करने की योग्यता प्रतीत नहीं होती। याचना करने के लिए मैं न तो गाना जानता हूँ, न प्रसन्न करने के लिए वाद्ययन्त्र बजाना जानता हूँ, न मैं षड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत एवं निषाद आदि स्वरों के भेदं जानता हूँ। न मैं अपनी प्रसन्नता प्रकट करना जानता हूँ, न अपने हाव-भावों एवं वचन-चातुर्य से प्रभु को रिझाना जानता हूँ और न मैं प्रभु के चरणों की सेवा-विधि ही जानता हूँ। प्रभु की सेवा करना कोई सामान्य बात नहीं है। मन, वचन और देह अर्पित किये बिना प्रभु की सेवा हो नहीं सकती। स्वार्थ का परित्याग किये बिना परमात्म-पद की सेवा हो नहीं सकती। शुद्ध प्रेम एवं निष्काम करनी की जब प्राप्ति हो जाती है तब हम प्रभु-पद की सेवा के अधिकारी बन सकते हैं। प्रभुपद की सेवा के लिए हृदय-शुद्धि की आवश्यकता होती है। मुझ में प्रभु-पद की सेवा की योग्यता नहीं है ।।१।। ___ मैं चारों वेदों को नहीं जानता और न मुझे शास्त्रों का ज्ञान है। न मैं पिंगलशास्त्र के छन्दों के लक्षणों का ज्ञाता हूँ और न मैं न्यायशास्त्र व वाद-विवाद करना अर्थात् शास्त्रार्थ करना ही जानता हूँ। मुझ में कवियों जैसी वाक्-पटुता भी नहीं है। आनन्दघनजी कहते हैं कि मैं कुरान को भी नहीं जानता हूँ ॥२॥ __ भगवान के नाम का जाप करने की विधि से भी मैं अनभिज्ञ हूँ। उपांशु अथवा अजपाजाप प्रादि जाप के भेदों को मैं पूर्णतः नहीं जानता। नन्दावर्त, शंखावर्त, ऊँवृत्त, ह्रीं वृत्त आदि भेदों का भी मैं ज्ञाता नहीं हूँ। परमात्मा के स्वरूप के विषय में यदि कोई प्रश्न पूछे तो उसका किस प्रकार उत्तर देना यह भी मैं सम्यग् रूप से नहीं जानता। भाव के परिपूर्ण स्वरूप को भी मैं नहीं जानता। मुझे उत्तमोत्तम मनोरंजक कथा कहना भी नहीं पाता। भावों को उल्लसित करने की शक्ति भी मुझ में नहीं है। परमात्मा का साक्षात्कार हो वैसी भक्ति भी मैं पूर्णतया नहीं जानता। भक्ति के पूर्ण स्वरूप को तो केवलज्ञानी के अतिरिक्त अन्य कोई जान नहीं सकता। मैं उष्ण एवं शीत का भी परिपूर्ण स्वरूप नहीं जान सकता तो मैं गुणहीन क्या माँगू? हृदय में सद्गुणों के उत्पन्न होने पर स्वतः ही समस्त वस्तुओं की प्राप्ति हो जाती है। गुणों से इष्ट Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४० पदार्थों की प्राप्ति शीघ्र होती है। परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए सद्गुणों को प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। आत्मा में अनन्त ज्ञान आदि गुण हैं। माँगने से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है । सद्गुण प्राप्त करने से ही परमात्म-पद की प्राप्ति होगी। अतः सद्गुण प्राप्त करने का प्रयत्न करना आवश्यक है। मुझे यह भी पता नहीं है कि कौनसी बात किसको शान्त कर देगी और कौनसा व्यवहार उत्तेजित करेगा? ॥३॥ न तो मुझे सामान्य ज्ञान है और न विशेष ज्ञान है । तथा न मुझे भजन-कीर्तन की रीति का ही ज्ञान है। आनन्दघन जी कहते हैं कि मैं तो केवल प्रानन्दस्वरूप गुणों के निधान परमात्मा के घर के द्वार पर उनके गुणों का स्मरण करता हूँ। राग-द्वेष रहित बनना, इच्छा रहित बनना ही भगवान का द्वार है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवल ज्ञान इन पाँच ज्ञानों के इकावन भेद होते हैं। मंतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में विज्ञान का समावेश होता है। आनन्दघन जी कहते हैं कि जितने प्रमाण में ज्ञान और विज्ञान का ज्ञान होना चाहिये उतना मैं नहीं जानता। अपनी लघुता प्रदर्शित करने के लिए प्रानन्दघन जी महाराज कहते हैं कि मैं भगवान का स्मरण करने की भी परिपूर्णता नहीं जानता। प्रभु-नाम का स्मरण करते हुए ध्याता, ध्येय एवं ध्यान की एकता हो जाती है। वहाँ आत्मा एवं परमात्मा को भिन्नता प्रतीत नहीं होती। विकल्प एवं संकल्प का नाश हो जाता है ऐसे भजन को मैं नहीं जानता। भगवान के स्मरण से प्रात्मा परमात्म-स्वरूप बन जाती है, मनोवत्ति सचमुच परमात्ममय हो जाती है। इस प्रकार प्रभु का ज्ञान भी मैं नहीं जानता। तात्पर्य यह है कि मांगने वाले में भी योग्यता होनी चाहिए। भगवान तो अन्तर्यामी हैं। योग्यता आने पर प्राप्त होने में विलम्ब नहीं लगता। अतः मैं प्रभु से याचना क्या करूँ ? योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने निःस्वार्थ भाव से प्रभु का स्मरण करते हुए अपने आचरण के द्वारा कार्य करने का मार्गदर्शन किया है ॥४॥ (१३) (राग-सारंग) अनुभव हम तो रावरी दासी । प्राइ कहाँ ते माया ममता, जानून कहाँ की वासी ॥अनु०॥१॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४६ रीझि पर वाके. संग चेतन, तुम क्यू रहत उदासी । वरज्यो न जाइ एकंत कंत को, लोक में होवत हाँसी ।।अनु०॥२॥ समझत नाहीं निठुर पति एती, पल इक जात छः मासी । अानन्दघन प्रभु को घर समता, अटकली और लखासी॥अनु०॥३।। अर्थ-समता कहती है कि हे अनुभव ! मैं प्रात्मराजा की दासी हैं। हे अनुभव ! यह तो बतायो प्रात्मा के साथ जो माया, ममता नामक स्त्रियाँ हैं वे कहाँ से आईं ? मैं तो इतना भी नहीं जानती कि ये माया-ममता किस देश की निवासिनी हैं ? माया समस्त विश्व के प्राणियों को वश में करती है। यह अपने सामर्थ्य से जीवों को चारों गतियों में भटकाती है। मनुष्य अपने सुख के लिए माया का सेवन करते हैं परन्तु उसके कारण वे दुःखों में फंसते हैं। माया मनुष्यों को अपनी इच्छानुसार नचाती है। ममता भी मोहराजा की पुत्री है। संसार के समस्त जीव ममता के प्रपंच में फंसे हुए हैं ॥१॥ अनुभव कहता है कि चेतन माया-ममता पर मुग्ध हैं, अतः वे उसी के साथ रहते हैं। उन्हें उनके साथ रहने से प्रानन्द की प्राप्ति होती है । इससे हे समता! तुम उदास क्यों रहतो हो? तुम अपना स्वभाव क्यों छोड़ती हो? अनुभव की बात सुनकर समता कहती है कि 'हे अनुभव !' मैं आत्म-पति का एकान्त सम्बन्ध त्याग नहीं सकती। मैं पतिव्रता हूँ। में राग-द्वेष आदि दुष्टों को जो मेरे पति को भव-भव में अनन्त दुःख देने वाले हैं, उन्हें नहीं चाहती। मैं उनकी संगति भी नहीं करती। जैसे हंस के बिना हंसिनी जी नहीं सकती वैसे ही मैं अपने पति के बिना जीवित नहीं रह सकती। वे मुझे छोड़कर माया एवं ममता के साथ रहते हैं, जिससे लोगों में मेरी तथा उनकी हँसी होती है। मेरी इच्छा होती है कि मैं पृथ्वी में समा जाऊँ। हे अनुभव ! मुझे अपने पति के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। लोगों में हँसी होने से मुझे अत्यन्त लज्जा पाती है। मेरा और मेरे चेतन-स्वामी का एकान्त सम्बन्ध है। एकान्त सम्बन्ध होते हुए भी मेरे स्वामिनाथ ममता के संग में रंग गये हैं जिससे हम दोनों की हँसी हो रही है ॥२॥ - समता कहती है कि हे अनुभव ! मेरे निष्ठुर पति इन बातों को समझ नहीं पा रहे हैं। इस कारण मेरा एक-एक पल छह माह के समान व्यतीत हो रहा है। वे माया एवं ममता रूप कुलटा स्त्रियों के फन्दे में Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-५० फंस कर यश, धन, प्रतिष्ठा, सुख और वीर्य आदि समस्त शक्तियों का नाश कर रहे हैं। वे मेरी बात पर तनिक भी ध्यान नहीं देते । आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि आनन्द के समूह रूप आत्मा की वास्तविक पत्नी समता है। अन्य सब मिथ्या है। अतः फिर समता के आनन्द का पार न रहा । प्रात्मा ने जब समता को अपना जान लिया तब वह ममता की ओर कैसे प्राकर्षित हो सकता है ? । (१४) (राग-प्रासावरी) ... अवधू नाम हमारा राखे, सो परम महारस चाखे ।। ना हम पुरुष ना हम नारी, वरन न भात हमारी । जाति न पाँति न साधु न साधक, ना हम लघु ना भारी ।। - अवधू०॥१॥ ना हम ताते ना हम सीरे, ना हम दीरघ ना छोटा। न हम भाई, न हम भगिनी, ना हम बाप न ढोटा ॥ अवधू०॥२॥ ना हम मनसा ना हम सबदा, ना हम तन की धरणी। न हम भेष भेषधर नाहीं, ना हम करता करणी ॥ . अवधू०॥३॥ न हम दरसन ना हम फरसन, रस न गंध कछु नाहीं । आनन्दघन चेतनमय मूरति, सेवक जन बलि जाहि ।। अवधू०।।४।। अर्थ-श्रीमद् प्रानन्दघन जी सोचते हैं कि मेरा तो कोई शिष्यसाधु भी नहीं है, तब मेरा नाम कौन रखेगा? मुझे तो कोई विरला ही पहचान सकेगा। निश्चय नय से हमारा अवधूत स्वरूप है, जो संसार की बाह्य दृष्टि में नहीं आ सकता। हमारे मूल स्वरूप को पहचान कर जो हमारा नाम रखता है, वह परम आनन्द रूप महारस का आस्वादन करता है। मुझे देह समझने वाले तो अनेक विपत्तियाँ सहन करेंगे। मुझे आत्मा समझने वाले इन समस्त विपत्तियों से मुक्त रहेंगे, क्योंकि प्रात्मा आनन्द स्वरूप है, अविनाशी है तथा अनन्त शक्तिसम्पन्न है.। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-५१ मैं आत्मा न पुरुष हूँ न नारी। इसका लाल, पीला, नीला कोई रंग नहीं है। रंग तो इन्द्रियगोचर पदार्थों में होता है। आत्मा इन्द्रिय अगोचर है अथवा आत्मा का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्गों में से कोई वर्ण नहीं है। जब तक मैं पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, ऐसा अहंभाव रहता है, तब तक आत्मा के शुद्ध धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती। अन्तर से पुरुष अथवा स्त्रीत्व धर्म का अहंभाव प्रकट नहीं होना चाहिए, जिसकी ऐसी दशा प्रकट हुई है वह हमारा नाम रख सकता है। संसार में जितने वर्ण एवं जितनी जातियाँ कही जाती हैं, वैसा मैं नहीं हूँ। मैं किसी पंक्ति में नहीं हूँ। बाह्य दृष्टि से मैं साधु अथवा साधक नहीं हूँ और न मैं लघु अथवा भारी हूँ ॥१॥ मैं (प्रात्मा) न उष्ण हैं और न शीतल। उष्ण पुद्गल का पर्याय है और शीत भी षुद्गल का पर्याय है। पुद्गल-द्रव्य से प्रात्मा भिन्न है। प्रात्मा में उष्णता एवं शीतलता नहीं रहती। पुद्गल से आत्मा भिन्न होने से उसमें छोटे-बड़े का सम्बन्ध नहीं है। मैं किसी का न तो भ्राता है और न मैं किसी की बहन हैं। मैं (आत्मा) किसी का न तो पिता हूँ और न पुत्र। मैं अरूपी असंख्य प्रदेशमय प्रात्मा हूँ। आत्मा नित्य है; न यह कभी उत्पन्न हुआ और न किसी को उत्पन्न कर सकता है। अतः यह किसी का भाई-भगिनी, पिता-पुत्र नहीं हो सकता। यह देह ही उत्पन्न होती है इसलिए इसके साथ ही ये समस्त सम्बन्ध घटित होते हैं। देह के सम्बन्ध से किसी को भ्राता मानना और अमुक को भगिनी मानना-यह भी वस्तुत: विचार करें तो भ्रान्ति है। अपनी मात्मा के समान समस्त प्रात्माएँ हैं। बाह्य वस्तुएँ जड़ हैं, अतः उनमें आत्मा का कुछ भी नहीं है। जो उपर्युक्त कथनानुसार आत्मा का सम्यक् स्वरूप जानते हैं वे ही आनन्दघन स्वरूप जानने के लिए समर्थ हैं ॥२॥ न मैं मन हँ, न मैं शब्द हूँ। द्रव्य-मन से प्रात्मा भिन्न है। मनोद्रव्य की शुद्धता की वृद्धि होने के साथ उत्तम शुद्ध लेश्या प्रकट होती है और भाव-मन भी उच्च कोटि का हो जाता है। शब्द भी जड़ है। पुद्गल-द्रव्यरूप शब्द होने से प्रात्मा शब्द से भिन्न है। शब्द भावश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत रूप है। आत्मा शब्दरूप नहीं है अतः शब्दों से भिन्न प्रात्मा है-यह निश्चय करना चाहिए। न मैं (आत्मा) शरीर के धारण करने वाले पंच महाभूत से उत्पन्न हूँ, न मेरा (आत्मा का) कोई वेष है ताकि मैं वेषधारी कहलाऊँ। न मैं कर्ता हूँ न करनी। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् मानन्दघनजी एवं उनका काव्य-५२ मैं बाह्य वस्तुओं का कर्ता नहीं हूँ और क्रिया-करनी से भी मैं भिन्न हूँ ॥३॥ न मैं (प्रात्मा) देखा जा सकता हूँ, न स्पर्श किया जा सकता हूँ। अथवा में दर्शन नहीं हैं। सात नयों में से एक-एक नय को एकान्त से मानकर जो दर्शन उत्पन्न हए हैं, वैसा मैं नहीं हैं। प्रात्मा पाठ प्रकार के स्पर्शों से भिन्न है, अतः मैं स्पर्श नहीं हूँ। मैं खट्ट, मीठे, कड़वे आदि रसों से भिन्न हूँ। मैं गन्ध भी नहीं हूँ। न मेरा (आत्मा का) स्वाद लिया जा सकता है, न मेरी गन्ध ली जा सकती है.अर्थात् प्रात्मा के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श कुछ भी नहीं है। श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि चैतन्य गुणयुक्त यह आत्मा मैं हूँ। अनन्त ज्ञान, दर्शन, प्रानन्द एवं वीर्य युक्त प्रात्मा है; सत्, चित् एवं प्रानन्द स्वरूप यह प्रात्मा है। सेवकगण अर्थात् साधकगण इस रूप पर बलिहारी जाते हैं अर्थात् स्वयं को उत्सर्ग कर देते हैं ।।४।। (१५) (राग-रामगिरि) मुने माहरो कब मिलसे मन-मेलू । मन मेलू बिन केलि न कलिये, वाले कवल कोई वेलु ।। मुने०॥१॥ आप मिल्यां थी अन्तर राखे, मनुष्य नहीं ते लेलू । आनन्दघन प्रभु मन मिलिया विण, को नवि विलगे चेलू । मुने०॥२॥ अर्थ-शुद्ध चेतना कहती है कि मेरे मन का मिलापी प्रिय (आत्मा) शुद्ध चेतन कब मिलेगा? अब तो उसका विरह सहन करना कठिन है । शुद्ध चेतन को मिले बिना मेरा चित्त भ्रमित हो रहा है। मुझे तनिक भी चैन नहीं पड़ता। मन-मिलापी के बिना क्रीड़ा करके मन बहलाने की, मनोरंजन करने की भी इच्छा नहीं होती। मन-मिलापी के बिना आनन्द की खुमारी उत्पन्न नहीं होती। मन मिले बिना प्रीति करना तो बालू रेत के ग्रास के समान है। अतः मेरे मन का मिलापी शुद्ध चेतन मिले बिना मुझे कदापि प्रानन्द की प्राप्ति नहीं होगी। मैं अपने प्राणनाथ शुद्ध चेतन के बिना कदापि नहीं रह सकूगी। मेरे मन का मिलापी मेरा स्वामी है मैं उसका ही स्मरण करती रहती हूँ॥१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ५३ शुद्ध चेतना कहती है कि मन मिलने वाले स्नेही से जो भेद रखता है, कपट करता है, वह मनुष्य नहीं है; वह हृदयहीन पशु तुल्य है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि मन मिले बिना तो कोई शिष्य भी समीप नहीं आता । हे आत्म - स्वामी ! आपके साथ मेरा मन मिला है और आप मुझे मिलते नहीं, उसमें आपकी क्या शोभा है ? मन मिलने के पश्चात् छोटा बालक भी अन्तर नहीं रखता । आप तीन के जगत् स्वामी होकर मन मिलने के पश्चात् मुझे जो नहीं मिलते, यह श्रापका व्यवहार आपको शोभा नहीं देता । आपके आगमन से तीनों लोकों में आपका यश फैलेगा, जन्म-जरा-मृत्यु की उपाधि दूर होगी और आपका और मेरा वियोग दूर होगा । शुद्ध चेतना कहती है कि मेरी ओर आपका प्रयाण ं होते ही दसवें गुणस्थानक के प्रदेश में मोहनीय का नाश होगा और बारहवें गुणस्थानक में आते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तर कर्मरूप मैल का नाश होगा । मेरे घर में पदार्पण करते ही आपकी अनन्तगुनी शक्ति प्रकट होगी, अतः आप अब अन्तर न रखकर शीघ्र प्राकर मुझे मिलो । भाव यह है कि शुद्ध चेतना कहती है कि जिससे मेरा मन मिल जाये, ऐसा मन-मिलापी प्रिय मुझे कब मिलेगा अर्थात् मुझे शुद्ध स्वरूप प्रात्म-दर्शन कब होगा ? । इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति नहीं मिले तब तक विशेष - श्रीमद् श्रानन्दघनजी को कदाचित् किसी ने पूछा हो कि प्राप किसी को अपना शिष्य बनायेंगे अथवा नहीं ? उस समय श्रीमद् को इस पद की रचना करनी पड़ी हो जब तक मन की इच्छा के अनुसार कोई योग्य योगिराज श्री आनन्दघनजी किसी को दीक्षित करना नहीं चाहते थे । शिष्य बनाकर तो उसे योग्य बनाना आवश्यक हो जाता है और शिष्य को भी गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना आवश्यक होता है । श्रद्धा, भक्ति, प्रेम हो तो ही सम्बन्ध फलदायक होता है । परस्पर ( १६ ) ( राग-तोड़ी) पिया विण निस दिन भूरू खरी री । हुड़ी बड़ो की कानि मिटाई, द्वार ते आँखें कब न टरी री ॥ पिया० ।। १ ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-५४ पट भूषण तन भौकन उठे, भावे न चौंकी जराउँ जरी री। सिव कमला पाली सुख न उपावत, कौन गिनत नारी अमरी री॥ पिया० ॥२॥ सास विसास उसास न राखे, नणद निगोरी भोर लरी री। और तबीब न तपत बुझावै, प्रानन्दघन पीयूष झरी री ॥ . .पिया० ॥ ३ ॥ अर्थ-समता कह रही है-प्राणप्यारे चेतन के बिना मैं रातदिन संतप्त रहती हैं। छोटी-बड़ी सबकी मर्यादा-लज्जा त्याग कर मेरी आँखें द्वार से कभी हटती ही नहीं। मैं प्रीतम (चेतन) की प्रतीक्षा में द्वार की ओर टकटकी लगाये रहती हूँ। मैं अपने प्रियतम की निरन्तर प्रतीक्षा करती है कि मेरे स्वामी कब मेरे घर आयें। कुमति उन्हें भ्रमित करके अपने प्रमत्त रूप घर में, ले जाती है और उन्हें मेरे द्वारपाने नहीं देती। मैं उन्हें अपने घर में लाने के लिए अनेक युक्तियाँ करती हैं परन्तु कुमति मेरे सब प्रयत्न निरर्थक कर देती है। मैं चाहती हूँ कि मेरे स्वामी मेरे घर आयें और इन्हीं विचारों में मैं प्रतिपल रात-दिन संतप्त रहती हैं। मुझे अपना कोई दोष प्रतीत नहीं होता, फिर भी मेरे आत्मरूप स्वामी कुमति के वश में हो गये हैं, जिससे मैं प्रत्यन्त दुःखी हूँ॥१॥ __इस विरह-दशा में वस्त्रों, आभूषणों और देह से. भी मुझे सन्ताप उत्पन्न होता है। मुझे बहुमूल्य जड़ाव वाले आभूषण चौंकी प्रादि भी अच्छे नहीं लगते। हे सखी श्रद्धा ! मुझे मोक्ष-लक्ष्मी से भी चैन नहीं मिला तो फिर स्वर्ग की देवाङ्गनाएं तो भला किस गिनती में हैं ? उनकी इच्छा कौन करेगा? चेतना कहती है कि मुझे न तो स्वर्ग चाहिए, न मोक्ष चाहिए; मुझे तो अपने स्वामी शुद्धात्मा चैतन्य देव से मिलने की ही चाह है। प्रीतम के बिना कहीं भी चैन नहीं है। मेरे शुद्धात्म स्वामी के बिना मुझे कोई भी सुशोभित नहीं कर सकता। जब मेरे शुद्धात्म पति ही मेरे पास नहीं हों तो मैं अपने वस्त्रों, आभूषणों की शोभा किसे बताऊँ ? उलटे वस्त्र-आभूषण मुझ विरहिणी के दुःख में अभिवृद्धि करते हैं। शुद्धात्मपति के विरह में सुख के समस्त साधन भी मुझे तनिक भी अच्छे नहीं लगते ॥ २ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ५५ मेरी सास एक क्षण का भी विश्वास नहीं करती और निगोड़ी ननद प्रातः काल से ही मुझसे झगड़ना प्रारम्भ कर देती है अर्थात् ज्ञानी गुरुजन कहते हैं कि हे सुमति ! आयु का पलभर का भी विश्वास नहीं है। तू पूर्णतः प्रयास करके चेतन से मिल क्यों नहीं लेती ? समवयस्क भी प्रातः काल में यही स्मरण कराती हैं कि प्रतिदिन प्रातःकाल के साथ जीवन का एक दिन कम होता रहता है । इस दुर्लभ मनुष्य भव में ही यदि तू चेतन से नहीं मिल सकी तो फिर कहाँ मिलाप होगा ? अन्य हकीम, वैद्य मेरे तन का ताप मिटा नहीं सकते । अतिशय आनन्दमय मेरे स्वामी चेतन के मिलाप से ही मेरे तन का ताप मिटेगा क्योंकि उनके मिलाप रूपी अमृतवृष्टि के अतिरिक्त मेरे तन की तपन किसी वैद्य-हकीम की औषधि से मिटने वाली नहीं है । - पाठान्तर से यह भाव है कि शुद्ध चेतना अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि हे बहिनं ! कुमति क्षणभर के लिए भी मेरा विश्वास नहीं करती। वह मेरे प्रीतम को क्षणभर भी अलग नहीं होने देती क्योंकि वह जानती है कि यदि मैं आत्मा को क्षणभर भी अलग करूंगी तो मेरे समस्त प्रयत्न निष्फल हो जायेंगे और वह सुमति के पास चला जायेगा । इस कारण से वह द्वेष के कारण मेरे प्रीतम को भ्रमित करती है। उसने प्रातः काल में मेरे साथ झगड़ा किया, मुझे धमकाया फिर भी मेरे प्रीतम कुछ नहीं बोले 1 अतः मुझे अत्यन्त दु:ख हुआ जिससे मेरी देह इतनी तप्त हो गई कि कोई भी वैद्य उस ताप को मिटाने में असमर्थ है । अब तो केवल एक ही उपाय है कि मेरे आनन्द के समूहभूत आत्मस्वामी अनुभव कृपा-दृष्टि रूपी अमृत मेरी देह की तपन दूर हो और मुझे शान्ति प्राप्त हो । की यदि मुझ पर कृपा हो तो मुझे कोई संतप्त नहीं कर सकता । प्रीतम की प्रमृतमय दृष्टि की वृष्टि होते ही सहज आनन्द उत्पन्न हो सकता है। संखि ! मैं तुझे अधिक क्या कहूँ ? तू तो चतुर है, सब कुछ समझती है ॥ ३॥ की वृष्टि करें तो मेरे श्रात्म - स्वामी मेरे (१७) ( राग सारंग ) मेरे घट ज्ञान भानु भयो भोर । चेतन चकवा चेतना चकवो, भागो विरह को सोर || मेरे० ।।१।। फैली चिहुं दिसि चतुर भाव रुचि, मिट्यो भरम तम जोर । आपकी चोरी आप ही जानत, और कहत न चोर || मेरे० ||२|| Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-५६ अमल कमल विकच भये भूतल, मंद विषय शशि कोर । आनन्दघन इक वल्लभ लागत, और न लाख करोर ।।मेरे० ॥३॥ अर्थ-मेरे हृदय में ज्ञान रूपी सूर्य का प्रकाश छा गया है। चेतन रूपी चकवा और चेतना रूपी चकवी के विरह से उत्पन्न करुण क्रन्दन अब सर्वथा शान्त हो गया है। चेतन स्वयं चेतना के बिना रह नहीं सकता और शुद्ध चेतना भी चेतन के बिना रह नहीं सकती। जब तक अज्ञान रूपी अन्धकार होता है तब तक अपने शुद्ध स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्सोहनीय, मिश्रमोहनीय एवं मिथ्यात्वमोहनीय, इस प्रकार कुल मिलाकर सात प्रकृति का क्षयोपशम भाव प्रकट होने पर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है और इन सात प्रकृतियों का उपशम भाव होने पर उपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है और इन सातों का सम्पूर्ण क्षय होने पर क्षायिक भाव से सम्यक्त्व प्रकट होता है। उपशम आदि सम्यक्त्व की प्राप्ति से सम्यग् ज्ञान की दशा प्रकट होती है और शुद्ध स्वरूप का निश्चय होता है। उस समय देह आदि पदार्थों में उत्पन्न अहं एवं ममत्व भाव नष्ट होता है और अपनी शुद्ध चेतना प्रकट होती है जिससे दोनों का विरह नष्ट होता है। शुद्ध चेतना एवं चेतन की विरह दशा में दुःख ही दुःख उत्पन्न होता है तथा सात प्रकार के भय उत्पन्न होते हैं। जन्म, जरा एवं मृत्यु के भय से हृदय धड़कने लगता है, तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं होती और अन्धे मनुष्य की तरह अगम्य स्थान में भी जाना पड़ता है। अनुभवी कहता है कि अब तो हृदय में ज्ञान-सूर्य का उदय होने से शुद्ध चेतना एवं चेतन का सम्बन्ध हुअा। दोनों का विरह नष्ट होने पर हृदय में आनन्द की लहरें उठने लगीं ॥१॥ चारों दिशाओं में विचक्षण स्वभाव में रमणस्वरूप प्रकाश फैल जाने से भ्रम रूपी अन्धकार नष्ट हो गया। अपनी चोरी मैं स्वयं ही जानता हूँ अतः मैं अन्य किसी को चोर नहीं कहता अर्थात् अपने आत्मिक गुणों का चोर मैं स्वयं ही था। किसी अन्य ने मेरे ज्ञान आदि गुणों की चोरी नहीं की थी। इस बात का अब निश्चय हो जाने के कारण मैं किसी अन्य को चोर ठहरा कर उसे दोष नहीं देता। प्रात्मा अनादि काल से अज्ञान के कारण जड़ पदार्थों में अहं एवं ममत्व भाव रखता है। जड़ वस्तु में इष्टत्व एवं अनिष्टत्व रूप भ्रान्ति के कारण व्यर्थ सुख एवं दुःख की कल्पना करके मूर्ख जीव अपने प्रात्मा को जंजाल में फंसाता है। अज्ञान दशा में आत्मा स्वयं ही गलत मार्ग पर चलने से अपना शत्रु बनता Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-५७ है और स्वयं ही अपने गुणों का चोर बनता है। आत्मा स्वयं ही अपना उद्धार करता है। आत्मा स्वयं ही अपनी भूल के कारण चार गतियों में परिभ्रमण करता है और भ्रान्ति के कारण अपने गुणों का स्वयं चोर बनता है और अज्ञान रूपी भ्रान्ति के कारण अपने गुणों का स्वयं विनाशक बनकर स्वयं ही अपना शत्रु बनता है। हृदय में जब ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ तब उसे ज्ञात हुआ कि मैं स्वयं ही अपने गुणों का चोर था ॥२॥ ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने से हृदय-कमल खिल गया है, निर्मल हो गया है और विषय-वासना रूपी चन्द्रमा की किरणें मन्द हो गई हैं। आनन्दघन जी कहते हैं कि एक प्रानन्द स्वरूप चैतन्य सत्ता ही प्रिय लगती है और लाखों-करोड़ों सांसारिक प्रलोभन प्रानन्ददायक नहीं लगते । सूर्योदय होने पर चन्द्रमा की कान्ति फीकी हो जाती है, उसी प्रकार से ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाशित होने पर विषय रूपी चन्द्रमा की कान्ति मलिन हो जाती है। तात्पर्य यह है कि अध्यात्म ज्ञानदशा प्रकट होने पर विषय-बुद्धि मन्द हो जाती है और विषय विषतुल्य प्रतीत होते हैं। अध्यात्म-ज्ञान होने पर, हृदय में हर्ष का पार नहीं रहता। श्रीमद् प्रानन्दघन जी कहते हैं कि अब तो ज्ञान रूपी सूर्य के उदय होने से भ्रान्ति दूर हो गई है जिससे आनन्द का समूहभूत आत्मा ही प्रिय लगता है। श्रीमद् को जगत् की कोई भी वस्तु प्रिय नहीं लगती थी। उन्हें तो केवल प्रात्मा ही प्रिय लगता था ।।३।। (राग-मारू) निशदिम जोउं वाटड़ी, घर आवो रे ढोला । मुझ सरीखा तुझ लाख हैं, मेरे तू ही ममोला निश० ॥१॥ जव्हरी मोल करे लाल का, मेरा लाल अमोला। ज्याके पटतर को नहीं, उसका क्या मोला ? निश० ॥२॥ पंथ निहारत लोयणे, द्रग लागी अडोला । जोगी सुरति समाधि में, मानो ध्यान झकोला ॥निश० ॥३।। कौन सुण किसकू कहूँ, किस मांडु खोला । तेरे मुख दीठे टलै, मेरे मन का चोला ॥निश० ।।४।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-५८ मित्त विवेक कहै हितु, समता सुनि बोला। आनन्दघन प्रभु आवसी, सेजड़ी रंग रोला ॥निश० ।।५।। अर्थ-सुमति कहती है कि 'हे प्रियतम चेतन ! मैं रात-दिन आपकी प्रतीक्षा करती रहती हूँ, अब तो आप अपने घर पधारिये। आप विभावदशा त्याग कर स्वभाव-दशा में आयो। मेरे जैसी तो आपके लाखों हैं अर्थात् माया, ममता, रति, अरति, कुटिलता, वक्रता आदि लाखों विभाव-दशाएँ हैं, किन्तु मेरे तो आप अकेले ही प्रिय हैं, प्रेम के स्थान हैं। आत्मा के समान जगत् में आनन्द का स्थान अन्य कोई नहीं है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-इन नौ तत्त्वों में भी जीव प्रथम स्थान पर है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और चेतनास्तिकाय-इन छह द्रव्यों में चेतन द्रव्य चेतना शक्ति के द्वारा समस्त द्रव्यों को जानता है और देखता है। अनेक प्रकार के पुण्यों एवं पापों का कर्ता प्रात्मा है। पुण्य एवं पाप का भोक्ता भी आत्मा है । धर्म-ध्यान आदि के द्वारा पुण्य. एवं पाप का क्षय-कर्ता भी प्रात्मा है। आत्मा के अपने घर में आने का मार्ग प्रथम, गुणस्थानक से है। कुल गुणस्थानक चौदह हैं :-१ मिथ्यात्व गुणस्थानक, २ सास्वादन गुणस्थानक, ३ मिश्र गुणस्थानक, ४ अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक, ५ देशविरति, ६ सर्वविरति, ७ अप्रमत्त, ८ निवृत्ति गुणस्थानक, ६ अनिवृत्ति गुणस्थानक, १० सूक्ष्मसंपराय, ११ उपशान्त गुणस्थानक, १२ क्षीण-मोह गुणस्थानक, १३ सयोगिकेवली गुरणस्थानक और १४ प्रयोगी केवली गुणस्थानक । ये चौदह गुणस्थानक मुक्ति के मार्ग हैं, मुक्ति रूपी राजप्रासाद के चौदह सोपान हैं। गुणस्थानकों में स्थित समता रूपी नारी अपने चेतन प्रियतम की गुणस्थानक रूपी मार्ग से प्रतीक्षा करती है और उन्हें अपने घर आने का निवेदन करती है ॥१॥ जौहरी अपने लालों का (माणिक आदि. रत्नों का) मूल्यांकन करता है कि मेरा लाल तो अमूल्य है, जिसका मूल्यांकन करना किसी जौहरी के बस की बात नहीं है। उसके समान तो कोई भी वस्तु नहीं है, फिर उसका क्या मूल्य लगाया जाये ? जौहरी लाल माणिक का मूल्य लगाता है परन्तु मेरे प्रात्म-पति लाल का तो मूल्य ही नहीं लगाया जा सकता, अतः वह अमूल्य गिना जाता है। जौहरी आत्म-माणिक का मूल्य कर ही नहीं सकता। लाल आदि को आभूषणं में लगाकर छाती पर धारण किया जाता है, हृदय के भीतर नहीं धारण किया जाता। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-५६ मेरा आत्मा-लाल तो हृदय के भीतर ही निवास करता होने से कोई अन्तराय नहीं है। जिसका अन्तराय न हो उसका क्या मूल्य ? अर्थात् यह अमूल्य गिना जाता है। प्रात्मा रूपी लाल का तेज अपार होता है और वह हृदय से भिन्न नहीं होने से उसका जगत् में कोई मूल्यांकन नहीं कर सकता। प्रात्मा के अनन्त गुण हैं। अनन्त गुणों के धाम मात्मा का भला मूल्य कैसे लगाया जा सकता है ? समता कहती है कि आत्मा रूपी प्रियतम के साथ मेरा कोई अन्तर नहीं है। वह तो हृदय में ही निवास करता है । मेरा चेतन-लाल अमूल्य है । मैं उस पर न्यौछावर हूँ।२।। - मैं निनिमेष दृष्टि से उनकी खोज़ में मार्ग को ऐसे देखती हूँ जैसे योगी ध्यान की मस्ती से समाधि में एकाग्रचित्त हो गया हो। समता कहती है कि हे स्वामी ! मैं आपके चरण-कमलों के दर्शनार्थ स्थिर-दृष्टि होकर देखती हैं जैसे योगी .समाधि में लीन होता है। मेरी दृष्टि आपकी ओर ही लगी हुई है। स्थिर दृष्टि से देखने के कारण मेरे नेत्रों में कुछ अपूर्व स्नेह का प्रवाह होता है ॥३॥ समता चेतन से, कहती है कि हे प्रियतम ! आपके अतिरिक्त मैं अपनी पीड़ा किसको बताऊँ? मेरी व्यथा कौन सुनने वाला है ? मैं किसके समक्ष अपना आँचल फैलाऊँ ? प्रियतम ! आपके दर्शन से ही मेरे मन की चंचलता दूर होगी अर्थात् पाप मेरे समीप होंगे तो मेरा मन शान्त रहेगा, मैं प्रानन्द-मग्न रहूँगी। हृदय की गुप्त बातें मैं अन्य किसे कहूँ? हे आत्मस्वामी! आपके अतिरिक्त अन्य धर्मास्तिकाय आदि जड़ द्रव्यों में मेरी व्यथा-कथा सुनने की शक्ति नहीं है और मुझे उनसे तनिक भी सुख प्राप्त होने वाला नहीं है। पुद्गल द्रव्य में सुख के भ्रम से अनेक जीव वहाँ परिभ्रमण करते रहते हैं, परन्तु वे उलटे दुःख प्राप्त करते हैं। चेतना कहती है कि मेरी तथा मेरे शुद्धात्मपति की एक ही जाति और एक स्वभाव है। अनादिकाल से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से मेरा तथा मेरे शुद्ध चेतन द्रव्य का अनन्त धर्म की अस्तिता एवं नास्तितामय स्वरूप समान है। अतः हे प्रियतम ! आपकी और मेरी भिन्नता होने वाली नहीं है ॥ ४ ॥ . समता की ये विरह-व्यथा युक्त बातें सुनकर उसका मित्र (अनुभव) विवेक सहित बोला, "हे समते ! तेरे प्रियतम प्रानन्दघन चेतन स्वामी अवश्य प्रायेंगे और स्वभाव रूपी शय्या (सेज) पर मानन्दरूपी रंगरेलियां मनायेंगे। तू मेरी बात पर विश्वास कर। तू Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६० चिन्ता छोड़ दे। तेरे प्रात्मस्वामी कुमति के वश में हैं तो भी उनके दिव्य चक्षु खुलेंगे और वे अपनी पत्नी और पर-पत्नी का भेद समझ जायेंगे।" उसे आश्वस्त किया कि अब प्रानन्द के समूह रूप तेरे आत्मस्वामी तेरे घर आयेंगे और तुझे सहज आनन्द में तन्मय कर देंगे ॥५॥ ( १६ ) (राग-गौड़ी) मिलापी आन मिलावो रे मेरे अनुभव मीठड़े मीत । चातक पिउ पिउ करे रे, पिउ मिलावे न आन । जीव पीवन पिउ पिउ करे प्यारे, जीउ निउ प्रान अयान ।। मिलापी० ॥१॥ दुःखियारी निस-दिन रहूँ रे, फिरूं सब सुधि बुधि खोय। तन की मन की कवन लहे प्यारे, किसहि दिखावु रोय ।। __ मिलापी० ॥ २ ॥ निसि अंधियारी मोहि हँसे रे, तारे दांत दिखाय । भादु कादु मई कीयउ प्यारे, अँसुप्रन धार बहाय ।। - , मिलापी० ।। ३ ।। चित्त चाकी चिहूँ दिसि फिरे रे, प्रान मैदो करे पीस । अबला सु जोरावरी प्यारे, एती न कीजे ईस ।। मिलापी० ॥ ४ ॥ आतुरता नहीं चातुरी रे, सुनी समता टुक बात । आनन्दघन प्रभु आइ मिलेंगे, आज घर हर भात ॥ मिलापी० ॥ ५॥ अर्थ-समता अपने प्रिय मित्र अनुभव को कहती है कि 'हे मेरे परम हितैषी मिलापी मित्र अनुभव ! तुम मुझे अपने प्रियतम (चेतन) से मिलायो। समता प्राप्त हो जाये तो भी अनुभव-ज्ञान के बिना आत्म-स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। अनुभव-ज्ञान की प्राप्ति के लिए Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-६१ पैंतालीस पागम आदि जिनागमों का गुरु-गम से अध्ययन करना चाहिए। सिद्धान्तों का अध्ययन करने के पश्चात् आत्मा का ध्यान करना चाहिए। आत्मा का ध्यान करते-करते प्रात्म-समाधि प्राप्त होती है और तत्पश्चात् ही आत्मानुभव-ज्ञान प्राप्त होता है। अनुभवज्ञान के अभाव में आत्मा का मिलाप नहीं होता। मेघरूपी प्रिय के समक्ष देखकर पपीहा ‘पिउपिउ' की रटन करता है। जिस प्रकार प्रिय मेघ को बुला लाने के लिए वह पिउ-पिउ रटता है, उस प्रकार मेरा जीव रूपी पपीहा अपने शुद्धात्मरूप स्वामी को घर लाने के लिए 'पिउ-पिउ' की रटन करता है। जिस प्रकार पपीहा को मेघ के साथ प्रेम है, उस प्रकार मेरा जीव रूप पपीहा आत्मा रूपी मेघ से मिलने के लिए सदा उसका स्मरण करता रहता है और प्रात्मा रूपी मेघ के मिलने पर वह पूर्ण आनन्द को धारण करता है। मैं नित्य जाप जपता हूँ। परन्तु मेरे आत्मस्वामी से अभी तक मेरा मिलाप नहीं हुआ.। मैं क्या करूँ ? पपीहा मेरे प्राण पीने के लिए ही 'पिउ-पिउ' करता है और वह मेरे जीवन-धन को ला नहीं सकता ।। १ ।। ___ समता कहती है कि हे अनुभव ! प्रियतम के बिना मैं रात-दिन दुःखी रहती हैं। मैं अपनी समस्त सुध-बुध खोकर इधर-उधर भटक रही हूँ। मैं किसके समक्ष रुदन करके अपनी दशा व्यक्त करूं? मेरे तन-मन की वेदना कौन समझ सकता है ? हे अनुभव ! तू मेरी दशा अच्छी तरह समझता है। मैं तेरे समक्ष अपनी वेदना व्यक्त इसलिए कर रही हूँ कि तू मुझे अपने प्रियतम से मिला सकता है। तू मेरी व्यथा का अच्छी तरह अनुभव कर सकता है। तू मेरा पूर्ण विश्वास-पात्र है, अतः कुछ भी करके तू मेरे आत्म-स्वामी से मेरा साक्षात्कार करा। हे अनुभव ! . मुझ दुःखियारी का अब तू ही दुःख दूर कर सकता है।॥ २ ॥ हे अनुभव ! अंधेरी रात्रि में तारे ऐसे चमक रहे हैं मानों रात्रि अपने दाँत दिखाकर मेरी हँसी उड़ा रही है, इसे भी मैं सहन कर रही हूँ। मैंने विरह-व्यथा से रो-रोकर आँसुत्रों की धारा बहाकर भादौं माह का-सा कीचड़ कर दिया है, फिर भी मेरे प्रियतम को (प्रात्मस्वामी को) मुझ पर तनिक भी दया नहीं आई। हे अनुभव ! तू अच्छी तरह जानता है कि पति-वियोगिनी नारी का हृदय दुःखसागर में डूबा हुआ होता है। अतः तू मेरे प्रियतम से मेरा मिलाप करा। समता परमात्म स्वामी से मिलने के लिए सदा पातुर रहती है। उत्कृष्ट Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६२ समता से दो घड़ी में परमात्म स्वामी का तेरहवें गुणस्थानक में मिलाप होता है। अनुभव मित्र को पाकर समता उपर्युक्त उद्गार प्रकट करती है ॥३॥ हे अनुभव ! मेरी चित्त रूपी चक्की चारों ओर घूम रही है जिसने मेरे प्राणों को पीसकर मैदा (बारीक पाटा) बना दिया है। अतः हे प्रियतम ! हे प्रभो ! मुझ अबला से इतनी जबरदस्ती मत करो। इस प्रकार मैं अपने प्रियतम को 'पिउ-पिउ' शब्दों के द्वारा चातक के समान पुकारती हूँ। मैं मन, वाणी और देह से अपने स्वामी को रिझाने का भरसक प्रयत्न करती हूँ। हे स्वामी! कृपा करके अब तो आप मेरे घर पधारो और मुझे अपने दर्शन दो। अब तो मुझे एक आप ही का आधार है। आपके दर्शन के बिना एक पल भी एक करोड़ वर्ष जितना प्रतीत होता है। हे चेतन! अब तो आप प्रत्यक्ष होकर मुझे दर्शन दो ॥ ४॥ समता को अत्यन्त उदास देखकर अनुभव उसे आश्वासन देता है कि हे समता! तनिक मेरी बात सुन और धैर्य रख। इस तरह व्यथित होकर घबराने में बुद्धिमानी नहीं है। शीघ्रता करने से कार्य नहीं बनता। आतुरता में विवेक नहीं रहता। इस पर समता बोली कि हे अनुभव ! तुम मेरे चेतन स्वामी से मेरा मिलाप कराम्रो। तुम ज्ञानी हो। मैं तुम्हें अधिक क्या कहूँ ? अनुभव ने उसे आश्वस्त किया कि तू चिन्ता मत कर। आनन्दघन प्रभु घर आकर शीघ्र ही तुझसे मिलेंगे। तू उनसे मिलकर केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूपी दो चक्षुत्रों से उन्हें निहार कर सहजानन्दमय बन जाएगी और किसी प्रकार की वेदना नहीं रहेगी॥५॥ (२०) (राग गौड़ी) देखौ आली नटनागर के सांग । और ही और रंग खेलत ताते, फीकी लागत मांग ॥देखौ०॥१॥ उरहानो कहा दीजे बहुत करि, जीवत है इहि ढांग । मोहि और विच अन्तर एतो, जेतो रूपे रांग ।।देखौ०॥२॥ तन सुधि खोइ घूमत मन ऐसे, मानु कछु खाई भांग । एते पर प्रानन्दघन नावत, कहा और दीजै बांग ।।देखौ०।।३।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-६३ अर्थ- समता अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि 'हे सखि ! मेरे स्वामी चेतन की वेश-भूषा तो देखो। वह चतुर नट और ही और विभावदशा में रम रहा है। वह पल-पल अशुद्ध परिणति के योग से विभिन्न रंग खेलता है जिससे उसकी इच्छाएं फीकी प्रतीत होती हैं। वह प्रात्म स्वामी क्षण-क्षण में नई-नई इच्छाएँ करता है। कभी वह स्पर्शेन्द्रिय के सुख भोगने की इच्छा करता है, कभी विविध पकवान खाने की इच्छा करता है, कभी विभिन्न प्रकार के नाटक देखने की इच्छा से भाँति-भाँति की प्रवृत्ति करता है, कभी चिन्ता करता है, कभी हास्य करने लगता है और कभी दीनता प्रदर्शित करता है। कभी वह अनेक प्रकार के छलों में तन्मय हो जाता है, जिससे वह अपने स्वरूप में शुद्ध प्रतीत नहीं होता ॥१॥ यह मेरा स्वामी सब का स्वामी होकर भी इच्छाओं का दास बना हुआ है। मैं इसे बार-बार क्या उपालम्भ हूँ ? कहाँ तक मैं इसे सावधान करूं ? वह इसी ढंग से अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। इसकी तो ढेरों इच्छाएं हैं। वे भला कैसे पूर्ण हो सकती हैं ? इस कारण ही तो मैं कह रही हूँ कि मेरे और माया के मध्य इतना अन्तर है जितना चांदी और रांगा में है ।।२।। ... मुझे किसी सांसारिक भोग की इच्छा नहीं है। मैं तो चेतन को बिना किसी प्रकार की कामना के निज स्थान की ओर ले जाने वाली हूँ, किन्तु चेतन तो माया के लिए देह की सुध-बुध खोकर घूमता है मानों भंग के नशे में फिर रहा हो । जीवात्मा ने अनादि काल से मोह रूपी भंग पी हुई है जिसके कारण वह संसार में भटक रहा है। मेरे बार-बार समझाने पर भी वह नटनागर चेतन अपने स्वभाव में नहीं पाता। इसे जाग्रत करने के लिए किस प्रकार बाँग दी जाये ? इसे सचेत कैसे किया जाये? क्षण-क्षण में चिन्ता, शोक आदि के विचारों से मस्तिष्क घूमता है जिससे मुझे यह भी नहीं सूझता कि मैं कहाँ हैं? क्या कर रही हैं और मुझे क्या करना चाहिए ? चिन्ता चिता की तरह मेरा अन्तरंग जलाकर राख कर रही है। मैं तो शुद्ध चेतन-स्वामी को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हूँ। मैं अपने तन-मन की सुधि भी खो चुकी हैं, फिर भी यदि मेरे आत्म-स्वामी मेरे घर न आयें तो मैं क्या करूं ? श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि अब तो सम्बन्ध की पराकाष्ठा हो गई है। इसे अब और अधिक सचेत कैसे किया जाये ? ॥३॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६४ (२१) .. (राग-सोरठ) मुने मिलावो रे कोई कंचन वरणो नाह। अंजन रेख न आँखड़ी भावे, मंजन सिर पड़ो दाह ॥मुने०॥१॥ कौन सेन जाने पर मन की, वेदन विरह अथाह । थर-थर देहड़ी धूजे म्हारी, जिम बानर भरमाह ।।मुने०॥२॥ देह न गेह न नेह न, रेह न, भावे न दूहा गाह। .. प्रानन्दघन वाल्हो बाँहड़ी साहबा, निस दिन धरूँ उमाह ।। मुने०॥३॥ अर्थ-अपने स्वामी (चेतन) के विरह से व्याकुल सुमति कहती है कि कञ्चन के समान वर्ण वाले मेरे स्वामी से कोई मेरा हितैषी मुझे मिला दे, मैं उसका अत्यन्त आभार मानूगी। प्रज्वलित अग्नि में यदि कञ्चन डाला जाये तो वह वैसा ही रहता है। आत्मा की भी वैसी स्थिति है। तीनों कालों में भी आत्म-द्रव्य का नाश नहीं होता। प्रात्मा कञ्चन के समान निर्मल है। स्वामी के विरह के कारण मुझे अपने नेत्रों में काजल की रेखा नहीं सुहाती। अाँसुत्रों के कारण काजल अाँखों में रहता ही नहीं है। स्नान के सिर पर तो माग लगे। वह जलन उत्पन्न करता है ॥१॥ ___ सुमति कहती है कि विरह की वेदना अगाध होती है। मेरे शुद्ध चेतन-स्वामी के विरह से मुझे अगाध वेदना होती है। स्वामी के विरह की उस वेदना को मैं ही जान सकती हूँ। पर मन का आशय कोई अन्य भला कैसे जान सकता है ? कोई भुक्त-भोगी ही दूसरे के अन्तर की व्यथा समझ सकता है। आत्म-स्वामी के प्रेम के कारण सचमुच मेरे मन की विचित्र स्थिति हो गई है। जिस प्रकार कोई बन्दर भ्रमित हुआ हो और बन्दरों के झुण्ड से अलग पड़ गया हो, वह थर-थर काँपता है, उस प्रकार मेरी देह अपने आत्म-स्वामी के विरह में उनका स्मरण कर-करके थर-थर काँपती है। अतः कोई उपकारी सन्त मेरे स्वामी से मेरा मिलाप करा दे। मैं इस उपकार को कदापि नहीं भूलूगी ॥२॥ सुमति (समता) कहती है कि अपने स्वामी का मिलाप हुए बिना मुझे देह प्रिय नहीं लगती। स्वामी के बिना घर में रहना भी मुझे अच्छा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-६५ नहीं लगता। स्वामी के विरह में मुझे घर भी श्मशान के समान चिन्तित करता है। मुझे स्नेही-जन भी प्रिय नहीं लगते। मेरे स्वामी के बिना किसी अन्य वस्तु की शोभा भी मुझे रुचिकर प्रतीत नहीं होती। अपने स्वामी के बिना मुझे दोहे एवं गाथाओं का गान भी अच्छा नहीं लगता। श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि अानन्द के समूहभूत मेरे आत्मस्वामी प्राण-प्रिय प्रभु मेरा हाथ पकड़ लें, सम्हाल लें तो मेरी समस्त व्यथा नष्ट हो जाये और मेरे रात-दिन उत्साह एवं प्रानन्द पूर्वक व्यतीत हों और मन में अत्यन्त उल्लास बना रहे ॥३॥ __ ( २२ ) (राग-सोरठ) मोने माहरा माघविया ने मिलवानो कोड । मोने माहरा नाहलिया ने मिलवानो कोड । हुँ राखू माडी कोई बीजो मोने विलगो झोड ।। मोने० ।। १ ।। मोहनीया नाहलिया पाखे माहरे, जग सवि ऊजडजोड । मीठा बोला मनगमता नाहज विण, तन-मन थाये चोड़ ।। मोने० ॥ २ ॥ कांई ढोलियो खाट पछेड़ी तलाई, भावे न रेसम सोड़ । अवर सबे म्हारे भला भलेरा, म्हारे प्रानन्दघन सिर मोड़ । मोने० ।। ३ ।। अर्थ-सम्यगमतिरूप माता को अनुभव-ज्ञान परिणति कहती है कि मुझे अपने स्वामी से मिलने की अत्यन्त चाह है। मुझे उनसे मिलने की उत्कट अभिलाषा है परन्तु मुझे कोई अन्य भूत के समान लग गया है। मोह भूत के समान है। अनुभव-ज्ञान परिणति को मोह का संग तनिक भी अच्छा नहीं लगता। अखिल संसार मोह की चेष्टाओं में फंसा हुआ है। मोह के कारण ही हमारे भीतर कुविचार उत्पन्न होते हैं। पाठान्तर से भाव है कि मैंने अपने द्वार पर लिख रखा है कि कोई भी दूसरा झंझट डालने वाला मुझसे दूर रहे अर्थात् आत्मस्वरूप के अतिरिक्त मैं अन्य बातों से दूर हूँ। अन्य समस्त बातें मुझे झंझटयुक्त प्रतीत होती हैं। अतः विभाव की बातें करने वाले मुझसे अलग रहें ॥१॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ६६ अनुभव ज्ञानपरिणति को मोह का सम्बन्ध तनिक भी प्रिय नहीं लगता । अतः वह कहती है कि मन को प्राकर्षित करने वाले मेरे आत्मस्वामी के अतिरिक्त मुझे यह जगत् सुनसान प्रतीत होता है । मेरे श्रात्म-स्वामी मधुरभाषी हैं । वे अनुभव रूप अमृतमय वचनों के द्वारा मुझे शान्त कर देते हैं । उनके वचन शुद्ध स्वभाव प्रकट करने वाले हैं । मधुरभाषी मन-भावन ( चेतन) के बिना मेरे तन-मन को चोट लगती है, मेरे तन-मन में वेदना होती है ।। २ ।। शुद्ध प्रेम के अधिकारी आत्मस्वामी के स्वरूप में ही मेरा मन रम रहा है। अब मुझे पलंग, खाट, पछेवड़ी, शय्या तथा रेशम की सोड़ आदि उपभोग सामग्री अच्छी नहीं लगती । संसार में अन्य सभी चाहे उत्तम प्रतीत होते हों, परन्तु प्रानन्दघन चेतन ही मेरे लिए तो सिरमौर हैं । वे आनन्दघनभूत आत्म-स्वामी ही मेरे सिर के मुकुट हैं । आत्म-स्वामी के बिना मेरे लिए अन्य कुछ भी महत्त्व का नहीं है । वे आत्म-स्वामी ही मेरे लिए शरण हैं । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि अनुभव - ज्ञान परिणति होने पर श्रात्मा की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ उद्गार ही निकलते हैं ॥ ३ ॥ ( २३ ) (राग - कान्हरो ) दरसन प्रान जीवन मोहि दीजे । बिन दरसन मोहि कल न परत है, तलफि- तलफि तन छीजे || . दर० ।। १ ।। क्यू ं जीजे । आप पतीजे ।। दर० ।। २ ।। कहा कहूँ कछु कहत न प्रावत, बिन सइयां सोहु खाइ सखि काहु मनावो, आप ही मिल देउर देराणी सास जिठानी, युंही सबै श्रानन्दघन बिन प्रारण न रहे छिन, कोरि जतन जो खीजे । कीजे ॥ दर० ।। ३ ।। अर्थ - समता अपने आत्म-स्वामी को निवेदन कर रही है कि 'हे मेरे प्राण- जीवन ! प्राप मुझे दर्शन दीजिये । श्रापके दर्शन के बिना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ६७ मुझे तनिक भी चंन नहीं पड़ता, मुझे तनिक भी अच्छा नहीं लगता । जिस प्रकार मछली जल के बिना तड़पती है, उसकी देह जलती है, उसी प्रकार हे स्वामी ! हे मेरे जीवन-धन ! आपके दर्शन के बिना मेरा जी तड़पता है और मेरी देह में अग्नि उठ रही है । विरहानल के कारण मेरी देह जल रही है । आपके दर्शन ही मेरा ताप दूर कर सकते हैं ।। १ ।। प्राणनाथ के बिना स्त्री कंसे जी सकती है - यह बात मैं किसको कहूँ ? मैं तो समभाव में रहने वाली हूँ । मैं तो बात कहने का ढंग भी नहीं जानती । हे सखि श्रद्धा ! अब मैं सौगन्ध खाकर किसे मनाऊँ ? वे मेरे चेतन स्वामी मेरे पास कभी आते ही नहीं । मैं पहले अनेक बार सौगन्ध खाकर कह चुकी हूँ कि आपके बिना मेरा जीवन दूभर है, परन्तु मेरी बात पर उन्हें विश्वास ही नहीं होता । उन्हें तो स्वयं पर ही विश्वास होतां प्रतीत होता है ॥ २ ॥ समता की यह दशा देख कर मैत्री भावना रूपी सास, वैराग्य रूपी देवर, सरलता रूपी देवरानी और प्रमोद भावना रूपी जेठानी सब उसे समझाती हैं, परन्तु समझाने का कोई प्रभाव न देखकर क्रोधित भी होती हैं । इनका क्रोध करना निरर्थक है । ये लोग चाहे करोड़ों उपाय करें, फिर भी मेरे प्राण तो स्वामीनाथ श्रानन्दघन के बिना क्षरणभर के लिए भी नहीं रह सकते हे सखी श्रद्धा ! अब तो वियोग के दुःख की पराकाष्ठा आ गई है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि अपने स्वामी के दर्शन में तन्मय बनी समता सचमुच आत्मा को प्राप्त कर सकती है ।। ३ ॥ । विशेष - श्रीमद् ने यहाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात कही है । उनकी चेतना शक्ति आत्म-दर्शन के लिए अत्यन्त व्याकुल है । वे मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओं में तन्मय रहते हैं । उन्होंने भाँति-भाँति की समस्याओं में अपनी देह सुखा डाली है । वे संसार से विरक्त हैं । रात-दिन अनेक उपाय करने पर भी उनका चैतन्यदेव से साक्षात्कार नहीं होता । पर योगिराज प्ररण करते हैं कि चाहे प्रारण रहें अथवा न रहें, मुझे निरंजनदेव से साक्षात्कार करना ही है । इस श्रीमद् श्रानन्दघनजी योगिराज ने उपर्युक्त पद में यह महान् तत्त्व व्यक्त किया है कि - "त्याग, वैराग्य तथा मैत्री एवं प्रमोद आदि भावनाएँ आत्म-दर्शन के साधन तो हैं, परन्तु इनमें ही अटक जाने वाला व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार नहीं कर सकता।" Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६८ ( २४ ) ( राग - कान्हरी) पिया तुम निठुर भये क्यूं ऐसे ? मैं तो मन, वच, क्रम करी राऊरी, राऊरी रीत अनेसे ॥ पिया० ।। १ ।। फूल - फूल भँवर की सी भांउरी भरत हो, निवहै प्रीत क्यूं ऐसे ? मैं तो पिय ते ऐसी मिली प्राली, कुसुमवास संग जैसे ॥ पिया० ।। २ ।। अठी जात कहा पर एती, नीर निबहिये भैंसे । गुन प्रौगुन न विचारो श्रानन्दघन, कीजिये तुम हो तैसे ।। पिया० ।। ३ ।। अर्थ- सुमति अपनी सखी श्रद्धा को साथ रखकर अपने प्रात्मस्वामी को उपालम्भ देती हुई उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हुए कहती है कि हे स्वामिन्! आप इतने निष्ठुर क्यों हो गये जो मेरी ओर दृष्टि तक नहीं करते । आप मेरी खबर भी क्यों नहीं लेते ? मैं तो मन, वचन और काया से आपकी ही हूँ । सदा श्रापके स्वभाव के अनुसार ही मैं तो चलने वाली हूँ, परन्तु आपकी रीति अन्य प्रकार की ही है । मैं आपकी प्राप्ति के लिए चार समितियों और तीन गुप्तियों को धारण करती हूँ, पाँच महाव्रतों का पालन करती हूँ और मन में मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ्य और कारुण्य - इन चार भावनानों को भाती हूँ । हे स्वामिन्! मैं मन में प्रति पल आपका स्मरण करती हूँ । मेरे मन में आप ही श्राप हैं । आपके बिना अन्य राग-द्वेष आदि को मैं प्रविष्ट नहीं होने देती । मेरी वाणी पर भी आपकी ही रटन है । इतना सब करने पर भी हे स्वामी ! आप दया करके मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? क्या अब भी मुझमें आपकी सेवा करने में कोई कमी है ? मैंने अपना सर्वस्व आपके चरणों में अर्पित कर दिया है। अतः अब तो आप मुझ पर कृपा करके मुझे दर्शन दें ।। १ ।। जिस प्रकार भौंरा एक पुष्प से दूसरे पर और फिर तीसरे पुष्प पर चारों ओर चक्कर काटता है, उसी प्रकार हे चेतन ! श्राप ममता के वश में होकर चारों ओर भटक रहे हैं । इस प्रकार प्रेम कैसे निभ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ६६ सकता है ? जब आप पर भाव में रम रहे हो तो फिर मुझसे प्रेम कैसे कर सकते हो ? तत्पश्चात् सुमति श्रद्धा की ओर देखकर कह रही है कि हे सखि ! मैं तो अपने स्वामी के साथ इस प्रकार एकात्म हो रही हूँ, जिस प्रकार पुष्प में सुगन्ध बसी रहती है । पुष्प एवं उसकी सुगन्ध भिन्न-भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार मैं भी अपने स्वामी के साथ तल्लीन बनी हुई हूँ । मैं अपने स्वामी के प्रत्येक गुरण का स्थिर उपयोग से स्मरण करती हूँ । मैं अपने स्वामी के गुणों में ऐसी तन्मय हो गई हूँ कि पलभर के लिए भी बाह्य में ध्यान देना मुझे रुचिकर नहीं प्रतीत होता । मेरा अपने स्वामी के प्रति पूर्ण प्रेम है ।। २ ।। सुमति की बात सुनकर श्रद्धा कहती है कि पुष्प जो सम्बन्ध है वह तो चेतना का है । तू अहंकार क्यों यदि न हो तो क्या भैंसे पर पानी नहीं ढोया जाता ? हे सुमते ! तेरा तथा चेतन का सम्बन्ध उपशान्तमोह ग्यारहवें गुणस्थानक तक ही है । यथाख्यात चारित्र तक तेरी गति नहीं है जो बारहवें, तेरहवें गुणस्थानों में होता है । वहाँ तो चेतना का ही साथ है । इस पर सुमति कहती है कि हे चेतन ! मैं आगे गुणस्थानों में नहीं पहुँचा सकती - इस अवगुण का और चेतना अन्त तक पहुँचा सकती है- इस गुरण का विचार न करके आप मुझे अपने समान बना लीजिये ।। ३ ॥ और सुगन्ध का करती है ? बैल श्री ज्ञानसारजी महाराज ने अपने टब्बे में उपर्युक्त पद का निम्नलिखित अर्थ किया है सुमति आत्म-स्वामी को मनाने की इच्छा से कहती है कि 'हे स्वामी ! आप इतने कठोरहृदय क्यों हो गये ? मैंने तो मन, वचन और काया से आप ही की रीति ग्रहरण की है, फिर भी आप इतने निष्ठुर क्यों हो ? ।। १ ।। जिस प्रकार हर्षित भौंरा पुष्पों पर बार-बार घूमता है, उसी प्रकार मैं घूम रही हूँ, परन्तु आपके मन में मेरी कोई गिनती नहीं है । जब गिनती नहीं है तो प्रेम कैसे निभ सकता है ? इस पर श्रद्धा ने सुमति को कहा कि तुमने अपने स्वामी के साथ भेद रखा होगा, तब तुम्हारे स्वामी निष्ठुर बने होंगे । सुमति ने श्रद्धा को कहा, 'हे सखि ! मैं तो पुष्प एवं सुगन्ध की तरह अपने स्वामी के साथ तन्मय हूँ, किन्तु पता नहीं स्वामी किस कारण से निष्ठुर हैं ? ।। २ ।। 1 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७० सुमति ने पुनः कहा-हे सखि श्रद्धा! मैं तो प्रत्येक बात सीख की कहती हैं, परन्तु वे ऐंठते हैं, उसे अवगुण मानते हैं। इसका क्या कारण है ? परवाल भरके पानी लाने के लिए बैल का उपयोग होता है, परन्तु यदि बैल न हो तो वह काम भैंसे (पाड़े) से ही निभाना पड़ता है अर्थात् शुद्ध चेतना रूपी बैल के अभाव में मुझ सुमति रूपी भैंसे से ही निर्वाह करना चाहिए। उस समय गुण-अवगुण का विचार नहीं करना चाहिए। मुझसे दसवें गुणस्थान से ऊपर नहीं चढ़ा जाता। मेरे इस अवगुण का तथा शुद्ध चेतना बारहवें, तेरहवें तथा चौदहवें गुरणस्थान तक चढ़े, इस गुरण का विचार न करके हे प्रानन्द के समूह आत्माराम ! आप प्रानन्दघन हो। इस प्रकार मुझे भी आप अपने चेतन स्वभाव में मिला लीजिये ॥३॥ _ (२५) ( राग-वसन्त ) प्यारे लालन बिन मेरो कोण हाल ? समझे न घट की निठुर लाल ।। प्यारे ॥१॥ वीर विवेक तु मांझी माहि, कहा पेट दाई आगे छिपाहि ॥ प्यारे० ॥२॥ तुम्ह भावे सो कीजे वीर, मोहि प्रान मिलावो ललित धीर ॥ ___ प्यारे० ॥३॥ अंचर-पकरे न जात प्राध, मन चंचलता मिटे समाधि ।। .. प्यारे० ॥४॥ जाइ विवेक विचार कीन, आनन्दघन कीने अधीन ।। . प्यारे० ॥५॥ अर्थ-सुमति कहती है कि प्रिय स्वामी के बिना मेरा क्या हाल हो रहा है ? वे ऐसे निष्ठुर हो गये हैं कि वे मेरे अन्तर की वेदना को समझते ही नहीं हैं ॥१॥ हे भाई विवेक ! तू ही मेरा खिवैया है, मेरी नाव को पार लगाने वाला है। मेरे हृदय में जो है, वह तू सब कुछ जानता है। तुझ से क्या छिपाया जाये ? दाई के समक्ष पेट छिपाया जाता है क्या ? २॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-७१ हे भाई विवेक ! अब तुझे जो उचित लगे वह कर, परन्तु किसी भी प्रकार मेरे मन-भावन स्वामी चेतन को मुझसे मिला दे। सुमति पतिव्रता है अतः वह ऐसा मर्मस्पर्शी भाषण करके विवेक को अपना दुःखद वृत्तान्त सुनाती है। पतिव्रता स्त्री पति का तिरस्कार पाने पर भी अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होती ।।३।। केवल अंचल पंकड़ने मात्र से ही मानसिक पीड़ा शान्त नहीं होती। धैर्यपूर्वक समता भाव में रहे बिना उद्धार नहीं है। जब तक चेतन यह बात नहीं समझता, तब तक यहाँ आने मात्र से कुछ कार्य नहीं बनेगा। मन की चंचलता मिटने पर ही समाधि अवस्था प्राप्त होगी। मेरे निवेदन करने से आत्म-स्वामी पर कोई प्रभाव नहीं होता जिससे मेरे मन में चिन्ता एवं चंचलता उत्पन्न होती है ।।४।। - विवेक ने चेतन के पास जाकर विचार-विमर्श किया, उसे समझाया और सुमति को प्रानन्दघन के अधीन कर दिया। इससे दोनों का वियोग दूर हुआ और सहज सुख का आविर्भाव हुआ ।।५।। विवेचन-उपर्युक्त पद का सारांश यह है कि सुमति के साथ प्रत्येक वस्तु का विवेक रखना चाहिए। सुमति से विवेक पाता है और विवेक से प्रात्मा उपादेय प्रतीत होती है। विवेकपूर्वक प्रात्म-तत्त्व में रात-दिन रमण करना चाहिए। सुमति को प्रात्म-तत्त्व प्राप्त कराने वाला विवेक है। मुनियों की संगति से जैनागमों का रहस्य ज्ञात होता है और उससे प्रात्मा की प्राप्ति होती है। ( २६ ) (राग-प्रासावरी) अनन्त अरूपी अविगत सासतोहो, वासतो वस्तु विचार । सहज विलासी हांसी नवि करे, अविनाशी अविकार ।। अनन्त० ॥१॥ ज्ञानावरणी पंच प्रकार नो, दरशन ना नव भेद । . वेदनी मोहनी दोइ दोइ जाणीइरे, आउखो चार विछेद ।। अनन्त० ॥२॥ दानावरही या प्रकार जोर दरवाजा वा रणबशेव । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- ७२ शुभ अशुभ दोउ नाउँ वखारणीये, ऊँच नीच दोय गोत । विघ्न पंचक निवारी आपथी, पंचमगति पति होत || अनन्त ० ||३|| जुग पद भावी गुण जगदीसना रे, एकत्रीस मति श्राणि । अवर अनन्ता परमागम थकी, अविरोधी गुरंग जारिण || अनन्त० ||४|| सुन्दर सरूपी सुभग सिरोमणी, सुणि मुझ प्रांतमराम । तनमय तल्लय तसु भजने करी, 'श्रानन्दघन' पद पाम ॥ अनन्त ० ||५|| अर्थ - योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि सिद्ध भगवान अनन्त हैं, रूपी हैं, इन्द्रियों द्वारा जाने नहीं जा सकते, इनके स्वरूप का पूर्णतः वर्णन नहीं किया जा सकता । वें शाश्वत हैं और सिद्धशिला पर निवास करते हैं । वे सम्पूर्ण वस्तुनों एवं उनके भावों के ज्ञाता हैं तथा सहज सुख में विलास करते हैं। वे कभी किसी से हँसी नहीं करते ... क्योंकि वे अविकारी एवं अविनाशी हैं । सिद्ध भगवान संग्रहनय की सत्ता की अपेक्षा एक हैं तथा व्यक्तिग्राहक व्यवहार-नय की अपेक्षा भिन्न-भिन्न हैं और अनन्त हैं । वे पुद्गल - द्रव्य से भिन्न हुए हैं श्रतः उन्हें रूपी कहा जाता है । उनके परिपूर्ण स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। लोक के अग्रभाग में वे सादि अनन्तवें भाग में रहते हैं । वह मुक्ति-स्थान शाश्वत है । वहाँ वे अनन्त सुख का उपभोग करते हैं । वे सहज-सुख में विलास करते हैं पौद्गलिक सुख कृत्रिम एवं क्षणिक है और सहज स्वभाव से होने वाला सुख अनन्त है जिसका नाश नहीं होता । कर्मरहित सिद्ध किसी की हँसी नहीं करते ।। १ ।। । मति श्रुत, अवधि, मनः पर्यव तथा केवल - इन पाँच प्रकार के " ज्ञान पर आवरण डालने वाले कर्म को ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं । दर्शनावरणीय के नौ भेद हैं । वेदनीयकर्म के साता प्रसाता दो प्रकार हैं । दर्शन - मोह और चारित्र मोह - ये मोहनीयकर्म के दो भेद हैं । आयुष्यकर्म चार प्रकार का है। नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । सिद्ध भगवान में इकत्तीस गुण हैं जिनमें से ज्ञानावरणीय के पाँच भेद टलने से पाँच प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है । दर्शनावरणीय Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-७३ के नौ भेद टलने से नौ गुरण उत्पन्न होते हैं। वेदनीय के दो भेद टलने से प्रात्मा अव्याबाध सुख प्राप्त करती है। मोहनीय के भेद दर्शनमोहनीय का नाश होने से क्षायिक सम्यक्त्व गुण उत्पन्न होता है और चारित्रमोहनीय के नाश से 'क्षायिक चारित्र' प्रकट होता है। प्रायुष्यकर्म की चार प्रकृतियों के नाश से 'सादि अनन्त स्थिति' प्राप्त होती है।॥ २॥ ___ नामकर्म के शुभ, अशुभ दो भेद हैं और गोत्रकर्म के उच्च गोत्र एवं नीच गोत्र दो भेद हैं। दान, भोग, उपभोग, लाभ तथा वीर्य में विघ्न डालने वाले पाँचों अन्तराय कर्मों को स्वयं से दूर करके, उन्हें हटा कर पंचमगति अर्थात् मोक्ष के स्वामी होते हैं। नामकर्म के नाश से मरूपी गुण उत्पन्न होता है। गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघु गुण उत्पन्न होता है ।। ३ ॥ . जगत् के स्वामी सिद्ध भगवान में एक ही समय में एक साथ इकत्तीस गुण होते हैं। सिद्ध भगवान में अन्य भी अनन्त अविरोधी गुण हैं जिन्हें परमागम से ज्ञात करना चाहिए ॥ ४ ॥ .: श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि हे मेरे प्रात्मन् ! हे सुन्दर एवं सूखद वस्तुमों के शिरोमणि ! सून । तू भी एकाग्र-चित्त से तन्मय होकर सिद्ध परमात्मा के गुणगान कर जिससे परमानन्द प्राप्त हो अर्थात् सिद्ध भगवान में तल्लीन होकर भजन कर ताकि परमानन्द-दायक परमपद की प्राप्ति हो ॥५॥ . (२७) (राग-टोड़ी) तेरी हूँ तेरी हूँ एती कहूँ री। इन वातन कू दरेग तू जाने, तो करवत कासी जाय गहूँ री ।। तेरी० ॥१॥ वेद पुराणा कतेब कुरान में, आगम-निगम कछु न लहूँ री।। चाचरी फोरी सिखाइ सबनिकी, मैं तेरे रस रंग रहूँ री । तेरी० ॥२॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७४ . मेरे तो तूं राजी चहिये, और के बोल मैं लाख सहूँ री। प्रानन्दघन प्रभु बेगि मिलो प्यारे, नहिं तो गंग तरंग बहूँरी ।। तेरी० ॥३॥ अर्थ–सुमति अपने आत्मपति को कहती है कि-हे चेतन ! तू यह निश्चय मान ले कि मैं तेरी ही है। यह बात मैं अनेक बार कह चुकी हूँ कि मैं तेरी हूँ, तेरी हूँ। अब मैं पुनः कहती हूँ कि मैं तेरी हूँ। यदि मेरी इस बात में तू कोई फर्क समझता हो तो मैं काशी जाकर करवत ले सकती हूँ। इस प्रकार कहकर सुमति अपने स्वामी के प्रति विश्वास व्यक्त करती है और कहती है कि प्रात्मन् मैं तेरी प्रियतमा हूँ। अतः अब तू मेरा पूर्ण विश्वास करके मेरी सीख के अनुसार चल ॥१॥ हे चेतन ! चारों वेदों, अठारह पुराणों, कुरान आदि किताबों में, जैनागमों में तथा उपनिषदों में तेरे वर्णन के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं पाती। इन सब में वचनचातुरी से गा-गाकर तेरी ही सेवा के सम्बन्ध में कहा गया है। शास्त्रों में तो तेरे स्वरूप का मार्गदर्शन है, परन्तु अनुभव-ज्ञान के बिना तेरे स्वरूप का निर्धारण नहीं हो सकता। अतः अब तो मैं तेरे स्वरूप के शुद्ध रस रंग में लीन होकर रहूंगी क्योंकि तेरे स्वरूप में मुझे आनन्द प्राप्त होता है ।। २ ।। __ श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सुमति अपने आत्म-स्वामी को कहती है कि मुझे तो केवल तेरी प्रसन्नता चाहिए। यदि तू मुझ पर प्रसन्न होगा तो फिर तो मैं लोगों के लाख-लाख ताने, मार्मिक शब्द एवं व्यंग्य सहन कर लूगी। यहाँ तक कि मैं उनके अपशब्द भी सहन कर लूगी। हे प्रिय आनन्दधन प्रभो! अब तेरा विरह मुझसे सहा नहीं जाता। अब तू शीघ्र आकर मुझसे मिल। अब भी इतना कहने पर भी, यदि तू मुझे नहीं मिला तो मैं गंगा के प्रवाह में बह जाऊंगी और अपने प्राणों का त्याग करूंगी। तेरी प्राप्ति के लिए मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूंगी ॥३॥ ( २८ ) ( राग-टोड़ी ) परम नरम मति और न भावे । मोहन गुन रोहन गति सोहन, मेरी बेर ऐसे निठुर-लखावै ॥ परम० ॥१॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-७५ चेतन गात मनात न एते, मूलवशात् जगात बढ़ावे । कोऊ न दूती दलाल बसीठी, पारखी पेम खरीद बणावे ।। परम० ॥२॥ जांघि उघारि अपनी कही एती, विरहजार निसि मोहि सतावै । एती सुन प्रानन्दघन नावत, और कहा कोऊ डूड बजावै ॥ परम० ।।३।। अर्थ-हे मनमोहन, गुणवान, सुन्दर गति वाले चेतन ! जब सांसारिक भोगों का प्रसंग पाता है तब आप अत्यन्त नम्रतापूर्वक उन सब में रुचि लेते हो और मेरी बार-सम, दम, सन्तोष, समता आदि के समय प्राप ऐसे निष्ठुर हो जाते हो जैसे मुझसे आपका कोई सम्बन्ध ही नहीं हो। चेतना मानती है कि चेतन को भ्रमित करने वाली कुमति ही है, जिसके कारण वे गुणवान होते हुए भी मेरे पास आ नहीं सकते ॥ १॥ सुमति श्रद्धा को कहती है कि हे सखि ! मैं चेतनदेव से बार-बार निवेदन करती हूँ, गा-गाकर उन्हें रिझाने का प्रयत्न करती हूँ तो भी मनाने पर भी वे नहीं मानते। अब मैं क्या करूं? यह तो मूल वस्तु के मूल्य की अपेक्षा कर का मूल्य बढ़ने जैसी बात हो गई। अब न तो कोई ऐसी दूती है, न दलाल है और न ऐसा कोई सन्देशवाहक हरकारा है जो उन्हें समझा कर परीक्षापूर्वक प्रेम का सौदा करा सके। मुझे कोई ऐसी दूती चाहिए जो चेतन स्वामी को मेरे विशुद्ध प्रेम का विश्वास दिला सके ।। २ ।। सुमति अपनी सखो श्रद्धा को कह रही है कि अपने चेतन स्वामी के सम्बन्ध में दूतो को सम्पूर्ण वृत्तान्त समझाना अपनी जाँघ नंगी करके दिखाने के समान है। अपनी दुःख की कथा जहाँ-तहाँ कहना अनुचित प्रतीत होता है, परन्तु लज्जा त्याग कर अपनी जाँघ खुली करके अपनी कथा इस कारण कह रही हूँ कि मुझे विरहाग्नि की ज्वाला रात भर सताती रहती है। प्रानन्दघनजी महाराज कहते हैं कि सुमति ने श्रद्धा को कहा कि इतना सुनकर भी यदि चेतन मेरे पास नहीं आये तो क्या मैं ढिंढोरा पिटवाऊँ ? मैं तो इतना भी नहीं चाहती कि मेरे प्रात्म-स्वामी चेतन के दोष अन्य मनुष्य जान पायें। मैं क्या करूं? मेरे असंख्यात प्रदेश रूप घर में स्वामी आते नहीं और उनकी बात अन्य के समक्ष कहने Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७६ में अपनी ही जाँघ खुली करनी पड़ती है। अब मैं क्या करू? कहाँ जाऊँ ? अपनी व्यथा-कथा किसके समक्ष कहूँ ? हे सखी श्रद्धा ! मेरे चेतन स्वामी के घर नहीं आने के कारण विरह रूपी जार-पुरुष रात्रि के समय मेरे मन को सन्तप्त करता है। कोई भी व्यक्ति मेरा अपने स्वामी के साथ मेल-मिलाप नहीं कराता ।। ३ ।। ( २६ ) (राग-टोड़ी) ठगोरी, भगोरी, लगोरी, जगोरी। ममता माया आतम ले मति, अनुभव मेरी ओर दगोरी ।।१।। भ्रात न मात न तात न गात न जात न, बात न लागत गोरी। मेरे सब दिन दरसन परसन, तान सुधारस पान पगोरी ।।२।। प्राननाथ बिछुरे की वेदन, पार न पावू पार्दू थगोरी। आनन्दघन प्रभु दरसन औघट, घाट उतारन नावमगोरी ।।३।। अर्थ - प्रात्मा के पीछे अनादिकाल से लगे, ज्ञान आदि ऋद्धियों को चुराने वाले, हे माया, ममता आदि ठगो! अब तुम भाग जानो। तुम सब दूर हट जानो। अब तुम्हारा यहाँ कोई जोर चलने वाला नहीं है। अब मेरे आत्म-स्वामी जाग्रत हो गये हैं। इतने समय तक तो आतमराम अचेत से होकर माया एवं ममता का साथ देते रहे, परन्तु अब वे जाग्रत हो चुके हैं। अब हे ठगो! हे धूर्तो ! अब तुम उन्हें अधिक धोखा नहीं दे सकोगे। मेरे चेतन-स्वामी अनन्त शक्ति के धाम हैं, सिद्ध परमात्मा के बन्धु हैं। हे ठगो ! अब वे तुम्हारा समूल नाश करेंगे। अतः तुम अब भाग जायो। अब तुम्हारी दाल यहाँ पर गलने वाली नहीं है। हे ठगो ! तुम्हारी शिक्षा से मेरे चेतन-स्वामी अब तक मेरे तथा अनुभव के साथ धोखा करते आये हैं, किन्तु अब मैं तुम्हारे प्रपंच जान गई हूँ ॥ १ ॥ सुमति कहती है कि अब तो मुझे भ्रात, तात, माता, जाति तथा अपनी देह की भी बात करना अच्छा नहीं लगता। अब तो . रात-दिन मुझे अपने चेतन-स्वामी के दर्शन एवं उनके स्पर्श की धुन लगी रहती है । अब तो मैं उनके स्वरूप में लीन हो गई हैं। अब तो मुझे उनके दर्शन एवं स्पर्श की ही लगन लगी है। अब संसार की किसी भी वस्तु में मेरा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-७७ मन नहीं लगता। जब मैं अपने प्रात्म-स्वामी के गुणों का विचार करती हूँ तब आनन्दमय हो जाती हूँ। जब उनके गुणों का विचार करतेकरते ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता के रूप में एक-तान हो जाती हूँ तब मैं प्रानन्द रूप अमृत-रस का पान करती हूँ और उस समय अनुभव दशा के योग से मैं अपनी अपूर्व स्थिति का अनुभव करती हूँ। उस समय मैं जगत् को भी भूल जाती हूँ और स्थिरोपयोग में प्राधि, व्याधि एवं उपाधि के दुःख भी नहीं रहते। आत्मा और मेरी एकता होने पर अनेक कर्मों के प्रावरण छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और अपूर्व दर्शन उत्पन्न होते हैं। मुझे तो उसी अनुभव-अमृत रस के पान में मग्न रहना है ।। २ ।। सुमति कहती है कि प्रियतम के विरह की वेदना का कोई पार नहीं है क्योंकि विरह की वेदना रूपी सागर का कोई किनारा नहीं दीखता। उसकी अगाध गहराई का भी पता नहीं लग रहा। अतः हे प्रात्मन् ! शीघ्र मुझे दर्शन दो। योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि सुमति कह रही है कि हे आत्मन् ! आप प्रत्यक्ष दर्शन दें। उस विरह रूपी वेदना के सागर को पार करने के लिए मैं जिनागमरूपी नौका की याचना करती हूँ। आप मेरी याचना स्वीकार करें। अर्थात् सतत नाम-स्मरण की योग्यता प्राप्त हो ताकि सदैव गुण-स्मरण होता रहे ॥ ३ ॥ ( ३० ) - (राग-मालवी गौड़ी [काफी]) वारी हूँ बोलड़े मीठड़े। तुझ वाजू मुझ ना सरे, सुरिजन, लागत और अनीठड़े ।। वारी० ।। १ ।। मेरे जिय कु कल न परत है, बिन तेरे मुख दीठड़े । पेम पियाला पीवत-पीवत, लालन सब दिन नीठड़े ।। वारी० ॥ २ ॥ पूछू कौन कहाँ धु ढूढू, किसकूँ भेजू चीठड़े । आनन्दघन प्रभु सेजड़ी पावू, भागे आन बसीठड़े ।। वारी० ॥ ३॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-७८ " अर्थ-सुमति अपने स्वामी चेतन को कहती है कि हे चेतन ! मैं आपके मधुर वचनों पर वारी जाती हूँ। हे ज्ञान-धन ! आपके भीतर अनन्त गुना ज्ञान भरा है अतः आपकी वाणी मधुर प्रतीत होती है। हे प्रात्म-स्वामी! आपका शुद्ध स्वरूप जानने के पश्चात् आपको प्राप्त किये बिना मुझे चैन नहीं पड़ता। हे शूर-जन ! हे स्वजन! आपकी पूर्ण प्राप्ति के बिना मेरा कोई भी इष्ट कार्य होने वाला नहीं है। आपकी संगति से मुझे सहज प्रानन्द होता है और आपके अभाव में रागद्वष प्रादि बुरे लगते हैं। आपके वीतराग भाव के अतिरिक्त अन्य राग आदि भाव मुझे अनिष्ट-कारक प्रतीत होते हैं। राग-द्वष से किसी को कदापि आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। समता में विलक्षण शक्ति है। दो घड़ी में वह केवलज्ञान प्राप्त करा सकती है। प्रात्म-ज्ञान प्राप्त करके मस्तिष्क को सन्तुलित रखना चाहिए। समता चेतन की राग-द्वेष रहित शुद्ध परिणति है जो आत्मा के असंख्यात प्रदेश रूपी अंगों में व्याप्त रहती है। यह अपना स्वभाव प्रकट करके अनन्त आनन्द की अनुभूति कराती है। इसके समान उत्तम कोई चारित्र अथवा चारित्र की क्रिया नहीं है। धर्म की प्रत्येक क्रिया में समता-भाव रखने की विशेष आवश्यकता है। जो लोग विवेक सहित समता-भाव रख कर व्यावहारिक कार्य करते हैं, वे अपने आत्मा को उच्च मार्ग पर ले जाते हैं। समता रखने वाला व्यक्ति मानसिक दुःख को जीत सकता है। अतः आत्मा की शुद्ध परिणति रूप समता धारण करनी चाहिए। इस प्रकार की समता अपने प्रात्म-स्वामी को मिलने के लिए अत्यन्त उत्सुक है ॥ १॥ . सुमति कहती है कि हे प्रात्म-स्वामी! अापका मह देखे बिना मेरे मन को तनिक भी चैन नहीं पड़ता, तनिक भी शान्ति नहीं मिलती। आपका मुंह देखने पर ही मेरे मन को शान्ति मिलेगी। मैंने आपके प्रेम के प्याले पी-पीकर इतने दिन व्यतीत किये हैं. और अब भी विरह के ये दिन आपके प्रेम से ही व्यतीत हो रहे हैं। आपके प्रेम से ही मैं जीवित रही हूँ। हे लालन ! हे प्रिय पात्मन ! आपके प्रेम की प्राशा में ही मेरे दिन व्यतीत हुए हैं। सुमति के उद्गारों का तात्पर्य यह है कि आत्म-स्वामी की प्राप्ति से पूर्व परमात्मा अथवा प्रात्मा पर शुद्ध प्रेम रखने की आवश्यकता है। आत्मा पर अत्यन्त प्रेम हुए बिना प्रात्मा की प्राप्ति नहीं होती। समस्त जीवों पर शुद्ध प्रेम रूपी अमृत की वृष्टि करने वाला व्यक्ति हिंसा आदि दुष्ट दोषों से मुक्त होता है। जिन Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री आनन्दघन पदावली-७६ मनुष्यों में शुद्ध प्रेम नहीं होता, वे समता नहीं रख सकते, वे परमात्मा से साक्षात्कार नहीं कर सकते । शुद्ध प्रेम का प्याला पीकर जो आत्म-प्रभु से साक्षात्कार करने का प्रयत्न करते हैं, वे यात्म-प्रभु को प्राप्त कर सकते हैं। शुद्ध प्रेम-लक्षणा भक्ति का अमृत-रस प्रास्वादन किये बिना, प्रात्म-प्रभु प्राप्त नहीं किये जा सकते। समता एवं आत्मा का संयोग कराने वाला शुद्ध प्रेम ही है। शुद्ध प्रेम के बिना कोई भी व्यक्ति समता के घर में प्रविष्ट नहीं हो सकता। इस कारण ही सुमति ने शुद्ध प्रेम के प्याले की बात कही है। शुद्ध प्रेमी आत्मा में तन्मय होकर एकता का अनुभव करता है। वह मन, वचन और काया का भोग देकर अपने स्वरूप में प्रविष्ट होता है। शुद्ध प्रेम-भक्ति की उत्कृष्टता धारण करने वाला मनुष्य इतना अधिक आत्म-प्रेमी बन जाता है कि उसे जहाँ-तहाँ आत्मा का ही स्मरण होता है। प्रात्मा में 'तू ही-तू ही' रटन करने वाला मनुष्य आत्मा का उपासक बन कर समता का द्वार खोलता है और समता की जाग्रति करता है। प्रत्येक कार्य करने के समय वह समता रखने की आदत डालता है। वह प्रमाद के स्थानकों को भी अन्तर की समता से जीत सकता है और मस्तिष्क का सन्तुलन रख सकता है। वह हर्ष एवं उद्वेग से दूर रहकर समता-भाव में स्थिर रहता है। आत्म-रूप प्रभु के दर्शन में समता तत्पर रहती है ।। २ ।। सुमति कहती है कि मैं अनेक मनुष्यों से पूछ-पूछ कर थक चुकी हूँ। अब और कब तक पूछती रहूँ? किस स्थान पर जाकर मैं उनकी खोज करूं, किसको पत्र भेजू ? अानन्दघनजी कहते हैं कि आपकी असंख्यात प्रदेश रूपी शय्या प्राप्त हो जाये, तो फिर किसो वसीठडे (दूत) की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। मैं आपके दर्शनों की अत्यन्त प्यासी हूँ। मैं आपके दर्शनों के लिए अत्यन्त प्रातुर हूँ। मैंने आज तक आपकी अनेक स्थानों पर खोज की, परन्तु प्रापका कहीं पता नहीं लगा। अब तो मुझे प्रात्म-स्वामी की शय्या प्राप्त हो जाये तो मैं उनके पास पाकर ही रहूँ। जब तक ममत्व है तब तक सुमति अपने प्रात्म-स्वामी चेतन को प्राप्त नहीं कर सकती ।। ३ ।। विवेचन-श्रीमद् आनन्दघनजी ने उपर्युक्त पद में एक विशेष रहस्य का उद्घाटन किया है कि शुद्धात्मस्वरूप प्रकट करने के लिए शुद्धस्वरूप के प्रति अथवा जिसने शुद्ध स्वरूप प्रकट कर लिया है उससे Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८० अत्यन्त प्रेम होना चाहिए। इस उत्कृष्ट प्रेम के द्वारा ही निजस्वरूप प्रकट होता है। जैन परिभाषा में इसे 'प्रशस्त राग' कहा है। इस मार्ग रपचलने वाले विरले ही हुए हैं। इस मार्ग का सर्वप्रथम दर्शन गणधर गौतम के चरित्र में होता है। उन्हें सहजात्मरूप परम गुरु भगवान महावीर के शरीर पर अगाध मोह था। भगवान उन्हें बार-बार चेतावनी देकर देह के प्रेम से अलग रहने का उपदेश देते थे। उस प्रेम के आगे गौतम मुक्ति की भी अवगणना करते थे। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में यह प्रसंग अद्भुत एवं अद्वितीय है। जैन साधु-संस्था के नियम अत्यन्त कठोर हैं। इस संस्था में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को अधिक स्थान नहीं मिला है। इसी कारण सन्त परम्परा अधिक नहीं पनप सकी। श्रीमद् आनन्दघन जी, चिदानन्द जी आदि सन्त साधु-संस्था से प्रायः दूर ही रहे। सन्तगण बाड़े-बन्दी के घेरे में न रहकर लोक-कल्याण की ही भावना भाते हैं। इस कारण साम्प्रदायिक लोगों का सहयोग उन्हें नहीं मिलता अथवा अल्प मिलता है। आजकल जैन लोग या तो बाह्य क्रिया-काण्डों में रत हैं अथवा कुछ व्यक्ति शुष्कज्ञान में लीन हैं। तात्पर्य यह है कि 'प्रेमलक्षणा भक्ति' जैनियों में विरल हो गई है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने अपने समस्त पदों में उसी 'प्रेमलक्षणा भक्ति' का गुणगान किया है। ___(३१). (राग-केदारो) भोरे लोगा झूरू हुँ तुम भल हासा । सलुणे साहब बिन कैसा घर वासा ॥ . भोरे० ॥ १ ।। सेज सुहाली चांदणी राता, फूलड़ी बाड़ी सीतल वाता। सयल सहेली करे सुख हाता, मेरा मन ताता मुना विरहा माता ।। भोरे० ।। २ ॥ फिरि फिरि जोवों धरणी अगासा, तेरा छिपना प्यारे लोक तंमासा। उचले तन तइ लोहू मांसा, साइडा न पावे, धरण छोड़ी निसासा ॥ भोरे० ॥ ३ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - =१ विरह कु भावे सो मुझ किया, खबर न पावू धिग मेरा जिया । हदिया, देव बतावे कोई पिया, वे प्रानन्दघन करूँ घर दिया || भोरे० ।। ४ ।। अर्थ - -- शुद्ध चेतन स्वरूप आत्मा के विरह में सुमति कहती है कि हे भोले मनुष्यो ! मैं अपने दुःख के कारण रोती हूँ और तुम लोग भला हँसते हो ? मेरी पीड़ा का तुम्हारे मन पर कोई प्रभाव नहीं होता, ऐसा मुझे प्रतीत होता है । सुमति आत्म-स्वामी के घर आने की प्रतीक्षा करती है, परन्तु वे दृष्टिगोचर नहीं होते । इस कारण व्यथित होकर विरहिणी सुमति रुदन करती है, प्रज्ञानी मनुष्य उसे देखकर उस पर हँसते हैं। सुमति मनुष्यों को कहती है कि तुम लोग तनिक सोचो तो सही कि सलोने साजन के बिना घर में रहना किस काम का ? प्रियतम के बिना मेरो गृहस्थ किस काम को ? बिना स्वामी के कहीं गृहस्थी होती है क्या ? अर्थात् सलाने साजन के बिना असंख्यात प्रदेश रूपी घर में कैसे वास किया जाये ? ।। १ ।। < सुन्दर सुखद शय्या है, चांदनी रात है, पुष्प वाटिका है तथा शीतल मन्द वायु बह रही है । समस्त सखियाँ मन बहलाने का तथा स्वस्थ करने का प्रयत्न कर रही हैं । चैतन के स्वागतार्थं समस्त आकर्षक सामग्री विद्यमान है, परन्तु ऐनी सुखद परिस्थिति में मेरे चेतन - स्वामी के नमाने पर उनके विरह में व्याकुन मेरा तन तप्त हो रहा है और विरह को मारी मैं मतवाली बनो मानां मृत स्त्री की सी दशा का अनुभव कर रही हूँ । श्रीमद् श्रानन्दघन जो ने यहाँ प्रान्तरिक पात्र का अद्भुत स्वरूप स्पष्ट किया है। अनुभव - ज्ञान- परिणति का स्वामी आत्मा है; प्रनेक आगमों का परिशीलन करने पर अनुभव- परिणति प्रकट होती है, जिसे आत्मा को साक्षात् संगति के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता । अनुभवपरिणति पुरुष समागम को प्रोत्साहित करने वाले बाह्य साधनों की तरह अन्तर-साधनों का भी वर्णन करतो है । तन्मय दशारूप सुकोमल शय्या है, निर्मल श्रुतज्ञान रूपी चांदनी छाई हुई है, चारित्र - पालन वृत्ति रूपी पुष्प वाटिका में से शुभ अव्यवसाय रूपो सुगन्ध प्रवाहित हो रही है और शुद्ध प्रेमरूपी शोतल वायु बह रही है । ऐसो सुखद परिस्थिति में चेतनस्वामी के बिना अनुभव - ज्ञान - परिणति प्रत्यन्त सन्तप्त है और मृतप्राय हो जाती है ॥ २ ॥ L Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८२ सुमति कहती है कि मैं बार-बार पृथ्वी एवं प्राकाश की ओर देखती हूँ। हे प्रियतम ! हे मेरे स्वामी ! आपका नेत्रों से प्रोझल रहना मेरे लिए अत्यन्त दुःखदायी है क्योंकि लोगों में मैं हँसी-मजाक का कारण बन गई हैं। लोगों के लिए मैं तमाशा बन गई हैं। अापके न आने से यह कह कर लोग मेरी हँसी उड़ाते हैं कि इस स्त्री को इसके पति ने त्याग दिया है। इस कारण मेरे देह में रक्त एवं मांस उबल रहा है और निश्वास निकलता है। अत: हे प्रात्म-स्वामिन् ! आप साक्षात् दर्शन अनुभव-परिणति अपने प्रात्म-स्वामी को उपालम्भ देती हई कह रही है कि आपने मुझे विरहाग्नि में झोंक कर उचित नहीं किया। खैर, विरह को जो अच्छा लगा वह उसने किया। मेरी इस दशा की आपको खबर भी न पहुँचे तो मेरे जीवन को धिक्कार है। मेरे प्रियतम का यदि कोई पता-ठिकाना बता दे तो मैं उसे सीने से लगा ल और प्रानन्दघन जी कहते हैं कि यदि मेरे स्वामी चेतन राम आ जायें तो मैं घर में मंगल महोत्सव के दीप प्रज्वलित करूं, दीपावली की सी जगमगाहट करूं। श्रुतज्ञान का फल अनुभव-परिणति है। जैनागमों के केवल पठन से तुरन्त अनुभव-परिणति उत्पन्न नहीं हो जाती, परन्तु पुन:पुनः प्रागमों का मनन, स्मरण करके उनके रस का आस्वादन किया जाये तो अनुभवपरिणति खिल उठती है। अत: इसके लिए जैन सिद्धान्तों के श्रवण एवं मनन की आवश्यकता है। अध्यात्म-शास्त्रों के परिशीलन एवं हृदय में अध्यात्म तत्त्व में रमण करने से अनुभव-परिणति खिल सकती है। अनुभव-परिणति से प्रात्मा भिन्न नहीं है। मन, वचन एवं काया की पवित्रता भी अनुभव-परिणति से होती है। अनुभव-परिणति से ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है और आत्मा परमात्मा बनती है ॥ ४ ।। (३२) (राग केदारो) मेरे मांझी मजीठी सुण इक बाता। मीठड़े लालन बिन न रहूँ रलियाता ॥मेरे० ॥१॥ रंगत चुनड़ी दुलड़ी चीड़ा, काथ सुपारी अरु पान का बीड़ा । मांग सिन्दूर संदल करे पीड़ा, तन कठड़ा कोरे विरहा कीड़ा ।। मेरे० ॥२॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदाइली-८३ जहाँ तहाँ ढूँढू ढोलन मीता, पण भोगी भँवर बिन सब जग रीता। रयण बिहाणी दीहाड़ा बीता, अजहुँ न पाये मुझे छेहा दीता ।। __ मेरे० ॥३॥ नवरंगी फूदे भमरली खाटा, चुन-चुन कलियाँ बिछावो वाटा । रंग-रंगीली पहिनूंगी नाठा, आवे आनन्दघन रहे घर घाटा ।। मेरे० ।।४।। अर्थ-समता अपने प्रात्म-स्वामी के विरह में अपनी जीवन-दशा का वर्णन करती हुई कह रही है कि हे मजीठ के से लाल रंग वाले मेरे खेवनहार! मेरी एक बात सुनो। मैं अत्यन्त प्रिय चेतन-स्वामी के बिना प्रसन्नतापूर्वक नहीं रह सकतो। हे चेतन-स्वामी ! आपके बिना मेरा जीवन नीरस है ।।१।। . समता कहती है कि रंगीन चुनड़ी, दुलड़ी, कत्था, सुपारी और पान का बीड़ा, मांग का सिन्दूर तथा चन्दन का लेप --ये सब मुझे पीड़ा देते हैं क्योंकि तन रूपी काष्ठ को विरह.रूपी कीड़ा कुरेदता है। तात्पर्य • यह है कि चेतन-स्वामी के विरह में समस्त वस्तुएँ दुःखदायी हैं ॥२॥ समता परोक्ष दशा में आत्मा को खोजने का अत्यन्त प्रयत्न करती है और कहती है कि मैं आत्म स्वामी को ढूढ़ने के लिए इधर-उधर जाती हूँ परन्तु आनन्द भोगने वाले प्रियतम के बिना समस्त संसार सूना लगता है। अनेक रात्रियाँ व्यतीत हो गईं, अनेक दिन व्यतीत हो गये, परन्तु मुझे वियोग देने वाले प्रात्म-स्वामी अभी तक नहीं आये अर्थात् चेतन से अभी तक मेरा मिलाप नहीं हो रहा है । _ विवेचन -ज्ञान, दर्शन एवं प्रानन्दघन गुणों आदि के भोगी आत्मप्रभु के बिना सम्पूर्ण जगत् शून्य प्रतीत होता है। जड़ वस्तुओं के भोग से मनुष्यों को वास्तविक शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। समता जड़ वस्तुओं के भोग से दूर रहती है। समता का भोगी अप्रमत्त गुणस्थानस्थित प्रात्मा है। शुद्ध स्वरूप के भोगी आत्म-प्रभु के बिना अत्यन्त. समय निष्फल गया। अब तो आत्म-प्रभु से मिलाप हो तो ही समता सत्यानन्द प्राप्त कर सकती है। अप्रमत्त आत्म-प्रभु के बिना समता का भोगी अन्य कोई नहीं है ।।३।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-८४ श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि समता ने चेतन-स्वामी के स्वागतार्थ समस्त तैयारी कर ली है। वह परोक्ष दशा में भी आत्म-प्रभु को निवेदन करती हुई कहती है कि नौरंगी फूदे लगी हुई “भमरली खाट' बिछी हुई है। कलियाँ चुन-चुन कर मार्ग में बिछाई हुई हैं। यदि मेरे आनन्दघन स्वामी आ जायें और घर पर रहें तो कठिनाई से प्राप्त रंगबिरंगे वस्त्र पहनूगी, आनन्द पूर्वक रहूंगी। विवेचन- असंख्यात प्रदेशरूप घर में समता निवास करती है और अपने आत्म-स्वामी को : उपर्युक्त साज सज कर घर में बुलाती है । अपने आत्म-प्रभु को अपने घर में लाने के लिए समता अन्तरंग साधनों को सजाती है और आत्म-प्रभु की भक्ति में लीन हो जाती है, उनके स्वागत हेतु प्रतीक्षा करती है। श्रीमद् आनन्दघन जी ने उपर्युक्त पद में यह प्रतिपादित किया है कि जीव बहिरात्म भाव तथा अन्तरात्म भाव को समझकर अपनी कषाय-परिणति से सचेत रहते हुए कभी-कभी अन्तरात्म भाव भावे तो वह सुधर सकता है ।।४।। (.३३ ) (राग-कानडो) , करेजा रेजा रेजा रेजा। साजि सिंगार बणाइ प्राभूषण, गई तब सूनी सेजा। • , करेजा० ।। १ ।। विरह व्यथा कुछ ऐसी व्यापत, मानु कोई मारत नेजा। अंतक अंत कहालू लेगो, चाहे जीव तो लेजा ॥ करेजा० ।। २ ॥ कोकिल काम चंद्र चतादिक, दैन ममत है जेजा। नावल नागर अानन्दघन प्यारे, प्राइ अमित सुख देजा। - करेजा० ।। ३ ॥ अर्थ-समता अपने चेतन स्वामी से मिलने के लिए समस्त प्रकार के शृगार सज कर तथा आभूषण पहनकर अर्थात् बाह्य आडम्बर क्रिया रूप शृगार करके गई, परन्तु उन्हें समभाव रूप शय्या पर नहीं देखा। उन्हें उस समय ममता के घर गया जानकर उसके मन में अनेक विचार उठे। वह सोचने लगी कि ऐसे समय चेतन-स्वामी के वियोग का कारण क्या ? Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली- ८५ विवेचन - शास्त्रों में उल्लेख है कि लाभान्तराय कर्म के उदय से लाभ की प्राप्ति नहीं होती । दानान्तराय कर्म के उदय से दान नहीं दिया जा सकता । भोगान्तराय कर्म के उदय से भोग की प्राप्ति नहीं होती । उपभोगान्तराय कर्म के उदय से उपभोग की प्राप्ति नहीं होती और वीर्यान्तराय कर्म के उदय से वीर्य-शक्ति नहीं खिलती । इस प्रकार मेरे स्वामी का ऐसे समय वियोग होने का कारण पूर्व भव का अन्तराय कर्म है । मेरे स्वामी के मिलाप में अन्तराय कर्म रुकावट डालता है । राम-सीता, नल-दमयन्ती आदि के वियोग का कारण कर्म ही था । इसी प्रकार से मेरे चेतन - स्वामी को मति भ्रम कराने वाला भी कर्म ही है और उनसे मेरा वियोग कराने वाला भी कर्म है । समता कहती है कि " है कर्म ! तू इतना क्रूर क्यों बन गया ? तूने मुझे सताने में कोई कमी नहीं रखी । अब भी मेरे प्रियतम से वियोग कराकर मुझे जितना सताना हो उतना सता ले ।” ।। १ ।। जब समता ने प्रियतम की शय्या सूनी पाई तो उसे चेतन - स्वामी के विरह का इतना दुःख हुआ मानों कोई उसे भाला मार रहा हो । समता अपने स्वामी की अनुपस्थिति में भी उन्हें उद्देश्य करके कहती है कि हे स्वामिन् ! आप यमराज बनकर मेरा कहाँ तक अन्त लोगे ? आप चाहो तो मेरे प्रारण ले लो, परन्तु मुझे दर्शन दे दो । विवेचन - समता कहती है, “शारीरिक वेदना की तो अनेक औषधियाँ हैं परन्तु मानसिक वेदना की औषधि तो चेतन स्वामी के मिलाप के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है । ज्ञान आदि अनन्त ऋद्धियों के स्वामी शुद्ध चेतन से मिलाप हुए बिना अन्तर में व्याप्त विरह-ताप का शमन नहीं होगा । हे प्रिय आत्म-स्वामिन् ! आप यमराज के समान बनकर कब तक मेरा अन्त लोगे ? अब तो प्राण लेना शेष रहा है । अतः आपकी इच्छा हो तो अब मेरे प्रारण भी ले जाओ ।" समता के ये उद्गार प्रियतम के विरह की अनन्य वेदना प्रदर्शित करते हैं । वह अपने प्रारण देकर भी स्वामी का विरह टालने की अभिलाषा व्यक्त करती है । वह प्रियतम के मिलाप के समक्ष प्रारणों को भी तुच्छ गिनती है । उसे चेतन स्वामी के मिलाप के बिना तनिक भी शान्ति नहीं है ।। २ ।। . समता कहती है कि कोयल की कूक, कामदेव, चन्द्रमा की चांदनी और आम्र-मंजरी तथा अन्य जो-जो वस्तुएँ आपको प्रानन्दप्रद हैं ( मानव-भव, स्वस्थ देह, उत्तम कुल, आत्मोन्नतिकारक धर्म आदि Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-८६ उद्दीपन विभाव) उनके सहित श्राकर हे नवल- नागर चेतन ! मुझे सुख प्रदान करो । विवेचन - आशा - ही आशा में जीवनयापन करने वाली समता कहती है कि " हे नवल नागर बहिरात्म- दशा से हटकर अन्तरात्म दशा को प्राप्त करने वाले मेरे प्रिय स्वामिन् ! मेरे स्थिरता रूप श्रावास में प्राकर तू मुझे सिद्ध-दशा की खुमारी का सुख देना अर्थात् तू मुझे आत्मिक सहजसुख प्रदान कर । हे चेतन - स्वामिन् ! तू बाह्य- प्रदेश में परिभ्रमण करता है, वह असत्य है, दुःखदायी है । पर-स्वभाव में राचना ही बाह्य- प्रदेश गमन है । आत्मा के स्वभाव में रमरणता करना अन्तं रप्रदेश है । अन्तरप्रदेश में आकर हे अन्तरात्म नवलं नागर ! मुझे सुख प्रदान कर ।" श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि अन्तर में आत्मा के रमण करने से अनन्त सुख प्रकट होता है । विशेष- समता के कहने का तात्पर्य यह है कि हे चेतन ! आप यह मत समझना कि मेरे पास आने से आपको वे आनन्दप्रद वस्तुएँ त्यागनी पड़ेंगी। मैं तो केवल मायाविनी ममता से आपका छुटकारा चाहती ।। ३ ।। ( ३४ ) (राग - कान्हड़ा ) पिया बिन सुधि बुधि भूली हो । आँख लगाइ दुःख - महल के, झरोखे भूली हो || पिया० || १ || हँसती तबहु बिरानियाँ, देखी तन-मन छीज्यो हो । समुभी तब एती कही, कोई नेह न कीज्यो हो || पिया ||२|| प्रीतम प्रानपति बिना, प्रिया कैसे जीवे हो । प्रान - पवन बिरहा-दशा, भुअंगनि पीवे हो || पिया० ||३|| सीतल पंखा कुमकुमा, चन्दन कहा लावे हो । अनल न बिरहानल यहै, तन ताप बढ़ावे हो || पिया ||४| फागुन चाचरि इक निसा, होरी सिरगानी हो । मेरे मन सब दिन जरै, तन खाक उड़ानी हो || पिया० ॥ ५ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली 65-1 समता महल धिराज है, वारणी रस द्वजे हो । बलि जाउं प्रानन्दघन प्रभु, ऐसे निठुर ह्व जे हो || पिया० ।। ६ ।। अर्थ- - समता अपनो विरहावस्था में होने वाली दशा का वर्णन करते हुए कहती है कि हे श्रद्धे ! चेतन पति के बिना मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ, मैं अपनी सार-संभाल रखना भी भूल गई हूँ । आत्म-पति के वियोग से दुःखी मैं अपने दुःखरूपी महल के झरोखे से अपने स्वामी को देखने के लिए दृष्टि लगाये हुए हूँ, परन्तु वे दृष्टिगोचर नहीं होते । चेतन स्वामी के वियोग में महल में बैठो मेरा मन नहीं लगता । मेरे नेत्रों से अश्रु-प्रवाह हो रहा है। पति के बिना सती स्त्री का मन अचेत सा रहता है । इस कारण से वह श्रद्धा को कहती है कि मैं महल के झरोखे में बैठकर स्थिर दृष्टि से प्रात्म-स्वामी की राह देख रही हूँ, परन्तु स्वामी दिखाई नहीं दे रहे | श्री ज्ञानसार जी महाराज ने उपर्युक्त पद की टीका लिखी है जिसका सारांश निम्नलिखित है सुमति अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि हे सखी ! मेरे स्वामी चेतन अशुद्धोपयोगी आत्मा से मुझे मिलना चाहिए अथवा नहीं ? इस धार्मिक विचार से मैं रहित हो गई । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जिसका नाम हो समता है अथवा जो सुमति है वह स्वयं को कैसे भूल गई ? यदि वह भूल जाती है तो उसका नाम 'समता' युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। इसको स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं --- 'अशुद्धोपयोगी आत्मा के संयोग से मैं सुमति को कुमति हो गई। पति के विदेश गमन रूप वियोग-दुःख के झरोखे में अश्रुपात करके उसने उसमें स्नान कर लिया। विदेश गमन यहाँ पर पर परिणति रमरण, चिन्तवन समझना चाहिए । अशुद्धोपयोग में प्रवर्तन को अश्रुपात समझना चाहिए । अश्रुपात में मैं भूल गई अर्थात् इतने आँसू गिरे कि सुनों से मैं भूल - सी पड़ी, अन्यथा सुमति को रोकने से क्या वास्ता किन्तु शुद्धोपयोगी आत्मा के वियोग में मैं अपनी सुध-बुध भूल गई । ? • टीकाकार का यह अर्थ विचारणीय है । यहाँ सुमति पति के साथ एकाकार होकर अपनी सुध-बुध खो बैठती है । पति पर - परिणति में रमण करते हैं, अशुद्ध उपयोग में प्रवर्तन करते हैं, इससे सुमति दुःख-महल के झरोखे में झूलकर स्वयं को भूल जाती है ।। १ ।। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-८८ सुमति कहती है कि " हे श्रद्धे ! पहले जब मुझे शुद्ध चेतन रूप पति का वियोग नहीं था, उस समय मैं विरह के दुःख से सर्वथा अनभिज्ञ थी । अतः जब मैं पति-वियोग से दुःखी अन्य विरहिणियों को तन से क्षीण तथा मन से दुःखी देखती थी, तब मैं उन पर हँसती थी, उनकी हँसी उड़ाती थी, किन्तु अब जब मैंने शुद्धात्मा के विरह- दुःख का अनुभव किया तो मेरे मुँह से यह निकलता है कि कोई कदापि प्रेम मत करना । प्रेमी के विरह के दुःख के समान अन्य कोई दुःख नहीं है । स्नेही व्यक्ति ही स्नेह का स्वरूप समझ सकते हैं ।" विवेचन – गर्भिणी स्त्री गर्भ की वेदना का अनुभव कर सकती है, परन्तु वन्ध्या स्त्री को गर्भिणी स्त्री के दुःख का अनुभव नहीं हो सकता। पति - वियोगी नारी ही पति वियोग की वेदना को जान सकती है । इस कारण ही सुमति ने उद्गार प्रकट किये कि कोई कदापि किसी से स्नेह मत करना, अन्यथा विरह की ज्वालाओं में झुलसना पड़ेगा, प्रतिपल रुदन करना पड़ेगा । सुमति ने जब अपने स्वामी का स्वरूप पहचाना तब उसके अन्तर में शुद्धात्म- पति के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ । प्रेम तो उत्पन्न हुआ परन्तु परोक्षं दशा में साक्षात् आत्म-स्वामी दृष्टि. गोचर नहीं होता, अत: वह स्मृति रूपी झरोखें में बैठकर आत्मा को . साक्षात् देखने की प्रतीक्षा कर रही है । साक्षात् आत्मा के दर्शन के लिए आतुर सुमति वियोग के कारण रुदन करती है, परन्तु तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति के बिना आत्मा का साक्षात् दर्शन नहीं होता, जिसके कारण उसे दुःख होता है ।। २ ।। सुमति कहती है कि मेरे प्राणप्रिय स्वामी शुद्ध चेतन के बिना मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ आर्जव, मार्दव आदि दस यतिधर्म रूपी प्राणवायु को विरहावस्था रूपी नागिन पीती रहती है । ऐसी दशा में शुद्ध चेतन के वियोग में सुमति के प्रारण कैसे रह सकते हैं क्योंकि शुद्ध चेतन के बिना सुमति आये भी कैसे ? विवेचन - सुमति अपने प्राणपति को ही अपना सर्वस्व समझती है । यदि हम अन्तर में विचार करें तो शुद्धचेतन पति के बिना शुद्ध चेतना के प्राण कैसे रह सकते हैं ? शुद्ध चेतना एवं शुद्ध चेतन पुष्प एवं पुष्प की सुगन्ध की तरह अलग नहीं हो सकते । शुद्ध चेतन स्वामी ज्यों-ज्यों असंख्यात प्रदेश रूपी घर की ओर प्रयाण करते हैं और चौथे गुणस्थानक से ऊपर के गुणस्थानकों को लाँघते जाते हैं, त्यों-त्यों शुद्ध चेतना के चैतन्यरूप प्रारण सशक्त होते जाते हैं और शुद्ध चेतना के हर्ष Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-८६ का पार नहीं रहता; परन्तु जब तक शुद्ध चेतनस्वामी अपनी पत्नी को दर्शन नहीं देते तब तक शुद्ध चेतना पति के विरह में अपनी आन्तरिक दशा प्रकट करे, यह उचित ही है ।। ३ ।। विरह-ताप को शान्त करने के लिए सुमति ने जब उपचार किये तब शुद्ध चेतना उसे कहती है कि हे सखी ! शीतलोपचार, खस का पंखा, सुगन्धित गुलाब-जल एवं केवड़ा-जल, बावना चन्दन आदि का प्रयोग क्यों करती है ? अरी भोली ! यह कोई दाह-ज्वर नहीं है जो इन उपचारों से शमित हो जाये। यह तो मदन है, यह तो विरहानल है। यह कोई अग्नि नहीं है जो शीतल उपचारों से शान्त हो जाये। ये पंखे आदि सुगन्धित शीतल पदार्थ तो उलटे प्रीतम की याद दिलाने वाले हैं, विरह की वृद्धि करने वाले हैं। ये सब काम-ज्वर की वृद्धि के हेतु हैं। अतः हे सखी ! . तू इनका प्रयोग मत कर । विवेचन-सुमति को लगा कि शुद्ध चेतना के प्राण निकलने लगे हैं, वह अचेत हो रही है। अब क्या किया जाये ? तब उसे ध्यान पाया कि शीतल उपचार करने से शुद्धचेतना को तनिक शान्ति प्राप्त होगी। इस कारण उसने पंखे का उपयोग किया, देह पर बावना चन्दन का विलेपन किया, गुलाब-जल आदि का प्रयोग किया, परन्तु शुद्धचेतना को तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई। उलटे शीतल उपचारों से उसके ताप में वृद्धि ही हुई, हृदय की जलन बढ़ गई, उसकी साँसें भी उष्ण निकलने लगीं। सुमति ने शुद्धचेतना को पूछा कि विपरीत प्रभाव क्यों हो रहा है ? तब शुद्धचेतना ने बताया कि हे सखी ! यह कोई अग्नि नहीं है, यह तो पति के वियोग रूपी विरहाग्नि है। इसके शमन के लिए शीतल उपचार करने से उलटे तन-ताप की वृद्धि होती है। आत्म-पति की प्राप्ति के बिना शुद्धचेतना के अन्तर में हर्ष नहीं होता। योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघन जी ने उपर्युक्त पद में अद्भत प्रकार से व्यवहार दृष्टि के द्वारा निश्चय का पोषण किया है। श्री ज्ञानसारजी महाराज ने उपर्युक्त पद की टीका करते हुए शीतलोपचार को यथाप्रवृत्तिकरण में गिना है और यदि ये उपचार चलते रहे तो अपूर्वकरण भी आयेगा। तात्पर्य यह है कि अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण तक विरहकाल है। उसके पश्चात् नियम से अपूर्वकरण आता है जिसमें राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेदन हो जाता है और अनिवृत्तिकरण में आत्मा का मिलाप हो Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य ६० जाता है। प्रात्मा का मिलाप हो सम्यक्त्व को प्राप्ति है और फिर चारित्र का विरह होता है ।। ४ ।। सुमति कह रही है कि फाल्गुन-शुक्ला पूर्णिमा की उस एक रात्रि में चाचर गाने वाले, गेर नाचने वाले होली जलाते हैं, परन्तु मेरे अन्तर में तो प्रतिदिन होली जलती रहती है और देह की राख उड़ती रहती है । मेरे मन में तो नित्य पति की वियोग रूपी होली जलती रहती है जो देह एवं रक्त आदि को जलाकर भस्म करती रहती है। इससे मेरी अत्यन्त दुर्दशा हो गई है ।। ५ ।। श्री ज्ञानसारजी महाराज ने अपनी टीका में लिखा है कि सुमति कहती है कि हे चाचर गाने वालो! तुम्हारे तो होली जलाने का दिखावा मात्र है, परन्तु पति के वियोग में मेरे तो रात-दिन होली जलती रहती है। अतः शुद्ध स्वरूप चितवन रूपी मेरी देह जलकर राख हो गई . है। वह राख भी उड़ गई, रही नहीं -अर्थात् -सुमति की कुमति हो गई। टीकाकार ने 'राख भी नहीं रही' यह अर्थ करके रूपक को सांगोपांग बना दिया है। - सुमति कह रही है कि हे आनन्दघन प्रभो! आप ऐसे निष्ठुर न बनें। आप मेरे महल में बैठ कर अपनी वाणी का रस तो दो अर्थात् मुझसे वार्तालाप तो करो। मैं आपकी बलिहारी जाती हूँ, मैं आपके समक्ष अपना समर्पण करती हूँ। आप निष्ठुर न बनें, मेरा परित्याग न करें॥६॥ श्री ज्ञानसारजी महाराज ने छठे छन्द का अर्थ करते हुए कहा है कि सुमति कह रही है - हे श्रद्धे ! मुझ मति के महल में जब शुद्धोपयोगी आत्माराम पाकर बिराजेंगे, तब मैं मति से सुमति हो जाऊंगी। जब तक मैं मति थी, मेरा चौगति रूप महल था और जब मैं मति से सुमति हो गई, तब शुद्ध स्याद्वाद मतानुयायी चरित्र द्वार प्रवेश मुक्ति महल में बिराजमान एक अरिहन्त, दूसरे सिद्ध; उनमें यहाँ केवल अरिहन्त का कथन है। उन अरिहन्त की वाणी रस के रेजा अर्थात् तरंग ऐसे आनन्द के समूह प्रभु की मैं बलैयाँ लेती हूँ। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-६१ .. ( ३५ ) ( राग गोड़ी-जकड़ी ) राशि शशि तारा कला, जोसी जोइन जोस । रमता समता कब मिले, भागे विरहा सोस ।। पिय विरण कौन मिटावे रे, विरह व्यथा असराल ।। नींद निमाणी आँखितें रे, नाठी मुझ दुःख देख । दीपक सिर डोले खड़ो प्यारे, तन थिर धरे न निमेष ।। . पिया० ।। १ ।। ससि सराण तारा जगी रे, विनगी दामिनी तेग । रयनी दयन मत दगो, मयण सयण विण वेग ।। पिया० ।। २ ।। तन पंजर झूरइ पर्यो रे, उड़ि न सके जिउ हंस । विरहानल जाला जली प्यारे, पंख मूल निरवंश ।। __ . पिया० ।। ३ ।। उसास सास बढ़ाउ कोरे, वाद वदे निसि रांड । न मिटे उसासा मनी प्यारे, हटकै न रयणी मांड ॥ . . पिया० ।। ४ ।। इह विधि छै जे घर धणी रे, उससूं रहे उदास । हर विधि प्राइ पुरी करे, प्रानन्दघन प्रभु आस ।। - पिया० ।। ५ ।। अर्थ-समता श्रद्धा, अनुभव आदि को अपनी विरह व्यथा कह-कह कर थक गई। चेतन स्वामी के वियोग में अत्यन्त दुःखी होकर वह ज्ञानी पुरुष ज्योतिषी को पूछती है कि हे ज्योतिषी! मेरा चेतन-स्वामी से मिलाप कैसे और कब होगा? समता कहतो है-हे ज्योतिषी ! तुम अपनी पोथी, पंचांग के द्वारा राशि, चन्द्र तथा अन्य ग्रहों का बल देख कर बताओ कि मेरे रमताराम चेतन-स्वामी मुझे कब मिलेंगे, ताकि मेरा विरह शोषण दूर हो। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६२ मेरे प्रिय चेतन-स्वामी के बिना मेरी अथाह एवं विकराल विरहव्यथा कौन दूर करे ? मेरा दुःख देखकर मेरे नेत्रों से मेरी नींद भी जाती रही। दीप-शिखा के समान मेरा सिर इधर-उधर डोल रहा है । पल भर के लिए भी मेरी देह स्थिर नहीं रहती। अतः हे ज्योतिषी ! तुम अपना ज्योतिष देखकर बताओ कि मेरे प्रिय चेतन-स्वामी का मुझसे मिलाप कब होगा? ॥१॥ विशेष -व्यक्ति समतायुक्त हो, अध्यात्मरत हो, परन्तु आत्मानुभव का आश्रय नहीं मिला हो तो उसमें स्थिरता नहीं आ सकती। वह दीपक की शिखा के समान अस्थिर रहता है। ___ चन्द्रमा अस्त हो गया है, तारे टिमटिमा रहे हैं, बिजली तलवार की तरह चमक रही है। रात्रि तथा कामदेव अपने स्वजन के अभाव में मुझे तीव्र वेग से दगा देने के लिए तत्पर हो रहे हैं। अर्थात् ऐसा कामोद्दीपक वातावरण मुझे प्रियतम का अत्यन्त स्मरण करा रहा है । अतः हे ज्योतिषी ! तू सोच कर मुझे.मेरा भविष्य बता ।। २ ॥ श्री ज्ञानसारजी महाराज ने उपर्युक्त पद्यांश का अर्थ इस प्रकार बताया है - 'चन्द्रमा अस्त हो रहा है, तारे टिमटिमा रहे हैं और बिजली बिना ग्रहण की हुई तलवार से मुझे दगा देने के लिए तत्पर हो रही है, क्योंकि यदि मैं अशुद्ध चेतना है तो कामोद्दीपन के कारण कामदेव मेरा सज्जन है, किन्तु मैं तो शुद्ध चेतना हूँ अतः कामदेव मेरा सज्जन नहीं है। अंधेरी रात, तारे, दामिनी तलवार धारण करके मुझे कामोद्दीपन रूप दगा देना चाहते हैं। मेरा यह हंस रूपी जीव उड़ नहीं सकता क्योंकि वह तन रूपी पिंजड़े में कैद है। इस तन-पिंजड़े में पड़ा-पड़ा जीव कष्ट भोग रहा है। विरहाग्नि तीव्र वेग से जल रही है। विरह की ज्वाला से पंख तो मूल से ही सर्वथा जल चुके हैं। अतः हे प्रिय चेतन ! पंख जल जाने के कारण मैं तो उड़ कर भी आपके पास नहीं आ सकती। आयुष्यकर्म के. उदय से मेरा जीव-हंस देह रूपी पिंजरे में से उड़ नहीं सकता ॥ ३ ॥ विवेचन-ऐसी परिस्थिति में मेरे जीव-हंस को कैसी पीड़ा होती होगी? बाह्य ताप से दग्ध जीव किसी भी उपाय से शीतल हो सकते हैं, परन्तु आन्तरिक ताप से दग्ध जीव उपशम रूपी वृष्टि के बिना शान्त नहीं हो सकते। मेरे प्रिय जीव-हंस की भी वैसी ही दशा है। अनन्त Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ६३ शान्ति के धाम मेरे स्वामी मुझे मिल जायें तो अनेक प्रकार के आन्तरिक ताप शान्त हो जायें । अतः अनन्त गुणों के धाम मेरे स्वामी मुझे कब मिलेंगे ? हे ज्योतिषी ! तू पत्रक एवं पोथी देखकर मुझे बता । उपर्युक्त पद्यांश का सारांश श्री ज्ञानसारजी महाराज के अनुसार यह है - 'हे सखी ! मैं शुद्धात्मा से मिलना चाहती हूँ, किन्तु मिलाप होता नहीं प्रतीत होने से देह रूपी पिंजड़े में पड़ा यह जीव अत्यन्त छटपटा रहा है, कष्ट पा रहा है ।' श्वासोश्वास बढ़े हुए हैं । ज्यों-ज्यों रात्रि बढ़ती है, त्यों-त्यों श्वास-प्रश्वास की गति में भी वृद्धि हो रही है । ऐसा प्रतीत होता है मानों रात्रि और श्वास में परस्पर होड़ लगी हो । हे प्रिय चेतन ! मनाने पर भी श्वास की तीव्रता नहीं मिट रही है और लड़ाई ठाने हुए रात्रि पीछे नहीं हट रही है ॥ ४ ॥ विवेचन - विरह दशा रूपी रात्रि हटती नहीं है और मनाने पर भी मानती नहीं है । अतः मैं रात्रि में कष्ट भोग रही हूँ । ज्ञान-प्रकाश हुए बिना रात्रि के अनेक प्रकार के कष्ट टलेंगे नहीं । उपर्युक्त पद्यांश का श्री ज्ञानसारजी महाराज ने अर्थ बताया है कि 'श्वासोश्वासरूपी पथिक में तथा रात्रि में संघर्ष चलता है । आत्मा सोपक्रमी आयुष्यवाली है । उसकी सातों प्रकार से प्रायु स्थिति टूटने वाली है । चेतना सोचती है कि अन्त समय में शुभ परिणाम हों तो आत्मा से मिलाप हो सकता है, परन्तु आत्मा की अशुभ आयु स्थिति पहले ही बँध चुकी है । अतः मरण के समय अशुभ परिणाम ही आयेंगे। अशुभ परिणामी आत्मा से शुद्धचेतना का मिलाप असम्भव है । सात प्रकार के उपक्रम में से कोई भी एक उपक्रम लग जाये तो आयु स्थिति टूट जायेगी । अतः श्वासोश्वास को मनाती है, परन्तु हठ के कारण श्वासोश्वास ने रात्रि में आत्मा को उस गति में नहीं रहने दिया । . इस प्रकार जिसका गृहस्वामी अशुद्धोपयोग में रमण करता है, उस स्त्री के भाग्य में सुख कहाँ है ? वह तो पति की स्थिति से उदास रहती है । फिर भी उसे आशा है कि आनन्द के घन परमानन्दी प्रभु ( चेतन) स्वभाव रूप निज घर में आकर प्रत्येक प्रकार से मेरी आशा पूर्ण करेंगे ।। ५ ।। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-६४ विवेचन-जब तक आत्मा ममता के घर में रहती है और ममता के कथनानुसार करती है, तब तक प्रात्मा एवं समता का मिलाप नहीं हो पाता। जब तक पर-वस्तु में ममत्व रहता है तब तक आत्मा राग-द्वेष के पक्ष में रहती है। राग-द्वेष के कारण आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप नहीं देख सकती। मन, वचन एवं देह में जब तक ममता का वास है, तब तक आत्मा समता के घर में प्रविष्ट होने की अधिकारी नहीं हो सकती। वह अनेक प्रकार के कुकृत्य करने की प्रवृत्ति करती रहती है, आशा के उद्गार निकालती है, हास्य का कुतूहल करती है और तृष्णा रूपी मदिरा का पान करके बन्दर के समान बन जाती है तथा आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा एवं परिग्रह-संज्ञा धारण करके संसार में स्थिर रहती है तब तक उसके कुलक्षणों से. समता उदास रहती है। आत्मा समता के मुक्ति रूपी घर में प्रविष्ट होने के लिए गुणस्थानक रूपी भूमि का उल्लंघन नहीं कर सकती अर्थात् परवस्तु के प्रति ममता का परित्याग करने पर पर-वस्तु को समभाव से देखती है तब वह आनन्द प्रकट कर सकती है। आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि आनन्दघन रूप बनी आत्मा समता से आकर मिलती है तथा उसकी समस्त आशाएँ पूर्ण करती है। आत्मा सादि अनन्त भाग में शिव रूप घर में समता के साथ समय-समय पर अनन्त सुख का उपभोग करती है। (३६) . (राग-सारंग) साखी-प्रातम अनुभव फूल की, नवली कोऊ रीति । नाक न पकरे वासना, कान गहे परतीति ।। अनुभौ नाथ कु क्यू न जगावे ? ममता संग सुचाइ अजागल, थनते दूध दुहावे ॥अनुभौ०।१।। मेरे कहे ते खीज न कीजे, तू ही ऐसी सिखावे । बहुत कहे ते लागत ऐसी, प्रांगुली सरप दिखावे ॥अनुभौ०॥२॥ औरन के रंग राते चेतन, माते आप बतांवे । आनन्दघन की समता आनन्दघन वाके न कहावे ।।अनुभौ०॥३॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ६५ अर्थ - आत्मा के अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प की कोई भिन्न रोति है क्योंकि नाक में उसकी सुगन्ध नहीं आती और कान में उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ती । आत्मा का जो अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प है वह तो भिन्न प्रकार का है । वहाँ घ्राणेन्द्रिय एवं कर्णेन्द्रिय का व्यापार नहीं चल सकता । अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प की प्रतीति सचमुच पाँच इन्द्रियों द्वारा नहीं होती । अनुभव ज्ञानरूपी पुष्प की यदि कोई सुगन्ध लेने लगे तो उसे वह नाक से सूँघ नहीं सकता, आँखों से देख नहीं सकता, अनुभव ज्ञान शब्दों के द्वारा अन्य व्यक्तियों को सुनाया नहीं जा सकता, क्योंकि शब्दों के उस पार भी अनुभव ज्ञान है । जिसको वह ज्ञान होता है वही जान सकता है । ( साखी) कतिपय प्रतियों में 'कान न गहे परतीत' पाठ है । इसका अर्थ है कि न कानों को शब्द सुनने से उसकी प्रतीति होती है क्योंकि आत्मा को प्राँखें देख नहीं सकतीं, न त्वचा स्पर्श कर सकती है अर्थात् किसी भी इन्द्रिय के द्वारा आत्मा को जाना नहीं जा सकता । यह इन्द्रियातीत है । यह स्वयं के द्वारा जानी जाती है । जैन दार्शनिकों ने इन्द्रियों के द्वारा होने वाले ज्ञान को इन्द्रिय- प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है । जैन चिन्तकों तथा दार्शनिकों ने 'सम्यक दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : ' कहा है । यह सूत्र श्री उमास्वाति के 'तत्त्वार्थ सूत्र' का प्रथम सूत्र है, जिसका अर्थ है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन हैं । कहीं-कहीं ज्ञान-क्रिया को मोक्ष का साधन कहा है । उसका भी तात्पर्य यही है क्योंकि सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । जहाँ एक होगा वहाँ दूसरा अवश्य होगा, परन्तु सम्यक्चारित्र के साथ इनका साहचर्य नितान्त आवश्यक नहीं है । इसलिए संक्षेप में ज्ञान - क्रिया ( चारित्र) को मोक्ष का साधन कहा है । तप को भी मुक्ति का साधन माना है । इसी कारण से इसे नौ पद ( नवपद ) में भी स्थान मिला है । जिस प्रकार दर्शन का समावेश ज्ञान में हो जाता है, उसी प्रकार तप का समावेश चारित्र में हो जाता है । इसलिए संक्षेप में ज्ञान एवं क्रिया को ही मोक्ष का साधन कहा है । जीव को संसार में उलझाने वाली भी दो ही वस्तुएँ हैं तथा तारने वाली भी दो ही वस्तुएँ हैं । दर्शनमोह और चारित्रमोह-ये दो जीव को संसार में परिभ्रमण कराते हैं तथा ज्ञान एवं क्रिया ये दो तारते हैं । दर्शनमोह दृष्टि को बिगाड़ता Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-६६ है तथा चारित्रमोह आचार को बिगाड़ता है। दृष्टि बिगड़ने पर सृष्टि-आचरण अवश्य बिगड़ता है और दृष्टि सुधरने पर सृष्टि भी सुधर जाती है। अतः मोहदृष्टि संसार का हेतु है तथा ज्ञानदृष्टि मुक्ति का हेतु है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञान ही मुक्ति का प्रधान हेतु है। ___ अतः सुमति कहती है कि हे मित्र अनुभव ! आप नाथ को सचेत क्यों नहीं करते ? उन्हें ममता की संगति अत्यन्त ही सुखद लगती है, परन्तु उसकी संगति बकरी के गले में लटकते हुए स्तनों से दूध निकालने के समान है। आपके स्वामी ममतारूपी कुलटा की संगति से कदापि सुख प्राप्त नहीं करेंगे ॥१॥ आपके परम मित्र चेतन के लिए बार-बार मेरे कहने के कारण आप रोष मत करना, क्योंकि आपने ही ऐसी शिक्षा दी थी कि चेतन के ममता की संगति में रहने से कोई सार नहीं निकलेगा। मैं तो चेतनस्वामी को अनेक बार कह चुकी हूँ पर साँप को अंगुली दिखाने के समान उन्हें यह अत्यन्त अप्रिय लंगता है ।। २ ॥ विवेचन --जब कोई मनुष्य किसी को शिक्षा देता है तब वह अंगुली ऊँची करके उसे शिक्षा देता है, परन्तु बार-बार शिक्षा देने से अंगुली साँप के समान प्रतीत होती है-इसे अंगुली-सर्प-दर्शन-न्याय कहा जाता है। दक्षिण में साँप अत्यन्त विषैले होते हैं। जो मनुष्य साँप की ओर अंगुली करता है, उसे साँप काटता है। बार-बार स्वामी को शिक्षा देने से वे मुझ पर क्रोध करते हैं। ऐसा सुमति अनुभव को कह रही है। फिर भी हे अनुभव ! आप में अपूर्व शक्ति है, अतः आप चेतन को मनाकर ठिकाने लायें। अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि आनन्द के स्वरूप चेतन को वास्तविक परिणति तो आनन्ददायिनी सुमति ही है, फिर आनन्दघन (आनन्दस्वरूप चेतन) ममता के कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते ॥ ३ ॥ जिस प्रति में 'प्रानन्दघन को प्रानन्दा, सिद्ध स्वरूप कहावे' पाठ है उसका अर्थ होगा-आनन्दघन चेतन का आनन्द तो सुमति ही है, जो चेतन को सिद्धत्व प्राप्त कराती है, अतः वह सिद्धस्वरूप कही जाती है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-६७ विवेचन -सुमति को संगति से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को जान सकती है। यदि चेतन, आनन्द स्वभाव वाली सुमति की संगति करे तो सचमुच वह सिद्ध-बुद्ध परमात्मा हो सकता है। आनन्द स्वभाव वाली सुमति सच्ची स्त्री है और ममता, प्रानन्द स्वभाव वाली नहीं है। सुमति ने कहा कि 'हे अनुभव ! आप मेरे आत्मस्वामी को मेरा समस्त वृत्तान्त बतायें। मेरे स्वामी मूल स्वभाव से तो सरल हैं। यदि उन्हें शान्ति से समझाया जाये और समस्त वृत्तान्त उन्हें बताया जाये तो वे सम्यक्त्व आदि गुण प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध परमात्मा बन सकते हैं । कुमति तथा ममता की संगति से लिपटी हुई कर्म-मलिनता दूर होने पर तीन लोक में मेरे स्वामी की कोई तुलना नहीं कर सकता। वे तीन लोक के नाथ बनकर अनन्त सुख भोग सकते हैं। अत: हे अनुभव ! आप मेरी बात उन्हें अच्छी तरह समझायें ।' ( ३७ ) (राग-धन्याश्री) अनुभौ पीतम कैसे मनासी ? छिन निरधन सधन छिन, निरमल समल रूप बनासी ।। अनु० ।। १ ।। छिन में शक्र तक्र फुनि छिन में, देखू कहत अनासी । विरहजन चीज आप हितकारी, निज घन झूठ खतासी ।। अनु० ।। २ ।। तू हितुः मेरो मैं हितु तेरी, अन्तर काहे जतासी । अानन्दघन प्रभु प्रानि मिलावो, नहितर करो घनासी ।। . अनु० ।। ३ ॥ अर्थ---शुद्ध चेतना अनुभव को कहती है ---'हे अनुभव ! मेरे प्रीतम (चेतन) किस प्रकार प्रसन्न होंगे ? वे किस तरह कहना मानेंगे ? वे क्षण में ज्ञान-दर्शन रहित निर्धन, क्षण में ज्ञानदर्शनयुक्त धनवान, फिर क्षण में निर्मल स्वरूपी ज्ञानी और क्षण में अनन्तानुबन्धी के उदय से अत्यन्त मलिन रूप बताते हैं। ऐसे बहुरंगी चेतन को हे अनुभव ! कैसे मनायें ? १ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-६८ विवेचन-मुझसे रुष्ट चेतन-स्वामी कैसे मनाये जायें? वे मेरे घर कैसे पा सकते हैं। वे मुझसे रुष्ट होने के कारण विभाव दशा में रमण करते हैं। वे क्षण में सांसारिक दशा में निर्धन हो जाते हैं और पुण्य के योग से सांसारिक दशा में क्षण में धनवान बन जाते हैं। क्षण भर में वे पाप-मलरहित शुभ परिणाम को धारण करते हैं। शुभ परिणाम से पुण्य का बन्ध होता है और अशुभ परिणाम से पाप का बन्ध होता है। प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने अन्तर्मुहूर्त में मन में अशुभ परिणामों से सातवीं नरक के योग्य पाप बाँधा। तंदुलिया मत्स्य मन में अशुभ परिणाम धारण करने के कारण सातवीं नरक में गया। राग-द्वेष रूपी पर-भाव से आत्मा अशुद्ध परिणति रूपी स्त्री के फन्दे में फंसती है और शाता तथा अशाता की चेष्टा करती है। शुभ एवं अशुभ परिणाम विषम दशा होने के कारण मेरा स्वामी समदंशा रूप मेरे घर में आ नहीं सकता। शुद्ध चेतना कहती है कि चेतन स्वयं को क्षण में इन्द्र जैसा महान् समझने लगता है तो क्षण में तक (छाछ) जैसा निःसत्त्व हो जाता है। अथवा 'तक्र' के स्थान पर 'वक्र' पाठ मानें तो वह कुटिल हो जाता है। इस प्रकार वह क्षण-क्षण अनेक भाव बदलता दिखाई देता है, परन्तु संसार से विरक्त ज्ञानियों ने इसे अविनाशी, नित्य तथा वासना से मुक्त रहने वाला कहा है जो सदा स्वभाव से अपना हित ही करता है, किन्तु विभाव परिणामी होने पर वह अपनी ज्ञान आदि सम्पत्ति को विपरीत परिणमन करके गलत खाते खताता है अर्थात् अज्ञानवश संसारबन्धन का खाता खताता रहता है ।। २ ॥ विवेचन-आत्मा की ऐसी दशा देखकर किसी को उसके बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मा का हितकारी आत्मा ही है, आत्मा का शत्रु आत्मा है तथा आत्मा का मित्र आत्मा है । आत्मा स्वयं अपना उद्धार करती है और प्रमादवश आत्मा स्वयं ही स्वयं को नरक में धकेलती है। प्रात्मा ही देवता है, आत्मा ही नारकी एवं तिर्यंच होता है तथा आत्मा ही मनुष्य बनता है। कर्म से आत्मा ही परिभ्रमण करती है और कर्म-क्षय करके आत्मा ही शिव-बुद्ध-सिद्ध बनती है। अतः मुझे विश्वास है कि मेरे स्वामी जाग्रत होते ही अपना हित करने वाले हैं। इस समय तो वे अशुद्ध परिणति के कारण निर्धन बनकर मिथ्या खाते खताते हैं, परन्तु जब वे अनेक कष्ट भोगेंगे तब अशुद्धं परिणति के घर में से मुक्त होकर मेरे घर आने की इच्छा करेंगे। अभी तक उन्होंने Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-88 विवेकपूर्वक विचार नहीं किया, इस कारण वे अशुद्ध परिणति के साथ संसार में अनेक प्रकार के प्रानन्द ले रहे हैं, धन, धान्य, घर, परिवार आदि पर-वस्तुओं में प्रसन्न हो रहे हैं, मिथ्या खाते खता रहे हैं, परन्तु ऋण चुकाने पर जब अनेक प्रकार को पीड़ा भोगेंगे तब ही उनकी (मेरे स्वामी की) बुद्धि ठिकाने आयेगी। - समता अनुभव से कह रही है कि हे अनुभव ! तू मेरा हितैषी है और मैं तेरी हितैषिणी हूँ। तुझमें एवं मुझमें क्या भेद है ? तनिक बता। जहाँ सुमति, सद्बुद्धि, समता, शुद्ध चेतना होती है वहाँ अनुभव होता ही है। हे अनुभव ! अपना इतना घनिष्ट सम्बन्ध है फिर भी तू इतना विलम्ब कर रहा है। अब तो आनन्द के समूह समर्थ आत्माराम को शीघ्र मुझसे मिलायो अन्यथा यहाँ से विदा लो। मैं अन्य कुछ नहीं चाहती। समता ने निराशा एवं खीझ के कारण ये शब्द कहे हैं, ये उद्गार प्रकट किये हैं ।। ३ ॥ विवेचन-स्वामी की दुःखी दशा में, निर्धनता में भी सती नारी अपने स्वामी का साथ नहीं छोड़ती। वह विषम परिस्थिति में भी पति के साथ दु:ख सहन करती है तथा उन्हें सत्य मार्ग पर चलाती है। पति के क्रोध करने पर, तिरस्कार करने पर, अपमान करने पर भी सती नारी सहन करती है। इस प्रकार समता अपना कर्त्तव्य समझती है और . अनुभव को कहती है कि मुझे प्रात्म-प्रभु का मिलाप करायो। . ( ३८ ) ( राग-मारू ) पिया बिन सुधि-बुधि मूदी हो । विरह भयंग निसा समै, मेरी सेजड़ी खूदी हो । _ पिया० ।। १ ॥ भोयन पान कथा मिटी, किस कहूँ सधी हो । आज काल्ह घर आवन की, जीउ आस विलूधी हो ।। पिया० ।। २ ।। वेदन विरह अथाह है, पाणी नव नेजा हो। कौन हबीब तबीब है, टारे करक करेजा हो ।। पिया० ।। ३ ।। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०० गाल हथेली लगाइ के, सुर सिन्धु समेली हो। अँसुवन नीर बहाय के, सींचू कर बेली हो । पिया० ॥ ४ ॥ श्रावण-भादू घन घटा, बिच बीज झबूका हो। सरिता सरवर सब भरे, मेरा घट सर सूका हो ।। पिया० ।। ५ ।। अनुभव बात बनाइके, कहे जैसी भाव हो । समता टुक धीरज धरो, आनन्दघन आवे हो ।। - पिया० ।। ६ ।। अर्थ-समति कहती है कि चेतन स्वामी के बिना मेरे होश-हवास खो गये हैं, मैं सुध-बुध खो बैठी हूँ। रात्रि के समय विरह रूपी भुजंग ने मेरी शय्या को रौद कर उसे अस्त-व्यस्त कर दिया है। चेतन की विभाव दशा ने यह भयंकर स्थिति कर दी है ।।१।। विवेचन-जिसका जिससे प्रेम होता है, उसका उसके बिना मन . नहीं लगता। प्रेमी का विरह अत्यन्त दु:खदायी होता है। प्रेममय सुमति को विरह साँप के समान प्रतीत होता है। जिस प्रकार साँप प्राण-घातक है, उसी प्रकार विरह भी प्रेममय पत्नी को प्रारण-घातक प्रतीत होता है। अन्धकार में जिस प्रकार साँप का विष विशेष होता है, उसी प्रकार रात्रि में विरह रूपी साँप का जोर प्रबल होता है। ___ खाना-पीना सब छट गया। खाना-पीना किसे अच्छा लगे ? मैं अपनी व्यथा की सच्ची बात किसके समक्ष प्रकट करूं ? आजकल में घर आने की बात थी, परन्तु मन में वह आशा लुप्त हो गई। अर्थात् चेतन स्वामी आजकल में निजस्वभावरूपी अपने घर में आने वाले थे किन्तु उनके निज स्वभाव में न आने के कारण सब आशा विलुप्त हो गई ॥२॥ विवेचनखाना-पीना तो चेतन स्वामी के विरह में दूर रहा, किन्तु उसकी कथा भी प्रीतम के विरह के कारण टल गई। प्रीतम के विरह में देह का कोई मूल्य नहीं है तो फिर भोजन की, पानी की कथा करने की बात ही कहाँ रही? उच्च कोटि के निष्काम प्रेम की धुन में Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१०१ उसे देह को टिका रखने का भान न रहना स्वाभाविक है अर्थात् प्रेम के समक्ष खाना-पीना तथा देह भी निरर्थक है। सुमति कहती है कि मेरी विरह-वेदना नौ खड़े भालों जितनी अथाह है। ऐसा कौनसा मेरा मित्र वैद्य है जो मेरे हृदय की कसक दूर करे ? ।। ३ ।। विवेचन-सुमति कहती है कि मेरी विरह वेदना इतनी अगाध है कि उसकी थाह पाना असम्भव है। मेरे नेत्रों में से अाँसुत्रों का इतना प्रवाह हो रहा है कि यदि उसको गहराई नापी जाये तो नौ नेजों जितनी होगी अर्थात् नौ खड़े भालों जितनो गहराई जितना अश्रु-प्रवाह का जल एकत्र हो गया है। गालों पर हथेली लगाकर अर्थात् विचार-मग्न होकर शोक रूपी सागर में गोते खा रही हूँ, डूब रही हूँ। नेत्रों से आँसू बहा कर गालों पर लगी हुई हाथ रूपी बेल को सींच रही हूँ अर्थात् अत्यन्त दु:खी हो रही हूँ॥ ४ ॥ विवेचन-शुद्ध प्रेम-दशा में विरह की वेदना का पार नहीं होता। चेतन स्वामी के विरह में सुमति का हृदय मूच्छित सा हो रहा है। चक्षुत्रों से प्रवाहित अश्रु-प्रवाह से स्पष्ट है कि सुमति का चेतन स्वामी के साथ कितना अगाध प्रेम है ! स्वामी कुमति के घर जाता है, इसमें सुमति का लेशमात्र भी दोष नहीं है, फिर भी उसका स्वामी के प्रति कितना प्रेम है ! सुमति का स्वामी के प्रति उत्तम शुद्ध प्रेम है। उसके हृदय का प्रेम स्वर्ण के समान निर्मल है। श्रीमद् आनन्दघनजी ने प्रस्तुत पद्यांश में सुमति का अपूर्व प्रेम प्रदर्शित किया है और सुमति की प्रेम दशा का वास्तविक चित्रण किया है। प्रात्मस्वामी की प्राप्ति में शुद्ध प्रेम की आवश्यकता है। शुद्धप्रेम के कारण आत्मा की अप्राप्ति के समय विरह-वेदना का अनुभव होता है। सुमति प्रात्मा के अभाव में व्याकुल रहती है। वह आत्मस्वामी के मिलाप के लिए आतुर है। उसे तनिक भी चैन नहीं मिलता। आत्मा की प्राप्ति के लिए आत्म-प्रेम-रमणता की आवश्यकता है और उस प्रकार का प्रेम सुमति के हृदय में होने से वह आत्म-स्वामी के वियोग में ऐसी विरह-दशा का अनुभव करती है। सावन-भादौं की घनघोर घटाओं के मध्य कभी-कभी बिजली । चमक जाती है। अर्थात् विरह दशा में चेतन की विभाव दशा में Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०२ कभी-कभी मेरी ओर उन्मुख होने के रूप में बिजली चमक जाती है। ऐसे सावन-भादौं में सब नदियाँ तथा सरोवर भर गये हैं, परन्तु मेरा हृदय रूपी सरोवर तो अभी तक सूखा ही है। तात्पर्य यह है कि चेतन की विभाव दशा में अशुभकर्म रूपी नदियाँ, तालाब आदि तो भर गये किन्तु मेरा समभाव रूपी तालाब तो सूखा ही रहा ।। ५ ।। विवेचन-सूमति कहती है कि सावन, भादौं के महीनों में आकाश में मेघों की घटायें छा जाती हैं और रिमझिम वर्षा होती रहती है। बीच-बीच में विद्युत् की चमक भी दष्टिगोचर होती रहती है। मेघवृष्टि के कारण नदियाँ तथा सरोवर परिपूर्ण हो चुके होते हैं, फिर भी उस समय मेरा हृदय रूपी सरोवर शुष्क पड़ा रहता है। मेरे चेतनस्वामी रूपी मेघ की कृपा-वृष्टि के बिना मेरा हृदय-सरोवर शुष्क बना रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। बाह्य स्थूल भूमिका के मेघों को देखकर मुझे अपने अन्तर के आत्म-मेघ का स्मरण हो पाता है। यदि आत्म-मेघ की वृष्टि हो जाये तो हृदय-सरोवर छलछला उठे। सुमति ने विशेषत: चेतन स्वामी के विरह में हृदय खोलकर विरह-व्यथा' व्यक्त की है। सुमति को इतनी व्यथित देखकर अनुभव . उसकी विरह व्यथा की बात चेतन स्वामी को अनुकूल भाव से उसकी रुचि के अनुसार अवसर देखकर कहता है और उसे समझाता है। जब अनुभव को आशा बँध गई तब उसने आकर सुमति को कहा, "हे सुमते ! तनिक धैर्य रखो, आनन्दघन प्रभु अब तेरे पास आने ही वाले हैं।" श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि अनुभव ने. सुमति को इस प्रकार धैर्य बंधाया ।। ६ ।। विवेचन-- यदि सुमति ऊपरी गुणस्थानक पर जाने हेतु कुछ समय के लिए धैर्य रखे तो आनन्दघन रूप परमात्म-स्वामी उसके घर आये बिना नहीं रहेंगे। जिसके हृदय में समता जाग्रत हो और आत्म-प्रभु की प्राप्ति के लिए विरह-दशा के उद्गार प्रकट हों, वही मनुष्य अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त कर सकता है। शुद्ध प्रेम से प्रात्म-प्रभु का ध्यान किये बिना बाह्य दशा का भान नहीं भूला जाता है। यदि जड़ वस्तुओं के. राग का परित्याग करना हो और आत्मा की आनन्द-दशा प्राप्त करनी हो तो आत्मा के प्रति अत्यन्त शुद्ध प्रेम रखना चाहिए। शुद्ध प्रेम में समस्त आत्माओं की एकता प्रतीत होती है। समस्त जीवों पर शुद्ध प्रेम का Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १०३ प्रवाह होता है जिससे द्वष रूप मलिनता नष्ट हो जाती है । जो मनुष्य वीतराग - पद प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें प्रथम इसी दशा का अनुभव होगा । शुद्ध प्रेम के बिना कोई भी मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म बाँधने में समर्थ नहीं हो सकता । देव, गुरु तथा धर्म के राग का भी प्रेम में समावेश हो जाता है । देव गुरु की भक्ति को भी प्रेम जीवित रखता है । गुरु की कृपा-दृष्टि का सिंचन भी प्रेम ही करता है और महात्माओं का आशीर्वाद प्राप्त कराने वाला भी प्रेम है। शुद्ध प्रेम में देह, मृत्यु, लज्जा एवं लोक-विरोध आदि की भी कोई परवाह नहीं रहती । सुमति ने चेतन - स्वामी के शुद्ध प्रेम में रंग कर जो-जो उद्गार व्यक्त किये हैं उन पर मनन करना चाहिए । ( ३६ ) ( राग आसावरी ) साखी - जग श्रासा जंजीर की गति उलटी कुल मौर । जकरचौ धावत जगत में, रहे छूटो इक ठौर || ( साखी ) श्रधू क्या सोवे तन मठ में, जागि विलोकन घट में ।। तन मठ की परतीत न कीजे, ढहइ परे पल में । हलहल मेटि खबरि लै घट की, चिन्हे एक रमता जल में || मठ में पंच भूत का वासा, सांसा धूत खबीसा | छिन छिन तोहि छलनकु चाहै, समझे न बौरा सीसा || - निर पर पंच बसे परमेश्वर, घट में आप अभ्यास प्रकासे विरला, निरखे औौधू० ।। १ ।। आसा मारि प्रसरण धरि घट में, अजपा आनन्दघन चेतनमय मूरति नाथ धू० ।। २ ।। सूछिम बारी । धू की तारी ॥ प्रौधू० ।। ३ ।। जाप जगावे । निरंजन पावे || प्रौधू० ।। ४ ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगि गज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०४ अर्थ-संसार में आशा-तृष्णा के बन्धन की और जंजीर के बन्धन की चाल एक दूसरे से सर्वथा विपरीत है। जंजीर से बँधा हुआ प्राणी तो अपने स्थान से तनिक भी इधर-उधर नहीं हो सकता, किन्तु आशातृष्णा से जकड़ा हुआ प्राणी संसार में दौड़ लगाता ही रहता है, भ्रमण करता ही रहता है तथा इस आशा-तृष्णा के बन्धन से मुक्त हुआ प्राणी एक स्थान पर स्थिर हो जाता है। वह भव-भ्रमण से मुक्त होकर आत्म-सुखों में स्थिर हो जाता है । (साखी) विवेचन-आशा रूपी जंजीर सचमुच लोहे की जंजीर से सर्वथा भिन्न प्रकार की है। श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि आशा रूपी जंजीर से चौरासी लाख जीवा योनि के जीव जगत् में दौड़ते रहते हैं। संसार में आशा के समान अन्य कोई बन्धन नहीं है। मनुष्य अनेक प्रकार की आशा में यत्र-तत्र दौड़ते रहते हैं। शहद की बूद की आशा में संसारी जीव गुरुदेव के उपदेशों को भी हृदयंगम नहीं कर सकते। मानव आशा के उपासक बन कर सन्तोष की उपासना भूल जाते हैं। जब तक मन में आशा रूपी दावानल जलती है तब तक आत्मा को वास्तविक शान्ति प्राप्त नहीं होती। आशा से ही समस्त प्रकार के दु:खों की उत्पत्ति होती है। अतः आशा का परित्याग करके सन्तोष धारण करें ताकि आत्मा का सच्चा सुख प्राप्त हो सके। हे अवधत! आत्मन् ! इस देह रूपी मठ में क्या सोया पड़ा है ? अचेत क्यों हो रहा है ? तनिक जांग्रत होकर अपने अन्तर को देख । सोच कि क्या हो रहा है ? इस देह रूपी मठ का तू तनिक भी विश्वास मत कर। पता नहीं यह कब धराशायी हो जाये ? अतः अपनी समस्त हलचल (मोह-माया) को छोड़ कर अपना अन्तर टटोल । इस हृदय रूपी सरोवर के जल में रमण करने वाले आत्माराम को पहचान ।। १ ।। विवेचन-हे अवधूत आत्मन् ! तू अभी तक 'तन मठ में ममत्व नींद में क्यों सोया पड़ा है ? देह रूपी मठ क्षणिक है, नश्वर है, अतः इसका विश्वास मतकर, क्योंकि मन में उठने वाली राग-द्वेष की चंचलता नष्ट करके तुझे अपने शुद्ध स्वरूप की खबर लेनी है। इस देह रूपी मठ में पंच भूत का निवास है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु तत्त्व का स्थान देह है, उसी प्रकार से मठ भी इन तत्त्वों से निर्मित है। इस देह रूपी मठ में साँस रूपी धर्त, दुष्ट Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१०५ दानव भी है जो प्रतिपल छल करता है। हे अवधूत ! तू यह बात समझता क्यों नहीं ? यह देह जड़ पुद्गलों से बनी है और तू ज्ञानघन चेतन है। देह तो इन जड़ पदार्थों में सुख मानती है। तू इनके संयोग से अनादि काल से ठगा जाता रहा है और अपना चैतन्य स्वरूप भूल बैठा है। अब तू अपनी यह भूल सुधार ।। २ ।। विवेचन-देह रूपी मठ में श्वासोच्छ्वास रूपी धूर्त खवीस है जो क्षण-क्षण में आत्मा के साथ छल करता है। ऐसे समय में हमें नींद क्यों करनी चाहिए। देह रूपी मठ की यह दशा है, फिर भी मूर्ख शिष्य समझ नहीं पा रहा है और देह-मठ के प्रति ममता रखकर अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव में जाग्रत नहीं हो रहा । हे आत्मन् ! तू जाग जा, सचेत हो जा और पंच भूतों से सावधान रह। तू पंच परमेष्ठी का स्मरण कर ताकि पंच भूतों तथा खवीस का तनिक भी जोर न चले। अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय एवं साधु-इन पाँच परमेश्वरों का तेरे सिर पर निवास है तथा तेरे घट में सम्यक्त्व रूपी सूक्ष्म खिड़की है जिसमें होकर तू क्षायिक भाव रूपी ध्रुव तारे का दर्शन कर सकता है, परन्तु उक्त ज्योति दीर्घ अभ्यास के द्वारा किसी विरले को ही प्रकट होती है। जब तक हृदय में अनेक कामनाएँ हैं, विभिन्न सुखों की तथा भोगों की आशाएँ लगी हुई हैं, तब तक आत्म-चिन्तन नहीं होता। जब हृदय समस्त वासनाओं का परित्याग करके केवल आत्म-लक्ष्यी हो जाता है तब उसे आत्म-दर्शन होता है ।। ३ ।। विवेचन तेरे सिर पर पंच परमेष्ठियों का निवास है। सिर के मध्य में ब्रह्मरंध्र है, वहाँ ध्यान के द्वारा प्रात्मा की स्थिरता होती है। ब्रह्मरंध्र में आत्मा के असंख्यात प्रदेश व्याप्त हैं। निश्चय नय से आत्मा स्वयं ही पंच परमेष्ठी रूप है। आत्मा देह की व्यापकता के कारण मुख्यतः सिर पर बसती है जो पंचपरमेष्ठी रूप है। अतः हम निश्चयनय से कह सकते हैं कि सिर पर पंच परमेश्वर का वास है। सिर पर आत्मा में साधु पद का ध्यान करने से साधु के गुण प्रकट होने से वह साधु कहलाता है, ब्रह्मरंध्र में उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप सोच कर उपाध्याय रूप बनता है, आत्मा ही प्राचार्य रूप अपना ध्यान करके आचार्य के रूप में प्रकट होती है, सिर पर आत्मा में अरिहन्त का ध्यान करने से घाती कर्म का क्षय करके आत्मा ही अरिहन्त बनती है और आत्मा ही स्वयं को सिद्ध रूप ध्यान करके समस्त कर्मों का क्षय करके Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०६ स्वयं ही सिद्ध रूप बनती है। हृदय में से वहाँ जाने के लिए सुरता ही एक शुद्धोपयोगता रूप खिड़की है। योग-मार्ग की अपेक्षा हृदय में से ब्रह्मरंध्र में जाने के लिए सुषुम्ना नाड़ी बंकनाल रूप खिड़की है। हृदय से सुषुम्ना नाड़ी में ब्रह्मरंध्र तक आने पर आत्मा के प्रकाश में वृद्धि हो जाती है। सम्पूर्ण आशाओं को मार कर, मन में दृढ़ स्थिरता रूपी आसन जमा कर जो अजपा जाप करता है अर्थात् उच्चारण रहित-चिन्तन रहित जाप करता है, वह आनन्दस्वरूप ज्ञान-दर्शनमय निरंजन स्वामी अर्थात् परमात्म देव को प्राप्त कर लेता है ॥ ४ ॥ विवेचन—आशाओं का परित्याग किये बिना कोई भी मनुष्य आत्म-साधना में सफल नहीं हो सकता। इस साधना में आसन का भी बड़ा महत्त्व है। आसन से काया के योग पर अंकुश रहता है। यदि देह ही स्थिर न रह सके तो मन का स्थिर रहना असम्भव है। अतः यम-नियम के पश्चात् 'अष्टांग योग' में प्रासन-योग का ही स्थान है। आसन में देह का शिथिलीकरण ही मुख्य है। ज्यों ज्यों देह शिथिल होती जायेगी, त्यों-त्यों मन एकाग्र होता जायेगा और मन की एकाग्रता ही आत्मसिद्धि का द्वार है। __ आशा का परित्याग करके यदि आत्मा हृदय रूपी घर में स्थिर उपयोग-आसन लगाये तथा वैखरी वाणी के बिना, स्वभाव से जो 'हंस-हंस' शब्द ध्वनित होता है उसका जाप करे अथवा 'सोऽहं' शब्द का जाप करे अथवा जो कोई योगी आत्मा के शुद्धोपयोग रूप अजपा जाप को जपे तो श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि वह आनन्द समूह युक्त चैतन्य मूत्ति रूप निरंजन परमात्मदेव को प्राप्त करता है। ( ४० ) ( राग-काफी ) हठीली प्रांख्यां टेक न मिटे, फिरि-फिरि देखन चाहूँ ॥ छैल छबीली पिय सबी, निरखत तृपति न होइ । हठकरि टुक हटके कभी, देत निगोरी - रोई ।। हठीली० ॥ १ ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-१०७ मांगर ज्यु टगाइ के रही, पिय सबि के द्वारि । लाज डांग मन में नहीं, कानि पछेवड़ा डारि ।। हठीली० ।। २ ।। अटक तनक नहीं काहू की, हटकै न इक तिल कोर । हाथी पाप मत . अरइ पावै न महावत जोर ।। हठीली० ।। ३ ।। सुनि अनुभव प्रीतम बिना, प्रान जात इहि ठाहिं। हैज न अातुर चातुरी, दूर आनन्दघन नाहिं ।। हठीली० ।। ४ ।। अर्थ-सुमति की हठीली आँखें अपनी हठ छोड़ रही हैं, वे पुनि-पुनि प्रियतम को देखना चाहती हैं। अपने छैल छबीले प्रियतम की सुन्दर छवि को देखते हुए तृप्ति नहीं होती। यदि उन्हें बरबस रोका जाता है तो वे निगोड़ी आँखें आँसू बहाती हैं, रो देती हैं ॥१॥ विवेचन-सुमति अपने चक्षुत्रों से शुद्धात्मपति पर अन्तरदृष्टि से त्राटक करती है। उसका आत्मपति पर अत्यन्त विशुद्ध अनन्त गुना प्रेम होने से उसके दिव्य चक्षु भी आत्मा को देखने में तन्मय हो जाते हैं । दिव्य चक्षु सचमुच आत्म-स्वामी के रूप को गौर से देखते हैं। चेतन-पति अनन्तगुणों की शोभा से युक्त है और अनन्त सुख का दाता है। ऐसे आत्मपति की छवि देखने से सन्तोष नहीं होता परन्तु उन्हें परिपूर्ण शुद्ध भाव से तन्मयता से मिलने से सन्तोष होता है। सुमति के दिव्य चक्षु आत्म-प्रभु को बार-बार देखते रहते हैं। सुमति के उन्हें रोकने पर वे आँसू टपकाते हैं। सुमति के दिव्य चक्षुओं में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। वह आँखों को रोकती है, फिर भी वे पीछे नहीं हटतीं और रुदन करके आत्मपति के साथ एकतान हो जाती हैं। स्त्री को स्वामी के साथ सर्वप्रथम चक्षुत्रों के द्वारा प्रेम होता है। जिसके नेत्रों में प्रेम नहीं होता उसके हृदय में तो प्रेम हो भी कैसे सकता है ? सुमति के नेत्रों में आत्म-प्रभु को देखने के लिए अत्यन्त प्रेम है और वह कितना है यह जानना शक्ति से परे है। उसके नेत्रों में ही केवल प्रेम नहीं है, परन्तु उसके समस्त प्रदेशों में प्रेम, प्रेम और प्रेम ही व्याप्त है। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०८ सुमति की दृष्टि सचमुच अपलक नेत्रों से प्रात्म-प्रभु को घूर-चूर कर देख रही है। जल के वियोग से काँटे में फंसी हई मछली की दृष्टि जिस प्रकार जल की ओर लगी रहती है, उसी प्रकार सुमति कहती है कि मेरी दृष्टि प्रियतम के द्वार की ओर लगी रहती है। प्रियतम की छवि की ओर देखने में मेरे मन में किसी के लज्जा रूपी डण्डे का भय नहीं है और मैंने मर्यादा रूपी चादर (पछेड़ी) उतार कर अलग डाल दी है ।। २ ॥ विवेचन--सुमति कहती है कि मेरा मन लज्जा त्याग कर. आत्मप्रभु को देखने के लिए उत्साह का अनुभव कर रहा है। आत्म-प्रभु पर जिसका शुद्ध प्रेम है वह संसार से भला क्यों डरे ? सुमति का आत्मा पर अत्यन्त शुद्ध प्रेम है जिससे प्रात्मा के साथ अन्तरदृष्टि से उसका त्राटक हो रहा है। त्राटक के दो भेद हैं। बाह्य वस्तु को एक स्थिर दृष्टि से देखने के लिए जो त्राटक किया जाता है वह बाह्य त्राटक कहलाता है और आत्मा के शुद्धस्वरूप को देखने के लिए अन्तरदृष्टि से देखना पड़ता है उसे अन्तर त्राटक कहते हैं। भगवान की प्रतिमा एवं सद्गुरु के चित्र के सामने नेत्र स्थिर करके बाह्य त्राटक की साधना की जाती है। बाह्य त्राटक की सिद्धि होने पर संकल्प बल की सिद्धि होती है। बाह्य त्राटक की अपेक्षा अभ्यन्तर आत्म-स्वरूप का त्राटक अनन्तगुना उत्तम है। बाह्य त्राटक को तो बाल-जीव सिद्ध कर सकते हैं परन्तु अन्तर त्राटक को ज्ञानयोगी ही सिद्ध कर सकते हैं। बाह्यत्राटक को भी सिद्ध करने की आवश्यकता है। बाह्य त्राटक. करके, रूप आदि मोह से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए। अब किसी की तनिक भी रोक नहीं होने से ये हठोले नेत्र तिल के अग्रभाग जितना भी हटना नहीं चाहतीं। हाथी जब मदोन्मत्त हो जाता है, स्वयं के मते से चलता है; महावत का तनिक भी जोर नहीं चलता। महावत का अंकुश किसी काम नहीं आता। वह निरंकुश हो जाता है ।। ३ ।। विवेचन - मदोन्मत्त बने हाथी पर महावत का भी जोर नहीं चलता, उसी प्रकार मन आत्मा के साथ इतना अधिक लीन हो गया है कि उसे हटाया नहीं जा सकता। ऐसी सुमति के मन की प्रेम दशा है । इस कारण सुमति कहती है कि हे अनुभव ! अब तो आत्मप्रेम के बिना मेरे प्राण यहीं पर निकल जायेंगे। सुमति के मन में अतुलनीय प्रेम है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली - १०६ हाथी जब हथिनी को देखकर मदोन्मत्त हो जाता है तब वह महावत के अंकुश के प्रहारों को भी नहीं गिनता । समता युक्त मन भी प्रात्मा के प्रति प्रेम में मस्त हो गया है जिसके कारण वह पीछे नहीं हट रहा है । मेरी बात स्पष्ट सुन लो । देह को छोड़ देंगे । इस सुमति कहती है कि हे अनुभव मित्र ! प्रीतम के बिना मेरे प्राण इसी स्थान पर इस पर अनुभव ने कहा, "हे सुमति ! शीघ्रता मत कर, शीघ्रता करना बुद्धिमानी नहीं है । तू धीरज रख, विश्वास रख, आनन्दघन चेतन तुझसे दूर नहीं हैं ।। ४ ।। विवेचन - सुमति अनुभव को प्रात्म-वृत्तान्त सुनाती है । अनुभव उसका आन्तरिक मित्र है आत्मा के स्वरूप में होने वाला प्रेम ऊपरऊपर के गुणस्थानक में अनन्तगुना विशुद्ध बनता है । आत्मा तथा समता में एकता कराने वाला आत्मा में उत्पन्न होने वाला शुद्धप्रेम ही है । बाह्य वस्तु का प्रेम 'विष- प्रेम' कहलाता है । आत्मा के सद्गुणों पर तथा उनके निमित्तों पर होने वाला प्रेम 'अमृत - प्रेम' कहलाता है । आत्मा के प्रति ज्यों-ज्यों प्रेम की वृद्धि होती जाती है, त्यो त्यों शुक्ल लेश्या की उज्ज्वलता की वृद्धि होती है । आत्मा पर होने वाला शुद्ध प्रेम चन्द्रमा की चांदनी की तरह आनन्द प्रदान किये बिना नहीं रहता । आत्मा के प्रति यदि सचमुच प्रेम प्रकट हुआ है तो जान लें कि परमात्म- पद प्राप्ति में अब विलम्ब नहीं है । सुमति के कथनानुसार ग्रात्म-स्वामी के बिना उसके प्रारण नहीं रहेंगे, यह बात सत्य प्रतीत होती है । ऐसे श्रेष्ठ मोक्षमार्ग का प्रेम ही सत्य प्रेम है । विशेष- इस सम्पूर्ण पद में अध्यात्म भरा हुआ है । रूपी हठीले नेत्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रियतम की ओर लग सम्पूर्ण पद का सार यह है कि मन, वचन एवं काया के योग से अन्तर में प्रेमपूर्वक आत्म-स्वामी के साथ रमण करें । अशुभ प्रेम को शुभ प्रेम में परिवर्तित करने के लिए प्रभु-दर्शन, प्रभु-पूजा, सामायिक आदि छह श्रावश्यक, सद्गुरु-सेवा, परोपकार तथा सिद्धान्तों के श्रवरण में प्रवृत्त होना चाहिए और आत्मा के प्रति प्रेम रखना चाहिए। अपनी आत्मा की तरह समस्त आत्माओं के प्रति प्रशस्य प्रेम रखकर उनका कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए । साधु अथवा श्रावक के व्रतों को पालन करने का प्रयत्न करना चाहिए । आत्मा के सद्गुणों के प्रति प्रेम रखना चाहिए । चित्तवृत्ति रहे हैं । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ११० अचल, अविनाशी, अखण्ड, परमानन्दमय प्रात्म-प्रभु के प्रति शुद्ध प्रेम रखना चाहिए । अशुद्ध प्रेम का नाश करने के लिए आत्मा के गुणों का प्रेम रखना चाहिए । आत्मा में प्रेम होने से समता अपनी आत्मा के साथ मिलती है अर्थात् आत्मा में क्षायिक भाव से चारित्र प्रकट होता है । ( ४१ ) ( राग- वसन्त ) दु की राति काती सी बहइ, छातीय छिन छिन छीन । प्रीतम सवी छबि निरख कइ, पिउ पिउ पिउ पिउ कीन | वाही चवी चातिक करे, प्राण हरण परवीन ।। ॥ १ ॥ इक निसि प्रीतम, नाउकी, विसरी गई सुधि चातक चतुर चिता रही, पिउ पिउ पिउ एक समइ आलाप के, कीन्हइ अडान सुघर पपीहा सुर धरइ, देत है, पीउ पीउ नीउ । पिउ ।। भादु ।। २ ।। गान । तान ।। भादु ।। ३ ।। रात विभाव विलात ही, उदित सुभाव सुभानु । समता साच मतइ मिले, प्राएं आनन्दघन मानु || भादु ।। ४ ।। अर्थ – सुमति कहती है कि प्रिय चेतन स्वामी की विभाव दशा रूप भादौं की घनघोर अंधेरी रात्रि मेरी छाती को क्षरण-क्षण छेद रही है, विदीर्ण कर रही है । प्रिय चेतन की शोभा देखकर हृदय प्रेम से विभोर हो जाता है और मुँह से 'पिया पिया' की ध्वनि निकल पड़ती है । पपीहा भी 'मिउ-पिउ' शब्दही बोलता है । इससे विरहिणी के पति की स्मृति ताजी हो जाती है । इसलिए कवियों ने पपीहे को विरहिणियों के प्रांरंग हरण करने में चतुर कहा है ।। १ ।। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१११ विवेचन ---भादौं की रात्रि बादलों की घटाओं के कारण अत्यन्त काली होती है। प्रियतम-वियोगिनी स्त्री को प्रियतम के बिना भादौं की रात्रि कटार के समान लगती है। एक वैरिन जैसी भादौं की रात्रि रूपी कटार मेरा कलेजा काटने का कार्य करती है। मेरे प्रात्म-पति के बिना मेरे हृदय के टुकड़े हुए जा रहे हैं। इस प्रकार सुमति कहती है कि भादौं की रात्रि मेरी ऐसी दशा करती है। सुमति कहती है कि एक रात्रि में प्रियतम के ध्यान में मैं ऐसी खो गई कि उनके नाम की स्मृति ही भूल बैठी। हे चातक ! 'पिउ-पिउ' की ध्वनि से मुझे तू क्या चेतावनी दे रहा है ? मेरे घट में तो पिउ ही बस रहा था, मुझे तो उनका ही ध्यान था, उनका ही विचार मेरे मन में था। केवल मुह पर उनका नाम नहीं था ।। २ ।। विवेचन-ध्यान में कई बार ऐसी समाधि लग जाती है और दीर्घ अभ्यास से इसी तरह ध्येय और ध्यान की एकता सिद्ध होती है। फिर ध्याता, ध्यान और ध्येय तीनों एकरूप हो जाते हैं। उस रात्रि में सुमति चेतन स्वामी के ध्यान में ऐसी लीन हो गई कि ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकाग्रता हो गई और उसे ध्यान ही न रहा कि वह और उसके स्वामी भिन्न हैं। उस समय, चिंत्त रूपी चातक ने मुझे सचेत कियां जिससे मैं सविकल्प दशा में आ गई और प्रिय शब्द का जाप करने लगी। अर्थ---ऐसे आड़े समय में, दुःख के समय में किसी ने पालाप लगा कर गायन किया। उससे जब मेरा ध्यान टूटा तो ज्ञात हुआ कि चतुर पपीहा मुझे ध्यान-लीन देखकर 'पिउ-पिउ' की तान लगा रहा है ।। ३ ।। विवेचन-सुमति अनुभव मित्र को कहती है कि एक बार मैं अपने प्रियतम का स्मरण करती हुई अकेली बैठी थी, मैं उनके प्रेम में तन्मय हो गई थी, उनके वियोग के कारण अन्तर में विलाप कर रही थी, उस समय पपीहे ने बेवक्त तान छेड़ी, तो मैं उनसे मिलने के लिए अत्यन्त आतुर हो गई। सुमति के साथ तान मिलाने वाला मन के अतिरिक्त अन्य कौन हो सकता है ? मन एवं बुद्धि जब एक ही दिशा में कार्यरत होते हैं तो सफलता अवश्य मिलती है। सुमति के कार्य में मन बारहवें गुरणस्थानक तक सहायता करता है। भाव-मन की सहायता के बिना घातीकर्म का क्षय नहीं होता। मन की सहायता से केवलज्ञान और Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-११२ केवलदर्शन प्रकट होते हैं। अतः सुमति का मन रूपी पपीहा स्वर के आलाप से तान मिलाता है, जिससे सुमति अपने शुद्ध चेतन-स्वामी को ' प्राप्त करने के लिए अत्यन्त प्रवृत्ति करती है। मन के इस परिवर्तन से सुमति को अनुमान होता है कि विभाव दशा रूपी सूर्य उदय होने वाला है जिससे आनन्द के समूह चेतन स्वतः ही मुझसे आकर मिलेंगे ।। ४ ।। विवेचन-सूमति कहती है कि 'प्रिय प्रिय' की तान लगाने से विभाव-दशा रूप रात्रि घटती जाती है। घटते-घटते रात्रि व्यतीत होने पर अरुणोदय रूप अनुभव-ज्ञान प्रकट होता है, अन्धकार नष्ट हो जाता है। केवलज्ञान रूपी सूर्य का प्रकाश आते ही अन्धकार पूर्णतः नष्ट हो जाता है। केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय होने पर आनन्द के समूहभूत प्रभु सुमति के घर आकर उससे मिले। चौथे गुणस्थानक में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान होता है और अवधिज्ञान भी चौथे गुणस्थानक में होता है।. सातवे गुरगस्थानक में मनःपर्यवज्ञान प्रकट होता है। दसवें गुणस्थानक तक लोभ का उदय होता है जिससे मोहनीयकर्म की अपेक्षा दसवें गुणस्थानक तक विभावदशा रूप रात्रि है।, घाती कर्म की अपेक्षा बारहवें गुणस्थानक तक विभावदशारूप रात्रि कही जाती है। तेरहवं गुणस्थानक में जाते ही केवलज्ञान सूर्य प्रकट होता है। सुमति का तेरहवें गुणस्थानक में परमात्म-स्वामी से साक्षात् मिलाप होता है। ( ४२ ) , ( राग-सारंग ) नाथ निहारो न प्राप मतासी। वंचक सठ संचक सी रीते, खोटो खातो खतासी । नाथ० ।। १ ।। आप बिगूचन जग की हांसी, सैणप कौण बतासो । निज जन सुरिजन मेला ऐसा, जैसा दूध पतासी ।। नाथ० ।। २ ।। ममता दासी अहित करि हर विधि, विविध भांति सतासी । आनन्दघन प्रभु बीनती मानो, और न हितू समता सी ।। नाथ० ।। ३ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ११३ अर्थ - सुमति कहती है कि हे चेतन ! आप विश्वास क्यों नहीं करते कि मैं आपके मतानुसार चलने वाली हूँ । धूर्त, कपटी और कृपण ममता आपको धोखा देकर आपका ज्ञान आदि धन भक्षण करने के लिए बुरा खाता खताने वाली है अर्थात् वह आपको दुर्गति में ले जाने वाली है ।। १ ।। सुमति अपने आत्मस्वामी को उपालम्भ देती हुई कहती है कि 'हे स्वामी ! ममता की संगति से जगत् में आपकी बदनामी होती है और लोग आपकी हँसी करते हैं । हे स्वामिन् ! जब तक प्राप ममता की संगति में रहेंगे तब तक आपको दक्षता कौन बतायेगा ? मेरे बिना आपको ऐसी बुद्धिमानी कौन बतायेगा ? मेरी बात स्वीकार करके आप मुझ सच्ची पत्नी की बात को मानो और मेरे साथ मिलाप करो तथा सम्यग्ज्ञान आदि अपने सम्बन्धियों का मिलाप करो और ममता का परित्याग करो । अपनी पत्नी रूपीं निज जन का मिलाप दूध में बताशे की तरह मधुर, सुखद एवं तन्मयता प्रदान करने वाला है अर्थात् संयम, सन्तोष, विवेक, आर्जव एवं मार्दव आदि चेतन के स्वजन हैं । इनके संयोग से अनेक गुरण प्रकट होते हैं और उनकी वृद्धि होती है ।। २ ॥ विवेचन - सुमति कहती है कि ममता आपको कदापि अच्छी शिक्षा नहीं देगी | आप ज्ञानी हैं, अतः यदि आप सोचेंगे तो सत्यता जान जायेंगे । हे स्वामी ! आप मेरा कहना मानकर अपने मूलस्वरूप का विचार करो । मैं सदा आपकी हित- चिन्तक हूँ, अतः मेरे अलावा आपको शिक्षा कौन देगा ? सुमति कहती है कि मेरे मिलाप से आपको सच्चा सुख मिलेगा और परमानन्द पद की प्राप्ति होगी । जिस प्रकार दूध में बताशा घुल कर मिल जाता है, उस प्रकार आपका और मेरा स्वभाव दूध में बताशे की तरह तुरन्त मिल जायेगा, अर्थात् मेरा और आपका एक शुद्ध रसरूप स्वभाव है। मेरी और आपकी एक रसरूप परिणति है । अतः आप यदि सोचेंगे तो मुझ पर आपका प्रगाढ़ प्रेम होगा और आप अनन्त सुखों का उपभोग करेंगे । हे आत्मन् ! ममता दासी प्रत्येक प्रकार से अनेक प्रकार के सन्ताप उत्पन्न करने वाली है । आनन्दघनजी कहते हैं कि हे प्रानन्द के समूह चेतन ! कि समता के समान आपका अन्य कोई हितैषी नहीं है ।। ३ ।। अहितकर है तथा श्रीमद् योगिराज मेरी विनय सुनो विवेचन - सुमति कहती है कि हे आत्मन् ! ममता आपका प्रत्येक प्रकार से अहित करने वाली है । आप अनादिकाल से उसकी Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-११४ संगति में रहे परन्तु अब तक आप सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर पाये। ममता के साथ सम्बन्ध रखने से आप पुनः पुन: चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। आप कितने संकट सह रहे हैं ? अतः अब आप मेरी शिक्षा मान लो। श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि सुमति के समान कोई आपकी हितैषी नहीं है । अतः ममता दासी का संग छोड़कर सुमति का संग करो। श्रीमद् आनन्दघनजी अपनी आत्मा को कहते हैं कि अब सुमति का संग कर। वे अपनी आत्मा को समता के संग में रखने के लिए उसे जो शिक्षा देते हैं वह अपूर्व है। अतः वास्तव में मनन करें तो ममता की संगति से ही अठारह पापस्थानकों का सेवन होता है। ममता आत्मा को चतुर्गति में परिभ्रमरण कराती है, जबकि समता आत्मा को मुक्ति में ले जाने वाली है। हमें नित्य समता की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। जब भी हमारे मन में ममता के विचार आयें तब समता के विचार करके हमें ममता का नाश करना चाहिए। (४३ ). . ( राग-सोरठ) वारो रे कोई पर . घर भमवानो ढाल । नान्ही बहू ने पर घर . भमवानो ढाल ।। पर घर भमतां झूठा बोली थई, देस्य धणीजी ने पाल ।। वारो० ॥ १ ॥ अलवै चालो करती देखी, लोकड़ा कहिस्ये छिनाल । अोलभडा जण जण ना प्राणी, हीयड़े उपासै साल ।। वारो० ॥ २ ॥ बाई पड़ोसण जोवो ने लगारेक, फोकट खास्य गाल । प्रानन्दघन सु रंग रमे तो, गोरे गाल झबूकइ झाल ।। वारो० ॥ ३ ॥ अर्थ-समता अनुभव, विवेक, श्रद्धा आदि अपने सम्बन्धियों को कहती है कि चेतन की इस छोटी पत्नी अशुद्ध चेतना को पर-घर अर्थात् पौद्गलिक भावों में घूमने की कुटेव पड़ी हुई है। अरे, कोई भी इसकी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ११५ पर-घर घूमने की आदत छुड़ाम्रो, कोई इसे रोको । पर-घर घूमने के कारण यह झूठ बोलने वाली बन गई है और अपने चेतन स्वामी पर कलंक लगाती है ।। १॥ समता विवेचन - समता उत्तम स्त्री है । इसका आत्मा पर अत्यन्त प्रेम है । अशुद्ध चेतना पर पुद्गल वस्तुओं के सम्बन्ध से पर-घर में घूमने जाती है । नीच प्रवृत्ति करने वालो अशुद्ध चेतना है, अतः वह छोटी बहू मानी जाती है । समता समझदार है और परहितकारी है । लगा कि मेरी बात का अशुद्ध चेतना पर कोई प्रभाव नहीं होता, अत: मैं किसी को कहूँ ताकि अन्य कोई छोटी बहू को ठिकाने लाये । वह लोगों को कहती है कि "अरे कोई उपकारो पुरुष, छोटी बहू की पर-घर घूमने की टेव छुड़ाये । राग एवं द्वेष से पर-भाव रूप घर में घूमते-घूमते यह असत्य - भाषी हो गई है । यह आत्म-स्वामी पर अनेक प्रकार के कलंक लगाती है । यह आत्मज्ञान, दर्शन और चारित्र धर्म को बदनाम करती है ।" अतः इसकी इधर-उधर की निरर्थक प्रवृत्ति को देखकर लोग इसे व्यभिचारिणी कहते हैं । यहू प्रत्येक से उपालम्भ लाती है जिससे हृदय विदीर्ण हो जाता है ।। २ ।। विवेचन – वैभाविक धर्म को आत्मा का कहकर सचमुच यह प्रात्मा को कलंकित करती है । अशुद्ध चेतना ऐसी प्रवृत्ति करती है जिससे लोग इसे छिनाल ( व्यभिचारिणी ) कहते हैं । आत्मा की शुद्ध संगति का परित्याग करके राग-द्वेष रूपी पर-पुरुष के साथ रमरण करने से ज्ञानी लोग अशुद्ध चेतना को कुलटा ( छिनाल ) कहें तो इसमें कोई बुराई नहीं है । अशुद्ध चेतना प्रत्येक मनुष्य के उपालम्भ लाती है । इस प्रकार की प्रवृत्ति हृदय में शल्य उत्पन्न करती है । समता श्रद्धा, सुमति आदि पड़ोसनों को कहती है कि हे बहिनो ! तनिक देखो तो सही, यह व्यर्थ गालियाँ खाती है । यह क्यों बदनाम होती है ? श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि यदि यह आनन्दघन चेतन के रंग में रमरण करे तो इसके स्वभाव रूप गोरे गालों पर उपयोग रूप तेज चमकने लगे और समस्त दुर्गुण नष्ट हो जायें ।। ३ ।। विवेचन - समता के कथन का सारांश यह है कि यदि अशुद्ध चेतना अपनी भूल समझ कर ग्रब से आत्मा की संगति करे और पर पुद्गल वस्तु के घर में न जाये तो उस पर ग्रात्म - स्वामी की कृपा हो जाये ताकि Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-११६ वह अनुभव ज्ञान का श्रवण कर सके और उसके मुंह पर आनन्द की छाया छा जाये। अत: चेतना को राग-द्वेषरहित करने का सतत प्रयत्न . करना चाहिए। राग-द्वेषरहित चेतना ही सर्वोत्तम चेतना कहलाती है। चेतना की अर्थात् ज्ञान की सर्वोत्तमता करने के लिए चारित्र-मोहनीय को जीतने का नित्य प्रयत्न करना चाहिए। राग-द्वेष की वृद्धि करने वाले ज्ञान से कदापि किसी का कल्याण नहीं हो सकता । ( राग-केदारो) .. प्रोति की रीति नई हो प्रीतम, प्रीति की रीति नई। मैं तो अपनो सरवस वार्यो, प्यारे कीन लई ।। प्रीति० ॥१॥ मैं बस पिय के, पिय संग और के, या गति किन सिखई । उपकारी जन जाय मिनावी, अब जो भई सो भई ।। , प्रीति० ।। २ ॥ विरहानल जाला प्रति प्रीतम, मो पै सही न गई । प्रानन्दघन ज्यू सघन घन धारा, तब ही दै पठई ॥ ., प्रीति० ।। ३ ।। अर्थ-समता अपने प्रियतम चेतन को कहती है कि हे प्रियतम ! आपने प्रीति की यह तो नवीन रीति ही अपनाई है। यह प्रेम का पंथ तो नहीं है। हे प्रिय ! मैंने तो अपना सर्वस्व आप पर न्योछावर कर दिया है और आप किसी अन्य को ही अपनाये हुए हैं ॥१॥ विवेचन-समता अपने आत्म-स्वामी को कहती है कि क्या यह प्रेम की रीति है ? वह कहती है कि मैं तो आपके लिए प्राण न्योछावर करती हूँ, सर्वस्व न्योछावर करती हूँ और आपके मन में मेरे लिए कुछ भी नहीं है। मेरे हृदय में केवल आप ही हैं। मेरा आपके प्रति विशुद्ध प्रेम है। एक पक्षीय प्रेम, प्रेम की वास्तविक रीति नहीं है। .. समता श्रद्धा एवं विवेक को कहती है कि मैं तो अपने प्रियतम चेतन के वश में हूँ और प्रियतम ममता के संग गुलछर्रे उड़ा रहे हैं । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-११७ पता नहीं यह रीति किसने सिखाई है ? हे श्रद्धे ! हे विवेक ! आप मेरे उपकारी हैं। आप जाकर चेतन को समझाओ और मुझसे मिलाप कराओ। आप जाकर उन्हें कहो कि जो हुमा सो हुअा। समता आपको बीती बातों का उपालम्भ नहीं देगी। आप तो अब उसके पास आयो ।॥२॥ __विवेचन –अात्मा अपने साथ शुद्ध प्रेम रखने वाली समता का संगी नहीं बनता और भ्रान्ति से वह ममता एवं कुमति का संग करता है। इस कारण समता उसे उपालम्भ देतो है कि आपको यह ढंग किसने सिखाया है ? मूढ़ पुरुष परनारी में फंस कर अपने आत्मा को नीच बनाता है और नीति भंग करता है। कुमति के फन्दे में फंसे मनुष्य पागल कुत्ते की तरह विषय-वेग से इधर-उधर दौड़ता है। मूढ़ मनुष्य सुख प्राप्त करने के लिए वहाँ जाते हैं परन्तु . वे दुःख के गर्त में गिरते हैं। पर-नारी की संगति से कदापि शान्ति प्राप्त नहीं होती। अज्ञान दशा के कारण समता के आत्म-स्वामी को यह सब समझ में नहीं आता। इस कारण वह उपकारी मनुष्यों को अपने आत्म स्वामी को मनाकर लाने की विनती करती है। विवेक एवं श्रद्धा चेतन के पास जाकर कहते हैं कि हे चेतन ! आप जानते ही हैं कि विरह-अग्नि की ज्वाला अत्यन्त दारुण होती है जो समता से सही नहीं गई। इस कारण उसने हमें आपको लेने के लिए भेजा है। विवेक एवं श्रद्धा के समझाने से चेतन का दृष्टि-मोह हट जाता है और स्वरूप-ज्ञान प्रकट होता है। श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि अानन्दघन चेतन ने समता को विरहाग्नि को बुझाने के लिए आनन्द को धारा देकर श्रद्धा एवं विवेक को भेज दिया ॥३॥ विवेचन -श्रद्धा एवं विवेक होने पर ही यह जीव ममता के वश में नहीं होता, उसे समता प्राप्त हो जाती है। सुमति मन की दशा है । यह केवलज्ञान होने के पूर्व ही रहती है और चेतना तो जीव का लक्षण ही है जो सदा जीव के साथ रहती है। आत्मा का विरह समता को अग्नि की ज्वाला की अपेक्षा विशेष जलाता है। प्रेमी को विरहाग्नि को कोई सहन नहीं कर सकता। समता विरहाग्नि से जल रही है। अतः वह अानन्दघन रूप मेघ की धारा की अभिलाषा करती है जो सचमुच उचित है । आनन्दघन रूप मेघ की धारा से विरह-ज्वाला शान्त होती है अर्थात् जब आत्मा कुमति का, ममता की . Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ११८ संगति का परित्याग करता है और समता के निकट आता है, तब आनन्दघन मेघ की वृष्टि होती है और सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा जाता है ( ( ४५ ) राग - मारु ) मनसा नटनागर सु जोरी हो, मनसा नटनागर सुं जोरी । सखि हम और सबन से तोरी ॥ नटनागर सु जोरी मनसा० ।। १ । लोक लाज नाहिन काज, कुल मरजादा छोरी । लोक बटाऊ हसो विरानी, आपनो कहत न को री ।। मनसा० ।। २ ।। मात तात सज्जन जात, बात करत सब चाखे रस की क्यु' करि छूटै, सुरिजन सुरिजन पीयूष ज्ञान सिन्धु मथित पाई, प्रेम मोदत प्रानन्दघन प्रभु शशिधर, देखत दृष्टि भोरी | टोरी ।। मनसा० ।। ३ ॥ प्रोरहानों कहा कहावत और पै नाहिन कीनी चोरी | काछ कछ्यो सो नाचत निब है, और चाचरि चरि फोरी ।। मनसा० ।। ४ ।। कटोरी | चकोरी || मनसा० ।। ५ ।। मैंने अपने मन को नटनागर चेतन से अर्थ- सुमति कहती है कि हे सखी श्रद्धा ! चतुर नटनागर ( चेतन) की ओर लगाया है । उस अपने मन को लगाने के पश्चात् मैंने समस्त जड़ पदार्थों से अपना मन हटा लिया है ॥ १ ॥ विवेचन - सुमति कहती है कि जड़ पदार्थों के प्रति राग रख कर मैंने अनेक जीवों का संहार किया । स्वर्ण, चांदी, मोती, हीरा, मकान, वस्त्र एवं पात्र आदि जड़ पदार्थों को प्राप्त करने के लिए मैंने अनेक मनुष्यों की Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली - ११६ दासता की, परन्तु चेतन से प्रीति जोड़ने के पश्चात् मैंने अन्य समस्त पदार्थों के साथ प्रेम-सम्बन्ध तोड़ डाला है । अब तो केवल शुद्ध चेतन के प्रति दृढ़ प्रेम उत्पन्न हुआ है । मुझे अनुभव हुआ है कि मेरे चेतन - स्वामी ही सुख के सागर हैं । मेरा लोकलज्जा से कोई सम्बन्ध नहीं है । कुलमर्यादा का मैंने परित्याग कर दिया है । मार्ग के पथिक लोग (विभाव परिणतियाँ) भले ही मेरी हँसी करें, मुझ कोई चिन्ता नहीं है, क्योंकि दूसरों की हँसी उड़ाना तो लोगों का स्वभाव है । स्वयं के अवगुण कौन देखता है ? यदि देख भी ले तो दूसरों के समक्ष कौन प्रकट करता है ? ||२॥ विवेचन - सुमति कहती है कि अब मेरा मन अन्तर से लोगों के विरुद्ध कार्य करता है । अतः मैंने समस्त संगति का परित्याग करके अपने आत्म-स्वामी के साथ प्रीति जोड़ी है और लोक-लज्जा का परित्याग कर दिया है । मेरे चेतन स्वामी के प्रेम में विघ्न डालने वाली कुल मर्यादा को छोड़ कर मैंने आत्म - स्वामी के प्रेम का मार्ग अंगीकार किया है । मुक्ति-मार्ग के प्रति अरुचि रखने वाले करें तो भी मैं पीछे नहीं हटने वाली । आत्म-स्वामी के प्रेम से हटने वाली नहीं हूँ । लोग चाहे हँसे, मेरा उपहास संसार कुछ भी कहे, परन्तु मैं माता, पिता, सज्जन, स्वजन, तथा जाति वाले लोग सब भोली बातें करते हैं । जिस सत्संगति का एक बार पान कर लिया है, उन सज्जनों की सत्संगति कैसे छूट सकती है ? ।।३।। . विवेचन - सुमति कहती है कि माता, पिता, स्वजन आदि जानते हैं कि सुमति को हम बाह्य जगत् में ललचाकर अपने सम्बन्ध में रखेंगे, परन्तु मैं तो सब जानता हूँ जिससे बाह्य जड़ पदार्थों के प्रति राग-द्वेष रखकर फँसने वाली नहीं हूँ । जड़ पदार्थों में जड़ता व्याप्त है । उनका मैंने अनन्त काल तक अनुभव लिया, परन्तु उनसे स्थायी सुख नहीं मिला पर ज्यों-ज्यों मैं अपने चेतन स्वामी के परिचय में आने लगी, त्यों-त्यों मुझे स्थायी सुख का प्रभास अनुभव होने लगा । चेतन स्वामी के अनुभव की वृद्धि होने के साथ मेरे अन्तर में आनन्द का सागर उमड़ने लगा । जब अपने आत्म-स्वामी के साथ स्थिरोपयोग में स्थिर हुई तब मुझे अनन्त सुख की झलक दिखाई दी । मुझे अपूर्व आनन्द रस के स्वाद की अनुभूति होने लगी । अब मैंने आनन्द रूप अमृतरस का आस्वादन कर लिया है । मैंने उक्त आस्वादन शुद्ध चेतन की संगति से किया है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२० अब तो उन चेतन स्वामी, मेरे प्रियतम का साथ कदापि नहीं छट सकता। अब तो मैं उनकी संगति में ही लीन रहूंगी। अन्य लोगों के द्वारा अर्थात् प्रलोभनों के द्वारा मुझ सुमति को उपालम्भ क्यों कहलवा रहे हो, क्यों मुझे दूर हटा रहे हो ? मैंने किसी की चोरी तो नहीं की, मैंने कोई बुरा कार्य तो नहीं किया। जिसने कच्छ पहन लिया है उसे तो नाचना ही होगा अर्थात् जिसने जो कार्य करना सोच लिया है उसे तो वह करेगा ही। अर्थात् जिसने चैतन्य शक्ति से मन लगा रखा है उसे तो चेतन को अनावरण करना ही होगा। आत्मानुभवी का हृदय अपने लक्ष्य से कैसे च्युत हो सकता है ? अतः मुझे उपालम्भ देना व्यर्थ है। मेरा लक्ष्य एक मात्र उस नटनागर चेतन की ओर है ॥४॥ विवेचन-सुमति कहती है कि मैंने चेतन स्वामी के साथ जो सम्बन्ध किया है उसमें किसी की चोरी नहीं की। अनेक जीव द्रव्यस्वामियों के साथ सम्बन्ध रखकर निराश हुए। भाव-स्वामी आत्मा के रूप में माने जाते हैं । आत्म-स्वामी का. सम्बन्ध स्थायी सहज सुख प्रदान करता है। अतः मैंने तो आत्म-स्वामी के साथ जो सम्बन्ध जोड़ा है उसे मैं कदापि नहीं छोड़गी। संसार क्या कहेगा-यह मुझे नहीं देखना है। मैं तो अपने शुद्ध चेतन-स्वामी में लीन होऊंगी। ज्ञान रूपी सागर के मन्थन से विश्व-प्रेम रूपी अमृत से भरी कटोरी प्राप्त हुई है। श्रीमद् आनन्दघन जी योगिराज कहते हैं कि मेरी दृष्टि रूपी चकोरी आनन्दधाम चेतन रूप चन्द्रमा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होती है ॥५॥ विवेचन --सूमति कहती है कि ज्ञान-सिन्धु का मन्थन करके अर्थात् श्रुतज्ञान रूप सागर का मन्थन करके सार निकाला कि आत्मा में रमरण करना चाहिए। जड़ वस्तुओं का प्रेम मिथ्या है। आत्मा के प्रति प्रेम रखने से बाह्य वस्तुओं का प्रेम छटता है और आत्मा में अमृत रस की खमारी प्रकट होती है, अत: आत्मा के प्रति प्रेम रखना ही सचमुच उचित है। शुद्ध चेतन की दृष्टि रूपी चकोरी आनन्दघन चन्द्रमा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होती है। जिस प्रकार चकोरी चन्द्रमा की ओर दृष्टि करके अमृत-पान करती है, उसी प्रकार सुमति भी आत्मा को देखकर आनन्द रूपी अमृत का पान करती है। सुमति अपनें आत्म-स्वामी का स्वरूप निहारती है, उसका अनुभव करती है और प्रति पल अनन्त कर्मों Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१२१ की निर्जरा करती है। वह अपने प्रात्म-स्वामी के असंख्यात प्रदेशों में निवास करके उनके अंग निर्मल करती है। उनकी मलिनता नष्ट करके बारहवें गुणस्थानक के अन्त में उन्हें शुद्ध, बुद्ध, परमात्मा बनाती है। सादि अनन्त काल पर्यन्त सुमति क्षायिक भाव से प्रात्म-प्रभु के साथ सिद्ध स्थान में रहती है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के ये उद्गार सचमुच विचारणीय हैं। .. ( ४६ ) . ( वसन्त-धमार ) साखी-प्रातम अनुभव रस कथा, प्याला पिया न जाइ । मतवाला तो ढहि परे, निमता . परै पचाइ । छबीले लालन नरम कहें, प्राली गरम करत कहा बात ।। मां के प्रागइ मामू को, कोइ वरन न करत गवारि । अजहू कपट के कोथरा, कहा कहे सरधा नारि ।। . छबीले० ॥१।। चौगति . माहेल न छारही, कैसे आये भरतार । खानो न पीनो बात मैं हसत मानत कहा हार ॥ छबीले० ।।२।। ममता खाट परे रमे, अोनीदे दिन रात । लेनो न देनो इन कथा, भोरे ही आवत जात ।। छबीले० ।।३।। कहे सरधा सुनि सामिनो, एतो न कीजे खेद । हेरइ हेरइ प्रभु आवही, बढ़े 'प्रानन्दघन' मेद ।। छबीले० ॥४॥ अर्थ-आत्मानुभव रूपी रस-कथा का प्याला पिया नहीं जा सकता। इसे पीना अत्यन्त दुष्कर है। जो मताग्रही लोग हैं, जिन्हें अपने-अपने मत का महत्त्व है, जो अपने मत का दुराग्रह रखते हैं अर्थात् जो सांसारिक मोह-माया में पड़े हुए हैं वे तो इस प्याले को पी नहीं सकते, अथवा पीते ही लुढ़क जाते हैं और जो लोग मताग्रह से रहित हैं, जिन्हें Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२२ सांसारिक बातों में रुचि नहीं है, जो सच्चा है वह मेरा है-यह समझते हैं, वे इस आत्मानुभव रूपी रस-कथा का प्याला पीकर पचा लेते हैं, उसे अपने जीवन में उतार लेते हैं और अपनी आत्मा में तल्लीन हो जाते हैं। यदि कोई इस रस की अभिलाषा लेकर आता है तो उसे भी इसका पान करा देते हैं वरन् प्रात्मानन्द में ही मग्न रहते हैं। ऐसी दशा में जन साधारण को आत्मानुभव रूपी रस-कथा का पान दुर्लभ ही है (साखी) विवेचन-श्रीमद् अानन्दघन जी ने इस साखी की अनुभव-ज्ञान के उद्गारों से रचना की है। इस साखी का अर्थ इतना गम्भीर है कि इस पर एक ग्रन्थ की रचना की जा सकती है। अध्यात्मज्ञानरस के अधिकारी के बिना अन्य कोई व्यक्ति पारे की तरह अध्यात्म-ज्ञान को पचा नहीं सकता। अध्यात्मानुभव रस-कथा का प्याला पिये बिना सांसारिक दुःखों से निवृत्ति नहीं हो सकती। यदि राग-द्वेष को नष्ट करना हो तो अध्यात्म ज्ञानानुभव रस-कथा का प्याला पीना आवश्यक है। इसके लिए योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि एकान्त का त्याग किये बिना अध्यात्मानुभव रस प्याला पीने की योग्यता नहीं आती। एकान्त व्यवहारनय को मानने वाले मतवाले कहलाते हैं। एकान्त व्यवहार में धर्म मानने वाले अध्यात्म-ज्ञान रस का प्याला पीते हैं, परन्तु व्यवहार के दुराग्रह से उन्हें अध्यात्म रस पचता नहीं है। अध्यात्म ज्ञान के रस को पचाना कोई सामान्य बात नहीं है। जिस व्यक्ति में सद्गुणों की योग्यता न हो, जिसे अध्यात्म के प्रति रुचि न हो, उसके समक्ष अध्यात्म ज्ञान की कथा करने से उलटा उसका अहित होता है। ___ जो लोग निश्चय-नय का यथार्थ स्वरूप नहीं समझते और जो व्यवहार-धर्म के अधिकार के अनुसार हुई क्रियाओं का परित्याग करते हैं, वे अध्यात्स रस कथाएँ श्रवण करके शुष्क अध्यात्मज्ञानी बनते हैं और इस कारण वे अन्तर की रमणता के बिना कथनी एवं करनी की भिन्नता के कारण अध्यात्मानुभव रस कथा को पचा नहीं सकते । नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये सात नय हैं। इनसे धर्म का स्वरूप समझे बिना और सात नय-कथित धर्म के प्रति श्रद्धा किये बिना एकान्त मत का दुराग्रह नहीं टलता। जिसने ज्ञान की निर्ममत्व एवं दुराग्रह रहित दशा प्राप्त की है, वह अध्यात्मज्ञानरस का प्याला पी सकता है और पचा सकता है। इस प्याले को पचाने वाला व्यक्ति व्यवहार एवं निश्चयनय-कथित धर्म-तत्त्व Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१२३ की व्याख्याओं को उन नयों की अपेक्षा समझता है और उन पर श्रद्धा रखता है। वह किसी नय की बात को पकड़ कर दुराग्रह नहीं करता। वह नौ तत्त्वों, षड्-द्रव्यों आदि को समझ सकता है। जो व्यक्ति अध्यात्म रस के प्याले का पान करके उसे उचित प्रकार से पचा सकता है, वह जगत् का शहंशाह बनता है। उसे अवधत दशा का अनुभव हो जाता है। वह नित्य मतवाला रहता है। वह समता का अनुभव प्राप्त कर सकता है और उसको आत्मा के प्रति अत्यन्त विशुद्ध प्रेम हो जाता है, जिससे वह आत्मा के अनुभव प्रदेश में उतरने का प्रयत्न करता है और सहजानन्द को प्राप्त करता है । इस पद्यांश में सुमति एवं श्रद्धा में वार्तालाप हो रहा है। सुमति कहती है कि हे श्रद्धे ! तू छबीले लाल मेरे पति चेतन को नरम कहती है किन्तु जहाँ तक विभाव दशा है वहाँ तक तो यह कषायों से तप्त है, गर्म है। हे सखि ! बता छबीले प्रांत्माराम का मोह-ताप रूप गर्म बात करने का अन्य क्या कारण है ? हे सखि ! माँ के समक्ष मामा के गुरणदोषों का वर्णन कोई गँवार ही किया करता है क्योंकि भानजे की अपेक्षा उसकी बहिन उसे अधिक जानती है। इसी तरह हे श्रद्धे ! मैं तेरी अपेक्षा अपने पति के गुण अधिक जानती हूँ। तेरा तो प्रत्येक बात पर विश्वास करने का स्वभाव सा हो गया है, परन्तु मैं गुण-दोषों की भलीभाँति परीक्षा करती हूँ। वह नर्म-गर्म जैसे भी हैं, उन्हें मैं अच्छी तरह जानती हूँ। अरी भोली! वह अब भी कपट का बोरा है। तू उसका सर्वविरति रूप देखकर उसे नर्म कह रही है, यह तेरी भूल है। सुमति की यह बात सुनकर श्रद्धा अब क्या कहे ? ॥१॥ विवेचन-सुमति ने श्रद्धा को कहा कि मेरा चेतन स्वामी अब भी कपट की गठरी बाँधे हुए है। तू अपने स्त्री-सुलभ स्वभाव के कारण ही मुझे बार-बार कह रही है कि छबीले लाल नर्म हैं, परन्तु उनके लक्षण मुझसे छिपे हुए नहीं हैं। सुमति कहती है कि हे श्रद्धे ! मेरे भरतार, छबीले लाल चतुर्गति रूप महल को छोड़ नहीं रहे हैं, फिर मेरे पास कैसे आये ? विरह की इन बातों में मुझे खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लगता। हे सखि ! प्रीतम को नर्म कहकर इसी तरह मेरी हँसी करना मेरी हड्डियों को चकनाचूर करना है। पति-वियोग में शरीर का रुधिर और मांस तो पहले ही चला गया। तेरी इस हँसी से अब हड्डियों का नाश हो रहा है ॥२॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२४ सुमति कहती है कि मेरे स्वामी रात-दिन ममता की शय्या पर क्रीडा करते हैं, फिर भी वे उनींदे ही रहते हैं अर्थात् रात-दिन माया में लिप्त रहने के कारण वे सदा अतृप्त ही बने रहते हैं। कुछ प्रतियों में 'औरनिदे दिन रात' पाठ है जिसका अर्थ हैममता की शय्या में वे अत्यन्त लुब्ध हैं, दिन-रात वे उसी मोह-निद्रा में पड़े रहते हैं। इन बातों में कुछ लेना-देना नहीं है, ये समस्त बातें व्यर्थ हैं। प्रातःकाल होता है और चला जाता है अर्थात् समय यों ही व्यतीत हो रहा है ।। ३ ॥ __पाठान्तर में अर्थ है कि आत्म-स्वामी ममता रूपी शय्या पर पड़े रहते हैं और तू रात-दिन उनकी निन्दा करती रहती है, जिससे कोई आत्म-स्वामी की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। ऐसी बात में कुछ लेना-देना नहीं है और इस प्रकार को प्रवृत्ति में प्राप्त समय निष्फल जाता है ।।३।। ___ श्री ज्ञानसारजी ने इस तीसरे पद्यांश का रहस्यार्थ किया है, जिसका सारांश है कि-विभाव रूपी रात्रि के व्यतीत होने पर स्वभाव रूपी सूर्य के उदय होने से ही चेतन-स्वामी आयेंगे। हे सखि श्रद्धे ! तेरा यह कहना कि छबीले लाल नरम हैं, अभी आयेंगे, परन्तु इस बात में कोई सार नहीं है, कुछ लेने-देने जैसी बात नहीं है ।। ३ ।।, समति की इतनी अधीरता की बातें सुनकर श्रद्धा उसे आश्वस्त करते हुए कहती है कि हे स्वामिनी! तनिक मेरी बात सुनो। आप इतना खेद मत करो। आनन्दधाम आत्माराम उद्यम करने से अवश्य आयेंगे। आप इस प्रकार शोकमग्न बैठी रहोगी तो कुछ नहीं होगा। आप ममता की अनुपस्थिति में चेतनजी के पास जानो और उन्हें उस प्रोर की असारता बतायो। यदि प्रमाद त्याग कर इस प्रकार सदा पुरुषार्थ करती रहोगी तो शनैः शनैः चेतन निजस्वरूप में अवश्य प्रा जायेंगे। उद्यम करने से ही आपको सफलता मिलेगी। इस प्रकार स्वरूपानन्द रूपी मेद अर्थात् मोटापा की वृद्धि होगी और सुमति से प्रेम बढ़ता जायेगा ॥ ४ ॥ विवेचन–श्रद्धा ने स्वामिनी को कहा कि आत्म-स्वामी का तुरन्त मिलाप न हो, इसके लिए इतना अधिक खेद नहीं करना चाहिए। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री आनन्दघन पदावली-१२५ धोरे-धोरे आत्म-स्वामी तेरे घर आयेंगे। तू उतावली होकर चंचल हो जाती है और अधीर होकर शंकाशील बन जाती है। ऐसा नहीं करना चाहिए। तू समता रखकर आत्म-स्वामी के सम्बन्ध में निःशंक हो जा। राग-द्वेष की वृत्ति दूर करके आत्म-स्वामी के प्रेम में मग्न होकर चंचलता का त्याग कर। ऐसा करने से प्रानन्दघन आत्म-प्रभु उपशम आदि भाव में धीरे-धीरे आयेंगे और आनन्द के घन के द्वारा तेरे मेद की वृद्धि होगी। . . (४७) (राग-गौड़ी) रिसानी आप मनावो रे, बीच बसीठ न फेर । सौदा अगम प्रेम का रे, परिख न बुझे कोइ ।। ले दे. वाही गम पड़े प्यारे, और दलाल न होइ । रिसानी० ।। १ ।। दोइ बातां जिय की करउ रे, मेटो न मन की आँट । तन की तपत बुझाइये 'प्यारे, वचन सुधारस छाँट ।। . . . . . रिसानी० ॥ २ ॥ नेक कुनजर निहारिये रे, उजर न कीजे नाथ । . नेक निजर मुजरइ मिले, अजर अमर सुख साथ ।। रिसानी० ।। ३ ।। निसि अँधियारी घन घटा रे, पाउं न वाट के फंद । करुण कर तो निरवहुँ रे, देखू तुझ मुख चंद ।। रिसानी० ॥ ४ ॥ प्रेम जहाँ दुविधा नहीं रे, नहीं ठकुराइत रेज। .. आनन्दघन प्रभु प्राइ बिराजे, पाप हो समता सेज ।। रिसानी० ॥ ५ ॥ अर्थ-ममता-माया के फन्दे में फंसे हुए चेतन को अपनी भूल का ज्ञान होता है। वह श्रद्धा को समता को प्रसन्न करने, मनाने हेतु कहता है। श्रद्धा उसे अत्यन्त ही उत्तम उत्तर देती है। जब चेतन राग-द्वेष Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१२६ का परित्याग करेगा तब समता प्राप्त होगी। जब तक विषम भावों का परित्याग नहीं किया जाता, तब तक कार्य-सिद्धि नहीं हो सकती। जीव को चाहिए कि पुरुषार्थ करके रागादि भाव न्यून करते हुए समता प्राप्त करने का प्रबल उद्यम करे। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी ने श्रद्धा के मुंह से स्वयं पुरुषार्थ करने का उपदेश दिलवाया है। ममता के वशीभूत होकर वह स्वयं अपनी समता को भूला है। अब उसे स्वयं ही प्रसन्न करना होगा। श्रद्धा कहती है – रूठी हुई समता को आप स्वयं ही मनाओ, प्रसन्न करो। पति को अपनी पत्नी के प्रेम के मध्य किसी बसीठ (मध्यस्थ दलाल) को नहीं लाना चाहिए क्योंकि यह प्रेम का व्यापार अत्यन्त ही अगम्य एवं गहन है। इसकी परीक्षा करना कठिन है। कोई विरला ही परीक्षा करके इसे समझ पाता है। जो हृदय देता-लेता है वही इसका मर्म जान सकता है। अरे चेतनराज ! क्या अपनी पत्नी को मनाने के लिए किसी दूती या दलाल की आवश्यकता है ? अत: आप इस चक्कर में न पड़ें। अपनी पत्नी को प्रसन्न करने के लिए किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। दूती एवं दलाल तो उप-पत्नियों, रखैलों आदि के लिए होते हैं ।। १ ।। विवेचन -समता रूठ गई है। अब चेतन के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ है कि मैं अपनी प्रियतमा से मिल तो ठीक, परन्तु वह सोचता है कि मैं तो माया, ममता तथा तृष्णा में लीन हूँ। अतः अब मुझे उससे मिलने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ? चेतन ने श्रद्धा को उसे प्रसन्न करने हेतु कहा। इस पर श्रद्धा ने कहा कि अपनी प्रियतमा को आप स्वयं मनायें। इसमें किसी दलाल की आवश्यकता नहीं है। यदि आपका उसके प्रति शुद्ध प्रेम हो तो अहंकार त्याग कर आप उसके पास जागो और उसे प्रसन्न करो। श्रद्धा आगे चेतनराज को कहती है कि आप यह मत सोचो कि दीर्घकाल से आप समता से अलग हैं, अतः वह प्रसन्न नहीं होगी। आपको समझना चाहिए कि वह महान् पतिव्रता है। वह आपका तिरस्कार कदापि नहीं करेगी। आप मन की ग्रन्थि निकालकर समता के साथ हृदय की दो बातें कर लेना। आप स्वरूप ज्ञानरूपी अमृत रस की बूंदें छिड़ककर विषय-कषाय जनित शारीरिक तपन को शान्त कर दीजिये ॥२॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१२७ विवेचन - श्रद्धा वे चेतनराज को उपाय बताया कि यदि आप रूठी हुई समता (प्रियतमा) को मनाना ही चाहते हैं तो अपने जीवन से सम्बन्धित दो बातें उसके साथ करो, जिससे वह प्रसन्न हो जायेगी। आपके मन में जो परभाव-रमणता रूप ग्रन्थि हो, उसे निकाल दो। क्रोध, मान, माया, लोभ, ईा, निन्दा, अज्ञान एवं द्वेष आदि परभाव ग्रन्थि निकालने पर ही आप समता को प्रसन्न कर पाओगे। दूसरी बात यह है कि आप देह का ताप शान्त कर दो। आप जो बाह्य सुख प्राप्त करने के लिए आतुर हैं, विषय-सुखों की प्राप्ति के लिए देह-ताप सह रहे हैं, उस ताप को मिटा दो। यदि इस प्रकार आप अपने जीवन की बात करेंगे तो वह आपकी ओर उन्मुख होगी.। मन की ग्रन्थि तथा तन का ताप नष्ट करने के लिए प्रभु के वचनरूपी अमृत-रस को छिड़कना पड़ेगा अर्थात् भगवान की वाणी का हृदय में स्मरण, मनन, निदिध्यासन रूप सिंचन करना पड़ेगा। श्रद्धा ते चेतन को यह उपाय सुझाया। चेतन ने श्रद्धा को पुनः पूछा कि ये पंचेन्द्रिय के विषय कैसे छटेंगे ? परभाव-रमणता . कैसे दूर होगी। और यह कषाय-जन्य मानसिक ताप कैसे शान्त होगा? इस पर श्रद्धा ने बताया कि हे चेतन ! आप में अनन्त शक्ति है। इस पर-भाव-रमणता एवं विषयवासना की ओर थोड़ी भी वक्र दृष्टि रखोगे तो हे स्वामी ! ये बिना विरोध किये हट जायेंगी। इन विषय-वासनाओं को आप यदि कुदृष्टि से देखेंगे तो वे सब पलायन कर जायेंगी। आपकी शक्ति के समक्ष कौन ठहर सकता है ? आपकी उस ओर तनिक दृष्टि होते ही समता अक्षय एवं अव्याबाध सुख के साथ आपका अभिवादन करती हुई आपसे प्रा मिलेगी। विवेचन–श्रद्धा ने चेतन को समझाया कि यदि आप दृष्टि को शुद्ध रखोगे तो वह आपसे प्रा मिलेगी। जब समता आपसे प्रा मिलेगी तब आपको अव्याबाध सुख की प्राप्ति होगी। समता का मिलाप होने पर आत्मा परमात्म-पद को प्राप्त करती है। उसे किसी प्रकार की वेदना नहीं रहती। क्षायिक भाव की नौ लब्धियाँ आत्मा में प्रकट होती हैं और आत्मा सादि अनन्त सुख में लीन होती है। श्रद्धा ने जब समता को चेतन का संवाद कहा तो वह कहती हैहे सखि ! स्वामी ने मुझे स्मरण किया है तो मैं तत्पर हूँ, परन्तु अन्धेरी रात है, घनघोर घटाएँ छाई हुई हैं; ऐसे समय में मुझे मार्ग कैसे दिखाई देगा?. हे चेतन स्वामी ! यदि आप मुझ पर करुणा करें तो मेरा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १२८ निर्वाह हो जाये और आपके चन्द्र- मुख के मुझ अभागिन को दर्शन हो जायें ||४|| विवेचन - योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघन जी ने उपर्युक्त पद्यांश में अत्यन्त गम्भीर एवं मार्मिक बात कही है । तात्पर्य यह है कि चेतन के पुरुषार्थ से ही समभाव प्राप्त हो सकता है । अविरति रूप रात्रि, प्रत्याख्यान एवं अप्रत्याख्यान कषायों की घनघोर घटा में अप्रमत्त मार्ग कैसे दिखाई दे ? जब तक चेतन अविरति परिणाम, प्रत्याख्यान एवं अप्रत्याख्यान कषायों का परित्याग नहीं करता तब तक समता कैसे प्राप्त सकती है । समता का सन्देश चेतन को तनिक भी नहीं प्रखरता । वे इसे अन्यथा नहीं लेते। उन्हें ऐसी दुविधा नहीं होती कि स्वयं आने के बजाय मुझे वहाँ बुलाती है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ तनिक भी द्वैत भाव नहीं होता, बड़प्पन का तनिक भी अभिमान नहीं होता । आनन्द के समूह चेतन प्रभु स्वयं ही समता की शय्या पर आकर बैठ गये अर्थात् अविरति परिणामों को त्याग कर उन्होंने अप्रमत्त भाव ग्रहण कर लिया || ५ || विवेचन -- समता का सन्देश पाकर चेतन स्वामी के मन में अपूर्व प्रेम प्रकट होता है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ परस्पर मन में भिन्नता नहीं होती । जहाँ शुद्ध प्रेम होता है वहाँ स्वार्थ का नाम - निशान नहीं होता । शुद्ध प्रेम में छोटे-बड़े का भेद भाव नहीं रहता । शुद्ध प्रेम में द्विधा भाव: न रहकर आनन्द का साम्राज्य व्याप्त रहता है । आत्मा का समता के साथ शुद्ध प्रेम प्रकट होने पर द्विधाभाव नष्ट हो गया। साथ-ही-साथ मन की मोह - दोष रूप मलिनता नष्ट हो गई । समता के निवेदन पर आनन्द के समूह रूप आत्मस्वामी स्वयं ही समता की शय्या (सेज) पर आये और अपने अनन्त सुख के भोक्ता बने । ( ४८ ) ( राग-धन्यासी ) साखी - कुबुधि कुबरी कुटिल गति, सुबुधि राधिका नारि । चोपरि खेले राधिका, जीते कुबिजा हारि ।। प्रानी मेरो खेले चतुरगति चोपर । नरद गंजफा कौन गनत है, माने न लेखे बुधिवर | प्रानी० ।। १ ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री आनन्दघन पदावली-१२६ राग दोस मोह के पासे, आप बणाये हितधर । जैसा दाव' परे पासे का, सारि चलावे खिलकर ।। प्रानी० ।। २ ।। पाँच तले है दुपा भाई, छका तले है एका । सब मिलि होत बराबर लेखा, इह विवेक गिणवेका ।। प्रानी० ।। ३ ।। चौरासी मावै फिरे नीलो, स्याह न तोर जोरी । लाल जरद फिरि प्रांवे घर में, कबहुक जोरी बिछोरी ।। । प्रानी० ।। ४ ।। भीर विवेक के पाउ न पावत, तब लगि काची बाजी। आनन्दघन प्रभु पाव दिखावत, तो जीते जीव गाजो !! प्रानो० ।। ५ ।। अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज ने चौपड़ खेल के माध्यम से जीवन-चौपड़े की जो बाजी लग रही है उसे किस प्रकार जीता जा सकता है, समझाया है। प्रात्मा ने चार गति युक्त चौपड़ खेल के लिए सजा रखी है। जो इसे विवेकपूर्वक खेलता है वह चौपड़ में विजय प्राप्त कर लेता है, अन्यथा चौरासी के चक्कर में फंसा रहता है। इसी भाव को इस पद में बताया गया है। ___साखी कुटिल चाल चलने वाली कुबुद्धि कुबड़ी कुब्जा के समान है और सुबुद्धि सही चाल चलने वाली राधिका के समान है। ये दोनों परस्पर चौपड़ खेलती हैं। कई बार कुबुद्धि कुब्जा के जीत के लक्षण प्रकट हो जाते हैं परन्तु अन्त में सुबुद्धि राधिका की विजय होती है। कुबुद्धि कुब्जा पराजित हो जाती है। _ विवेचन-चतुर्गति रूप चौपड़ है-देव गति, मनुष्य गति, तिथंच गति और नरक गति। इस चतुर्गति रूप चौपड़ पर कुबुद्धि के द्वारा प्रेरित समस्त जीव अनन्त काल से परिभ्रमण करते हैं। चतुर्गति रूप चौपड़ पर एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं ठहरते और कर्म के योग से जन्म, जरा, एवं मृत्यु के दुःख को धारण करते हैं। वे तनिक भी सहज शान्ति का अनुभव नहीं कर सकते। कुबुद्धि से चौरासी लाख जीवायोनि में Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य -१३० जाने के पासे पड़ते हैं और सुबुद्धि से मुक्ति रूपी घर में जाने के पासे पड़ते हैं। चौपड़ में चौरासी खाने होते हैं और संसार में भी चौरासी लाख जीव योनियाँ हैं । आत्मा गोटी की तरह दुर्बुद्धि के योग से चार गतियों में परिभ्रमण करती है । मेरा प्राणी प्रात्मा चतुर्गति-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवता रूप चौपड़ खेल रहा है । गोट वाली चौपड़ के खेल की और गंजीफा के खेल की क्या समानता हो सकती है ? चतुर्गति चौपड़ के सम्मुख इन खेलों की क्या गिनती है ? ये खेल चौपड़ के समक्ष तुच्छ हैं । विवेकी मनुष्य इन अन्य खेलों को तनिक भी महत्त्व नहीं देते । बुद्धिमान व्यक्ति इन खेलों में अपना समय व्यर्थ नहीं गँवाते । वे तो जीवन की चौपड़ को महत्त्व देकर उसमें विजयी होना चाहते हैं ||१ || विवेचन - नरद ( गोटी), गंजीफा (ताश के पत्ते ) को आध्यात्मिक दृष्टि वाले विद्वान् गिनती में नहीं गिनते । अध्यात्म ज्ञानी मनुष्य चतुर्गति रूप चौपड़ को अच्छी तरह खेल सकते हैं और आत्मा चार गतियों में परिभ्रमण न करे, उसके लिए पर्याप्त ध्यान देते हैं । दुर्बुद्धि . से ही आत्मा राग-द्वेष के प्रपंच में फँसती है, दुर्बुद्धि से आत्मा जो वस्तुएँ अपनी नहीं हैं, उन्हें अपनी मान कर अनेक प्रकार की उपाधियाँ सहन करती है, दुर्बुद्ध धर्म के प्रति प्रीति एवं अधर्म के प्रति प्रीति होती है, दुर्बुद्धि से आत्मा देव, गुरु, धर्म को गिनती में नहीं गिनती और स्वयं जड़ की तरह आचरण करती है । दुर्बुद्धि से प्रेरितं आत्मा सात नरकों में बार-बार जाकर असह्य कष्ट सहन करती है । सद्गुरुत्रों के उपदेश से जब आत्मा ये बातें सम्यक् प्रकार से जान पाती है तब वह अन्तर से संसार की बाजी जीतने का प्रयत्न करती है | चेतन कहता है कि मेरा चेतन - स्वामी चौपड़ की बाजी खेलता है, दुर्बुद्धि के प्रपंचों का नाश करता है और सहज - लाभ प्राप्ति रूपी रस से रसिक बन कर संसार की बाजी जीतने के लिए ही ध्यान देता है । इस ग्रात्मा ने चतुर्गति रूप चौपड़ खेलने के लिए राग, द्वेष एवं मोह के पासे अत्यन्त प्रेमपूर्वक बनाये हैं । जैसा पासा आता है तदनुसार गोट चलाई जाती है । इस चतुर्गति रूप चौपड़ में आत्मा को राग-द्वेष और मोह के कारण ही परिभ्रमण करना पड़ता है; अर्थात् राग, द्वेष, मोह की प्रवृत्तियों में जैसी जैसी वृत्तियाँ उभरी हैं, उनके अनुसार ही आत्मा को गतियों एवं उत्पत्ति स्थानों में जाना पड़ता है ॥२॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३१ विवेचन-अनादि काल से राग एवं द्वेष के पासे को आत्मा ने स्वयं हितकर जानकर बनाया है और पासे के दाव के अनुसार कर्मखिलाड़ी अपनी गोट चलाता है। परवस्तु में इष्टता की बुद्धि को राग कहते हैं और परवस्तु पर होने वाले अनिष्ट परिणाम को द्वेष कहते हैं । राग-द्वेष का नाश करने के लिए प्रात्म-तत्त्वज्ञान की आवश्यकता है। राग-द्वेष के द्वारा यह संसार-बाजी निरन्तर चलती रहती है। चौरासी लाख जीव योनि में परिभ्रमण कराने वाले राग और द्वेष हैं। अतः यदि संसार रूपी बाजी जीतनी हो तो राग-द्वेष को जीतना होगा। चौपड़ के पासों में पाँच के चिह्न के नीचे दो का चिह्न और छह के चिह्न के नीचे एक का चिह्न होता है। पाँच.और दो सात होते हैं और छह और एक मिलकर भी सात होते हैं। पाँच का अर्थ है पंचास्रव और दो का अर्थ है-राग एवं द्वेष को प्रवृत्ति; छह का अर्थ है षट्काय और एक का अर्थ है असंयम प्रवृत्ति । इन पासों की चालों में विवेक नहीं रखा गया, पंचास्रवों में और राग-द्वेष की प्रवृत्ति में तथा षट्काय की हिंसा एवं असंयम में लगे रहे तो चार गति वालो जोवन चौपड़ में पिटते रहे, मरते रहे, फिर बैठते रहे, जन्म लेते रहे तो बाजी हार जानोगे। यदि विवेक जाग्रत रख कर पंचास्रव, राग-द्वेष पर अंकुश रखकर, षट्काय की हिंसा तथा असंयम से निवृत्त होकर जीवन गोटी चलाई तो निश्चित रूप से खेल मैं विजय होगी अर्थात् भव-भ्रमणं नष्ट होकर लक्ष्य की प्राप्ति हो जायेगी ।। ३ ।। विवेचन--पूज्य श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी के मतानुसार पाँच के नीचे दो है और छह के नीचे एक है। इन सबका योग चौदह होता है । पाँच का अर्थ पाँच इन्द्रियाँ लें। उन पर विजय प्राप्त करने वाला राग-द्वेष रूप दो पर भी विजयी होता है तथा छह लेश्याओं को भी जीत लेता है। छह लेश्याओं पर विजयी होने पर मन भी स्वतः ही जीत लिया जाता है। दूसरे प्रकार से प्रात्मा, अनन्तानुबंधी कषाय तथा अप्रत्याख्यान कषाय - इन दो प्रकार के कषायों को जीतकर पाँचवें गुणस्थानक को प्राप्त करता है। इसमें दो गुणस्थानक जोड़ दिये जायें तो सातवें अप्रमत्त गुणस्थानक को प्राप्त करता है। वहाँ से आगे प्रयत्न करे तो ऊपर के छह गुणस्थानकों को लाँघ कर तेरहवें सयोगी केवली गुरणस्थानक में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को प्राप्त करता है। वहाँ से केवल चौदहवाँ स्थानक हो शेष रहता है, जिसे प्राप्त करके परमात्मा सिद्ध-बुद्ध बनता है। . इस प्रकार गिनती करने का विवेक अन्तर में उतारना चाहिए। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य- १३२ चौपड़ में चार रंग की गोटियाँ होती हैं- नीली, काली, लाल और पीली । इन्हें आत्मा की लेश्या - अध्यवसाय का प्रतीक समझना चाहिए । चौरासी खानों में चौरासी लाख उत्पत्ति-स्थानों में- नीली गोटी, काली गोटी से अपनी जोड़ी न तोड़ कर फिरती रहती है । लाल और पीली गोटी कभी-कभी अपनी जोड़ी तोड़ कर अपने स्थान पर, अपने घर में आ जाती है । जब तक कृष्ण और नील लेश्या के अध्यवसाय आत्मा के साथ हैं तब तक आत्मा चौरासी में भ्रमण करती ही रहती है । जब शुभ 'लेश्या के अध्यवसाय वाली आत्मा अशुभ लेश्या का साथ छोड़ देती है तो आत्मा स्वभाव रूप घर में आ जाती है और फिर वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाती है ॥४॥ विवेचन - छह लेश्या हैं :- कृष्ण, नील, कापोत, तेजस, पद्म और शुक्ल । मन के द्वारा होने वाले ग्रात्मा के परिणाम को लेश्या कहा जाता है । ये छह लेश्याएँ मन की सहचारी होती हैं । तेरहवें गुणस्थानक में भाव मन नहीं होने से वहाँ भाव लेश्या भी नहीं होती । लेश्या के परिणामों का आधार मनोवर्गणा का सम्बन्ध है । मनोवर्गणा पाँच रंगों की होती है । जब कृष्ण वर्ण की वर्गरणा का हलन चलन होता है तब जीव के मन के द्वारा होने वाले अध्यवसायों को कृष्णलेश्या के परिणाम के रूप में जाना जाता है । क्रमशः रंगों के अनुसार लेश्या जानें । कृष्ण, कापोत तथा नील लेश्या अशुभ परिणाम वाली होती हैं । तेजोलेश्या, पद्मलेश्या तथा शुक्ल लेश्या शुभ परिणाम वाली होती हैं । कृष्ण लेश्या परिणामी जीव हिंसक, महा-आरम्भी, क्रूर, शत्रु और क्रोध आदि दोषयुक्त होते हैं । नील लेश्या में भी ऐसे परिणाम होते हैं परन्तु प्रथम लेश्या की अपेक्षा नील लेश्या में तनिक मन्द परिणाम होते हैं । तेजोलेश्या से दया (करुणा) के परिणाम के भाव होते हैं । लाल पद्म के रंग की लेश्या वाले तथा पीली लेश्या वाले जीव सम्यक्त्व रत्न के द्वारा मोक्ष में आ सकते हैं और वे जोड़ी का नाश कर सकते हैं । कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजोलेश्या वाले जीव हृदय में पूर्णतः विवेक धारण नहीं कर सकते । कापोत एवं तेजोलेश्या वाले मोक्ष घर की ओर प्रयाण करने के अधिकारी होते हैं परन्तु कृष्ण एवं नील लेश्या वाले जीव तो जब तक उस परिणाम में हों तब तक स्वस्थान की ओर प्रयाण नहीं कर सकते । चौपड़ के खेल में जब तक 'पौ' नहीं आती तब तक बाजी जीतने के आसार नहीं होते अर्थात् गोटियाँ अपने गन्तव्य की ओर नहीं जा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३३ सकतीं। अतः वह बाजी कच्ची रहती है। उसी प्रकार आत्मा के साझेदार विवेक के शुभ अध्यवसाय रूप 'पौ' नहीं पाती तब तक वह चतुर्गति रूप चौपड़ जीत नहीं सकती। उसका खेल कच्चा हो रहता है अर्थात् जब तक आत्मा अशुभ प्रध्यवसायों को त्याग कर शुभ अध्यवसायी नहीं होती, तब तक वह अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर नहीं हो सकती। अानन्द की समूह प्रात्मा शुभ अध्यवसाय रूप अथवा सम्यक्त्व रूप पौ को प्रकट करे तो गाजी (धर्म युद्ध में विजयी) बनकर बाजी जीत लेती है। वह राग-द्वेष-मोह आदि शत्रुओं पर विजयी होकर गाजी बन जाती है ।। ५॥ . विवेचन-जब तक भाव-विवेक नहीं पाये तब तक बाजी कच्ची जानें। चौपड़ खेलते समयं जब 'पौ' आती है तब बाजी जीती जाती है। पहले बारह दाव आयें और एक पासे में एक आये तो 'पौ' कहलाती है। चौपड़ की तरह चौरासी लाख जोवयोनि में परिभ्रमण करते-करते कभी मनुष्य भव प्राप्त हो जाता है और उसमें दुर्लभ सम्यक्त्वरत्न रूप भाव-विवेक की दृष्टि रूप पौ पा जाती है तब चौरासी लाख जीवयोनिमय संसार चौ गति रूप चौपड़ का पार आता है और आत्मा सरलता से मोक्ष रूप घर में प्रवेश करके त्रिभुवन-विजयी बनकर अनन्त सुख की भोक्ता बनती है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे भगवन् ! सम्यक्त्व विवेक दृष्टिरूप पौ बतायो ताकि चौगतिरूप संसारचौपड़ को जीत कर गाजी बन सकें अर्थात् अनन्त आनन्द प्राप्त करें। (४६ ) (राग-वमन्त, धमाल) सलूने साहिब प्रावेंगे, मेरे वीर विवेक कहो न साँच । मोसू सांच कहो मेरी सु, सुख पायो कै नांहि । कहानी कहा कहूँ उहां की, डोले चतुरगति मांहि ।। सलूने० ।। १ ।। भली भई इत आवही, पंचम गति की प्रीति । सिद्धि-सिद्धि रस पाक की, देखे अपूरब रीति ।। सलूने० ।। २ ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१३४ बीर कहे एती कहा, आए-आए, तुम्ह पास । कहे सुमत परिवार सौं, हम हैं अनुभवदास ।। सलूने० ।। ३ ।। सरधा, सुमता, चेतना, चेतन अनुभव वांहि । सकति फौरि निज रूप की, लीने प्रानन्दघन मांहि ।। .. सलने० ।। ४ ॥ अर्थ--सुमति अपने भ्राता विवेक से पूछती है.कि 'हे मेरे बीर ! मेरे सलोने साजन, मेरे प्रियतम आत्माराम यहाँ आयेंगे अथवा नहीं? हे भाई! आपको मेरी सौगन्ध है, आप सच-सच बताओ कि यहाँ उन्हें सुख प्राप्त हुआ अथवा नहीं ?' सुमति बहन की बात सुनकर प्रत्युत्तर में विवेक कहता है . 'हे सुमति ! वहाँ की कहानी तुम्हें क्या कहूँ, वहाँ का क्या वृत्तान्त सुनाऊँ ? कुछ कहने जैसा नहीं है। वहाँ वे चेतन माया के वशीभूत बने चारों गतियों में भटक रहे हैं ।। १ ।।' विवेचन-उपशम अथवा क्षयोपशम . सम्यक्त्व प्राप्त करके भी प्रात्मा मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्वदृष्टि रूपी स्त्री के घर जाता है। सम्यक्त्वदृष्टि कहती है कि मेरा संग छोड़कर चेतन चतुर्गति में चला . गया। चौथे गुणस्थानक से प्रथम गुणस्थानक में आने पर आत्मा देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरक में जाती है। प्रथम गुणस्थानक में आत्मा भ्रान्ति के कारण कुदेव, कुगुरु एवं कुधर्म को मोक्षप्राप्ति के उपाय मानती है और मिथ्याशास्त्रों को धर्मशास्त्रों के रूप में स्वीकार करती है। सुमति कहती है कि अब यदि चेतन पुनः यहाँ आयेंगे तो उत्तम होगा। यहाँ मेरे पास आने से उनकी चतुर्गति में जाने की रुचि मिट जायेगी। विवेक आगे कहता है कि 'हे बहन सुमति ! अबं पातमराम यहाँ तेरे संयम-प्रासाद में आयेंगे। उधर जाना चारों गतियों में भटकना है और इधर पाना मोक्षरूपी पंचम गति की प्राप्ति है। हे बहन सुमति ! तुम्हारी प्रीति परम सिद्धि रस के परिपाक की सिद्धि है। जो व्यक्ति समता धारण करता है वह तदाकार वृत्तिरूप अपूर्व परिपक्व अवस्था को प्राप्त करता है। श्री ज्ञानसारजी की टीका में 'सिद्धि सिद्धान्त' पाठं है जिसका अर्थ किया गया है --सिद्धान्त से जो सिद्ध हया है ऐसे स्वरूपानुभव सम्बन्धी Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३५ जो परम रस है उसके परिपाक की पूर्णता प्राप्त करता है अर्थात् आत्मस्वभाव के अनुभव से आत्मस्वरूप की तदाकार वृत्ति की परिपाक अवस्था को अपूर्व रीति से प्रत्यक्ष करता है ।। २ ॥ विवेचन--सम्यक्त्व दृष्टि प्राप्त करने से प्रात्मा की चतुर्गति में भ्रमण की इच्छा समाप्त हो जाती है। आत्मा की अपने मूल शुद्ध धर्म के प्रति रुचि उत्पन्न होती है। वह सिद्ध-सिद्धान्त रसपाक का भोजन करके पुष्ट बनती है। फिर उसको एकान्तवाद के कुत्सित भोजन की रुचि नहीं होती। सम्यक्त्व दृष्टि के घर में अपूर्व सिद्धान्त पाक का भोजन है। · मनुष्यों को सम्यक्त्व दृष्टि की योजना प्राप्त करने के लिए प्रथम व्यवहार-सम्यक्त्व के उद्देश्यों का अवलम्बन लेने की आवश्यकता है। सम्यक्त्वदृष्टि को अन्तरात्मा के बिना अच्छा नहीं लगता। सम्यक्त्व दृष्टि के घर में आने पर बहिरात्मा ही अन्तरात्मा बन जाती है। विवेक सुमति को कहता है कि मैं तुम्हें केवल इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे प्रियतम तुम्हारे पास आ गये हैं। वे तुम्हारे ही हैं। विवेक की ऐसी मार्मिक बात सुनकर सुमति अपने परिवार श्रद्धा, क्षमा, मार्दव आदि को कहती है कि हम सब सचमुच अनुभव के दास हैं ।। ३ ।। विवेचन -विवेक की हितकर बात सुनकर चेतन सम्यक्त्वदृष्टि के घर में आये। उस समय समता ने कहा कि हे चेतन ! हम तो अनुभव ज्ञान की दासी हैं। श्रद्धा, सुमति और चेतना वहीं होती हैं जहाँ चेतन अनुभव होता है। अपने स्वरूप की शक्ति लगाकर समस्त परिवार ज्ञानानन्द की सघनता में लीन हो.गया अर्थात् प्रानन्दघन रूप हो गया ।।४।। विवेचन--जब तक चेतन को अपनो शुद्ध शक्तियों का वियोग है तब तक उसे परमानन्द को प्राप्ति नहीं हो सकती। श्रद्धा, सुमति और चेतना प्रात्मा की परिणतियाँ हैं। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की शक्ति प्रकट करता है तब वह सुमति आदि स्त्रियों को प्राप्त कर सकता है और क्रोध, मान, माया, लोभ, काम एवं निद्रा आदि अवगुणों को हृदय में से दूर कर सकता है। ज्यों-ज्यों दुर्गुण क्षीण होते हैं, त्यों-त्यों ज्ञान आदि सद्गुणों की वृद्धि होती जाती है। ज्यों-ज्यों अविरति एवं कषाय का जोर घटता है और आत्मा की परिणति शुद्ध होती जाती है, त्यों-त्यों Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१३६ आत्मा ऊपर-ऊपर के गुण-स्थानकों में प्रविष्ट होती रहती है। आत्मा के ऊपर के गुणस्थानकों में प्रवेश करने पर अन्तर में अनुभव ज्ञान का प्रकाश बढ़ता जाता है। इसके साथ सहज सुधारस के स्वाद की भी वृद्धि होती है। आत्मा ज्यों-ज्यों श्रद्धा, सुमति एवं समता के समागम में तल्लीन होती जाती है, त्यों-त्यों वह सहज आनन्द में लीन होती जाती है। ऐसा श्रीमद् आनन्दघन जी का कथन है । (राग-वसन्त-धमाल) विवेकी वीरा सह्यो न परै वरजो न आपके मीत। कहा निगोरी मोहनी मोहक लाल गँवार । वाके घर मिथ्या सुता, रीझ पर तुम्ह यार ।।विवेकी० ॥१॥ क्रोध, मान बेटा भये, देत चपेटा : लोक । लोभ जमाई, माया सुता, एह बढ्यो परिमोक ।।विवेकी० ॥२।। गई तिथ को कहा बामणे पूछे समता भाव । घर को सुत तेरे मतै, कहा लु करू बढ़ाव ।। विवेकी० ॥३॥ तब समता उदिम कियो, मेट्यो पूरव साज । प्रोति परम सु जोरिके, दीन्हो आनन्दघन राज ॥विवेकी० ॥४॥ अर्थ–सुमति विवेक को कहती है 'हे विवेक भाई ! मुझ से अब सहन नहीं होता। स्त्री को सौत का दुःख मृत्यु से भी अधिक होता है । आप अपने मित्र को रोकते क्यों नहीं ? ___ 'निगोड़ी मोहिनी की क्या बिसात है ? उसमें ऐसा कौनसा मोहक गुण है। भाई विवेक ! तुम अपने मित्र चेतन को क्यों नहीं समझाते कि वे गँवार मोहिनी के फन्दे में क्यों फँसते हैं ? उसके परिवार में मिथ्यात्व नामक पुत्री है। तुम्हारे मित्र उस पर पता नहीं क्या देखकर मोहित हो गये हैं ?' ॥१॥ विवेचन-सुमति ने विवेक को जो कहा वह उचित ही कहा है कि गँवार मोहिनी पर मुग्ध वही होता है जो गँवार हो । सुमति ने विवेक को चेतन को समझाने की बात कही है कि वे चतुर हैं फिर मोहिनी पर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३७ इतने क्यों मुग्ध हैं ? मोहिनी की पुत्री मिथ्यात्व-परिणति पर उन्हें इतना प्रेम क्यों हैं ? मोहिनी का परिवार रात-दिन जगत् के जीवों का अहित करता है। इस मोहिनी के क्रोध एवं मान दो पुत्र हैं जो लोगों को प्रिय नहीं हैं। वे नित्य लोगों से तिरस्कृत होते हैं, लोग इनके थप्पड़ें लगाते हैं। मोहिनी ने अपनी पुत्री मिथ्यात्व-परिणति का लोभ के साथ विवाह करके उसे अपना दामाद बना लिया है। लोभ नामक दामाद और मिथ्यात्व-परिणति नामक पुत्री के संयोग से माया नामक कन्या का जन्म हुआ है। इस प्रकार मोहिनी के परिवार का विस्तार फैला हुआ है। 'एह बढ्यो परिमोक' के स्थान पर यदि 'यह चड्यो परिमोक' पाठ किया जाये तो अर्थ होगा कि 'इस मोहिनी ने परम पद मोक्ष के अभिलाषियों पर अपने परिवार सहित. आक्रमण कर रखा है।' हे विवेक भाई ! तुम्हारे मित्र मोहिनो के परिवार पर मोहित हैं और व्यर्थ जंजाल बढ़ा रहे हैं जो मुझे सहन नहीं होता ॥२॥ विवेचन-विनाशकारी लोभ, मोक्ष की प्राप्ति में अनेक प्रकार के विघ्न डालता है। समस्त प्रकार के अधर्म का मूल लोभ है। जहाँ लोभ होता है वहाँ सद्बुद्धि नहीं रहती। लोभ के कारण सद्गुण म्लान हो जाते हैं। गुणस्थानकों की उच्च भूमि पर चढ़ने वाले को लोभ हानि पहँचाता है। यदि विचार किया जाये तो लोभ के समान कोई हलाहल विष नहीं है। लोभ-वश मनुष्य देव-द्रव्य, गुरु-द्रव्य एवं ज्ञान-द्रव्य भी भक्षण कर लेते हैं। अतः सुमति कहती है कि हे विवेक ! तुम चेतन स्वामी को सचेत कर दो ताकि वे मोहिनी के परिवार के जाल में न फंसे । योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी ने इस पद्यांश में अत्यन्त सुन्दर तरीके से जीव की विभाव दशा का वर्णन किया है। श्रीमद् ने कषायों का यथार्थ स्वरूप बताकर जिज्ञासुओं को चिन्तन-मनन के लिए तथा स्वयं के सुधार के लिए प्रेरक सामग्री प्रदान की है। सुमति की बात सुनकर विवेक कहता है-हे सुमति ! तू विगत तिथि का मुहूर्त ब्राह्मण को क्या पूछ रही है ? तू बीते हुए समय की बात ज्योतिषी को क्या पूछती है ? जो होना था वह हो चुका। तेरे लिए यह कितना सद्भाग्य है कि तेरा पुत्र वैराग्य तो तेरे अधीन है। उसकी प्रशंसा मैं कितनी बढ़ा-चढ़ा कर करूं ? Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१३८ श्री ज्ञानसार जी महाराज ने अपनी टीका में अर्थ बताया है कितेरे स्वरूप रूप घर का पुत्र ज्ञानगुण तेरे मत का ही है, तेरे अधीन है। अतः जब चेतन का तुझसे मिलन होगा तब ही वे केवलज्ञान रूप पुत्र का मुंह देख सकेंगे। अत: तू खेद मत कर। चेतन कब तक मोहिनी का परिवार बढ़ायेंगे? यदि उन्हें केवलज्ञान रूप पुत्र का मुंह देखना होगा तो उन्हें तेरे पास आना ही पड़ेगा ।।३। । विवेचन -श्री ज्ञानसार जी महाराज ने 'घर को सुत' का अर्थ 'केवलज्ञान' किया है। अतः तीसरे पद्यांश की अन्तिम पंक्ति की व्याख्या उनके अर्थ के अनुसार ही की गई है। हमने अन्य अनेक विद्वानों की तरह 'घर का सुत' का अर्थ 'वैराग्य' किया है। विवेक ने सुमति को कहा कि बीती तिथि के सम्बन्ध में बार-बार ब्राह्मण (ज्योतिषी) को क्या पूछना ? विवेक के उपदेश से सुमति ने प्रात्म रूप पति से मिलने का उपाय किया और आत्मा में रमण करके उसके पूर्व के सम्पूर्ण साथ को छुड़ा दिया अर्थात् उसने मोहिनी एवं उसके परिवार का साथ छुड़ा दिया तथा परम तत्त्व आत्माराम से प्रीति जोड़कर उन्हें प्रानन्दघन रूप मुक्तिनगरी का साम्राज्य दे दिया। तात्पर्य यह है कि विवेक जाग्रत होने पर आत्मा में समता आ जाती है जिससे कषाय एवं मोह दूर हो जाते हैं। फिर परम पद की प्राप्ति हो जाती है ।।४।। . विवेचन अात्मा ने व्यवहारपूर्वक निश्चय चारित्र सारभूत समत्व का उद्यम करके मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के समूह को दूर किया । समस्त प्रसंगों में समत्व परिणाम धारण करने का प्रयत्न करना चाहिए । प्रात्मा ने परमात्मा के साथ प्रीति जोड़ कर समस्त कर्मों का क्षय किया जिससे उसने आनन्द के समूह का राज्य प्राप्त किया। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि चारित्र-परिणति के समागम से आत्मा स्वयं तीन भुवन का राजा बना, परमात्मा बना। (५१) (गग-सारंग) अनुभौ तू है हितू हमारो। प्राउ उपाउ करो चतुराई, और को संग निवारो ।। अनुभौ० ।। १ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३६ तिसना रांड भांड की जाई, कहा घर करे सवारी ।। सठ ठग कपट कुटंबहि पोषत, मन में क्यू न विचारौ।। __अनुभौ० ।। २ ।। कुलटा कुटिल कुबुधि संग खेलिके, अपनी पत क्यू हारौ।। प्रानन्दघन समता घर आवे, बाजे जीत नगारौ ।। अनुभौ० ।। ३ ।। अर्थ - हे अनुभव ! तुम तो हम दोनों के, मेरे एवं चेतन के, हितैषी हो। तुम मेरे स्वामी चेतन के पास जाकर ऐसी चतुराई करो जिससे वह माया, ममता आदि औरों का संग न करे ।। १ ।। विवेचन -सुमति कहती है कि तुम कुछ भी उपाय करो; चेतन को माया, ममता कुमति आदि अन्य स्त्रियों का संग छोड़ने के लिए विवश करो। हे अनुभव ! तुम ऐसा उपाय करो जिससे चेतन को माया ममता आदि कुलटा स्त्रियों के प्रति प्रेम न रहे। उन कुलटाओं ने उसका धन लट लिया, उसे दु:ख दिया। ये सब बातें उसे समझाओ और मेरे स्वामी चेतन को उनके पाश से छुड़ाओं। अनुभव में अलौकिक सामर्थ्य जान कर सुमति उसे निवेदन करती है। सुमति एवं प्रात्मा का प्रत्यक्ष सम्बन्ध कराने वाला अनुभव है। अनुभव ज्ञान केवलज्ञान का लघु भ्राता है। किसी भी तत्त्व का अनुभव हुए बिना रस उत्पन्न नहीं होता। समता उत्पन्न होने पर अनुभव ज्ञान प्रकट होता है। अतः अनुभव ज्ञान प्राप्त करना हो तो समता को प्रकट करना होगा ताकि अनुभव का मिलाप हो सके। - यह तृष्णा रांड तो भांड की पुत्री है जो नकल बना कर मनुष्यों को रिझाती रहती है। इसने किसके घर को सजाया है, किसके घर में प्रकाश फैलाया है ? यह तो दुष्ट है, ठग है, कपटी है और अपने परिवार जनों का ही पोषण करती है। तुम मन में यह क्यों नहीं सोचते ? ॥२॥ विवेचन-तृष्णा मोह रूप भांड की पुत्री है। तृष्णा के कारण मेरा प्रात्म-पति एक स्थान पर नहीं बैठता। सुमति कहती है कि तृष्णा के कारण मेरे आत्म-स्वामी ने अनेक पदार्थ खाये, पिये, फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। आत्मा को दु:ख के गर्त में धकेलने वाली तृष्णा मेरे स्वामी के घर में क्या उजाला करने वाली है ? यह तृष्णा शठ है, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१४० ठग है, धत है। यह क्रोध, मान, माया, लोभ तथा प्रज्ञान आदि परिवारजनों को पोषक है। अतः हे अनुभव ! मैं यह सब कैसे सहन कर सकती हूँ ? इसका तुम मन में विचार क्यों नहीं करते ? अर्थ – इस कुलटा, दुष्ट, कुबुद्धि के साथ विलास करके, इसके हाथों का खिलौना बन कर आप अपनी प्रतिष्ठा क्यों खो रहे हो? आप के प्रति हमारा जो विश्वास है कि आप हमारे हितैषी हो-यह विश्वास क्यों नष्ट कर रहे हो ? आनन्दघन जी योगिराज कहते हैं कि आनन्द के समूह चेतन सुमति के घर आ जायें तो विजय के नगारे बजने लगें अर्थात् समस्त कार्य सिद्ध हो जायें ।।४।। विवेचन -सूमति अनुभव को कहती है कि आप मेरे स्वामी को कहिये कि वे कुलटा एवं कुटिल तृष्णा की संगति करके अपनी प्रतिष्ठा मिट्टी में क्यों मिला रहे हैं ? वे आनन्द के समूह आत्मा रूंप स्वामी यदि मेरे घर आ जायें तो वे तीन लोक के नाथ बन जायें तथा समस्त कर्मों का क्षय करके परमात्म स्वरूपमय हो जाय । तृष्णा की गति कुटिल है, उससे कुबुद्धि उत्पन्न होती है। जगत् में समस्त जीव तृष्णा के कारण कुबुद्धि धारण करके हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, विश्वासघात एवं क्लेश आदि पाप करते हैं। इस कारण सुमति ने अनुभव को कहा कि आप मेरे आत्मा रूपी पति को कहना कि आप नीच, कुलटा तृष्णा की संगति में रहकर अपने कुल की प्रतिष्ठा, धन, बल एवं बुद्धि का नाश कर रहे हो। श्रीमद् अानन्दघन जी महाराज कहते हैं कि यदि अनुभव के समझाने पर आत्मा सुमति के घर आ जाये तो विजय के नगारे बज उठे और सर्वत्र आनन्द-पानन्द हो जाये । ( ५२) ( राग-धन्यासिरी ) बालूड़ी अबला जोर किसो करे, पीउड़ो पर घर जाइ । पूरब दिसि तजि पच्छिम रातड़ो, रवि अस्तंगत थाइ ।। बालूडी० ।। १ ।। पूरण शशि सम चेतन जाणिये, चन्द्रातप सम नाण । बादल भर जिम दल थिति प्राणिये, प्रकृति अनावृत जाण ।। बालूड़ी० ।। २ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१४१ पर घर भमता स्वाद किसौ लहे, तन धन जोबन हाणि । दिन दिन दीसे अपजस, बाधतो, निज मन माने न काणि ।। बालूडी० ॥ ३॥ कुलवट लोपी अवट ऊवट पड़े, मन महता नै घाट । प्रांधे प्रांधो जिम . ठग ठेलिये, कौण दिखावे वाट ।। बालूडी० ।। ४ ।। बंधु विवेके पीवड़ो बुझव्यौ, वार्यों पर घर संग । हेजे मिलिया. चेतन-चेतना, वो परम सुरंग ।। . बालूड़ी० ।। ५ ।। अर्थ-- बेचारी बाला अबला क्या जोर करे ? किस प्रकार प्रियतम को पर घर अर्थात् ममता के घर जाने से रोके ? पूर्व दिशा को छोड़कर पश्चिम दिशा के प्रति अनुरक्त सूर्य अस्त हो जाता है और अन्धकार छा जाता है। अर्थात् जब चेतन समता रूपी स्व-परिणति को छोड़कर ममता रूपी पर-परिणति की ओर चला जाता है तो उसका ज्ञान-प्रकाश अस्त हो जाता है, सर्वत्र प्रज्ञान का अन्धकार छा जाता है ।।१।। ... विवेचन-समता विवेक को कहती है कि मैं एक तो अबला हूँ और दूसरी बात यह है कि मेरी बाल वय है। मैं स्वामी को रोकने के लिए क्या जोर कर सकती हूँ ? मेरा स्वामी के समक्ष कुछ जोर नहीं चलता। मेरे स्वामी मुझे छोड़कर अन्य स्त्री के प्रति आसक्त होते हैं, इसमें उनकी ही हानि है। जगत् में अनेक पुरुष पर स्त्री पर आसक्त होने से रावण की तरह नष्ट हुए हैं। . अर्थ-पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान चेतन को समझना चाहिए और उसकी चांदनी के समान ज्ञान को समझना चाहिए चन्द्रमा जिस प्रकार बादलों से घिर जाता है, उसी प्रकार यह चेतन कर्म-दलिकों से ढक जाता है ।।२॥ विवेचन-चन्द्रमा के प्रकाश की तरह प्रात्मा के असंख्यात प्रदेशों को ज्ञानावरणीय आदि कर्म अनादिकाल से घेरे रहते हैं, जिससे आत्मा का ज्ञान प्रकाश ढक जाता है। ज्यों-ज्यों कर्म के आवरण हटते हैं, त्योंत्यों ज्ञान का आविर्भाव होता है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१४२ आत्मा रूपी चन्द्रमा पर कर्म रूपी बादल छाये हुए हैं, फिर भो । उन्हें हटाया जा सकता है। समता ने विवेक को कहा कि चेतन को तुम जैसे व्यक्ति समझायें तो ही वे समझ सकते हैं। मेरे स्वामी मेरी शिक्षा को ठुकरा कर मेरे घर का परित्याग करके अविरति के घर पर भटकते हैं। इससे उनका कोई हित न होकर हानि ही है। अर्थ –दूसरों के घर भटकने से भला क्या स्वाद मिलता है ? क्या आनन्द आता है ? उससे तो केवल तन, धन और यौवन की क्षति ही होतो है । दिन प्रतिदिन जगत् में अपयश बढ़ता है और मन अपनी मर्यादा नहीं मानता । वह निरंकुश हो जाता है, लाज.शर्म छोड़ देता है ।।३।। विवेचन-जो पुरुष अपनी पत्नी की हित-शिक्षा का त्याग करके श्वानवत् निर्लज्ज होकर पर-घर भटकते हैं और पर-नारियों के फन्दे में फँसते हैं, वे किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं करते। समता विवेक को कहती है कि आत्मस्वामी परनारी अर्थात् अविरति के घर में प्रवेश करता है जिससे वह अपने प्रदेशों को मलिन करता है और ज्ञान आदि ऋद्धि की हानि करता है । प्रात्मा के गुणों की पुष्टि रूप यौवन भी अविरति नारी के घर में जाने से नष्ट हो जाता है । अतः हे विवेक ! मेरे चेतन स्वामी अविरति नारी के घर में जाते हैं, यह सर्वथा अनुचित है। इस प्रकार समता ने विवेक को अनेक प्रकार से पर-घर में पर-नारी के साथ गमन करने की हानियाँ बताईं। अर्थ - अपने कुल की मर्यादा का उल्लंघन करके मन के चक्कर में चढ़कर उलटे तथा ऊबड़-खाबड़ मार्ग में चेतन जा पड़ा है, वह उन्मार्ग पर चढ़ गया है। यदि एक अन्धा दूसरे अन्धे का ही सहारा लेकर चले तो उन्हें संसार में मार्ग कौन बता सकता है ? नेत्रहीन व्यक्ति यदि नेत्र वाले व्यक्ति का सहारा ले तो ही वह मार्ग पार कर सकता है ।।४।। विवेचन - समता विवेक से कहती है कि जो पुरुष कुलवट छोड़कर उन्मार्ग पर गमन करते हैं वे दुःखी हुए बिना नहीं रहते। अपने शुद्ध धर्म के अनुसार चलना, अपनी पवित्रता को कायम रखना और अपनी दशा उत्तम बनी रहे उस प्रकार अपनी पान पर चलना - इसे कुलवट कहते हैं । समता ने विवेक को कहा कि मेरे चेतन स्वामी अपने कुलवट के मूलधर्म का त्याग करके पर-भाव रूप अकुलवट मार्ग पर रमण करें और अविरति नारी के घर पर पड़े रहें तो उन पर अनेक दुःख आ पड़ें और उन्हें चौरासी लाख जीव-योनि में परिभ्रमण करना पड़े तो क्या आश्चर्य । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली- १४३ चेतन का मूल धर्म ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, राग, द्वेष, ईर्ष्या, इच्छा, काम, क्लेश, पर-वस्तु-ग्रहण, ममत्व इत्यादि चेतन का मूल धर्म नहीं है। यदि चेतन इन्हें ग्रहण करे तो कुलवट का त्याग माना जायेगा। अर्थ-समता की बातें सुनकर विवेक ने चेतन स्वामी को समझाया और पर-परिणति रूप पर-घर का साथ छुड़ाया। उस समय चेतन तथा चेतना का सहज़ ही मिलाप हो गया जिससे सहजानन्द रूप परम सुरंग रंग प्राप्त हो गया। ____कुछ प्रतियों में इस पद की अन्तिम पंक्ति इस प्रकार है: 'प्रानन्दघन' समता घर आणे, बाधे नव-नव रंग ।।' इस अन्तिम पंक्ति का अर्थ है - श्रीमद् आनन्दघनजी योगिराज कहते हैं कि समता के घर पर चेतन के आने से अनुभव सुख के रंग में वृद्धि हो गई और चेतन सदा के लिए शाश्वत सुख का भोक्ता बन गया ॥५।।। - विवेचन-सचमुच विवेक में सत्य एवं असत्य में अन्तर की तथा सत्य ग्रहण करने की अपूर्व शक्ति रही है। विवेक के सदुपदेश से हेय, ज्ञेय एवं उपादेय तत्त्व का आभास होता है। दर्शन आदि समस्त गुणों में सर्वप्रथम विवेक प्रकट होता है। विवेक का कितना माहात्म्य है ? चाहे जैसा आत्मा हो तो भो विवेक क्षण भर में उसे ठिकाने पर ले आता है । मोक्ष-मार्ग की ओर प्रवृत्त करने वाला विवेक है, असत्य से आत्मा को दूर करने वाला भी विवेक ही है । ( ५३ ) राग-तोड़ी (टोड़ी) मेरी तू मेरी तू काहे डरे री। . कहे चेतन समता सुनि पाखर, और देढ़ दिन झूठी लरै री। मेरी० ।।१।। एती तो हूँ जानू निहचे, री री पर न जराव जरै री। जब अपनो पद आप संभारत, तब तेरे पर-संग परै री।। मेरी० ।।२।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १४४ औसर पाइ अध्यातम सैली, परमातम निज जोग धरै री । सकति जगाइ निरूपम रूप की, 'प्रानन्दघन' मिलि केलि करे री ॥ मेरी ० 0 11311 अर्थ चेतन कहता है कि तू मेरी है, मेरी है, फिर हे सुमति ! तेरे भय का क्या कारण है ? ममता का मेरे साथ दीर्घ काल का सम्बन्ध है. जिसे टूटता हुआ देखकर वह एक-डेढ़ दिन अर्थात् कुछ समय के लिए तो तुझसे और मुझसे झगड़ा करेगी, परन्तु अब मैं उसे पहचान गया हूँ । उसने मुझे अत्यन्त भटकाया है, उसके फन्दे में फँसकर मैंने अनन्त कष्ट सहे हैं । तू मुझ पर विश्वास रख, अब मैं उसके फन्दे में नहीं फँसू गा । अतः वह एक-दो दिन में हताश होकर स्वतः ही पलायन कर जायेगी || १ || विवेचन - चेतन अपनी पत्नी समता को कहता है कि तू क्यों डर रही है ? अब मैं तुझ पर कदापि क्रोध नहीं करूंगा । इतने समय तक तो मैं ममता के फन्दे में अचेत सा हों गया था। अब जाग्रत हो गया हूँ । अब यदि ममता मेरे पास आकर मुझे ललचायेगी तो भी मैं उसकी ओर देखूंगा तक नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि चेतन सम्यक्त्व प्राप्त करके समझ गया कि ममता अशुद्ध परिणति है, वह दुःखदायी है । उसका आश्रय लेना सुखकारी नहीं है । अर्थ--चेतन कहता है कि इतना तो मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि जौहरी पीतल पर कदापि बहुमूल्य हीरों, पन्नों का जड़ाव नहीं करते। मैं यह भी जानता हूँ कि तेरी ही संगति से मैं अपना स्वरूप पहचानता हूँ । तात्पर्य यह है कि सुमति की संगति से ही चेतन अपने स्वरूप को प्राप्त करके मोक्ष का अधिकारी बनता है ||२|| विवेचन - री री अर्थात् पीतल, पीतल पर कोई जौहरी जड़ाव का कार्य नहीं करेगा । चेतन समता को कहता है कि जब मैं अपना शुद्ध स्वरूप याद करता हूँ तब देह, वारणी एवं मन से मैं भिन्न हूँ, यह मुझे सत्य प्रतीत होता है । इस नश्वर जगत् में कौन ममता के वश में पड़ा रहेगा ? ममता कच्ची स्त्री है, झूठी है एवं दुःख देने वाली है । अब मैंने अपना शुद्ध स्वरूप पहचान लिया है । अतः हे समता ! अब तुझे मैं कदापि छोड़ने वाला नहीं हूँ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१४५ अर्थ-अध्यात्म शैली अर्थात् जिसमें प्रात्मा की ओर ही लक्ष्य रहे, परमात्म-पद प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार महापुरुषों ने प्रयत्न किया था, उसी प्रकार आचरण करे। इस प्रकार परमात्मपन का योग धारण करके दीर्घ काल से सुप्त पड़ी अपनी अनुपम शक्तियों को जाग्रत करे और अपने में गुप्त वीर्य शक्ति से ज्ञानानन्द प्राप्तकर समत्व भाव में रमण करे ॥३॥ विशेष टिप्पणी-जब जीव पुरुषार्थ करते-करते थक जाता है तब उसे काल लब्धि का सहारा लेना ही पड़ता है। समय पर ही सब कुछ होता है। समय पर ही सूर्योदय होता है, समय पर ही वर्षा होती है और समय पर ही सर्दी एवं गर्मी पड़ती है। इस प्रकार काल का महत्त्व सिद्ध होता है । ज्ञानियों ने बताया है कि पाँच कारण मिलने पर कार्य-सिद्धि होती है। वे पाँच समवाय कारण निम्नलिखित हैं -१. काल, २. स्वभाव, ३. नियति, ४. पूर्वकृत्य और ५. उद्यम। काल लब्धि का परिपाक कब होगा यह तो सर्वज्ञ के अतिरिक्त कोई नहीं जानता। अतः जीव को पुरुषार्थ करने में कदापि कमी नहीं रखनी चाहिए । विवेचन –अनेक विद्याओं के पारंगत विद्वान् जब तक अध्यात्म शैली से अनभिज्ञ होते हैं, तब तक वे अपूर्ण रहते हैं। इस पंचम काल में अध्यात्म शैली के प्रति राग होना भी दुर्लभ है। चेतन हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का विवेक करके अन्तर्दष्टि धारण करने लगा, अपने शुद्ध स्वरूप में उपयोग रखकर स्थिर होने लगा, बाह्य दशा के मन में जो-जो संकल्प प्रकट होने लगे, उन्हें दूर करने लगा, ममता के कुविचार मन में आते ही उनका क्षय करने लगा और बाह्य जगत् देखते हुए भी नहीं देखने जैसी स्थिति को धारण करने लगा। श्रीमद् आनन्दघन जी महाराज आत्मा एवं समता का स्वरूप हृदय के अनुभव से व्यक्त करते हैं कि चेतन शुद्ध गुरणों की शक्तियों को समता के योग से प्रकट करने लगा और आनन्द का समूह शुद्धात्मा समता के साथ एक स्थिर उपयोग में रमण करता हुआ कोड़ा करने लगा अर्थात् सहज शुद्धानन्द का उपभोग करने लगा। (५४) ( राग-प्रासावरी ) मोठो लागे कंतडो ने, खाटो लागे लोक । कंत विहुणो गोठडी, ते रन मांहि फोक ।। मीठो० ।।१।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१४६ कंतड़ा में कामण, लोकड़ा में सोक। एक ठामे किम रहे, दूध कांजी थोक ।। मीठो० ॥२॥ .. कंत विण चौगति, प्राणु मांनु फोक । उघराणी सिरड-फिरड, नाणो खरु रोक ।। मीठो० ॥३।। कंत बिन मति म्हारी, अवहाडानी बोक । धोक यूं प्रानन्दघन प्रवर ने यू टोक ।। मीठो० ॥४॥ . __ अर्थ-- सुमति अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि मेरे आत्माराम भरतार अत्यन्त प्रिय लगते हैं और अन्य लोग मुझे अप्रिय लगते हैं। भरतार के बिना गोष्ठी जंगल में फोक के समान असार है ॥१॥ विवेचन-संसार में कहीं भी शान्ति नहीं है। संसार का प्रवाह भिन्न प्रकार का ही है। संसार को रीति के अनुसार चलकर कोई मनुष्य अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकता। इस कारण लोगों की बात मुझे उचित प्रतोत नहीं होतो। अतः मुझे तो अपने चेतन स्वामी को गोष्ठी में ही समस्त प्रकार का सुख है। , .. अर्थ–सुमति अपनी सखी श्रद्धा को कहती है कि मुझे अपने प्रियतम में आकर्षण प्रतीत होता है और अन्य मनुष्यों में शोक प्रतीत होता है क्योंकि अन्य मनुष्य ममता के वशीभत हो सदा आत-रौद्र ध्यान में रहते हैं। दूध एवं कांजी का समूह एक स्थान में कैसे रह सकता है ? इसी प्रकार से एक ही हृदय में समता तथा ममता दोनों साथ कैसे रह सकती हैं ? जहाँ समता है वहाँ ममता नहीं रह सकती और जहाँ ममता है वहाँ समता कैसे रहेगी ? ।।२।। विवेचन -सुमति अपने उद्गार प्रकट करती है कि मेरे आत्मपति का स्वरूप निहारने में जो आनन्द आता है वह अथकनीय है। जब मैं संसार की ओर दृष्टि डालती हूँ तो शोक का वातावरण प्रतीत होता है। जिस प्रकार दूध तथा कांजी का समूह दोनों एक स्थान में नहीं रह सकते, उसी प्रकार मेरे मन में आत्म-सेवा-भक्ति एवं दुनियादारी दोनों एक साथ नहीं रह सकते। अर्थ–सुमति कहती है कि हे सखी श्रद्धा ! मेरें स्वामी शुद्ध चेतन के बिना प्राणियों ने चारों गतियों में परिभ्रमण किया है। यह समस्त Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१४७ भ्रमण मैं निरर्थक समझती हूँ। सच्चा धन तो वही है जो अपने पास रोकड़ हो। उधराणी बाकी हो उस धन को अपना धन मानना पागलपन है, उसमें तौ जगह-जगह धक्के खाने पड़ते हैं ॥३॥ विवेचन -सुमति कहती है कि मेरे प्रात्म-स्वामी की प्राप्ति के बिना किसी भी गति में जाऊँ, यह सब मिथ्या है। प्रात्म-ज्ञान के द्वारा आत्मा की प्राप्ति के लिए अष्टांग योग को साधना करनी रोकड़ धन की तरह रोकड़ा धर्म है। पर भव में अर्थात् देवलोक में विषय-सुख का भोग करने के लिए जो कुछ किया जाता है वह उधराणी के समान है। अतः रोकड़े धन की तरह आत्म-स्वामी की प्राप्ति के उपयोग में रहना चाहिए। आत्मा का सहज सुख प्राप्त करने के लिए ज्ञान-ध्यान में रमण करना रोकड़ धर्म है। - अर्थ -सुमति पुनः अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि हे सखी ! मेरे प्राणनाथ के बिना मेरी मति अवहाड़े की कुण्डी के समान है अर्थात् कुए के पास बनो छोटो कुण्डो के समान है अर्थात् संकीर्ण है। अनुभव ज्ञान के बिना मेरी मति की ऐसी दशा है अर्थात् कुए से सम्बन्ध होने पर जल का अभाव नहीं रहता, उसी प्रकार मति का अनुभव से सम्बन्ध होने पर चेतन-धारा हदती नहीं है, अन्यथा मति की गति तो अवहाड़े के बोक के समान है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सुमति ने चेतन स्वामी को कहा कि आनन्दघन प्रभु को मैं वन्दन करतो हूँ तथा आत्म-भाव के अतिरिक्त अन्य भावों पर भी रोक लगाती हूँ ॥४।। विवेचन-सुमति कहती है कि प्रियतम रहित मेरी मति अत्यन्त अल्प है। आत्मा का साक्षात्कार होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। केवलज्ञान के द्वारा जगत् के समस्त पदार्थ एक समय में दृष्टिगोचर होते हैं। परोक्ष रूप से प्रात्मा को प्राप्ति के रूप में जो अनुभव-ज्ञान प्राप्त होता है वह अनुभव-रहित ज्ञान को अपेक्षा उच्च कोटि का है। जिस प्रकार पाताल-फोड़ कुए का जल समाप्त नहीं होता, उस प्रकार आत्मा के स्वरूप को प्राप्त हुई बुद्धि का भी अन्त नहीं आता। श्रीमद् आनन्दघनजी के विचार हैं कि सुमति कहतो है कि अानन्द के समूह आत्म-स्वामी के बिना अन्य सब कुछ अहितकर दु:खकर तथा उपाधिकर प्रतीत होता है । मुझे तो केवल अात्मस्वामी हो सुखकर प्रतीत होते हैं अतः मैं उनको प्रणाम करतो हूँ, अन्य को धक्के मारकर भगा देती हूँ। मैं अन्य का तिरस्कार करतो हूँ और चेतन को प्रणाम करती हूँ। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १४८ ( ५५ ) ( राग- जैजैवन्ती ) 1 मेरी सुं मेरी सुं मेरी सुं मेरी सौं मेरी री तुम्ह तैं जु कहा दुरी कहो नै रूठे देखिके मेरी मनसा दुःख जाके संग खेली सो तो सवेरी री ॥ मेरी० ॥ १ ॥ घेरी री । जगत की चेरी री || मेरी ० ||२|| सिर छेदी आगे धरे और नहीं तेरी री । प्रानन्दघन की सूँ जो कहूँ हुं अनेरी री ॥ मेरी० || ३ || अर्थ - सुमति अपने प्रियतम चेतन से कहती है- आपको मेरी शपथ है, आपको मुझसे दूर रहने के लिए किसने कहा है ? आप कृपा करके मुझे उसका नाम शीघ्र बताओ। मैं आपको बार-बार शपथ दे रही हूँ, पर आप मुझे बताते क्यों नहीं हैं ? ॥ १ ॥ विवेचन - जगत् की 'स्थूल भूमिका में भी उत्तम नारी अपने भ्रमित . पति को साहस करके पूछ सकती है कि आप किसके बहकाने से मुझसे दूर रह रहे हैं ? और शपथ देकर पूछने से वह उन्हें ठिकाने लाने का प्रयास करती है । इसी प्रकार आत्मा में विद्यमान सुमति स्वयं से दूर रहने का कहने वाले स्वामी को शपथ देकर विवेक पूर्वक प्रभावशाली शब्दों में पूछे कि आपको मुझसे दूर रहने की बात किसने कही है ? तो कोई आश्चर्य बात नहीं है । रूठे अर्थ -- सुमति आगे अपने स्वामी चेतन को कहती है कि - आपको हुए से देखकर मेरा मन दुःखमय हो गया है । मैं अत्यन्त दु:खी हूँ । जिसके साथ आप खेल रहे हैं, विलास कर रहे हैं, रंगरेलियाँ मना रहे हैं, वह (ममता ) तो संसार की दासी है || २ || दासी के कथना विवेचन - आप जिसके साथ भोग भोग रहे हैं वह तो जगत् की दासी ही है । दासी किसी का हित नहीं कर सकती । नुसार चलने वाले पुरुष दास रूप बन जाते हैं । हे तीन लोक के स्वामी आत्मन् ! आपको जगत् की दासी ममता की संगति कंदापि नहीं करनी चाहिए । उसके साथ रंगरेलियाँ करना आपको शोभा नहीं देता । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१४६ अर्थ-सुमति अपने स्वामी चेतन को कहती है कि जो अपना सिर काटकर आपके समक्ष रख दे, उसे ही अपनी समझना चाहिए और जो ऐसा नहीं कर सके, वह आपकी नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सुमति ने अपने स्वामी को कहा कि मैं अपने स्वामी आनन्द के समूह की शपथ खाकर कहती हूँ कि जो मैं कहती हूँ, वही मैं कर बताऊंगी। मैं ऐसी नारो नहीं हूँ जो कहे कुछ और, करे कुछ और। हे स्वामी ! मैं आपकी ही हूँ, अन्य किसी की नहीं हूँ ।।३।। विवेचन-सुमति कहती है कि हे स्वामी! आप कदाचित् यह समझते होंगे कि ममता आपकी है, परन्तु वह आपकी नहीं हो सकेगी। जो सिर काट कर आगे रख सके वही आपकी है। अन्य स्त्री आपकी नहीं हो सकती। आप तो उसे हो अपनी सच्ची पत्नी मानें जो प्राणों की भी परवाह न करे और मृत्यु को हिसाब में न माने । (राग तोड़ी) चेतन चतुर चौगान लरी री। जीति ले मोहराज को लसकर, मसकरि छांडि अनादि धरी री ।। चेतन० ॥ १ ॥ नांगो काढ़ि लताड़ ले दुसमण, लागे काची दोइ धरी री। अचल अबाधित केवल मुनसफ, पावे शिव दरगाह भरी री ।। चेतन० ॥ २ ॥ और लराई लरे सो बौरा, सूर पछाड़े भाव अरी री। धरम मरम बूझे कहा औरे, रहि आनन्दघन पद पकरी री ।। चेतन० ॥ ३ ॥ - अर्थ -चेतना अपने प्रियतम चेतनराज को कहती है कि हे चतुर चेतनराज! आप तो अनन्त शक्ति के पुज हो। क्या सोच रहे हो ? मैदान मार लो। मोहराज को सेना राग-द्वेष, काम, क्रोध, माया, लोभ आदि से युद्ध करके विजय प्राप्त कर लो। काल-लब्धि का बहाना बनाना छोड़कर अनादि काल से लगे मोह-पाश का नाश कर दो ॥१॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१५० विवेचन--आत्मा अनन्त शक्तिशाली है। आत्मा मोहराजा से युद्ध करके उसे पराजित करता है। मोहराजा की सेना भी अत्यन्त शक्तिशाली है। मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृति है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं –दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं -सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय। जो सम्यक्त्व में व्याकूलता करता है वह सम्यक्त्व मोहनीय कहलाता है। जिसमें अन्तर्मुहूर्त तक जैनधर्म के प्रति रुचि भी नहीं और द्वेष भी नहीं वह मिश्र मोहनीय कहलाता है। जीव को अजीव मानना, धर्म को अधर्म मानना आदि दस प्रकार के मिथ्यात्व को मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं। अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ, अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ-ये सोलह कषाय हैं तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक दुगुच्छा एवं स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय है सब मिलकर चारित्र मोहनीय की पच्चीस प्रकृतियाँ तथा दर्शन मोहनीय की तीन सम्मिलित करने पर मोह की अट्ठाईस प्रकृतियाँ रूपी योद्धा अनादि काल से आत्मा के साथ युद्ध करते हैं। शुद्ध चेतना अपने स्वामी को कहती है कि अब तू अपनी अशुद्ध परिणति रूप कालिमा का त्याग करके मोह की सेना को जीत ले । बन्ध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता में से मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को उड़ा दे, विलम्ब मत कर । अर्थ -चेतना अपने स्वामी को कहती है कि आप तीक्ष्ण रुचि रूपी नंगी तलवार निकाल लो और मोह रूपी शत्रु को परास्त कर दो। यदि वेगपूर्वक आक्रमण करेंगे तो मोह को परास्त करने में दो घड़ी भी नहीं लगेगी और आपको आधि, व्याधि एवं उपाधि रहित निश्चल केवलज्ञान प्राप्त हो जायेगा। केवलज्ञान सत्य-असत्य का निर्णायक सबसे बड़ा न्यायाधीश है, जिसे प्राप्त करने पर मोक्ष रूपी पवित्र स्थान प्राप्त होता है ॥२॥ विवेचन-चेतना अपने स्वामी चेतन को कहती है कि आप मोहराजा के योद्धाओं को मार भगानो क्योंकि जो अपने शत्रुओं की उपेक्षा करता है वह मूर्ख गिना जाता है। यदि आप शूरता से युद्ध करेंगे तो कच्ची दो घड़ी में आप मोह रूपी शत्रु का नाश कर देंगे। मोह-शत्रु का नाश करने पर केवलज्ञान-प्राप्ति के साथ शिव-दरगाह अर्थात् मुक्ति को आप प्राप्त कर लेंगे। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१५१ अर्थ-अपने मुख्य शत्रुओं से न लड़कर जो औरों से युद्ध करता है वह तो मूर्ख है। क्रोधी एवं द्वेषी मनुष्य अपने होश खो देता है, अतः वह पागल ही है। जो सच्चा पुरुष होता है वह तो उच्च श्रेणी में चढ़कर राग-द्वेष रूपी समस्त शत्रुओं को परास्त करता है। राग-द्वेष को जीतने पर मनुष्य जगत्-पूज्य हो जाता है। हे भोले चेतन! तू धर्म का मर्म दूसरों को क्या पूछता है ? तू तो इन प्रानन्दघन प्रभु के चरण-कमलों को पकड़ रख । प्रत्येक प्रवत्ति में यह देख कि मैं आत्म-भाव में हैं अथवा अनात्म भाव में हूँ ॥३॥ - विवेचन -चेतना अपने प्रात्मस्वामी को कहती है कि तू अब मोहशत्रु का संहार कर। जीव बाह्य युद्ध तो अनादि काल से करते आये हैं और इस कारण वे चर्तु पति रूप संसार में परिभ्रमण करते हैं। मनुष्य अपनी जाति वालों को शत्रु मानते हैं, परन्तु वस्तुतः तो उनके भीतर के राग-द्वेष शत्रु हैं। सच्चे शत्रु तो मोह के राग आदि योद्धा हैं। उनको ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के द्वारा जो नष्ट करता है, वही सच्चा शूर-वीर है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा अपने शुद्धानन्द स्वरूप में रमण करता है और समस्त कर्मों का क्षय करता है। शुद्ध चेतना अपने स्वामी को कर्म-क्षय करने के.लिए प्रोत्साहित करती है। . (५७) राग-कान्हड़ो (प्रासावरी) देख्यो एक अपूरब खेला। पाप ही बाजी प्राप बाजीगर, आप गुरु प्राप चेला ॥ देख्यो० ॥ १ ॥ लोक अलोक बीचि आप बिराजत, ग्यान प्रकाश अकेला । बाजी छांडि तहाँ चढ़ि बैठे, जहाँ सिन्धु का मेला ।। देख्यो० ॥ २ ॥ वाग वाद षट वाद सहूँ मैं, किसके किसके बोला । पाहण को भार कहा उठावत, इक तारे का चोला ।। देख्यो० ।। ३ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१५२ षट्पद पद के जोग सिरीष सहे, क्यू करि गजपद तोला। आनन्दघन प्रभु आइ मिलो तुम्ह, मिटि जाइ मन का झोला ।। देख्यो० ॥ ४ ॥ अर्थ – इस पद्यांश में योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी अभेद ज्ञान बताते हुए कह रहे हैं कि संसार में एक अपूर्व, अलौकिक खेल देखा है। इस खेल की अलौकिकता, विशेषता यह है कि खेल और खेल दिखाने वाला पृथक्-पृथक् नहीं है। अन्य खेलों में खेल अलग होता है और खेल दिखाने वाला बाजीगर, सूत्रधार अलग होता है। इस खेल में यह. देखा है कि खेल भी स्वयं है और खेल दिखाने वाला जादूगर, सूत्रधार भी स्वयं ही है। वह स्वयं ही गुरु है और स्वयं ही शिष्य है अर्थात् चेतन स्वयं ही गुरु है और स्वयं ही शिष्य है। गुरु-शिष्य एवं खेल-खिलाड़ी में भेद नहीं है ॥१॥ विवेचन-श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज बताते हैं कि जब आत्मा समता के सम्पर्क में आती है तब वह अन्तर सृष्टि का खेल खेलती है। आत्मा की अन्तर गुरणों की सृष्टि का अंपूर्व खेल है। आत्मा ही बाजीरूप है और आत्मा ही बाजीगर है। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र गुणों का अन्तर में अपूर्व खेल होता रहता है। खेल खेलने वाला आत्मा स्वयं गुरु है और स्वयं को आज्ञा देता है और तदनुसार सदगुणों की प्राप्ति हेतु वह एक उपयोग में रहता है, अतः स्वयं ही शिष्य है। गुरु एवं शिष्य का कार्य स्थूल व्यवहार में भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है परन्तु अन्तरात्मा में तो गुरु का धर्म भी आत्मा बजाता है और शिष्य का धर्म भी आत्मा बजाता है। जहाँ दोनों की एकता है वहाँ निश्चय है और जहाँ भेद है वहाँ व्यवहार है। आत्मा ध्याता है, आत्मा ही ध्येय है और आत्मा ही ध्यान रूप है । आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप की पूजा करता है, अतः स्वयं शिष्य गिना जाये तो अध्यात्म की अपेक्षा कोई आश्चर्य नहीं है। आत्मा स्वयं ही पूज्य है अतः उस अपेक्षा वह गुरु है। इस प्रकार अध्यात्म दृष्टि से अन्तर में अनुभव करते हैं तो अपूर्व खेल प्रतीत होता है और सहज नित्य आनन्दप्रद होने के कारण अपूर्व कहलाता है। अर्थ-अलोकाकाश में लोकाकाश स्थित है। उस लोकाकाश में यह चेतन सर्वत्र विद्यमान है, जहाँ मात्र ज्ञान का ही प्रकाश है। वहाँ राग-द्वेष रूप बाजी (खेल) को त्याग कर चेतन उस स्थान पर चढ़ जाता है जहाँ अपने समान ही मुक्तात्माओं के सुख-सांगर का मिलाप होता है ॥ २ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १५३ विवेचन- योगिराज ने इस पद्यांश में मुक्तात्माओं के स्थान का संक्षेप में अत्यन्त ही सुन्दर वर्णन किया है । अलोकाकाश में लोकाकाश की स्थिति है, जहाँ धर्म, अधर्म, जीव, पुद्गल और आकाश है तथा इन पाँच द्रव्यों के प्रदेश एक-दूसरे से संलग्न हैं । अतः ये अस्तिकाय कहलाते हैं, किन्तु काल द्रव्य के प्रदेश जुड़े हुए नहीं हैं इसलिए यह द्रव्य होते हुए भी अस्तिकाय नहीं है । लोकाकाश के अन्त में मुक्तात्मानों के ठहरने का स्थान है, जहाँ अनन्तं सुख, अनन्त ज्ञान - दर्शन तथा अनन्त शक्ति का मिलाप होता है | चेतन ऐसे स्थान पर पहुँच कर फिर नीचे कदापि नहीं आता । अर्थ -- श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि षड्दर्शन एवं समस्त मतमतान्तरों में तो अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क भरे हुए हैं । इस वाणीविलास के पृथक्-पृथक् राग की गहनता की थाह पाना अत्यन्त कठिन है । 1. किस-किसके वचनों को, कौन - कौनसी मान्यताओं को प्रामाणिक माना जाये ? यह एक तार का, एक तत्त्व का, एक साँस का यह चोला अर्थात् शरीर इन षड्दर्शन रूप पत्थरों का बोझा कैसे उठा सकता है ? अर्थात् लघु आयु में अनेक दर्शनों की जानकारी करना पर्वत के समान भारी है । तात्पर्य यह है कि इस प्ररूप जीवन में आत्मानुलक्षी बनकर ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।। ३ ।। विवेचन - यदि देखा जाये तो एक तार के चोले की तरह आत्मा में षड्दर्शनों का समावेश होता है । एक तार के तम्बूरे में से जिस प्रकार छह स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार आत्मा में से षड्दर्शन प्रकट हुए हैं और सम्यक्त्व ज्ञान होने पर वे उसमें समा जाते हैं । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने जैनदर्शन को एक तार के चोले की उपमा दी है । ऐसे उत्तम जैनदर्शन का पुन: प्रचार करने का प्रयत्न करने वाले वीर पुरुष पुन: उत्पन्न हों । अर्थ - इस पद्यांश में षट्पद में श्लेष है जिसका अर्थ है भ्रमर और षड्दर्शन । षट्पद भ्रमर के पैरों के समान षड्दर्शनों के ज्ञान की श्रात्मज्ञान रूपी गज-पद से कैसे तुलना की जा सकती है ? षड्दर्शनों का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी आत्म-ज्ञान नहीं होता है, फिर समानता कैसी ? आनन्दघनजी कहते हैं कि हे आनन्द स्वरूप चेतन प्रभो ! आपका साक्षात्कार हो जाये तो मन की समस्त उलझनें सुलझ जायें अर्थात् मन का संशय और मन की चंचलता दोनों नष्ट हो जायें । श्रात्मज्ञान-भेदज्ञान की प्राप्ति ही मन की चंचलता नष्ट कर देती है ॥ ४ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१५४ विवेचन -जैनदर्शन की तुलना अन्य किसी भी दर्शन के साथ नहीं की जा सकती क्योंकि सहस्रदर्शनरूप भौंरों के पद श्री जैनदर्शनरूप हाथी के पद में समा जाते हैं। सात नयों, सप्तभंगी तथा चार निक्षेपों से जैन तत्त्वों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। अतः जैनधर्म से तुलना करने जैसा संसार में कोई धर्म नहीं है। अधम से अधम जीव का भी उद्धार होने की रीति जैनदर्शन बताता है। प्रानन्दघन आत्मा को छोड़कर राग-द्वेष की वृद्धि करने वाले वाद के झगड़ों को करने से मन में विकल्प-संकल्प प्रकट होते हैं जिससे आनन्द के बजाय अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव होता है। अतः सहजानन्द का सागर प्राप्त करने के लिए समस्त प्रकार की विकल्प-संकल्प की दशा को छोड़कर आत्मा का ध्यान करना चाहिए। ( ५८ ) ( राग-प्रासावरी ) आसा औरन की कहा कीजे, ज्ञान-सुधारस पीजे ॥ . भटके द्वार-द्वार लोकन के, कूकर आसाधारी। प्रातम अनुभव रस के रसिया, उतरइ न कबहुँ खुमारी ॥ प्रासा० ॥ १॥ पासा दासी के जे जाये, ते जन जग के दासा । ... प्रासा दासी करे जे नायक, लायक अनुभी प्यासा ।। प्रासा० ॥ २ ।। मनसा प्याला प्रेम मसाला, ब्रह्म अगनि पर जाली । तन भाठी प्रवटाइ पिये कस, जागे अनुभौ लाली ।। आसा० ।। ३ ।। अगम पियाला पीरो मतवाला, चिन्हे अध्यातम वासा । आनन्दघन ह जग में खेले, देखे लोक तमासा ।। प्रासा० ।। ४ ।। अर्थ –श्रीमद् अानन्दघनजी उद्बोधन कर रहे हैं कि दूसरों की आशा क्यों करते हो? पौद्गलिक सुखों से शान्ति एवं सुख की क्या आशा की जा सकती है ? इन पौद्गलिक सुखों की आशा त्याग कर ज्ञान Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१५५ रूपी अमृत रस का आस्वादन करो। इस अमृत रस से शाश्वत सुख एवं शान्ति की प्राप्ति होती है । जो मनुष्य पौद्गलिक सुखों की आशा के पीछे पड़ते हैं, वे उस श्वान के समान हैं जो जूठे टुकड़ों की प्राप्ति की आशा में लोगों के द्वारद्वार पर भटकता है। पौद्गलिक सुखों की आशा में भटकने से वे सुख प्राप्त हो भी जायें तो वह दुराशा मात्र है। अत: उन झूठे सुखों की आशा त्याग कर आत्मानुभव के रस के रसिक-जन उस आत्मानुभव (ज्ञानामृत) रस को पीकर इतने मग्न हो जाते हैं कि उनकी खुमारी, उनका नशा कभी दूर होता ही नहीं है। वे नित्य आत्मानन्द में डूबे हुए ही रहते हैं ।। १ ।। विवेचन - संसार में जीवन में रस पैदा करने वाली आशा ही है। वह भविष्य के नये-नये स्वप्न संजोती रहती है। प्राशा-तृष्णा ही संसार है। अतः आत्मोत्थान चाहने वालों को आशा का परित्याग कर भवभ्रमण घटाना चाहिए। जो मनुष्य संसार को, भव-भ्रमण को घटाना चाहते हैं, उन्हें आशारहित होकर अनित्य, अशरण आदि भावनाएँ अपनानी चाहिए। ये भावनाएँ आशानों पर अंकुश का कार्य करती हैं.। ... ' . अर्थ-आशा दासी की जो सन्तानें हैं, वे संसार की दास हैं, गुलाम हैं, क्योंकि दासी के पुत्र तो दास ही होंगे, किन्तु जिन्होंने आशा को अपनी दासी बना लिया है, जिन्होंने आशा दासी पर नियन्त्रण कर लिया है, वे स्वरूपानुभव की प्यास को तृप्त करने के अधिकारी हैं, वे अात्मानुभव के प्यासे योग्य नायक हैं ।। २ ॥ विवेचन -- सांसारिक सुखों की आशा रखने वाले सचमुच, संसार के दास ही हैं। वे प्रत्येक को प्रसन्न रखने के प्रयत्न में न मालूम क्याक्या कर डालते हैं ? दूसरों की खशामद में लगे रहते हैं। अतः वे दास हैं। जो दास-वृत्ति धारण कर लेते हैं उन्हें कटु एवं अपशब्द सहन करने पड़ते हैं और जिन्होंने आशा को दासी बना लिया है, अपनी आज्ञाकारिणी बना लिया है अर्थात् जिन्होंने पौद्गलिक सुखों की प्राशा का परित्याग कर दिया है, वे आत्मानुभव के अधिकारी बन गये हैं। ____अर्थ ---आत्म-शुद्धि की इच्छा रूपी प्याले में स्वाध्याय रूपी मसाला भर कर ब्रह्म,प्रात्म-तेज (तप) रूपी अग्नि प्रज्वलित करके देह रूपी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य -१५६ भट्टी में प्रौटाकर जो उस मसाले का सत्त्व पी लेते हैं, उनमें अनुभव ज्ञान रूपी लालिमा प्रकट हो जाती है ।। ३ ।। विवेचन इस पद में श्रीमद् श्रानन्दघनजी योगिराज ने रूपक के द्वारा आत्म शुद्धि की प्रक्रिया को स्पष्ट किया है । ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मा शुद्ध, शुद्धतर और अन्त में शुद्धतम अवस्था को प्राप्त हो जाती है । अन्तिम अवस्था में पहुँचने पर उसे ज्ञान रूपी लालिमा अर्थात् प्रकाश प्राप्त हो जाता है । अर्थ – योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि उपर्युक्तं सत्त्व से भरा हुआ प्याला अगम्य है । उसकी विशेषताएँ प्रत्येक व्यक्ति की समझ से परे हैं । उसे तो वे ही पहचानते हैं जो अध्यात्म में निवास करने वाले हैं । अर्थात् जो बहिर्भाव में नहीं रहते और आत्मभाव में रमण करते हैं वे ही उसे पहचानते हैं । ऐसे ही मनुष्य इस प्याले का आस्वादन कर मग्न हो जाते हैं । अतः इस रस के रसिको ! आत्मोद्धार के पथिको ! इसका आस्वादन करो, इसे पियो । जिसने इस रस का आस्वादन कर लिया वह अबाधित आनन्द समूह चेतन बनकर चौदह राजलोक का तमाशा देखता है अर्थात् लोक में हुईं, हो रही और होने वाली घटनाओं को देखता है । इस प्रकार वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त बन जाता है ॥ ४ ॥ विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि उस आगम अनुभव प्रेम रस के प्याले को पी जाओ । हे चेतन ! अध्यात्म ज्ञान के द्वारा अगम अनुभव प्याले का स्वरूप जानकर उस प्रेमरस प्याले को तू पीजा जिससे आनन्द का समूहभूत चेतन अपने स्वरूप में खेलेगा और अनुभव प्रेमरस को खुमारी इतनी अधिक चढ़ जायेगी जो आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में व्याप्त हो जायेगी, जिसके प्रताप से दिव्यज्ञान- शक्ति खिल उठेगी जिससे लोक में निहित समस्त पदार्थों का नाटक दिखाई देगा । अध्यात्मयोगी ऐसा उत्तम प्याला पीने में समर्थ होते हैं । ऐसा प्याला पीते समय किसी की स्पृहा नहीं रहती । सेठ, राजा, चक्रवर्ती तथा इन्द्रों की भी परवाह नहीं रहती । अनुभव रस का प्याला पीने वाले संसार के समस्त तमाशे देखते हैं और अपने स्वरूप के आनन्द में तन्मय रहते हैं । वे देह होते हुए भी मुक्ति के सुख का अनुभव करते हैं । उक्त प्याला पीने के पश्चात् चेतन भिन्न प्रकार से खेल कर जगत् को तमाशे के रूप में देखता है । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१५७ ( ५६ ) (राग-प्रासावरी) अवधू ! अनुभव कलिका जागी , मति मेरी आतम सुमिरन लागी ।। जाइ न कबहु और ढिग नेरी, तोरी बनिता बेरी । माया चेरी कुटुम्ब करी हाथे, एक डेढ़ दिन घेरी ।। अवधू० ।। १ ।। जामन मरन जरा वसि सारी, असरन दुनियां जेती। दे ढवकाय न वा गमे मीयां, किस पर ममता एती ॥ अवधू० ।। २ ।। अनुभव रस में रोग न सोगा, लोकवाद सब मेटा । केवल अचल अनादि अबाधित, शिवशंकर का भेटा ॥ अवधू० ।। ३ ॥ वरषा बूद समुद संमाने,. खंबरि न पावे कोई । प्रानन्दघन ह्र जोति समावे, अलख लखावे सोई ।। अवधू० ॥ ४ ॥ अर्थ-श्रीमद आनन्दघनजी कहते हैं कि हे अवध ! अब अनुभवज्ञानरूपी कली विकसित हो गई है। इस कारण मेरी मति प्रात्म-स्मरण में लग गई है। अब यह मति आत्म-भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु में, अन्य किसी भी भाव के निकट नहीं जाती। उसने विवशता का बन्धन तोड़कर माया दासी तथा उसके परिवार (लोभ आदि) को चारों ओर से एक-डेढ़ दिन का घेरा डालकर अपने हाथ में कर लिया है। अब ये माया, लोभ आदि कुछ बिगाड़ नहीं कर सकते ॥ १॥ - विवेचन - मेरी मति सचेत हो गई है, जान गई है कि क्रोध आदि शत्रु मेरे हितैषी नहीं हैं। सुमति ने माया दासी के सम्पूर्ण परिवार को वश में कर लिया है जिससे राग-द्वेष आदि शत्रुओं का जोर घट गया है। चेतन कहता है कि माया ने मुझे चौरासी लाख योनियों में भटकाकर मेरा समस्त धन पचा लिया था और मुझे मोह के Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१५८ फन्दे में फंसा दिया था जिससे मेरी शुद्ध बुद्धि नष्ट हो गई थी। अब मैं सुमति के प्रताप से जाग्रत हो गया हूँ। __ अर्थ-यह सम्पूर्ण संसार जन्म, जरा, मृत्यु के वशीभूत है, अतः अशरण है, अर्थात् संसार में सब पर इनका प्रभाव है, किन्तु अनुभव ज्ञान रूपी कलिका के विकसित होने से जन्म, जरा, मृत्यु का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं है। मुझे तनिक भी भय नहीं है। मेरा इन पर न तो कोई ममत्व है और न ये मुझे तनिक भी अच्छे लगते हैं। अतः मैंने इनका परित्याग कर दिया है। विवेचन - संसार में जीव दुःखों में फंसे हैं। पामर जीव दु:खद पदार्थों को भी सुख के भ्रम में सुखद मानकर फंस जाते हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी ने मियांजी के बाग का दृष्टान्त देकर यह बात समझाई है। 'एक मियांजी बगीचे में निबौरी चुन रहे थे। वे मीठी तथा कड़वी निबौरी अलग-अलग वृक्षों की चुन रहे थे। किसी ने उनके घर . आकर मियांजी की बीबी से पूछा- मियां कहा गये हैं ? बीबी ने बताया—'वे बगीचे में गये हैं।' मियांजी के निबौरी चुनने की तरह जीव संसार में दुःख भोगते हैं फिर भी सुख का बहाना करते हैं। आत्मा कहती है कि मैंने भी अज्ञानवश मियाँ के बगीचे की तरह वेदनीय कर्म रूपी नीम की कडवी निबौरियाँ एकत्र की, परन्तु कटता के अतिरिक्त किसी अन्य स्वाद का अनुभव नहीं किया। हमें किसी भी पदार्थ पर ममता नहीं रखनी चाहिए। अब ज्ञात हो गया. कि संसाररूपी वृक्ष का मूल ममता है। ममता के नचाने पर सम्पूर्ण जगत् नाच रहा है। अब अशरणभूत संसार में किसी पर ममता रखना उचित नहीं है। अर्थ-अनुभव के रसास्वादन से शारीरिक रोग और मानसिक शोक नहीं रहते। शरीर रोगों का और मन शोक-सन्तापों का घर है। भेदज्ञानी दर्शक बनकर देह एवं मन का नाटक देखता है और अपने ज्ञानानन्द में मग्न रहता है। अनुभव ज्ञान होने पर निन्दा, स्तुति, लोकापवाद सब दूर हो जाते हैं। यहाँ अनुभव-ज्ञान में तो अचल अनादि, बाधारहित कल्याणकारी, मंगलदायक चैतन्य-शक्ति का साक्षात्कार रहता है ।। ३ ॥ विवेचन–अनुभव-कलिका जाग्रत होने से अनुभव-रस प्राप्त होता है, जिसका पान करने से आत्मानुभव होने के कारण मन पर राग-द्वेष का प्रभाव अल्प रहता है और मन स्वस्थ बना रहता है तथा देह नीरोग Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१५६ रहती है। अनुभव-रस प्राप्त होने पर मन अस्वस्थ नहीं रहता। अनुभव-रस का पान करने से आत्मा का स्वरूप भिन्न प्रकार का होता है। अनुभव-ज्ञानी अन्तर से रोग-शोक का अनुभव नहीं करता और वह लोगों के बोलने की ओर ध्यान नहीं देता। अनुभवी बाह्य दृष्टि बन्द करके अन्तई ष्टि से मोक्ष-मार्ग की अोर प्रयाण करता है। वह तो अपने स्थान के प्रति गुणस्थानक रूप भूमि को लाँघ कर प्रयाण करता है और कल्याणमय परमात्मा से साक्षात्कार करता है अर्थात् स्वयं परमात्मा बनता है। अर्थ-वर्षा की बूद जिस प्रकार समुद्र में समा जाती है, मिल जाती है और फिर किसी को यह पता नहीं लगता कि वह बूद कौनसी है ? वह समुद्ररूप हो जाती है। उसी प्रकार से अनुभव-ज्ञानी प्रानन्दसमूह की ज्योति में समा जाते हैं, सिद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। अतः अलख (अलक्ष्य) हो जाते हैं। समुद्र में वर्षा की बूंद की खोज नहीं हो सकती है क्योंकि वह समुद्रमय बन जाती है। उसी प्रकार से चेतन विशाल आनन्दसागर बन जाता है ।। ४ ।। विवेचन---अनुभव-ज्ञान के बिना अलक्ष्य आत्मा का स्वरूप प्रतीति-गोचर नहीं होता। आत्मा की ज्योति आत्मा से पृथक नहीं है। आत्मा एवं आत्म-ज्योति दोनों एकरसरूप बनकर रहते हैं, जिसे कोई विरले अनुभवी ही जानते हैं। अनुभवज्ञान की ज्योति आत्मा में समा जाती है। अनुभवी अपने अनुभवज्ञान को अन्य व्यक्तियों को बता नहीं पाता। केवल किसी वस्तु को पढ़ने-सुनने से कोई ज्ञानी नहीं बन जाता। उन-उन वस्तुओं के स्वरूप का अनुभव करना चाहिए। प्रात्म-तत्त्व का अनुभव प्राप्त करना चाहिए। आत्म-अनुभव-कलिका जाग्रत होने पर अपने स्वरूप की रमणता खिलती है और मन आत्मसमाधि में लीन रहता है। (६० ) (राग-गौड़ी) निसाणी कहा बतावू रे, वचन अगोचर रूप । रूपी कहूँ तो कछु नहीं रे, वधइ कइसइ अरूप । . रूपारूपी जो कहु प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । निसाणी० ॥ १॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- १६० विचार । अवतार ॥ निसारणी ० ।। २ ।। ५ सिद्ध सरूपी जो कहूँ रे, बन्धन न घटे संसारी दसा प्यारे, पाप, सिद्ध सनातन जो कहूँ रे, उपजइ उपजइ विगसइ जो कहूँ प्यारे, नित्य मोख पुण्य विरणसइ कौन । अबाधित गौन || सरवंगी सब नये धरणी रे, माने नयवादी पल्लो गहे ( प्यारे ), करइ निसारणी ० ।। ३ ।। सब परवान । लराइ ठान । निसारणी ० ।। ४ । अनुभव - गोचर वस्तु कोरे, जाणिवो, इह इलाज । कहण सुरगण कु कछु नहीं प्यारे, प्रानन्दघन महाराज । निसाणी ० ।। ५ । अर्थ --चेतन आत्मा के स्वरूप की मीमांसा करते हुए योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि चेतन की क्या पहचान बताऊँ ? उसका स्वरूप तो वचनातीत है । वाणी के द्वारा उसके रूप का वर्णन नहीं किया जा सकता । यदि उसे रूपी कहता हूँ तो वह कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता और यदि उसे अरूपी ( निराकार ) कहता हूँ तो अरूपी कर्मों के बन्धन में कैसे बँध सकता है ? यदि उसे रूपी - अरूपी, साकार - निराकार उभय रूप कहता हूँ तो सिद्ध भगवान का वह स्वरूप नहीं है अर्थात् अनुपम सिद्ध भगवान के लक्षणों का उससे मेल नहीं बैठता है क्योंकि सिद्धों के कोई रूप नहीं हैं ॥ १ ॥ विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघन जी महाराज ने कहा है कि हे आत्मन् ! मेरे पास पूछताछ करने वाले जिज्ञासु प्राये तो मैं उन्हें तेरी क्या निशानी बताऊँ ? क्योंकि तेरा स्वरूप अगोचर है । मैं लोगों को तेरे क्या लक्षण बताऊँ ? जड़वादी लोग देह, रक्त एवं साँस आदि रूपी पदार्थों को आत्मा मानते हैं, उसका संयोग टलता है, उसे प्रात्मा का नाश मानते हैं । भूतवादी लोग पंचभूतों से भिन्न प्रात्मा को नहीं मानते । पंचभूतों के संयोग से आत्मा उत्पन्न होती है और पंचभूत का संयोग टलने पर रूपी आत्मा का नाश होता है । ऐसे रूपी आत्मा को मानो Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६१ अथवा मत मानो-यह समान है। ऐसे आत्मा को मानने से क्या ? अनादिकाल से केवल शुद्ध, अरूपी अात्मा है, बन्ध एवं मुक्ति की तो केवल कल्पना है। आत्मा का बन्ध भी नहीं है और मोक्ष भी नहीं हैयह कतिपय अद्वैतवादी मानते हैं परन्तु वैसी आत्मा मानने से वह कर्म से नहीं बंधती और कर्म से बँधे बिना जन्म, मृत्यु आदि नहीं हो सकते । कर्म का सम्बन्ध तो है, परन्तु अनादिकाल से शुद्ध आत्मा मानने से कर्म की बन्ध-व्यवस्था नहीं होती। इस प्रकार का विरोधाभास रहता है। अर्थ –यदि चेतन को सिद्ध स्वरूपी एवं वर्ण-गंध-रस-स्पर्श रहित कहता हूँ तो फिर बंध और मोक्ष का विचार ही नहीं हो सकता, क्योंकि जो सदा शुद्ध है वही बन्धन में पड़े तो मुक्त जीव भी बन्धन में पड़ेंगे, फिर किसी आत्मा के लिए मुक्त शब्द चरितार्थ ही नहीं होगा और सिद्धस्वरूपी कहने से सांसारिक दशा भव-भ्रमण सिद्ध नहीं होता तथा पुण्य कर्म के अनुसार मनुष्य और देव रूप में जन्म लेना तथा पाप के फलस्वरूप नरक, तिर्यंच में जन्म लेना सिद्ध नहीं होता ॥ २ ॥ विवेचन -नियम ऐसा है कि अनादि से शुद्ध प्रात्मा हो तो वह बन्धन में नहीं पड़ती। जो बन्धन में नहीं पड़ता उसका मोक्ष कैसे कहा जा सकता है ? योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि हे आत्मन् ! मैं तुम्हें पहचानने की निशानी कैसे बता सकता हूँ? कतिपय वादी आत्मा को शुद्ध सनातन मानते हैं। उनके मतानुसार सोचने पर उनमें पुण्य, पाप, पुनर्जन्म, जरा, मृत्यु, पाँच प्रकार के शरीर, स्वर्ग एवं नरक आदि सांसारिक दशा की सिद्धि नहीं होती। शुद्ध सनातन आत्मा हो तो भगवान की भक्ति करने की क्या आवश्यकता है ? शुद्ध सनातन आत्मा मानने वालों को तप, जप, संयम, तीर्थयात्रा एवं देवपूजा आदि क्यों करने चाहिए। शुद्ध सनातन-वादियों को संन्यासी क्यों बनना चाहिए? - अर्थ -यदि चेतन को अनादिकाल से सिद्ध कहता हूँ तो उत्पन्न होने वाला और विनष्ट होने वाला कौन है ? यदि उसे उत्पन्न होने वाला और विनाश होने वाला कहता हूँ तो उसके नित्यत्व एवं अबाधितत्व का लोप हो जाता है ।। ३ ॥ ... विवेचन -आत्मा में उत्पाद एवं व्यय होता है। चौरासी लाख योनियों में प्रात्मा कर्म के योग से जन्म, जरा, मृत्यु को प्राप्त होती है, अमुक गति में उत्पन्न होती है और अमुक गति में से च्यव कर पाती है । आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध मानने से उत्पाद एवं च्यवन की सिद्धि Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६२ होती है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा को सिद्ध सनातन मानने से कर्मयोग से आत्मा को उत्पाद-व्यय की दशा होती है जो नहीं होनी चाहिए आदि बातों का विरोध आये उसके लिए एकान्त प्रथम से (अनादिकाल से) आत्मा को सिद्ध (अष्टकर्म रहित) सनातन नहीं माना जा सकता। अर्थ-चेतन सर्वाङ्गी रूप है, समस्त नयों का स्वामी है। जो इसे प्रमाण ज्ञान द्वारा समझने का प्रयत्न करते हैं वे इसके स्वरूप को समझ सकते हैं अर्थात् अनेकान्त दृष्टियों से चेतन का स्वरूप समझा जा सकता है, किन्तु नयवादी एक ही दृष्टिकोण को अपनाकर विवाद करते रहते हैं ।। ४ ।। विवेचन–श्रीमद् आनन्दघनजी अनेकान्त नय के द्वारा आत्मा का लक्षण सोचकर तदनुसार आत्म-तत्त्व का निर्धारण करके कहते हैं कि पूर्वोक्त प्रात्मा के लक्षण बाँधे, वे अमुक-अमुक नय की अपेक्षा से विरोधी लक्षण प्रतीत हुए, परन्तु समस्त अंगों को अपेक्षा से स्वीकार करने वाले नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत-इन सात नयों का स्वामी, आत्मा के समस्त लक्षणों को उस-उस नय की अपेक्षा से कर्मसम्बन्ध से प्रमाण मानता है। नैगम नय की अपेक्षा से तथा व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा रूपी भी कहलाता है। निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा अरूपी कहलाता है। संग्रह नय की अपेक्षा से शुद्ध सनातन आत्मा कहलाता है और शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से सिद्ध सनातन भी कहलाता है। द्रध्यार्थिक नय की अपेक्षा प्रात्मा नित्य है और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा उत्पाद एवं व्यय होने के कारण आत्मा अनित्य भी है। ऋजुनय की अपेक्षा आत्मा क्षणिक कहा जाता है, संग्रह नय की अपेक्षा आत्मा एक कहलाता है और व्यवहार नय की अपेक्षा आत्मा अनेक कहलाता है तथा एवंभूत नय की अपेक्षा आत्मा सिद्ध-बुद्ध है। ( ६१ ) (राग-गौड़ी) विचारी कहा विचारइ रे, तेरो आगम अगम अपार । बिनु अाधार प्राधेय नहीं रे, बिनु प्राधेय प्राधार । मुरगी बिना इंडा नहीं प्यारे, वा बिनु मुरग की नार ।। विचारी० ।। १ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १६३ भुरट बीज बिना नहीं रे, बीज न भुरटा टार । निस बिनु द्यौस घटइ नहीं प्यारे, दिन बिनु निस निरधार । विचारी० ।। २ ।। सिद्ध संसारी बिनु नहीं रे, सिद्ध न बिनु संसार | करता बिनु करणी नहीं प्यारे, बिनु करणी करतार || विचारी० ॥ ३ ॥ जामरण मरण बिना नहीं रे, मरण न जनम विनास । दीपक बिनु परकास के प्यारे, बिन दीपक परकास || विचारी० ।। ४ । आनन्दघन प्रभु वचन की रे, परिणति धरि रुचिवंत । सास्वत भाव विचारते प्यारे, खेलो अनादि अनन्त ॥ विचारी० ।। ५ । अर्थ - हे आत्मन् ! विचारक कहाँ तक विचार करें। तेरा आगम ( शास्त्र ) तो अगम्य है, अपार है । बिना सहारे के बिना आधार के आधेय वस्तु कैसे टिक सकती है और बिना आधेय के आधार किसका ? द्रव्य रूप आधार के बिना गुणपर्याय रूप आधेय कैसे सम्भव है तथा गुण पर्याय के आधेय के बिना द्रव्य रूप आधार कैसे सम्भव है ? इसी प्रकार से मुर्गी के बिना अण्डा नहीं होता और अण्डे के बिना मुर्गी नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि मुर्गी नहीं होगी तो अण्डा कहाँ से आयेगा और अण्डा नहीं होगा तो मुर्गी कहाँ से उत्पन्न होगी ? ।। १ ।। विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे प्रभो ! विरले . ज्ञानी ही आपके ग्रागमों का सार ग्रहरण कर सकते हैं । आपके आगम रूपी सागर का कोई पार नहीं है । अनादिकाल से आधेय एवं आधार साथ-साथ हैं । षड्द्रव्यरूप जगत् अनादि काल से है । द्रव्य रूप अधिकरण के बिना पर्याय रूप आधेय नहीं है । अण्डे और मुर्गी दोनों का प्रवाह अनादि काल से है । इनमें कोई पहला और पश्चात् है ही नहीं । अर्थ - पौधों के बिना बीज नहीं होता और बीज के बिना पौधा नहीं होता। रात्रि के बिना दिन का निश्चय नहीं होता और दिन के Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १६४ बिना रात्रि का निर्णय नहीं हो पाता ; अर्थात् नित्य दिन ही बना रहे तो रात्रि का निर्णय कैसे होगा ? ।। २ ।। विवेचन - इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य है कि व्यवहार के बिना निश्चय की सिद्धि नहीं होती और निश्चय के बिना व्यवहार की सिद्धि नहीं होती । रस के बिना जीभ की सिद्धि नहीं होती और जीभ के बिना रस की सिद्धि नहीं होती । शुभ के बिना अशुभ की तथा अशुभ के बिना शुभ की सिद्धि नहीं होती और बन्ध के बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं है तथा मोक्ष की सिद्धि हुए बिना बन्ध की सिद्धि घटित नहीं होती । इस प्रकार अनादि काल से दोनों का सहवर्तित्व मानने से समस्त विरोध टल जाता है और यथातथ्य रूप में सत्य सिद्धान्त प्रकाशित होता है । अर्थ - संसारी के बिना सिद्ध नहीं हो सकते अर्थात् संसार के कारण ही मोक्ष की सिद्धि है । सिद्ध के बिना संसार की सम्भावना कैसे होगी ? संसारी जीव ही सिद्ध बनते हैं । कर्त्ता के बिना क्रिया नहीं होती । जहाँ क्रिया है वहाँ उसका कर्त्ता अवश्य होगा ।। ३ ।। विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी ने अन्य दृष्टान्त देकर बताया है संसारी जीवों के बिना सिद्ध नहीं और सिद्धों के बिना संसारी जीव सिद्ध नहीं बनते । संसार एवं सिद्ध दोनों अनादिकाल से सहवर्तमान हैं । देवता, मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों का संसार में समावेश होता है । ईश्वर और जगत् दोनों अनादिकाल से हैं । ईश्वर जगत् का कर्त्ता नहीं है तथा जगत् ईश्वर को बना नहीं सकता । राग, द्वेष एवं इच्छा आदि से रहित ईश्वर है । उसको जगत् एवं सिद्ध स्थान बनाने का कोई प्रयोजन नहीं है । अर्थ - श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है ि मृत्यु के बिना जन्म की सम्भावना नहीं है और जन्म के बिना मृत्यु नहीं होती । प्रकाश दीपक के बिना नहीं होता और दीपक प्रकाश के बिना नहीं होता । प्रकाश से दीपक का होना निश्चित है तो दीपक से प्रकाश होना निश्चित है ॥ ४॥ विवेचन - चौरासी लाख जीव-योनि में आत्मा कर्म के योग से जन्म-मरण करती रहती है । आयुष्य क्षय होने पर एक गति में से अन्य गति में जाते समय तैजस एवं कार्मरण - दो शरीर साथ लेकर आत्मा जाती है । अष्ट कर्मों के विकार से कार्मण शरीर बनता है । पाप-पुण्य आदि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६५ समस्त कर्मों को जीव परभव में ले जाता है और पाप-पुण्य के अनुसार अशुभ एवं शुभ शरीर दुःख एवं सुख आदि प्राप्त करता है और पुनः आयुष्य का क्षय होने पर मृत्यु होती है। अतः जन्म एवं मृत्यु दोनों अनादि काल से सहवर्तमान हैं। इसी प्रकार दीपक एवं प्रकाश दोनों साथ-साथ हैं। अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि जानने की रुचि वाले आनन्द के समूह प्रभु सर्वज्ञ के वचनों की परिणति को धारण करके शाश्वत भाव पर विचार करें तो उन्हें यह खेल अनादि एवं अनन्त प्रतीत होगा। जड़ एवं चेतन दोनों शाश्वत हैं। इनका सम्बन्ध अनादिकालीन है और अनन्त काल तक रहेगा। सर्वज्ञ परमात्मा की इस वाणी पर श्रद्धा रखो ॥५॥ - विवेचनभगवान के आगमों में समस्त पदार्थों के स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रभु की वाणी में विश्वास रखकर जो मनुष्य अपनी आत्मा में रमण करते हैं वे अल्प समय में मुक्ति प्राप्त करते हैं। प्रभु के आगमों के प्रति रुचि होने पर प्रभु के प्रति प्रेम होता है जिससे प्रात्मा प्रभु के सद्गुण ग्रहण करने में समर्थ बनती है। प्रभु का पालम्बन पाकर आत्मा सालम्बन ध्यान में लीन हो जाती है और जिनागमों में कथित अनादि प्रवाह-प्रचलित शाश्वत भावों का विचार कर सकती है। आधार एवं आधेय, द्रव्य एवं पर्याय, शाश्वत हैं। पंच द्रव्य शाश्वत हैं, नौ तत्त्व शाश्वत हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से लोक शाश्वत है। बीज एवं अंकुर का प्रवाह शाश्वत है। रात्रि एवं दिन का अनादि प्रवाह, सिद्ध एवं संसार, कर्ता एवं क्रिया, जन्म एवं मृत्यु तथा दीपक एवं प्रकाश अनादि काल से शाश्वत हैं। इसी कारण योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी महाराज कहते हैं कि प्रभु द्वारा उपदिष्ट शाश्वत भावों का विचार करके हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का विवेक करो और अनादि अनन्त आत्मा में तन्मय बनो। ( ६२ ) ( राग-प्रासावरी ) साधु संगति बिनु कैसे पइये, परम महारस धाम री। कोटि उपाव करे जो बौरा, अनुभव कथा विराम री ।। साधु० ॥ १ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६६ सीतल सफल संत सुरपादप, सेवउ सदा सुखं छाइ री। वंछित फले टले अनवंछित, भव संताप बुझाइ री ।।.. साधु० ।। २ ॥ चतुर विरंचि विरोचन चाहे, चरण कमल मकरंद री। कोहर भरम विहार दिखावे, सुद्ध निरंजन चंद री ।। साधु० ।। ३ ॥ देव असुर इन्द्र पद चाहु न, राज समाज न काज री । . संगति साधु निरन्तर पा, प्रानन्दघन महाराज री ।। . साधु० ।। ४ ।। अर्थ-अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि पूर्ण चारित्र पालने वाले संत पुरुषों की सत्संगति के बिना आत्मानुभव रूपी परम महारस का स्थान कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? साधुसंगति के अतिरिक्त अन्य करोड़ों उपाय करने वाले पागल ही हैं । साधु-संगति के बिना अनुभवयुक्त बातों को जानने में रुकावट आ जाती है। तात्पर्य यह कि साधु-संगति ही अनुभव-वार्ता के लिए विश्राम स्वरूप है। कोई चाहे कितना ही तप करे, शास्त्रों का अध्ययन करे, किन्तु साधु-संगति के बिना वह आत्मानुभव प्राप्त नहीं कर सकता ।। १ ॥ विवेचन-श्रीमद् आनन्दघनजी ने प्रस्तुत पद में साधु-संगति का माहात्म्य बताया है। करोड़ों उपाय करें परन्तु साधु-संगति के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। संसार में सबसे महान् आत्म-भोग देने वाले साधु हैं। स्व-पर के कल्याणार्थ साधु बनने की अत्यन्त आवश्यकता है। उपकार रूप प्राण तत्त्व के द्वारा साधु जगत् के पोषक हैं और कंचन एवं कामिनी का त्याग करके आत्म तत्त्व के वास्तविक उपासक साधु हैं। अनेक प्रकार के परिषह सहन करके धर्म का प्रचार करने वाले साधु हैं । देवता भी साधुओं के उपकार से दबे हुए हैं। मन एवं आत्मा को सुधारने के लिए साधुओं के अतिरिक्त कोई नहीं है। प्राचार्य, उपाध्याय एवं साधु सब जैनधर्म के प्रसारक हैं। श्रावक तो श्रमणोपासक गिने जाते हैं। साधु-साध्वियों के आचार-विचारों का गृहस्थों पर उत्तम प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। साधुओं की उन्नति Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १६७ से जगत् को महान् लाभ होता है । पैंतालीस ग्रागमों में साधुओंों का महत्त्व प्रदर्शित किया गया है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि – इस अष्टांग योग की साधु आराधना करते हैं । उपर्युक्त पद से अनुमान होता है कि श्रीमद् आनन्दघनजी को साधुओं की संगति से अपूर्व लाभ प्राप्त हुआ होगा । अर्थ – सन्त पुरुष कल्प वृक्ष के समान इच्छित फल देने वाले हैं तथा त्रिविध ताप को दूर करने वाले हैं । अतः वे शीतल एवं फलयुक्त हैं सदा इनकी सुखद छाया का सेवन करो। इससे वांछित फल की प्राप्ति होती है और अवांछित वस्तुएँ दूर हो जाती हैं तथा भव- सन्ताप अर्थात् भंव भ्रमण का नाश हो जाता है ।। २ । विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी ने साधुओं को कल्पवृक्ष बताया है । उनकी शीतल छाया से आत्मा आनन्दमय हो जाती है । जिस प्रकार कल्पवृक्ष अनेक प्रकार की चिन्ताएँ नष्ट कर देता है, उस प्रकार साधुरूपी कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार की चिन्ता नष्ट करने में समर्थ होता है । कल्पवृक्ष की तरह साधु भी वांछित फल प्रदान करते हैं । सूर्य के ताप से संतप्त मनुष्य जिस प्रकार कल्पवृक्ष का आश्रय लेकर अपना ताप शान्त करते हैं, उस प्रकार साधुरूपी जंगम कल्प वृक्षों का आश्रय प्राप्त करके मनुष्य भव-सन्ताप शान्त करते हैं । मनुष्यों का मन क्रोध, मान, माया और लोभ के ताप से संतप्त रहता है । साधु की संगति हो जाने से क्रोध, मान, माया और लोभ का आवेग नष्ट होता है और मनुष्यों को शान्ति प्राप्त होती है । इसी कारण से साधु को कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है जो सर्वथा उचित है । अर्थ - कुशल ब्रह्मा भी सन्त पुरुषों के चरण-कमलों के पराग को चाहते हैं । सन्त-जन भ्रम रूपी कोहरे को नष्ट करके शुद्ध परमात्मा रूप चन्द्रमा के दर्शन करा देते हैं ।। ३ ।। विवेचन - साधु की संगति के बिना आत्मा भटकती रही । सद्गुरु की संगति से ही वह अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानती है । भगवान महावीर ने प्रथम भव में सार्थवाह के रूप में साधु की संगति से सम्यक्त्व प्राप्त किया था । साधु- संगति मोक्ष का द्वार है । अर्थ- योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी महाराज साधु-संगति की कामना करते हुए कहते हैं कि मैं देव, असुर अथवा इन्द्र - पद का अभिलाषी Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६८ नहीं हूँ। न मुझे राज्य एवं समाज से कोई काम है। मुझे तो निरन्तर साधुओं की संगति प्राप्त होती रहे, यही मेरी कामना है ॥ ४ ॥ विवेचन -जैनशासन का प्राण साधुवर्ग है। हमें उनकी उन्नति का प्रयत्न करना चाहिए। यदि सहजानन्द का आविर्भाव करना हो और आनन्द की वास्तविक खुमारी का उपभोग करना हो तो साधुओं की संगति करनी चाहिए। साधुओं की संगति से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। साधु में विद्यमान एक दोष से उसके अन्य गुणों को भी दोष रूप मान लेने का नीच स्वभाव त्याग देना चाहिए। इसी कारण योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी देव, असुर तथा इन्द्र के पद की भी अभिलाषा न करके राज्य-कार्य की भी कामना नहीं करते। वे तो निरन्तर साधुओं की निर्मल संगति में रहना चाहते हैं। . (६३ ) . (राग-प्रासावरी) राम कहो, रहिमान कहो कोउ, कान्ह कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वमेव री ।। . राम० ॥ १ ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खंड कलपनारोपित, आप अखंड सरूप री॥ . राम ।। २ ।। निज पद रमे राम सो कहिये, रहम करे रहमान री। करणे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री ।। - राम ।। ३ ।। परसै रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इह विध साध्यो आप प्रानन्दघन चेतनमय निःकर्मरी ।। राम० ।। ४ ।। अर्थ-उस परम तत्त्व को चाहे कोई राम के नाम से सम्बोधित करे, चाहे रहमान के नाम से, चाहे कृष्ण के नाम से, चाहे महादेव के नाम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६६ से अथवा कोई-पार्श्वनाथ के नाम से, चाहे ब्रह्मा के नाम से सम्बोधित करे, परन्तु वह महाचैतन्य स्वयं ब्रह्म स्वरूप ही है ।। १ ।। विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि लोग परमात्मा के बिभिन्न नाम देकर विपरीत अर्थ की कल्पना करके परस्पर लड़ते हैं और एक-दूसरे के देवता का खण्डन करते हैं। समस्त जीवों में ब्रह्म व्याप्त है। तात्पर्य यह है कि समस्त जीवों में ज्ञान की सत्ता है। संग्रह-नय की अपेक्षा से सत्ता के द्वारा सभी आत्माएँ समान हैं। - अर्थ - मिट्टी का तो एक ही रूप है परन्तु भाजनों के नाम भिन्नभिन्न होते हैं। किसी को घड़ा, किसी को कूडा, किसी को गिलास और किसी को लोटा कहते हैं। इसी तरह इस परम तत्त्व के कल्पना से भिन्न-भिन्न भाग किये गये हैं, परन्तु वह तो सचमुच अखण्ड स्वरूप है ।। २ ।। विवेचन--श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि यदि पचास अथवा उससे भी अधिक विभिन्न बर्तन बनाये जायें तो भी वे मिट्टी की अपेक्षा तो मिट्टी रूप ही हैं। उनमें कोई भेद नहीं है। आकार की अपेक्षा वे भिन्न-भिन्न गिने जाते हैं। व्यवहार नय की अपेक्षा व्यक्ति से समस्त आत्माएँ भिन्न-भिन्न हैं। संग्रहनय की सत्ता से सब आत्माएँ एक रूप हैं। . अर्थ - जो निज स्वरूप में रमण करता है उसे राम कहना चाहिए जो प्राणी मात्र पर दया करे उसे रहमान कहना चाहिए, जो ज्ञानावरण आदि कर्मों को नष्ट करे उसे कान्ह (कृष्ण) कहना चाहिए और जो निर्वाण प्राप्त करता है उसे महादेव कहना चाहिए ।। ३ ।। .. विवेचन-श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि जो अपने शुद्धात्मस्वरूप में रमणता करता है, उसे राम कहा जाता है; जो जीवों के प्रति दया करता है, जो समस्त जीवों के प्रति दया का उपदेश देता है तथा जो द्रव्य-दया एवं भाव-दया का सागर है, उसे रहमान कहा जाता है। जो आत्मप्रदेशों से कर्मों को खींच कर बाहर निकालता है, जो राग-द्वेष नहीं रखता, वैराग्य-त्याग और ब्रह्मचर्य के द्वारा जो अपने स्वभाव में रमण करता है, साधु-मार्ग की आराधना करता है और प्रमाद दशा का परित्याग करके जो अप्रमत्त दशा में रमण करता है उसे कृष्ण कहा जाता है और जो अष्टकर्मों का क्षय करके पंचम गति में गये हैं उन्हें महादेव कहा जाता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १७० अर्थ – जो अपने रूप का स्पर्श करे उसे पार्श्वनाथ कहना चाहिए और जो ब्रह्म को पहचाने वह ब्रह्मा है । योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि इस आनन्दमय परम तत्त्व की मैंने इसी प्रकार आराधना की है । यह परम तत्त्व तो निष्कर्म ज्ञाता, द्रष्टा, चैतन्यमय है ॥ ४ ॥ विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि जिन्होंने क्षायिक भाव से अपने स्वरूप का स्पर्श किया अर्थात् प्राप्त किया ऐसे तेईसवें तीर्थंकर. को पार्श्वनाथ कहा जाता है । जो बहिरात्मदशा की भ्रमरणा का त्याग करता है, उसे ब्रह्मा कहा जाता है । ( ६४ ) (राग - मारू जंगलो ) मायड़ी मूने निरपख किरण ही न मूकी । निरपख रहेवा घणुं ही भूरी, घी में निजमति फूकी । मायड़ी ० ।। १ ।। जोगिये मिलो ने जोगरण कोधी, जतिये कीधी जतनी । भगते पकड़ी भगतरणी कोधी, मतवाले कीधी मतणी ॥ माड़ी ० ।। २ ।। o राम भरणी रहमान भरणावी, अरिहन्त पाठ घर-घर ने हूँ धंधे विलगी, अलगी जीव पढ़ाई | सगाई || मायड़ी ० ।। ३ ।। कोइये मुंडी कोइये लोची, कोइये केस लपेटी । कोई जगावी कोई सूती छोड़ी, वेदन किरणही न मेटी || ठींगो धींगो दुरबल ने ठेलीजे, ने ठेलीजे, अबला ते किम बोली सकिये, बड़ मायड़ी ० ।। ४ ।। कोई थापी कोई उथापी, कोई चलावी कोई राखी । एक मनो में कोई न दीठो, कोई नो कोई नहि साखी || मायड़ी ० ।। ५ ।। बाजे । राजे || मायड़ी ० ।। ६ ।। ठगो जोधाने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री आनन्दघन पदावली-१७१ जे जे कीधु जे जे कराव्यु, ते कहता हूँ लाजू । थोड़े कहे. घणुप्रीछी लेजो, घर सूतर नहीं साजू ।। मायड़ी० ।। ७ ।। आप बीतो कहता रिसावे, तेहि सू जोर न चाले । प्रानन्दघन प्रभु बांहड़ी झाले, बाजी सघली पाले ।। मायड़ी० ।। ८ ॥ अर्थ-प्रस्तुत पद में योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी महाराज ने दिग्दर्शन कराया है कि संसार के मत-मतान्तरों के प्रात्मा चेतन और आत्मत्व चेतन के सम्बन्ध में क्या विचार हैं और मोक्ष कैसे प्राप्त होता है। वे कहते हैं कि मुझे किसी भी मत (पक्ष) वाले ने निष्पक्ष नहीं रहने दिया। मैंने निष्पक्ष रहने के लिए अनेक विलाप किये, प्रयास किये, परन्तु किसी ने मुझे निष्पक्ष रहने नहीं दिया। धीरे-धीरे मेरे कान भरे और मुझे अपने पक्ष का बना लिया और मुझे वैसा बन जाना पड़ा। प्रात्मा का स्वभाव नो शुद्ध चेतनत्व है। जिस कुल में आत्मा उत्पन्न होती है उसके अनुरूप उसके प्राचार-विचार हो जाते हैं ॥ १ ॥ विवेचन-चेतन एवं चेतना पृथक्-पृथक नहीं हैं, फिर भी समझने के लिए उन्हें पृथक दिखाने की कल्पना की गई है। पद में चेतना अपनी विवंशता और व्यथा बताती है। आत्मा-चेतना जिस धर्म, मत अथवा कुल में उत्पन्न होती है, वह वैसी ही बन जाती है। उसके वास्तविक रूप एवं ध्येय का उसे भान ही नहीं रहता। आत्मा को मोक्ष प्राप्त करने में कोई भी मत, पक्ष, स्वरूप, स्थान तथा अवस्था बाधक नहीं है। आत्मा तो क्रमशः अपना विकास करता हुआ एक दिन शुद्धबुद्ध बन जाता है। चेतना कहती है कि जिनेश्वर सर्वज्ञ महावीर भगवान के वचनानुसार निष्पक्ष रहने के लिए मैंने बहुत कल्पान्त किये, परन्तु पक्ष वालों ने अपनी स्वच्छन्द बुद्धि से मेरा स्वरूप विष-मिश्रित अन्न-सा बना दिया। विभिन्न मत वाले दृष्टि-राग के बल से असत्य सिद्धान्तों को सत्य स्वीकार कर लेते हैं । अर्थ-चेतना कहती है कि योगियों ने मुझ योगिनी बना लिया और यतियों ने (जितेन्द्रियों ने) मुझे यतिनी बना ली। भक्ति-मार्ग के Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७२ अनुयायियों ने मुझे अपने रंग में रंग कर भक्तिन बना ली। इसी तरह से अन्य मत वालों ने मुझे अपने-अपने मत की बना ली। अतः चेतना कहती है कि मुझे किसी ने निष्पक्ष नहीं रहने दिया ।। २ ।। विवेचन-विभिन्न मत वाले चेतना को अपने पक्ष में खींच कर वैसी मतवाली बना देते हैं। सचमुच अज्ञानी जीव भगवान महावीर जिनेश्वर कथित धर्म का परित्याग करके अन्य मतों में फंस जाते हैं। . अर्थ -राम के अनुयायियों ने मुझे राम-नाम लेने वाली बना दी, रहमान के भक्तों ने मुझे रहमान की प्रार्थना सिखाई और अरिहन्त के उपासकों ने मुझे अपना पाठ पढ़ाया। इस प्रकार मैं मत-मतान्तरों में फंसी रही। मैं चेतना और चेतन के सम्वन्ध से सदा दूर ही रही विवेचन समस्त पंथ वाले मुझे अपने पंथ में खींचकर मुझसे . अपना कार्य करते हैं परन्तु उससे मेरे चेतनस्वामी और मेरी सगाई,नहीं होती तथा मेरी मुक्ति नहीं होती। अर्थ-किसी ने मेरा मुण्डन कराया, किसी ने मेरे केश उखाड़कर लोच कराया, किसी ने लम्बी-लम्बी जटाएं लपेटी, किसी ने मुझे जाग्रत किया और किसी ने मुझे सोती हुई रखा अर्थात् भिन्न-भिन्न मत वालों ने भिन्न-भिन्न रूप से धर्म-क्रियाएँ की; किन्तु अभी तक मेरी विरह-वेदना को किसी ने दूर नहीं किया ।। ४ ।। विवेचन-समस्त पक्ष वाले मुझे भिन्न-भिन्न तरह से अपने पक्ष में लेते रहे। बाह्य दृष्टिधारक मिथ्यादर्शनियों में निष्पक्ष स्याद्वादरूप सत्य पक्ष रखने वाला मुझे कोई नहीं दिखाई दिया। उनसे मेरी विरह-वेदना दूर नहीं हुई। अर्थ-मेरी विभिन्न स्थानों पर कैसी दशा हुई। किसी ने मेरी स्थापना की आत्मा है, किसी ने मेरा अस्तित्व ही उखाड़ दिया कि आत्मा नामक कोई वस्तु ही नहीं है। यह तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - इन पाँच महाभूतों का खेल है। इस प्रकार किसी ने मेरा अस्तित्व चलता किया और किसी ने उसकी रक्षा की। मुझे एक भी ऐसा पक्ष वाला दिखाई नहीं दिया जो दूसरे का साक्षी हो। अर्थात् सब एक-दूसरे का खण्डन करते ही दिखाई दिये ।। ५ ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१७३ विवेचन–कतिपय पक्ष वाले तर्क करने में, अपने पक्ष का मण्डन करने में और अनेक युक्तियों से विपक्ष का खण्डन करने के कार्य में मेरा उपयोग करते हैं। कतिपय मत वाले राग-द्वेष के कारण अपने-अपने पक्ष में मेरा उपयोग करते हैं। अनन्त केवलज्ञानी महावीर परमात्मा ने जगत् में समस्त धर्मों में विद्यमान अनन्तधर्म बताने के लिए अनेकान्तवाद की प्ररूपणा की है। अर्थ-चेतना कहती है कि संसार में जो बलवान हैं वे दुर्बलों को दूर हटा देते हैं। अनेक मत वाले परस्पर शास्त्रार्थ करते हैं। जिसको बुद्धि तेज है वह दूसरे को परास्त कर देता है, परन्तु जो समान रूप से बलवान हैं, तीक्ष्ण बुद्धि वाले हैं, वे परस्पर झगड़ते ही रहते हैं। न तो कोई किसी को परास्त कर सकता है और न अपना पक्ष छोड़ सकता है। ऐसे बड़े योद्धाओं, अपने-अपने पक्ष के मोह में रहने वालों के मध्य में मैं अबला क्या बोल सकती हूँ ? ऐसे एकान्तवादियों में मैं क्या कर सकती विवेचन -चेतना कहती है कि भिन्न-भिन्न पक्ष वाले मुझे अपने पक्ष में खींच कर अनेक प्रकार के खण्डन-मण्डन करते हैं। जैनधर्म के प्रवर्तक, प्राचार्य, साधु आदि गच्छ क्रिया के भेद से संकुचित दृष्टि रखकर परस्पर चर्चा करते हैं। अर्थ-चेतना कहती है कि मुझसे जिस-जिस ने जो-जो कराया, मैंने वही किया, जिसका वर्णन करने में भी मुझे लज्जा आती है। जिसकी जैसी मान्यता थी तदनुसार मुझे बनना पड़ा, यह बताने में मुझे लज्जा आती है। मैंने संक्षेप में जो कहा है उसे विस्तारपूर्वक समझ लेना क्योंकि मेरे घर की व्यवस्था ठीक नहीं है। मेरे स्वामी चेतन विभाव दशा में भ्रमण करते रहते हैं। जब निज भाव में प्रायें तब ही कुछ बात बन सकती है ।। ७ ॥ विवेचन-चेतना कहती है कि मोह-योद्धा के वशीभूत हुए एकान्तवादियों ने जो-जो मिथ्या आचरण किया और जो-जो मन, वाणी और काया से मिथ्या प्रवृत्ति कराई, उसे व्यक्त करने में मुझे लज्जा आती है। मोह राजा ने क्रोध-मान-माया से मुझसे अशुभ विचार कराये; लोभ, ईर्ष्या तथा निन्दा से अशुभ विचार कराये; हिंसा, असत्य, व्यभिचार, परिग्रह, विश्वासघात के विचार कराये और समस्त जीवों को अपने अधीन किया। मेरा स्वामी चेतन मुझे प्राप्त हो जाये ऐसा प्रतीत नहीं होता। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७४ अर्थ-चेतना कहती है कि जब मेरे साथ बीती कथा मैं कहती हूँ तो चेतनजी क्रोधित हो जाते हैं। इस कारण मेरा कोई जोर नहीं चलता। अब तो मेरा उद्धार तभी हो सकता है जब आनन्द के स्वरूप चेतन स्वामी मेरा हाथ पकड़ लें। उनके हाथ पकड़ने से मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो जायेंगे, चेतन अपना स्वरूप प्राप्त कर लेगा ॥८॥ विवेचन-चेतना अपना हृदय खोलकर बात कहती है कि अपने स्वामी की कृपा के बिना किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। ( ६५ ). . . (राग-सोरठ गिरनारी) छोरा ने क्यू मारे छे रे, जाये काट्या डैण ।। छोरो छे म्हारो बालो-भोलो, बोले छे अमृत वैण ।। . . छोरा० ॥ १ ॥ लेय लकुटिया चालण लाग्यो, अब कांइं फूटा नैण । तू तो मरण सिराणे सूतो, रोटी देसी कैण ।। - छोरा० ।। २ ॥ पाँच पचीस पचासा ऊपर, बोले छे सूधा बैरण । प्रानन्वघन प्रभु दास तुम्हारो, जनम-जनम के सैण ।। छोरा० ।। ३ ॥ अर्थ -सुमति मिथ्यात्व को कहती है कि हे पुत्र-घातक अविचारी बुड्ढे ! तू मेरे सम्यक्त्व रूप पुत्र को क्यों पीटता है ? यह मेरा क्षयोपशम रूप नव-जात शिशु सम्यक्त्व अभी तो अत्यन्त नादान, नासमझ और भोला है जो अमृत तुल्य मधुर बोलता है ॥१॥ विवेचन -सुमति मिथ्यात्व को कहती है कि तू मेरे सम्यक्त्व रूप पुत्र को प्रमादवश क्यों पीटता है ? इससे तेरा कोई उत्थान होने वाला नहीं है। यह भोला बालक जीव-दया, ब्रह्मचर्य-पालन, स्वार्थ-त्याग की बातें करता है। यह काया को वश में रखने, पाँच इन्द्रियों के विषयों को जीतने और बुरो इच्छाओं को दबाने के अमृत तुल्यं वचन बोलता है। अतः इस निर्दोष बालक को पीटना नहीं चाहिए। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१७५ अर्थ- यह लकड़ी लेकर चलने लगा है। तेरे नेत्र क्या फूट गये हैं ? क्या तू नहीं जानता कि सम्यक्त्व प्रकट होने पर तेरी मृत्यु निश्चित ही है। अब रोटी कौन देगा? किसी भी प्रकार का सम्यक्त्व प्रकट होने पर अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय तथा सम्यत्क्व मोहनीय – इन सात प्रकृति रूप तेरा भोजन बन्द हो गया है। अब मुझे रोटी देने वाला (पनपाने वाला) कोई नहीं है। अतः तेरी मृत्यु सिर पर आ गई है ।।२।। _ विवेचन - सूमति मिथ्यात्व को कहती है कि तू तो मृत्युशय्या पर पड़ा है, पुत्र के बिना तुझे कौन रोटी देगा? अतः हे स्वामी ! तू समझ और अविरति रूपी डण्डे से पुत्र को मत पीट। यह हमारे प्रष्ट कर्मों के ऋण को चुका देगा। भवितव्यता के योग से यह पुत्र प्राप्त हुआ है तो उस पर प्रेम रखकर हमें उसकी रक्षा करनी चाहिए। ____ अर्थ -यह पुत्र पाँच महाव्रतों, उनकी पच्चीस भावनाओं तथा पचास प्रकार के तप पर सीधे-सादे वचन बोलता है। सुमति कहती है कि हे आनन्दघन प्रभो! यह सम्यक्त्व तो जन्म-जन्म से आपका दास है। आप जन्म-जन्मान्तर से इसके स्वजन-स्नेही हैं ।। ३ ।। .: विवेचन-सुमति कहती है कि यह सम्यक्त्व रूप पुत्र आपकी सेवा करेगा। जब तक आपको संसार में जन्म लेना पड़ेगा, तब तक भव-भव में यह आपका आधार है। अतः आप कृपा करके सम्यक्त्व रूप पुत्र का द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव योग से पालन करो। इसका भावनाओं से पोषण करो, समता रूपी जल से इसे स्नान कराओ और इसे शुद्ध प्रेम भाव से देखो। ( ६६ ) ( राग-वसन्त ) आ कुबुद्धि कूबरी कवन जात, जिहाँ रीझे चेतन ज्ञान गात । प्रा० ॥ १ ॥ मा कुच्छित साख विशेष पाइ, परम सिद्धिरस छारि जाइ । आ० ।। २ ।। जिहाँ अंगु गुन कछु और नाहि, गले पड़ेगी पलक मांहि । प्रा० ॥ ३ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७६ 4-१७६ प्यारे पाछे दे वाहि नाम, पटिये मीठी सुगुण धाम । प्रा० ॥ ४॥ देवे आगे अधिकार ताहि, प्रानन्दघन प्रभु अधिक चाहि । प्रा० ।। ५ ॥ अर्थ - समता अपनी सखी श्रद्धा से कह रही है कि हे सखि ! जिसके ऊपर ये ज्ञान स्वरूप चेतनस्वामी रीझे हुए हैं, आसक्त हैं, वह कुबड़ी कुबुद्धि किस जाति की है ? क्या तुम्हें पता है ? यह चेतन की जाति की तो नहीं है और न यह जड़ जाति की है। यह चेतन एवं जड़ के संयोग से उत्पन्न मोह की दोगली पूत्री है। इसके प्रेरित करने से चेतन भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए हिंसा, असत्य, चोरी आदि कुकर्म करने में भी पीछे नहीं हटता ।। १॥ विवेचन-समता कह रही है कि इस कुबुद्धि का यदि स्वरूप देखा जाये तो उसकी ओर देखने की कभी इच्छा नहीं होगी। कुबुद्धि के कारण हिंसा की ओर प्रवृत्ति होती है, चोरी एवं व्यभिचार की ओर उन्मुखता होती है, क्रोध करके अवनति की ओर प्रवृत्ति होती है, अनीति • का आचरण होता है। इसी के कारण युद्ध होते हैं। अर्थ -इस नीच अधम कुबुद्धि का विशेष आश्रय लेने से यह ज्ञान-धन चेतन परम तत्त्व को छोड़कर सांसारिक माया-जाल में फंसा हुआ है ।। २॥ विवेचन - कुबुद्धि की प्रेरणा से मनुष्य हृदय में मिथ्यात्वशल्य को धारण करता है। प्रिय सखी ! परमामृत तुल्य मुझ समता की संगति छोड़कर चेतन कुत्सित शाखा तुल्य कुबुद्धि पर न्योछावर होता है, परन्तु यदि यह कुबुद्धि के कार्यों का विचार करेगा तो वह सत्य जान सकेगा। अर्थ-जहाँ देह से सम्बन्धित विषयवासना के अतिरिक्त तनिक भी सद्गुण नहीं है, यह कुबुद्धि पलभर में गले पड़ जाएगी, बरबस फंसा लेगी ॥३॥ विवेचन–कुबुद्धि अवगुणों का भंडार है, वह पलभर में गले पड़ जायेगी, चुडैल की तरह दुःख देने के अनेक प्रकार से प्रयत्न करेगी। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१७७ अर्थ-अतः.हे प्रियतम चेतन! इस कुबुद्धि को तो पीछे रखो, इसका नाम भी मत लो और सद्गुणों की भण्डार मीठी सुमति से अपना मेल बढ़ाओ ॥ ४ ॥ विवेचन-सुमति चेतन को कहती है कि इस कुबुद्धि की संगति से आपकी अत्यन्त हानि है। अतः हे सद्गुणों के धाम ! आप सुमति से अपना मेल बढ़ाओ। . अर्थ-इस पर अानन्द-धाम चेतन ने समता को अपनी स्वामिनी बनाकर उसे अपने घर का सम्पूर्ण अधिकार दे दिया। उन्होंने अपने जीवन को समतामय बना लिया। विवेचन-सुमति को आत्म-तत्त्व की प्राप्ति कराने वाला विवेक है। मुनिवरों की संगति करने से जैनागमों का रहस्य ज्ञात होता है । ( ६७ ) (राग-सोरठ) अण जोवंता लाख, जोवो तो एको नहीं । लाधी जोवण साख, वाल्हा 'विणे अहिले गई ।। साखी । वारू रे नान्ही बहू ए, मन गमतो ए कीधु । पेट में पेसी मस्तक रहँसी, बैरी सांईऽउ सामीजी नइ दीधु ॥ १ ॥ खोलइ बइठी मीठु बोले, कांइ अनुभौ अमृत पीधु। छाने छाने छमकलड़ां, करती पाखइ मनडु वीधु ॥ २ ॥ लोक अलोक प्रकाशक छइयो, जणतां कारिज सीधु। अंगो अंग रंग भरि रमतां, आनन्दघन पद लीधु ॥ ३ ॥ ___ अर्थ -समता कहती है कि जब तक किसी कार्य को करने की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, पुरुषार्थ नहीं किया जाता, तब तक लाखों विघ्नबाधाएँ सामने खड़ी नजर आती हैं और जब कार्य करने के लिए पुरुषार्थ किया जाता है तब समस्त विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं। जब पुरुषार्थ रूपी यौवन की फसल प्राप्त हो गई, तब बिना प्रियतम (चेतन) के यह फसल व्यर्थ जा रही है ।। साखी ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१७८ विवेचन-जब आत्म-शुद्धि के लिए वातावरण बन गया उस समय चेतन का विभावावस्था को त्याग कर स्वभावावस्था में न आना यौवन के स्वामी वियोग के समान है। समता अपनी सखी सुमति को कहती है कि शुद्ध चेतन स्वामी की प्राप्ति के बिना मेरा यौवन निष्फल गया। इस प्रकार क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ समता अपनी सखी सुमति को कहती है। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ समता का पूर्ण यौवन माना जाता है, परन्तु तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थानक में गये बिना परम शुद्ध चेतनस्वामी का संयोग नहीं होता, इस कारण क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ समता इस प्रकार के उद्गार निकालती है ॥ साखी ।। अर्थ -मैं न्योछावर होती हूँ कि छोटी बहू ने मन को प्रसन्न करने वाला अत्यन्त ही सुन्दर कार्य किया है जो चेतनस्वामी के पेट में छिपी रहकर और मस्तक को आच्छादित करके स्वामी को विभावदशा में चारों गतियों में घुमाती थी और स्वामी की गोद में बैठकर मधुर वचन बोलती थी मानों अनुभव रूपी अमृत का पान किया हो। इस प्रकार वह उन्हें सब्जबाग दिखाती थी कि सांसारिक सुख-सुविधाओं के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु है ही नहीं। जिसने गुप्त रूप से छल-छिद्र करके स्वामी का सम्पूर्ण मन बींध लिया था अर्थात् अपने वशीभूत कर रखा था उसे मेरी वैरिन ममता ने मेरे स्वामी को परमात्म गुणों को दे दिया ॥ १ व २ ॥ विवेचन–ममता के कारण पाप में प्रवृत्ति होती है। ममता के द्वारा आत्मा भ्रान्त बनकर अनन्त दुःख में उतरती है। समस्त जीवों को दुःख के खड्ड में उतारने वाली ममता है। ममता का ऐसा व्यवहार देखकर समता ने उसका नाश करने के लिए उसके पेट में प्रवेश किया और दसवें गुणस्थानक के अन्त में ममता का पूर्णत: नाश किया। समता के बिना वचनों में मधुरता नहीं आती। समता अपने शुद्ध चेतनस्वामी के सद्गुणों में विश्राम पाकर अपने स्वामी के रूप में तल्लीन हो गई और असंख्यातप्रदेश में उतर कर उसने वहाँ अनुभव-अमृत का पान किया। अर्थ-मोह-ममता से स्वामी का साथ छटने पर चेतन समतामय बन गया। परिणामस्वरूप लोकालोक को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान रूप पुत्र का जन्म हुआ। इस प्रकार समस्त कार्य सिद्ध हो गये और स्वामी ने आनन्दघन पद प्राप्त कर लिया ॥३॥ . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१७६ विवेचन-संसार में परिभ्रमण करती हुई भव्य आत्मा मनुष्यजन्म पाकर अपना आत्म-स्वरूप प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करता हुमा गुणस्थानों का प्रारोहण करता है। दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान में जाकर मोहप्रकृतियों का क्षय करके तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है तो लोक एवं अलोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है तथा अनन्त सुखों का स्वामी बन जाता है। (राग-जैजैवन्ती त्रिताला) मेरे प्राण प्रानन्दघन, तान प्रानन्दधन ।। मात आनन्दघन, तात आनन्दघन । गात अानन्दघन, जात प्रानन्दघन ।। मेरे० ।। १ ।। राज अानन्दघन, काज आनन्दघन । साज प्रानन्दघन, लाभ प्रानन्दघन ।। मेरे० ।। २ ।। प्राभ प्रानन्दघन, गाभ प्रानन्दघन । ..नाभ प्रानन्दघन, लाभ प्रानन्दघन ।। मेरे० ॥ ३ ॥ अर्थ-श्रीमद अानन्दघन जी कहते हैं कि हे प्रभो! मेरे प्राण आनन्दघन हैं। · मेरी तान भी आनन्दघन ही है । हे प्रभो! मुझे आत्म-भाव आपने ही प्रदान किये हैं। इस कारण आप मेरे माता-पिता हैं। मेरी देह भी आप ही हैं और जाति-पाँति तथा पुत्र भी आप हैं। हे आनन्दघन ! मुझे तो केवल आपका ही सहारा है, अतः मुझे भविष्य की तनिक भी चिन्ता नहीं है ।। १ ।। - विवेचन --योगिराज श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि संसार में मुझे कोई भी वस्तु अपनी प्रतीत नहीं होती। अब तो केवल आनन्द का समूहभूत एक प्रात्मा ही प्रिय लगता है। प्रानन्दघन आत्मा ही अब मेरा प्राण है। पाँच इन्द्रियों, तीन बल तथा श्वासोश्वास एवं आयुष्यइन दस प्राणों के द्वारा जीव जगत् में जीवित हैं, परन्तु ये दस प्राण क्षणिक हैं। अतः ये सच्चे प्राण नहीं हैं। सच्चा प्राणभूत तो मेरा आनन्द का समूहभूत प्रात्मा है। आज पर्यन्त मैं बाह्य-तान में प्रेम रखता था, परन्तु अब तो भाव-तान आनन्दघन आत्मा ही है। अब Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८० आनन्दघन आत्मा ही मेरी माता है। संसार में परिभ्रमण करते हुए शरीर के सम्बन्ध से अनेक पिता किये परन्तु किसी पिता ने जन्म, जरा, मृत्यु के दुःख से मेरी रक्षा नहीं की और किसी भी पिता ने शाश्वत सुख प्रदान नहीं किया। आत्मा में अनन्त सुख है और वह परमात्मा बन सकता है। अतः मेरा पिता आनन्दघन आत्मा ही है। देह में स्थित असंख्यप्रदेश रूप आनन्दघन आत्मा ही मेरी है। मैंने आत्मा के असंख्यप्रदेशों को नित्य होने के कारण अपना गात स्वीकार किया है। चार प्रकार की ब्राह्मण आदि जातियों का त्याग करके मैंने आत्मा को जाति के रूप में माना है क्योंकि वह आनन्दघन का समूहभूत है। अर्थ -हे प्रभो ! आपके पास जो आनन्द है, वह तो त्रिलोक की सम्पत्ति से भी अधिक है, अत: मुझे किसी राज्य की आवश्यकता नहीं है। मेरे तो आप ही राज्य हैं, आप ही से मेरा कार्य है और आप ही मेरे सर्वस्व हैं। मेरी लाज आपको ही है ।। २ ।। विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि अब मेरे समस्त प्रकार के कार्यरूप आनन्दघन आत्मा ही है। अब मुझे आत्मा के सिवाय किसी बाह्य कार्य का प्रयोजन नहीं है। अनादिकाल से परिभ्रमण करते-करते मैंने बाह्य के अनेक कार्य किये, परन्तु मुझे सहज सुख प्राप्त नहीं हुआ। बाह्य के समस्त कार्यों में से लक्ष्य हटाकर ज्ञान आदि अनन्त सुख रूप कार्य में ही मैं आत्मा हूँ, ऐसा मेरा निश्चय है। बाह्य साज के बजाय अब मैंने आत्मा को ही सब प्रकार का साज माना है। अब मैंने निश्चय किया है कि संसार की लज्जा की बजाय आनन्द आत्मा ही लज्जा है। अर्थ-हे प्रभो! आप ही मेरी शोभा हैं क्योंकि आप ही मेरे अन्तर में बसे हैं। हे आनन्दघन प्रभो! आप हो मेरे परम लाभ (इस पद में 'लाभ प्रानन्दघन' से श्रीमद् ने अपना 'लाभानन्द' नाम सूचित किया हो, यह भी सम्भव है।) विवेचन-उपर्युक्त पद में यह बताया है कि देहधारियों के पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, श्वासोश्वास और आयु-ये दस प्राण होते हैं। सिद्ध भगवान के इनमें से एक भी प्राण नहीं होता। 'उनके तो ज्ञान, दर्शन रूप भाव प्राण होते हैं। ये दसों प्राण पुद्गल-आश्रित हैं। ये Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १८१ जड़ संयोग से उत्पन्न होते हैं अतः द्रव्य प्रारण कहलाते हैं । योगी जब भगवान को ही सब कुछ समझ लेता है तो वह देह एवं इन्द्रियों की सुधबुध खो देता है । पहले वह अवस्था अल्पकालीन होती है, परन्तु अभ्यास बढ़ने पर संस्कार बढ़ते जाते हैं, चारों ओर वही चैतन्य रूप गोचर होता है । जब तक अहंभाव रहता है तब तक यह दृष्टि दृढ़ नहीं होती । 'मेरा कुछ नहीं है' यह स्थिति आने पर तदात्मता बढ़ जाती है । उस स्थिति में इस पद के उद्गार योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी के मुख से निकले हैं । वे कहते हैं - मेरा आनन्द समूहभूत आत्मा सचमुच प्रभभूत है जिसमें उपशम- प्रमृतघन है। इसकी प्राप्ति के पश्चात् जन्म-मरण के कष्ट नहीं रहते । अतः सत्य अभ्ररूप मेरा आत्मा है । गर्भ भी सत्य-सुख का दाता नहीं है । मेरा आत्मा ही गर्भरूप है । गर्भ में से प्राणी बाहर निकलते हैं, उस प्रकार मेरी आत्मा में से अनन्त सुख प्रकट होते हैं, अतः आत्मा ही गर्भ रूप है । नाभिरूप मेरा श्रात्मा ही है । आत्मा के आठ रुचक- प्रदेश नाभिकमल के स्थान में रहते हैं । उनके आठ प्रकार के कर्म अनादिकाल से नहीं लगते । इस कारण से नाभिकमल के स्थान में विद्यमान आठ रुचक- प्रदेश सिद्ध भगवान के प्रदेशों के समान निर्मल हैं । बाह्य प्रदेशों का लाभ वास्तविक लाभ नहीं है, क्योंकि बाह्य लाभ क्षणिक है । वे सच्चा सुख प्रदान नहीं करते । आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि सद्गुणों का लाभ ही वास्तविक लाभ है जो श्रात्मारूप है और वही लाभ सच्चा है । ( ६९ ) (राग - बसन्त - धमाल ) पूछोइ आली खबरि नई, प्राये विवेक महानंद सुख की वरनिका, तुम्ह श्रावत प्रान जीवन आधार कु, खेम कुशल अचल अबाधित देव कुं, खेम विवहारी घट बढ़ि कथा, निहचे बधाई || हम गात । कहो बात || पूछीइ० ।। १ ।। सरीर लखंत | शरम अनन्त ॥ पूछीइ० ।। २ ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - १८२ बंध मोख निहचे नहीं, विवहारी लखि दोइ । कुशल खेम अनादि ही, नित्य अबाधित होइ ॥ पूछीइ० ।। ३ ।। सुनि विवेक मुखते नई, बानी अमृत समान । सरधा समता दोई मिली, लाई श्रानन्दघन तान । पूछीइ० ॥ ४ ॥ अर्थ - श्रद्धा समता से कहती है- - हे सखि समता ! विवेकजी पधारे हैं, उनका स्वागत कर ले और यदि कोई नवीन समाचार हों तो पूछ ले । समता विवेक के समीप जाकर कहती है कि आपके आगमन से हमें तथा हमारे मन व शरीर को जो महात्रानन्द प्राप्त होता है, उस महान् सुखं का वर्णन नहीं किया जा सकता । आप हमारे प्राणनाथ की कुशलता के समाचार बताइये ।। १ ।। अर्थ - समता के प्रश्न का उत्तर देते हुए विवेक कहता है - अचल एवं अबाधित देव के तो सर्वदा कुशल-क्षेम है । वास्तव में तो उनकी असंख्य प्रदेशात्मक देह तो बाधारहित निश्चल है । व्यवहारनय से घटने-बढ़ने, सुख-दुःख एवं लाभ - प्रलाभ की बात है, किन्तु निश्चय से तो अनन्त शान्ति विद्यमान है ।। २ ।। विवेचन - निश्चय से तो बंध - मोक्ष नहीं है, व्यवहार से ही बंध एवं मोक्ष का विचार देखा जाता है । जब निश्चय से बंध - मोक्ष है ही नहीं, तब अनादि से आनन्द ही आनन्द है, कुशलता है, अबाधितता है । यह आत्मा शाश्वत है, बाधा रहित है, फिर बन्धन कैसा ? दुःख कैसा ? वेदना कैसी ? आत्मा को भूले हुनों के लिए ही सब विघ्न हैं । अर्थ - जो देह को ही सब कुछ समझते हैं उन विभाव परिणामियों के लिए ही संसार बन्धन है । आत्मा की ओर लक्ष्य देने वाले तो शाता - अशाता से परे रहकर अव्याबाध सुख के अधिकारी होते हैं ।। ३ ।। अर्थ – विवेक के मुँह से अमृततुल्य वचन सुनकर श्रद्धा एवं समता मिलकर आनन्द स्वरूप अपने स्वामी आत्मदेव को निज स्वरूप की ओर खींच कर ले आई ॥ ४ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१८३ विवेचन-यदि श्रद्धा एवं समता को प्राप्त कर लिया जाये तो शिव रूप घर में आत्मा का आगमन अवश्य होगा। इन दोनों में अनन्तगुणी शक्ति है। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र में श्रद्धा एवं समता का समावेश होता है। ये तीनों शक्तियाँ सम्मिलित हो जायें तो अन्तरात्मा परमात्मा बन जाती है। समस्त धर्म-कार्यों का मूल श्रद्धा है। सर्वप्रथम श्रद्धा प्राप्त करनी चाहिए। जहाँ श्रद्धा होती है वहाँ समता भी आ जाती है और दोनों की शक्ति सम्मिलित हो जाने से वे आत्मा को अपने घर में खींच लाती हैं। (७०) (राग-जैजैवन्ती) ऐसी कैसी घर बसी, जिनस अनैसी री। याही घर रहसी वाहो प्रापद हैसी री ।। ऐसी० ।। १ ।। परम सरम देसी. घर मेउ पंसी री। याही ते मोहिनी मैसी, जगत संगैसो री ।। ऐसी० ।। २ ॥ कौरी की गरज नैसी, गुरंजन चक्षसी री। प्रानन्दघन सुनौसी, बंदी अरज कहैसी री ।। ऐसी० ॥ ३ ।। अर्थ --सुमति कहती है कि यह ऐसी अमंगलकारी माया किस प्रकार ज्ञानस्वरूप चेतन के घर में बस गई है ? यह जिसके घर में निवास करती है वहाँ यह अनेक प्रकार के संकट एवं विपत्तियाँ उत्पन्न करती हैं ॥१॥ - विवेचन-ऐसी कोई अन्य प्रकार की वस्तु घर में आ गई है कि जिसे समझने में भी कठिनाई होती है। अर्थ-घर में प्रविष्ट होकर यह अत्यन्त लज्जा का कारण बनती है। मादा भेड़ के समान यह मोहिनी माया संसार से सम्बन्ध रखने वाली है ।। २ ॥ विवेचन-इस वस्तु की ऐसी भारी मोहिनी है कि जिससे जगत् के साथ सम्बन्ध होता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - १८४ अर्थ - श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि इससे एक कौड़ी की भी गर्ज पूरी होने वाली नहीं है । यह अनुभव - विवेक आदि गुरुजन का नाश करने वाली है । यह दासी सुमति आपको माया के समस्त गुण बता रही है । हे चेतन ! आप सुनें और माया की संगति छोड़ दें ।। ३ ।। विवेचन - सुमति कहती है कि हे चेतन ! यह माया किसी काम की नहीं है । यह विवेक, अनुभव आदि का नाश कर डालती है । मैं आपकी दासी आपको माया के गुण बता रही हूँ, आप कृपया सुनें । ( ७१ ) (राग - तोड़ी ) साखी - प्रातम अनुभौ रस कथा, प्याला अजब विचार | अमली चाखत ही मरे, घूमे सब संसार || साखी || प्रतम अनुभौ रीति वरी री । मोर बनाइ निज रूप अनुपम, तीछन रुचिकर तेग करी री । प्रातम० ।। १ ।। पहेरी री । मुँह निसरी री ॥ प्रतिम० ।। २ ।। टोप साह सूर को बानो, इकतारी चोरी सत्ताथल में मोह विडारत, ए ए सुरजन केवल कमला अपछर सुन्दर, गान करे रस रंग भरी री । जीति निसारण बजाइ बिराजे, आनन्दघन सरवंग धरी री ॥ आतम० ।। ३ ॥ साखी - अर्थ - यह साखी अनेक प्रतियों में नहीं है । आत्मानुभव रसकथा का विचार अद्भुत है । इस रस के प्याले को नशेबाज चखते ही मर जाता है अर्थात् जो इस पर अमल करता है वह इस पर आसक्त हो जाता है, अन्य लोग घूमते ही रहते हैं । ( साखी) अर्थ - श्रद्धा ने सुमति को पूछा कि आत्मा ने अनुभव - दशा के साथ कैसे विवाह किया ? सुमति उत्तर देती है कि चेतन ने निज स्वरूप रूपी अनुपम मुकुट धारण किया और फिर स्वरूप - प्राप्ति के लिए अगाध रुचि रूपी तीक्ष्ण तलवार हाथ में ली ।। १ ।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - १८५ विवेचन – यह पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । यदि इस एक ही पद का जीव को लक्ष्य रहे तो उसे सिद्धि प्राप्त करने में विलम्ब नहीं लगेगा । जिसे प्रात्मानुभव प्राप्त करना हो, उसे सर्वप्रथम अपना ध्येय निश्चित करना पड़ता है । यहाँ साधक का लक्ष्य है – 'निज स्वरूप प्रकट करना ।' कायरों को, अस्थिर विचार वालों को इस मार्ग में सफलता नहीं मिलती। यह वीरों का मार्ग है । 'करूंगा या मरूंगा' का विचार रखने वाला ही इसमें सफलता प्राप्त करता है । केवल इच्छा करने से ही कोई वस्तु प्राप्त नहीं हो जाती । तीव्र रुचि एवं दृढ़ संकल्प के बिना किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती । तीव्र रुचि वाला विघ्न-बाधाओं से घबराता नहीं । उसे मृत्यु का भय नहीं रहता । जिसने अपने स्वरूप को समझ लिया है, वही मृत्यु का भय छोड़ सकता है । यह आत्मा अविनाशी है । देह नश्वर है । यदि मृत्यु का भय जीतने का अभ्यास किया जाये तो एक न एक दिन सफलता प्राप्त हो ही जाती है । हमने अनेक बार स्व-कल्याण की इच्छा की, हम मोक्षाभिलाषी कहलाये किन्तु इस इच्छारूपी यथाप्रवृत्तिकरण में ही रहे, तीव्र रुचि रूप अपूर्वकरण को प्राप्त नहीं किया । अपूर्वकरण के बिना न तो कभी किसी को स्वरूप ज्ञान प्राप्त हुआ है और न होगा । इस तीक्ष्ण रुचि रूपी तलवार से ही मोह का नाश किया जा सकता है और सम्यग् - दृष्टि प्राप्त की जा सकती है । सुमति श्रद्धा को कहती है कि मेरे स्वामी की उस समय अपूर्व शोभा है । उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करने का ही उन्होंने वेष धारण किया हो । तीव्र रुचि रूपी तलवार धारण की हुई देखकर लगता था कि अब तो स्वामी मोह - शत्रु की सेना को छिन्न-भिन्न कर देंगे । अर्थ - वीर वेष धारण करके अर्थात् समता रूपी टोप, त्याग एवं ब्रह्मचर्य रूपी कवच और तीव्र भावना रूपी चोली पहनकर मोह को सत्ता से इस प्रकार छिन्न-भिन्न किया कि अनुभवी पण्डितों के मुँह से प्रशंसात्मक शब्द निकल पड़े । मोहराजा से संघर्ष करने के लिए समता, त्याग एवं एकाग्रता की आवश्यकता होती है । मानसिक, वाचिक तथा कायिक चंचलता के त्याग के बिना मोह - शत्रु का प्राक्रमण सहन करने की शक्ति प्राप्त नहीं होती। इसके लिए एकाग्रता की अत्यन्त आवश्यकता है । यही शक्ति सर्वसिद्धि दाता तथा आत्म-शत्रुनाशक है ।। २ ।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८६ विवेचन-ज्ञानियों ने समझने के लिए कर्म को आठ श्रेणियों में विभक्त किया है। इनमें से चार कर्मों ने जीव के मूल स्वरूप को ढक दिया है। अतः ये घातीकर्म कहलाते हैं। ज्ञान तथा दर्शन को ढकने वाले कर्मों को क्रमशः ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कहते हैं। प्रात्मा की अनन्त शक्ति को रोकने वाले कर्म को अन्तरायकर्म कहते हैं। यह समस्त विकृति मोह के कारण होती है। मोहनीयकर्म को ही सबसे प्रबल माना गया है। इसी प्रबलता के कारण इसे 'मोहराजा' कहा है। इसका नाश होते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों कर्म स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। प्रत्येक कर्म की चार अवस्थाएँ हैं -बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता। राग-द्वेष परिणामों के कारण कर्म-पुद्गल का आत्मा से सम्बन्ध होने को बंध कहते हैं। कर्म की फलप्रद शक्ति को उदय तथा उदय में नहीं आये हुए कर्मों को ध्यान-तप आदि के बल पर उदय में लाने को उदीरणा कहते हैं। जो कर्म बंध चुके हैं परन्तु उदय-उदीरणा में नहीं आये, आत्मा के साथ लगे हुए हैं उन्हें सत्तागत कर्म कहा जाता है। ___ मोह का बंध नवें गुणस्थान तक होता है। क्षपकश्रेणी वालों के दसवें गुणस्थान के अन्त में मोह की सत्ता का नाश हो जाता है। यहाँ सुमति का साथ भी जाता है अर्थात् सुमति वीतराग परिणति रूप शुद्ध चेतना का रूप ग्रहण कर लेती है जिसका साथ कदापि नहीं छूटता। अर्थ - इस प्रकार दसवें गुणस्थान में मोहराज को नष्ट करके विजय-दुदुभि बजवा कर, बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्मों का नाश करके तेरहवें गुणस्थान में चेतनराज बिराजमान हुए। चेतनराज के विजयी होने पर रसरंग से परिपूर्ण केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी सुन्दर अप्सरात्रों के समान सुमधुर शब्दों से सम्पूर्ण विश्व की बातें बताती है और आनन्दस्वरूप चेतन ज्ञान-लक्ष्मी रूपी शुद्ध चेतना को असंख्यात प्रदेशात्मक निज देह के प्रत्येक प्रदेश में धारण कर लेती है ।। ३ ।। विवेचन--सम्पूर्णतया कर्मशत्रु का नाश करके सिद्धात्मा केवललक्ष्मी के साथ रहता है। केवलज्ञान-लक्ष्मी के द्वारा समय-समय पर सिद्धात्मा अनन्त सुखों का उपभोग करता है। वे जन्म, जरा एवं मृत्यु के दुःखों से मुक्त हो चुके होते हैं। सुमति कहती है कि हे सखी ! मेरे स्वामी की उत्तम दशा और समय-समय पर होता अनन्त सुख, तीन लोकों Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - १८७ का स्वामित्व और अनन्त गुणरूप परिकर - ऐसा वैभव अन्यत्र देखने में नहीं आया । मेरे प्रानन्द के समूहभूत आत्मा ने मुझे प्रदेश-प्रदेश में धारण किया है, अब मेरे आनन्द का कोई पार नहीं है । मैं सुख की अपार लीला का उपभोग करती हूँ । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने इस प्रकार चेतना एवं आत्मा की शुद्ध दशा का वर्णन किया है ।। ३ ।। ( ७२ ) ( राग- प्रभाती, प्राशावरी ) मुदल थोड़ों रे भाइड़ा व्याजड़ो घरणेरो, किम करि दीधो जाय । तल पद पूँजी व्याज में श्रापी सघली, तो ही न पूरड़ो थाय ॥ मुदल ० ।। १ ।। व्यापार भागो रे भाइड़ा जलवट थलवट रे, धीरे न निसाणी माइ । व्याजडो छोड़ावी कोई खादी परठवेरे, मूल आपू सम खाइ ।। मुदल० ।। २ ।। हाडु मांडु रे रूडै माणक चौकमांरे, साजन नो मनड़ो मनाइ । आनन्दघन प्रभु सेठ सिरोमणि, बांहडी झालेजी आई || मुदल ० ।। ३ ।। अर्थ - अरे भाई ! मूल रकम तो अल्प ही है परन्तु ब्याज की रकम मूलधन से भी अत्यन्त अधिक हो गई है। जो कैसे चुकाई जा सकेगी? मैंने अपनी सम्पूर्ण मूल राशि ब्याज में दे दी तो भी ब्याज चूकता नहीं हुआ ।। १ ॥ अर्थ - अरे भाई ! इससे मेरा जलमार्ग एवं स्थल मार्ग का सब व्यापार नष्ट हो गया, मेरी प्रामाणिकता का कोई विश्वास नहीं करता । मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ कि कोई व्यक्ति ब्याज छुड़ा कर मूल रकम की किश्त करा दे तो मैं मूल रकम दे दूंगा ।। २ ।। अर्थ- मैं सज्जन व्यक्तियों का मन मना कर, उनका विश्वास प्राप्त करके नगर के श्रेष्ठ मारणक चौक (सदर बाजार ) में दुकान लगाकर धन. अर्जित करके रकम चुका दूंगा । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि हे सेठ शिरोमणि प्रभो ! मेरा हाथ पकड़ो। आप ही निराधारों के एकमात्र आधार हो ।। ३ ।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१८८ विवेचन-प्रस्तुत पद में श्रीमद् आनन्दघनजी ने कर्जदार व्यापारी के बहाने से प्रात्मा पर कर्मों के ऋण का दिग्दर्शन कराया है। सचमुच, आत्मा पर अष्ट कर्मों का ऋण है किन्तु राग-द्वेष के कारण भव-भ्रमण रूपी ब्याज इतना बढ़ गया है कि वह चुकाया नहीं जा रहा है। सम्पूर्ण आयु रूपी मूलधन पूरा हो जाने पर भी ब्याज चुकता नहीं हो पाया। शान्ति प्राप्त करने के लिए जल-मार्ग एवं स्थल-मार्ग से अनेक तीर्थों का भ्रमण होता है, परन्तु स्थिरता रूपी प्रामाणिकता नहीं होने के कारण कहीं पर आश्वस्त नहीं होता। आत्मा सोचता है कि कोई ज्ञानी व्यक्ति राग-द्वेष रूपी ब्याज छुड़ा दे तो कर्मोदय रूप मूल रकम को भोग कर चकतो करूँ। ज्ञानी महापुरुष के संसर्ग से विरति के द्वारा भविष्य की कर्म-वृद्धि रूप ब्याज से मुक्ति मिलने से कर्म रूपी ऋण चुक जायेगा। ( ७३ ) . ( राग-सोरठ) कंत चतुर दिलजानी हो, मेरो कंत चतुर दिलजानी। जो हम चीनी सो तुम कीनी, प्रीत अधिक पहिचानी हो ।। . . मेरो० ॥ १ ॥ एक बूंद को महल बनायो, तामे ज्योति समानी हो । दोय चोर दो चुगल महल में, बात कछु नहीं छानी हो ।। मेरो० ।। २ ।। पाँच अरु तोन त्रिया मंदिर में, राज करै रजधानी हो। एक त्रिया सब जग बस कीनो, ज्ञान-खङ्ग बस पानी हो । मेरो० ।। ३ ।। चार पुरुष मंदिर में भूखे, कबहू त्रिपत न पानी हो। एक असील इक असली बूझे, बूझ्यो ब्रह्मा ज्ञानी हो ।। मेरो० ।। ४ ।। चारु गति में रुलतां बीते, करम को किनहू न जानी हो। प्रानन्दघन इस पद कुबूझे, बूझ्यो भविक जन प्रानो हो ।। मेरो० ।। ५ ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १८६ अर्थ - हे मेरे चतुर एवं प्रिय स्वामी ! हे प्रेमी आत्माराम ! जैसा मैंने जाना था वैसा ही आपने किया अर्थात् अनादिकाल के पश्चात् आपने मानव-देह बनाई है ।। १ ।। अर्थ - हे चेतन ! आपने एक बूंद का काया रूपी महल बनाया है, जिसमें आपने अपनी ज्योति प्रकाशित की है। इस महल में राग-द्वेष रूपी दो चोर हैं जो ग्रात्म-स्वरूप की चोरी करते रहते हैं । सांस एवं आयु रूपी दो चुगल हैं जो काल को आयु की स्थिति की चुपके से सूचना देते रहते हैं, इस कारण इस काया रूपी महल की कोई भी बात गुप्त नहीं रही ।। २ ।। अर्थ - इस देह रूपी मन्दिर में पाँच इन्द्रियाँ तथा मन, वचन और तन - मन्दिर रूपी राजधानी में राज्य एक मन रूपी स्त्री ने इस देह को ज्ञान रूपी खड्ग के द्वारा वश में कर से काया - ये आठ स्त्रियाँ हैं जो इस करती हैं । इन आठ स्त्रियों में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण संसार को लिया है ।। ३ ।। अर्थ - इस तन- मन्दिर में चार पुरुष - क्रोध, मान, माया और लोभ हैं जो अनादि काल से भूखे हैं जो कभी तृप्त नहीं हुए । आत्मिक गुणों को खाकर भी इनको तृप्ति नहीं मिली । इस मन्दिर में स्वभावपरिणति रूप एक ही असल वस्तु है जिसे ब्रह्मज्ञानी ही पूछता है, वही इसकी कद्र करता है ॥ ४ ॥ अर्थ - चारों गतियों – नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में परिभ्रमण करते हुए अनन्तकाल व्यतीत हो गया है, परन्तु कर्म की विचित्रता किसी ने नहीं पहचानी । योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि इस पद का मर्म आत्म-स्वरूप का ज्ञाता कोई विरला भव्य जन ही जान पाता है ।। ५ ।। ( ७४ ) ( राग - मारू ) उदार हो, निस्पृह देश सुहामणो, निरभय नगर बसि अंतरजामी । निरमल मन मंत्री बड़ो, राजा वस्तु विचार हो, बसि अंतरजामी ॥ १ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एव उनका काव्य - १६० सुरिण शिवगामी । सुरिण निहकामी ॥ सुरिण शुभनामी । तू चूकिस मा । केवल कमलागार हो, सुरिंग केवल कमलानाथ हो, सुरिंग केवल कमलावास हो, सुरिण प्रतम तूं चूकिस मा, साहिब राजिन्दा तू चूकिस मा, अवसर लही ॥ टेक ॥। गढ़ संतोस सामौ दसा साधु संगति पोलियो विवेक सु जागतो, श्रागम पायक दिढ़ विसवास बतागरौ, सु विनोदी मित्र वैराग विहड़ै नहीं, क्रीड़ा सुरति दिढ़ विवहार हो । समता नीर समपन भव पोलि हो । तोलि हो ।। २ ।। भावना बार नदी वहे, ध्यान चहबचौ भर्यो रहे, उचालै नगरी नहीं, दुष्ट दुकाल न ईत अनीत व्यापं नहीं, श्रानन्दघन पद अपार हो ॥ ३ ॥ गंभीर हो । समीर हो ॥ ४ ॥ जोग हो । भोग हो ।। ५ ।। अर्थ - तृष्णारहित निस्पृह रूपी सुहावने देश में निर्भय नामक उदार नगर है जहाँ अन्तर्यामी चेतन का निवास है, राज्य है । तत्त्व स्वरूप का विचारक भेदज्ञानी अनुभव वहाँ का राजा है और निर्मल मन: वहाँ का प्रधानमन्त्री है ॥ १ ॥ . विवेचन - योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी महाराज अपने आन्तरिक देश का वर्णन करके अपनी आत्मा को बोध देते हैं । अर्थ - हे आत्मन् ! तू केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का स्थान है । हे मोक्षगामी ग्रात्मन् सुन । हे निष्कामी प्रात्मन् ! सुन, केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का तू स्वामी है । हे शुभ नाम वाले आत्मन् ! सुन, तुझ में ही ज्ञान रूपी लक्ष्मी का निवास है, तू ही चेतन है, अन्य सब जड़ हैं । हे आत्मन् ! यह मानवभव दुर्लभ है, अतः तनिक भी चूकना मत । हे स्वामी ! हे राजराजेश्वर ! तुझे यह दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ है, अब तू किंचित् भी मत चूकना ॥ टेक ॥ विवेचन - श्रीमद् अपनी आत्मा को सम्बोधित करके बोध देते हैं कि बाह्य देश, बाह्य नगर, बाह्य लक्ष्मी एवं बाह्य स्थान की अपेक्षा अन्तर Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - १९१ अन्तर के देश आदि अतः हे चेतन ! का देश, नगर, लक्ष्मी एवं स्थान प्रत्यन्त सुखद हैं । को प्राप्त करने के लिए मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है । अब तू चूक्रेना मत । इन शब्दों से योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी की अत्यन्त अप्रमत्त दशा में प्रवेश करने की तीव्र इच्छा का अनुमान होता है । उनका कथन है कि हे आत्मन् ! तू परमात्मा है, तेरी सत्ता सिद्ध के समान है । अतः अब अवसर पाकर अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर । अर्थ - श्रीमद् अब अन्तर - नगर की व्यवस्था आदि बताते हुए कह रहे हैं । वे अपनी आत्मा को इस प्रकार जागृत कर रहे हैं कि इस निस्पृह देश के निर्भयं नगर का सन्तोष रूपी किला है, अर्थात् ग्रात्म-तृप्ति ही इस निर्भय नगर का किला है । साधु-संगति इस किले का सुदृढ़ द्वार है । अतः इसमें मोक्ष का प्रवेश नहीं हो सकता । विवेक रूपी द्वारपाल द्वार पर सदा जागता रहता है और यहाँ ग्रागम पैदल सिपाहियों अर्थात् अनुचरों के समान हैं ।। २ ।। अर्थ - नगर के दृढ़ श्रद्धा रूपी निपुण सूत्रधार हैं । इसी के संकेत पर सम्पूर्ण शासन चलता है । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य भाव -मय यहाँ का विनोदपूर्ण व्यवहार है । वैराग्य रूपी मित्र कदापि साथ नहीं छोड़ता । आत्म-रमरणता ही यहाँ की अपार क्रीड़ा है ।। ३ ।। अर्थ - यहाँ नित्य बारह भावना रूपी नदियाँ बहती हैं जिनमें समता रूपी गहरा जल है, जिससे ध्यान रूपी छोटा हौज सदा भरा रहता है और समर्पण भाव रूप हवा सदा चलती रहती है ।। ४ ।। अर्थ -- निर्भय नगरी में किसी भी तरह का उपद्रव नहीं है । यहाँ निवास करने वालों का मन कभी उचाट नहीं होता, डाँवाडोल नहीं होता और यहाँ पर भाव रमरण रूप दुष्ट दुर्भिक्ष का भय नहीं है । यहाँ प्रति-वृष्टि आदि इतियों का भय नहीं है, यहाँ अनीति एवं अनाचार का प्रवेश नहीं है । यहाँ तो आनन्द ही आनन्द का भोग है ।। ५ ।। विवेचन -- योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने बताया है कि अन्तर की ऐसी नगरी कदापि अस्थिर नहीं होती । वहाँ कदापि उपद्रव नहीं होता । अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूषक - शलभ-शुक, स्वचक्र और परचक्र युद्ध - ये पाँच ईतियाँ कहलाती हैं । इन तियों तथा अनीति की प्रवृत्ति अन्तर के देश एवं नगर में कदापि व्याप्त नहीं होती । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने अन्तर के देश तथा नगर का जो वर्णन किया है, उसे प्राप्त Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६२ करना आवश्यक है। नि:स्पृह भाव प्राप्त करना कोई सामान्य कार्य नहीं है। जब तक अन्तर में सात प्रकार के भय में से एक भी भय होगा तब तक निर्भय नगर में प्रवेश नहीं हो सकेगा। रोगभय, मृत्यु-भय, इहलोक-भय, परलोक-भय, दुर्घटना-भय, कोति-भय और अपकीति-भय आदि में चित्त-वृत्ति लगी रहेगी, तब तक निर्भय नगर में प्रविष्ट होने का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। निर्भय नगर के द्वारपाल विवेक को मोहराजा के योद्धा लालायित नहीं कर सकते। विवेक तीसरा नेत्र है। विवेकहीन मनुष्य पशु तुल्य होते हैं । विवेकरूपी द्वारपाल के जाग्रत होने से आगमों के प्रति श्रद्धा, उनका मनन, श्रवण, पठन एवं अध्ययन उचित प्रकार से हो सकता है। तत्पश्चात् सुविनोदी व्यवहार की प्राप्ति होती है और फिर वैराग्य मित्र की प्राप्ति होती है। द्रव्यानुयोग का परिपूर्ण अभ्यास करने से ज्ञानगर्भित वैराग्य प्राप्त होता है। तत्त्वज्ञान के अध्ययन से उत्तम वैराग्य प्राप्त होता है। ज्यों-ज्यों ज्ञान आदि गुणों के द्वारा आत्मा की उच्च दशा में वृद्धि होती है; त्यों-त्यों समत्व गुण की वृद्धि होती रहती है। जो मनुष्य समत्व गुण के अधिकारी बनने का प्रयत्न करते हैं, वे ही मनुष्य परमात्म पद प्राप्त करने के अधिकारी बनते हैं। समत्व गुण रूपी वायु से प्रत्येक मनुष्य अन्तर के गुणों का पोषण कर सकता है और ज्ञान आदि गुणों के द्वारा पुष्ट बनता है। अन्तर के देश में संवर तत्त्व का माहात्म्य इतना हो जाता है कि वहाँ ईति एवं अनीति रहती ही नहीं। अनीति का पूर्णतः नाश करने वाला संवर है। प्रत्येक मनुष्य को ऐसा आन्तरिक उत्तम देश प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। ( ७५ ) ( राग-रामगिरि ) पातम अनुभव प्रेम को, अजब सुण्यो विरतंत । निरवेदन वेदन करे, वेदन करे अनंत ।। साखी ।। म्हारो बालूड़ो संन्यासी, देह देवल मठवासी ।। इडा पिंगला मारग तजि जोगी, सुखमना घरि पासी। ब्रह्मरंध्रमधि आसण पूरी अनहद नाद बजासी ।। म्हारो० ।। १ ।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } श्री आनन्दघन पदावली - १९३ जम नियम प्रासंरण जयकारी, प्राणायाम अभ्यासी । प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी ॥ म्हारो० ।। २ ।। मूल उत्तर गुण मुद्राधारी, परयंकासन चारी । रेचक पूरक कुम्भककारी, मनइन्द्री जयकारी || म्हारो० ।। ३ ।। थिरता जोग जुगति अनुकारी, आपो आप विचारी । प्रातम परमातम अनुसारी, सीके काज सवारी ॥ म्हारो० ।। ४ ।। अर्थ - आत्म अनुभव प्रेम का वृत्तान्त प्रद्भुत है । इस प्रात्मानुभव को पुरुष, स्त्री और नपुंसक तीनों वेदों से रहित अर्थात् केवली भगवान ही भोग सकते हैं ।। साखी ॥ विवेचन -- वेदोदय नवें गुणस्थान तक ही होता है और इसकी सत्ता भी नवे गुणस्थान तक ही है । क्षायिक भाव से तो वेदोदय एवं सत्ता का नाश नवें गुणस्थान में हों जाता है, किन्तु उपशम श्रेणी वाले के इनका उपशम भाव रहता है, इसलिए उन्हें प्रपूर्वकरण ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचा तो देता है पर क्षायिक भाव के बिना आगे न बढ़कर उन्हें पीछे लौटना ही पड़ता है । इसलिए केवली भगवान ही वेदन करते हैं । अर्थ - मेरा आत्मा रूपी अल्प वयस्क, अल्प- अभ्यासी, प्रल्प- कालिकसम्यक्त्वी संन्यासी जो देह रूपी मठ में निवास करने वाला है, वह इडा, पिंगला, नाडियों का मार्ग छोड़कर सुषुम्ना नाड़ी के घर आता है । वह आसन जमाकर सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा प्राणवायु को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर अनहद नाद करता हुआ चित्तवृत्ति को उसमें लीन कर देता है ।। १ ॥ विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि मेरा आत्मा रूपी बाल - संन्यासी देह रूपी मन्दिर का निवासी है । इडा (चन्द्रस्वर, बायीं नासिका का स्वर ) पिंगला (सूर्यस्वर, दाहिनी नासिका का स्वर ) - इन दो नाड़ियों के स्वर का परित्याग करके सुषुम्ना ( दो नासिकाएँ साथ चलती हैं) के घर में निवास करता है । योगिगरण जब सुषुम्ना नाड़ी चलती है तब भगवान का ध्यान करते हैं । श्रीमद् सुषुम्ना नाड़ी चलती है तब Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६४ ध्यान लगाकर उसका अनुभव बताते हैं। सुषुम्ना में ध्यान लगाकर ब्रह्मरंध्र में आसन जमाया अर्थात् आनन्दघनजी के आत्मा रूपी योगी ने ब्रह्मरंध्र में जाकर स्थिरता की। ब्रह्मरंध्र में स्थिरता करने के लिए योग के आठ अंगों की आवश्यकता होती है । अर्थ-यम-नियम पालन करने वाला, एक आसन में दीर्घकाल तक बैठने वाला, प्राणायाम का अभ्यासी, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान करने वाला व्यक्ति शीघ्र ही समाधि प्राप्त कर लेता है ॥२॥ विवेचन–ब्रह्मरंध्र में स्थिरता होने के लिए योग के आठ अंगों की आवश्यकता होती है-वे पाठ अंग हैं यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि । इस प्रकार अनुक्रम अंगपूर्वक योग का अभ्यास करने वाला ब्रह्मरन्ध्र में अनहद तान का अनुभव करता है और समाधि प्राप्त करके आत्मिक सुख भोगता है। अर्थ-यह बाल-संन्यासी संयम के मूल गुणों तथा उत्तर गुणों का धारक है, पर्यकासन का अभ्यासी है, रेचक-पूरक-कुम्भक प्राणायाम क्रियाओं का करने वाला है और मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाला है ॥३॥ विवेचन -अध्यात्म मार्ग की अपेक्षा राग को इडा और द्वेष को पिंगला कहा जाता है। जब आत्मा राग-द्वेष का मार्ग परित्याग करके समता रूप सुषुम्ना के मार्ग में आता है तब ब्रह्मरन्ध्र में (अनुभव ज्ञान दशा में) आत्मा की समाधि का अनुभव होता है तब आत्म-स्वरूप में अनहद तान उत्पन्न होती है। अर्थ--इस प्रकार योग-साधना का अनुगमन करता हुआ वह संन्यासी स्थिरता रखकर अपने प्रात्म-स्वरूप का विचार करता हुआ आत्मा और परमात्म-पद का अनुसरण करता है तो उसके समस्त कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं ।।४।। विवेचन -श्रीमद् आनन्दघनजी योग-समाधि का अनुभव. करके भाव व्यक्त करते हैं कि यदि अपने शुद्ध स्वरूप का विचार किया जाये तो आत्मा परमात्मा बन जाता है और शुद्ध स्वरूप मोक्ष-कार्य की सिद्धि होती है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६५ ... (७६) ( राग-जैजैवंती ) तरस कीजई दइ को दई की सवारी री ।। तीच्छन कटाच्छ छटा, लागत कटारी री । तरस० ।।१।। सायक लायक नायक प्राण को प्रहारी री। काजर काज न लाज बाज न कहूँ वारी री ।। तरस० ।।२।। मोहनी मोहन ठग्यो जगत ठगारी री। दीजिये प्रानन्दघन दाद हमारी री ।। तरस० ।।३।। पूर्व दिग्दर्शन -मोहनीय कर्म के उदय से जब चेतन ऊपर के गुणस्थान में चढ़कर गिरता है, तब चेतना अत्यन्त दु:खी होती है। चौथे गुणस्थान में आत्मज्ञान सम्यक्त्व प्राप्त होता है, पाँचवें में देशविरति, छठे में सर्वविरति और सातवाँ अप्रमत्त होता है और आठवें गुणस्थान में शुक्ल ध्यान आत्मध्यान ध्याते हुए जीव ऊपर चढ़ता है। तत्पश्चात् दो घड़ी में सम्पूर्ण कर्ममल का नाश करके नवें, दसवें तथा बारहवें गुणस्थान को पार करते हुए जीव केवलज्ञान स्वरूप तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। आठवें गुणस्थान में चेतना चेतन के साथ एकता अनुभव करती है और तेरहवें गुणस्थान में एकत्व प्राप्त कर लेती है। ... जब चौथे गुणस्थान से पतन होता है तो अत्यन्त अल्प काल तक जीव दूसरे गुणस्थान में रुक कर पहले गुणस्थान में पहुँच जाता है। सम्यक्त्व प्राप्त करके जब जीव गिरता है, उस समय की परिस्थिति का इस पद में दिग्दर्शन कराया गया है। चेतना विलाप के उद्गार प्रकट करती है कि अर्थ- हे विधाता ! तनिक दया करो। यह आपका कैसा जुलस है, कैसी सवारी है ? इसके तीक्ष्ण कटाक्ष की प्रभा कटार के समान मेरे आर-पार हो जाती है ॥१॥ विवेचन -शुद्ध चेतना कहती है कि हे सखी समता ! मेरे स्वामी शुद्ध चेतन मेरे घर आते नहीं हैं। वे कुमति, ममता एवं तृष्णा के निवास पर बार-बार जाते हैं तथा अशुद्ध परिणति के निवास पर पड़े रहते हैं । मेरा कर्म ऐसा उदय में आया है कि वह मेरे स्वामी को मेरे आवास पर Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१६६ आने से रोकता है। अब मैं क्या करू ? जब तक मेरे स्वामी मेरे स्थिरता रूप घर में नहीं पायेंगे तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी। मैं अपने स्वामी की आज्ञानुसार अपनी किसी भी भूल के लिए प्रायश्चित्त करने के लिए तत्पर हूँ। अर्थ--हे नायक ! चेतन ! ये सांसारिक प्रलोभन बाण के समान प्राणों पर प्रहार करने वाले हैं। इस दृश्य को देखने के लिए न तो आँखों में काजल लगाने की आवश्यकता है और न लोक-लाज की रुकावट है। प्रलोभन स्वेच्छा से नहीं रुकते और इन्हें रोकने वाला कोई विरला ही होता है ।।२।। विवेचन- हे सखी समता ! स्वामी से मिलने की मेरी उत्कट इच्छा है। मैं जहाँ-तहाँ स्वामी का ही मनन करती हूँ। चेतना अपने आत्म-स्वामी का स्वरूप बार-बार सोचती है। आठवें गुणस्थान से क्षपक श्रेणी का तथा शुक्ल ध्यान का प्रारम्भ होता है। शुक्ल ध्यान में शुद्ध चेतना अपने चेतन स्वामी के साथ एकता का अनुभव करती है, तो भी तेरहवें गुणस्थानक को प्राप्त किये बिना वह अपने चेतन स्वामी को साक्षात् मिल नहीं सकती। मोहनीय कर्म के उदय से चेतन ऊपर के गुणस्थानक में चढ़कर पुनः गिर जाता है। उस विरह के कारण चेतना की ऐसी दशा हुई है। अर्थ -जगत् को ठगने वाली मोहिनी ने मेरे मन-मोहन चेतन को ठग लिया है। हे आनन्दघन प्रभो! आप मेरी सहायता करें। आपकी सहायता से ही चेतन मोहिनी के फन्दे से अलग हो सकता है ।।३।। विवेचन --शुद्ध चेतना समता को कहती है कि हे सखी! मोहिनी समस्त जीवों को जड़ वस्तुओं में उलझाकर अपने वश में रखती है। मोहिनी का सर्वत्र जोर है। हे आनन्दघन चेतन स्वामी! आप अब मोहिनी का माया-जाल तोड़ दें और मेरे हृदय में व्याप्त वियोग रूप दाह को शान्त करके पुष्करावर्त मेघ के समान दर्शन दें, ताकि मेरे अन्तर की ज्वाला शान्त हो और आनन्द ही आनन्द छा जाये। (७७) ( राग-रामगिरी ) हमारी लौ लागी प्रभु नाम । आप खास और गोसलखाने, दर अदालत नहीं काम ।। हमारी० ॥१॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-१६७ पाँच पचीस पचास हजारी, लाख करोरी दाम । खाये खरचे दिये बिनु जात हैं, प्रानन करि करि श्याम ॥ हमारी० ॥२॥ इतके न उतके सिव के न जिउ के उरझि रहे दोउ ठाम । संत सयानप कोई बतावे, प्रानन्दघन गुणधाम ।। हमारी० ॥३॥ विशेष -भाषा एवं शैली की भिन्नता के कारण उपयुक्त पद शंकास्पद है। सम्भव है यह पद भक्त कवि आनन्दघन का हो । ...अर्थ -मेरी लगन भगवान के नाम-स्मरण से लगी है। भगवान के ज्ञानादि गुणों के स्मरण में मेरा मन लीन है। यह मेरा सालम्बन ध्यान है जिसमें मैं तन्मय होता हूँ। मुझे बादशाहों के आम और खास दरबारों में जाने और बादशाह के एकान्त स्थान में जाकर प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा नहीं है और न मैं न्यायालय का अधिकारी बनना चाहता हूँ, क्योंकि मेरा मन तो भगवान के स्मरण में लीन है ॥१॥ ___- विवेचन --योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज बता रहे हैं कि उन्हें भगवान के नाम की लगन लगी है। अरिहन्त, सिद्ध के स्मरण में मन लगाने से भगवान के ज्ञानादि गुणों का स्मरण होता है। भगवान के नाम का स्मरण करने से आत्मा की शक्तियाँ विकसित होती हैं, आत्मगुणों की वृद्धि होती है तथा भगवान के प्रति प्रेम प्रकट होता है। वे राजा-महाराजाओं के दरबारों में तथा न्यायालयों आदि में जाकर प्रतिष्ठा प्राप्त करना नहीं चाहते। उनका चित्त संसार में नहीं लगता। अर्थ संसार में मानव पाँच हजार, पच्चीस हजार और पचास हजार, यहाँ तक कि लाखों-करोड़ों रुपये एकत्र करने में लगा रहता है और बिना खाये, उस धन का उपभोग किये बिना अपने मुंह पर कालिख लगा कर चला जाता है। सारा समय तृष्णा के चक्कर में लगाकर मानव अपनी आयु खो देता है। बिना भगवान का भजन-स्मरण किये ही वह संसार से चला जाता है ॥२॥ विवेचन--मनुष्य अपनी सम्पत्ति का उपयोग किये बिना, सुपात्र को दान दिये बिना, अपने धन के भण्डार यहीं छोड़ कर चले जाते हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१९८ घन उपार्जन करने के लिए किये गये पाप उनके साथ जाते हैं। इसी कारण से श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि मेरी परमात्मा से लौ लगी है, मुझे संसार में तनिक भी रुचि नहीं है। अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि ऐसे मनुष्य न तो इधर के रहते हैं और न उधर के । उनका न तो यह लोक सुधरता है न परलोक । वे न तो देह सम्बन्धी सुख भोगते हैं और न वे आध्यात्मिक कार्य ही करते हैं। इस प्रकार वे दोनों के बीच में उलझे रहते हैं। कोई विचक्षण आत्मज्ञानी सन्त मुझे आनन्द के घन और उनके गुणों के स्थान प्रभु का साक्षात्कार करा दे तो मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो जाये। ऐसी श्रीमद् प्रानन्दघनजी की आन्तरिक इच्छा है ।।३।। विवेचन -हृदय-कमल स्थिर हो जाने से अपना और अन्य का कल्याण किया जा सकता है, प्रात्मा के ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र गुरणों का प्रकाश किया जा सकता है, परमात्मा की पूर्ण आराधना की जा सकती है और अन्त में आत्मा को परमात्मरूप किया जा सकता है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि मैं तो आनन्दघन चेतन प्रभु का नाम जपता रहता हूँ। कोई सन्त पुरुष चेतन प्रभु से साक्षात्कार कराये तो मेरे आनन्द का पार नहीं रहेगा। इससे प्रतीत होता है कि वे प्रति पल परमात्मा का नाम रटते थे। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंकास्पद पद (१) ( राग-वसन्त ) प्यारे आई मिलो कहा, ऐंठे जात । मेरी विरह व्यथा अकुलात गात ॥ प्यारे० ।। १॥ एक पईसारी न भावे नाज, न भूषण नहि पट समाज ।। प्यारे० ।। २॥ मोहि निरसनि तेरी पास, तुम ही शोभ यह घर की दास ।। प्यारे० ।। ३ ॥ अनुभवजी कोऊ करो विचार, कद देखों ह बाकी तन में सार ।। प्यारे० ।। ४ ।। ___ जाई अनुभव समझाय कंत, घर पाए प्रानन्दघन भए वसन्त ।। प्यारे० ।। ५ ।। (भाषा एवं शैली को भिन्नता के कारण यह पद शंकास्पद है।) अर्थ-शुद्ध चेतना कहती है कि हे चेतन ! आकर मुझे दर्शन दो। क्यों इतने ऐंठे जा रहे हो ? मेरे बार-बार बुलाने पर भी आप नहीं आ __ रहे हैं। विरह-व्यथा के कारण मेरी देह आकुल-व्याकुल हो रही है ।।१।। विषेचन-शुद्ध चेतना के उद्गार सचमुच प्रेममय हैं। अपने स्वामी पर उसका शुद्ध प्रेम है। उसकी रग-रग में शुद्ध प्रेम प्रवाहित है। उसकी विरह-व्यथा ऐसी है कि वह अत्यन्त प्रशान्त है। पतिव्रता नारी स्वप्न में भी पर-पूरुष के प्रति विषय-प्रेम नहीं प्रकट करती। वह पति के लिए अपने प्राण न्यौछावर करती है । अर्थ-शुद्ध चेतना कहती है कि पति के विरह में मेरी ऐसी दशा हो रही है कि मुझे एक पैसे भर भी अन्न अच्छा नहीं लगता, न आभूषण Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २०० एवं वस्त्र पहनना अच्छा लगता है और न समाज में कहीं जाना-माना अच्छा लगता है ||२॥ विवेचन-शुद्ध चेतना का अपने स्वामी के प्रति शुद्ध प्रेम है । अतः उसे आत्मस्वामी के बिना अन्यत्र तनिक भी चैन नहीं पड़ता । शुद्ध चेतना अलौकिक है । वह राग-द्वेष से बाह्य पदार्थों में लिप्त नहीं होती । मनुष्यों को शुद्ध चेतना प्राप्त करनी चाहिए । योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी में अमुक गुरणस्थानक तक अमुक अंशों में क्षयोपशम भाव से अनुभव प्रकट हुआ था । शुद्ध चेतना तथा आत्मा की एक जाति है । अर्थ -- शुद्ध चेतना कहती है कि हे चेतनराज ! इस देह रूपी घर की शोभा आपसे ही है । मैं तो आपके घर की दासी हूँ। मैं आपके आने की आशा से अब निराश हो गई हूँ । अब मुझे आपके आने की आशा नहीं रही ||३ ॥ विवेचन --- शुद्ध चेतना अब अपने स्वामी से मिलने के लिए शुद्ध प्रम से निवेदन करती है । आत्मा का ज्ञान होने पर निष्काम प्रेम का द्वार खुलता है । अतः मनुष्यों को 'निष्काम प्रेम के लिए प्रात्म-ज्ञान की उपासना करनी चाहिए । प्रेम के बिना सहज प्रानन्द में प्रवेश नहीं हो सकता । जगत् में सबको आकर्षित करने वाली प्रेम-शक्ति है । शुद्ध • चेतना प्रेम की प्यासी है। वह अपने स्वामी को आकर्षित करना चाहती है । उसका जीवन शुद्ध भाव-प्रारण है । वह अपने असंख्यात प्रदेशी आत्म- स्वामी को मिलने की अधिकारी हो गई है, । अर्थ- - शुद्ध चेतना अनुभव को कह रही है कि हे अनुभव जी ! तनिक विचार तो करो। वे चेतन तो कब देखेंगे, पर आप तो देखो । उनकी याद रूपी सार मेरी देह में लगी हुई है । जिस प्रकार सुथार की सार लकड़ी को बींध देती है, उसी प्रकार उनकी याद रूपी सार मेरी देह को छेद रही है ।।४।। विवेचन - शुद्ध चेतना अनुभव को कहती है कि 'जिसके तन में द्वै भावना की सारड़ी लगती है उसे कितनी वेदना होती है ? चेतन - स्वामी द्वैत भावना की साड़ी से मेरे अन्तर में घोर व्यथा उत्पन्न करते हैं । पति एवं पत्नी की भिन्नता एक प्रकार की हृदय को बींधने वाली सारड़ी है । मेरे स्वामी तथा उनसे मेरी जुदाई तनिक भी सुख -प्रद नहीं है । दोनों में भेद उत्पन्न करने वाली विभाव दशा है । स्वामी का मेरे प्रति भेद-भाव कदापि शान्ति नहीं कर सकता ।' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२०१ शुद्ध चेतना पुनः अनुभव को कहती है कि 'मेरे स्वामी मुझसे ऐंठ रख कर, भेद-भाव रखकर विभाव दशा रूप अन्य स्त्री की संगति से भिक्षुक की तरह पुद्गल ऐंठ का प्रास्वादन करने का प्रयत्न करें और मुझसे भिन्नता रखें तो किसको मुह नीचा करना पड़ेगा? हे अनुभव ! आप इसका तनिक विचार करो। यदि वे विभाव-दृष्टि का परित्याग कर दें तो हमारी अद्वैतता हो जाये। अत: हे अनुभव ! आप कृपा करके मेरे चेतन-स्वामी को समझायें। आप मेरी और उनकी अद्वैतता कर दो तो परमात्म-दशा प्रकट हो जायेगी।' - अर्थ शुद्ध चेतना की बात सुनकर अनुभव ने जाकर उसके कन्त चेतन को समझाया। स्वरूपानन्द के धनी चेतन अपने स्वभाव रूपी घर पर आ गये और उनके आगमन से वातावरण ऐसा सुखद हो गया मानों वसन्त का आगमन हो गया हो, आनन्द लहरा उठा हो ॥५।। विवेचन - अनुभव शुद्ध चेतना का निवेदन सुनकर आत्मा के पास गया, उन्हें शुद्ध-चेतना का समस्त कथन सुनाया और उन्हें विभाव-दशा की संगति छुड़ाई । आत्मपति अपनी पत्नी शुद्ध चेतना के घर में क्षायिक भाव से तेरहवें गुणस्थानक में आये। उन्होंने केवलज्ञान एवं केवलदर्शन रूप क्षायिक भाव से शुद्ध चेतना का आलिंगन किया। प्रात्मा तथा शुद्ध चेतना की एकता हो गई। आनन्द के घनभूत चेतन के शुद्ध चेतना के घर में आते ही अन्तर के क्षायिक भाव के सद्गुणों की वसन्त ऋतु खिल उठी। आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में समय-समय पर अनन्त गुना सुख प्रकट होने लगा। आत्मा परमात्मा रूप हो गया । (२) __(राग-वसन्त) प्यारे जोवन एह साच जान । उत बरकत नांहि तिल समान । १ ॥ उत न मगो हित नाहिने एक । इत पकर लाल छरी खरे विवेक ।। २ ॥ उत सठ ठग माया मान दुब । इत ऋजुता मृदुता निज कुटुब ।। ३ ।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०२ उत आसा तिसना लोभ कोह । इत शान्त दान्त सन्तोष सोह ।। ४ ।।.. उत कला कलंकी पाप व्याप । इत खेले प्रानन्दघन भूप प्राप ।। ५ ।। अर्थ -सूमति चेतन को कह रही है कि हे प्रिय ! हे जीवनप्राण ! यह बात सत्य मानो कि उधर ममता के फन्दे में पड़ने से तिल के बराबर भी सद्गुणों की वृद्धि नहीं है। उस वृद्धि से तनिक भी हित होने वाला नहीं है ॥१॥ विवेचन -अनादिकाल से प्रात्मा ममता के संग पड़ा है। उसकी संगति से आत्मा सत्य तत्त्व का विचार नहीं कर पाता है, वह शुद्ध देव-गुरुधर्म को पहचानने में असमर्थ रहता है और वह मिथ्यात्वदशा में अपना जीवन व्यतीत करता है। ममता जीवों को चार गतियों में परिभ्रमण कराती है। आत्मा के साथ जब ममता का सम्बन्ध होता है तब उसका झुकाव क्रोध, मान, माया एवं लोभ की ओर होता है इस कारण सुमति अपने आत्म स्वामी को कहती है कि आप ममता के प्रपंच, में मत फँसे । ब्रह्मा, विष्णु, महादेव भी इसके प्रपंच में फँस गये। अतः ममता के प्रपंच रूप इन्द्रजाल से दूर रहें। उसकी संगति से आपको तनिक भी लाभ नहीं है, उससे आपका तनिक भी श्रेय नहीं है। उसकी संगति से आप अपने मूल शुद्ध धर्म को भूलते हैं। अर्थ - उधर ममता की ओर से आप कुछ न माँगें क्योंकि उधर आत्म-हित की एक भी बात नहीं है। इधर विवेक भेद-ज्ञान की छड़ी लिये खडे हैं जो अनीति की राह से रोकते रहते हैं ।।२।। विवेचन --पाठान्तर से भाव निकलता है कि विवेक ने छरी ग्रहण की है तो उसके कारण आपको स्वयमेव मेरे पास आना पड़ेगा। छरी इस प्रकार है --(१) भूमि-शयन, (२) पर-पुरुष-त्याग, (३) आवश्यक कृत्य, (४) सचित्त त्याग, (५) एकासना और (६) गुरु के साथ पाद-विहार । सुमति कहती है कि मैं धारण रूपी भूमि पर शयन करूगी, पर भाव रूप पर-पुरुष का त्याग करूंगी, आवश्यक क्रिया के द्वारा मैं अन्तर में असंख्यात प्रदेश में विचरण करूंगी, अन्य जीवों के प्राणों का नाश न हो उस प्रकार से मैं ज्ञानामृत का भोजन करूंगी, एक शुद्ध स्वरूप आहार का सेवन करूंगी और अनुभाव ज्ञान रूप सद्गुरु के साथ अन्तर के प्रदेश में मैं ज्ञान एवं क्रिया Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२०३ दो पादों से गमन करूंगी। इन छरी को अन्तर में धारण करके आपको प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प करती हूँ। अर्थ -- उधर शठ (धूर्त), ठग, माया, मान और दम्भ भरे हुए हैं और इधर सरलता, मृदुता विनय रूप अपना परिवार है ।।३।। विवेचन-जहाँ ममता तथा कुमति होती है वहाँ शठता, छल तथा अहंकार का प्रवेश होता है और सुमति के पास सरलता, मृदुता, निर्लोभता आदि परिवार का मिलाप होगा जिससे आपको स्वभाव से ही सहजानन्द की खुमारी का लाभ प्राप्त होगा। इस प्रकार सुमति दोनों ओर का सच्चा स्वरूप प्रकट करके बताती है। अर्थ-उधर ममता की ओर आशा, वासना, तृष्णा, लोभ और क्रोध हैं। इधर शान्ति, इन्द्रिय-जय, सन्तोष सुशोभित हैं ॥४॥ विवेचनहे स्वामिन् ! वहाँ ममता के मित्र प्राशा, तृष्णा, लोभ, और क्रोध हैं। तृष्णा से किसी जीव को शान्ति प्राप्त नहीं होती। लोभी मनुष्य आँखें होते हुए भी अंधा होता है। यहाँ तो सुमति के पास तो शान्त, दान्त एवं सन्तोष गुण की शोभा है। संसार में सन्तोष के समान कोई सुख नहीं है। - अर्थ-उधर ममता की ओर कलंकी पाप की कला व्याप्त है और इधर स्वयं आनन्द स्वरूप चेतनराज का क्रीडाङ्गण है, जहाँ चेतनराज क्रीड़ा करते हैं ॥५॥ विवेचन-सुमति कहती है कि मेरे यहाँ तो शान्त, दान्त एवं सन्तोष आदि परिवार है और. कलंकित पाप का स्थान ममता है। अशुभ प्रास्रव का मूल ममता है। सुमति कहती है कि ममता के घर की ऐसी दशा है और हे चेतनराज ! मेरे घर में तो आनन्दघन, तीन लोक के भूप आप बैठ सकते हैं। ममता के घर नीच दुष्टों का वास है। सुमति की बातें सुनकर चेतन के अन्तर में विवेक जाग्रत हुआ और उनका सुमति के घर में पदार्पण हुआ और वे सहज सुख में क्रीड़ा करने लगे। (३) ( राग-वसन्त ) कित जाण मते हो प्राणनाथ । इत पाई निहारोने घर को साथ ।। १ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०४ उत माया काया कवण जात । उह जड़ तुम चेतन जग-विख्यात ।। २ ।। . उत करम भरम विष बेल संग । इत परम नरम मति मेलि रंग ।। ३ ।। उत काम कपट मद मोह मान । इत केवल अनुभव अमृत पान ।। ४ ।।। अलि कहे समता उत दुःख अनन्त । इत खेले प्रानन्दघन वसन्त ।। ५ ।। (विशेष-इस पद की शैली अन्य पदों से भिन्न है, अतः शंका उत्पन्न होती है) अर्थ-- समता कहती है कि हे प्राणनाथ, मेरे चेतन देव ! किस ओर जाने का विचार है ? आप कृपया इस ओर आकर देखो तो सही। यहाँ अपने घर वालों आर्जव, मार्दव, सैत्य आदि का साथ है ।।१।। विवेचन हे प्राणनाथ ! आत्म-स्वामिन् ! आप सांसारिक मार्ग की ओर प्रयाण करने की अभिलाषा क्यों कर रहे हैं ? सांसारिक मार्ग अनेक संकटों से परिपूर्ण है। संसार के मार्ग में जीव ने कदापि सुख प्राप्त नहीं किया। क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, क्लेश, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, कीर्ति, परिग्रह, विषय-बुद्धि, निन्दा तथा मिथ्यात्व आदि संसार के मार्ग हैं। मनोदण्ड, वंचन-दण्ड, काय-दण्ड, आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान और कृष्ण आदि अशुभ लेश्या संसार के मार्ग हैं। आप अशुद्ध परिणति के मार्ग का त्याग करके शुद्ध धर्म रूप अपने घर में आकर हे चेतन ! अपने परिवार को देखो। __ अर्थ -- उधर छद्मवेशधारिणी माया एवं काया की क्या जाति है? अरे, वे तो जड़ हैं और आप विश्व-विख्यात चेतनरांज हैं। आप अपने चेतन भाव को क्यों भूल रहे हो ? ।।२।। विवेचन -- समता कहती है कि हे चेतन स्वामी ! आप माया की ओर जा रहे हैं, परन्तु वह उत्तम जाति की स्त्री नहीं है । अतः माया रूपी नीच जाति की स्त्री की आपको संगति नहीं करनी चाहिए। पौद्गलिक वस्तुओं में तनिक भी सुख नहीं है। चेतन को जड़ की संगति करना उचित नहीं है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२०५ अर्थ -हे चेवन ! उस ओर ज्ञानावरण आदि पाठ कर्म प्रकृति से उत्पन्न भ्रम रूप विषैली बेल छाई हुई है, जिसने आपको चारों ओर से घेरा हुआ है और इधर समता, श्रद्धा आदि परम कोमल वृत्तियाँ आपके रंग में रंगी हुई हैं ।।३।। विवेचन-चेतना कहती है कि हे प्राणनाथ ! माया की ओर कर्मभ्रान्ति रूप विष-वल्लरी का साथ है। अत: यदि सांसारिक मोह-माया की ओर प्रवृत्ति करेंगे तो ज्ञानावरणीय आदि अनेक कर्म ग्रहण करेंगे। कर्म रूप विष-बेल के अशुभ फलों का प्रास्वादन करके आप महा दुःख के भोक्ता बनेंगे। समता कहती है कि यदि आप मेरी अोर आयेंगे तो उत्तम निर्मल मति के मेले के रंग में रंगेंगे और सहज निर्मल आत्मिक सुख प्राप्त कर सकेंगे। मेरी ओर आने से आपकी बुद्धि निर्मल होगी और आप अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे। अतः हे आत्मस्वामिन् ! आप उस ओरं गमन न करके अपने मूल घर की ओर आइये । अर्थ--उस ओर काम, कपट, मद, मोह और मान हैं और इस ओर आत्मानुभव रूप अमृत का पान है ।।४॥ विवेचन-समता कहती है कि हे आत्म-स्वामिन् ! आप संसार की ओर प्रयाण न करें। उधर काम नामक महा लुटेरा निवास करता है । वह प्राणियों को विषय-वासना की लालच में सुख की भ्रान्ति दिखाकर ठगता है। हे स्वामिन् ! यदि आप संसार-मार्ग की ओर प्रयाण करोगे तो काम-वेग में फँस जानोगे और दुःखी होनोगे। उस ओर. कपट का अत्यन्त बल है। उधर आठ प्रकार का अंहकार भी आपको कष्ट देगा। अतः आप मोह एवं मान के फन्दे में फंसने के लिए उधर न जायें । . अर्थ -समता कहती है कि उधर अनन्त दुःख हैं और इधर आनन्द के समूह भगवान वसन्तोत्सव खेलते हैं ।।५।। विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि संसार के मार्ग में तो अनन्त दुःख हैं और मुक्ति-मार्ग की ओर सदा वसन्त ऋतु है, जिसके द्वारा आनन्द प्राप्त होता है। अत: हे आत्मन् ! आप इस ओर आयें। (राग-लियो बेलावल) जिनचरण चित्त ल्याउं रे मना । अरहंत के गुण गाऊँ रे मना ।। जिन० ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २०६ उदर भरण के कारणे रे गौवां वन में जाय । चार चरें चिहुँ दिस फिरें, वाकी सुरति बछरुश्रा मांहि रे ।। जिन० ।। १ ।। सात पाँच सहेलियाँ रे, हिलमिल पाणी जाय । ताली दिये खड खड हँसे रे, वाकी रति गगरुप्रा मांहि रे ।। जिन० ।। २ ।। नटुमा नाचे चौक में रे, लाख करे लख सोर । बाँस गृही बरते चढ़ें, वाको चित्त न चले कहूँ ठोर रे ।। जिन० ।। ३ ।। जूनारी मन में आनन्दघन प्रभू यूं जुम्रा रे, कामी के मन है, इम त्यो भगवत काम । रे ।। जिन० || नाम ४ ॥ ( इस पद की भाषा-शैली भिन्न होने से यह शंकास्पद है ) विशेष - प्रथम तीन पद्यांशों में पहले पद्यांश में प्राहार प्राप्त करने हेतु जाने वाली गायों का वर्णन है । दूसरे पद्यांश में पानी लाने वाली विनोदी स्त्रियों का वर्णन है और तीसरे पद्यांश में उदरपूर्ति हेतु लोक रंजन का धन्धा करने वाले नटों का दृष्टान्त है । इन तीनों पद्यांशों का आशय यही है कि चाहे अपनी रोजी के लिए उद्यम करते हों, चाहे मित्र मण्डली में विनोद करते हों, चाहे पेट - पालन हेतु लोगों के मन-रंजन का कार्य करते हों तो भी किसी भी अवस्था में हमें अपने आत्मा को नहीं भूलना चाहिए सदा आत्म जागृति रखनी चाहिए । उक्त तीनों कार्य करने वाले जिस प्रकार अपने मूल कार्य को नहीं भूलते, उसी प्रकार हमें भी श्री जिनेश्वर भगवान का दत्तचित्त होकर स्मरण करना चाहिए । सांसारिक व्यावहारिक कार्य करते हुए भी चित्त प्रभु में रखें । अर्थ - हे मन ! जिनेश्वर भगवान के चरणों में चित्त को इस प्रकार लगा, आत्म-शत्रुओं के नाशक अरिहन्त भगवान के गुरंगों का इस प्रकार स्मरण कर, जिस प्रकार गायें अपनी उदर-पूर्ति करने के लिए जंगल में Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२०७ जाती हैं और कास, चारा आदि चरती हैं; वे चारों दिशाओं में घूमती हैं परन्तु उनकी चित्तवृत्ति तो अपने बछड़े में ही रहती है ।।१।। विवेचन-हे जीव ! यदि तू अन्तराय कर्म के उदय से सर्वविरति का सेवन न कर सके तो भी अपनी चित्त-वृत्तियों को सदा पात्माभिमुख रख । इसमें तनिक भी प्रमाद मत कर, आत्म-जागृति रख और अपने में कत्त त्व का आरोपण न करके साक्षीभाव का आरोपण कर । अर्थ-योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी आगे कहते हैं कि पाँच-सात सहेलियाँ हिलमिल कर पानी भरने के लिए जाती हैं, तालियाँ बजाती हैं, खिल-खिलाकर हँसती हैं, किन्तु उनका चित्त तो सिर पर रखे हुए घड़े में हो रहता है। समस्त कार्य करते हुए भी उनका ध्यान तो इसी में रहता है कि कहीं घड़ा सिर पर से गिर न जायें ।।२।। विवेचन- श्रीमद् कहते हैं कि हे आत्मन् ! बाह्य जगत् के अनेक कार्य करते हुए भी अन्तर से निलिप्त रहना चाहिए। जो लोग उच्च आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे क्रमशः अन्तर से प्रभु के ध्यान में लीन रहते हैं। जिस प्रकार सहेलियाँ समस्त कार्य करती हैं परन्तु उनका ध्यान सिर पर रखे घड़े में रहता है, उसी प्रकार हे प्रात्मन् ! तुम्हें भी हृदय में अध्यात्म ज्ञान के योग से ध्यान रखकर आवश्यक बाह्य क्रियाएँ करनी चाहिए और अन्तर में निरन्तर भगवान का स्मरण करना चाहिए। अर्थ-योगिराज पुनः उदाहरण देते हुए कहते हैं कि नट आम बाजार के चौक में नृत्य करता है, दर्शक अनेक बातें करते हैं, शोर करते हैं। वह नट बाँस लेकर रस्से पर चढ़कर अनेक कलाएँ दिखाता है। वह लोगों के शोरगुल में ध्यान न देकर अपना चित्त अपने कार्य में लगाये रखता है। उसका चित्त अन्यत्र जाता ही नहीं है ।।३।। . विवेचन-नट नत्य करता है, लोग शोर मचाते हैं, फिर भी उसका चित्त चलित नहीं होता। वह लोगों की ओर ध्यान देता ही नहीं। उसी प्रकार हे चेतन ! तू भी अन्तर से प्रभु पर प्रेम से स्थिरता रख । भगवान के लाखों जाप किये जायें परन्तु भगवान के सद्गुण प्राप्त करने में लक्ष्य न रखा जाये तो हृदय की शुद्धि नहीं होती। अतः प्रभु के गुणों को समझकर उनके गुणों में सुरता रखनी चाहिए। हे चेतन ! तू भी गुण ग्रहण करने के लिए हृदय में प्रभु की सुरता धारण कर । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२०८ अर्थ - योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी दो सांसारिक उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार जुनारी की वृत्ति सदा जए के दाव-पेच में और व्यभिचारी पुरुष का मन सदा स्त्रियों में लगा रहता है, उसी प्रकार हे भव्य प्राणियो ! अपनी प्रबल लगन से तुम प्रभु के नाम तथा गुणों का स्मरण करो ॥४॥ विवेचन-जुआरी के मन में कोई भी कार्य करते समय जूए की रटन रहती है और कामी व्यक्ति के मन में प्रति पल काम-वासना की धुन लगी रहती है, इसी प्रकार हे चेतन ! तू भी भगवान के सद्गुरण प्राप्त करने के लिए हृदय से भगवान के नाम का जाप किया कर। अतः हे चेतन ! तू भगवान की धुन में रहने की सुरता प्राप्त कर । तू निरन्तर भगवान का अन्तर से स्मरण किया कर। (५) . चेतन सकल वियापक होई। . सत असत गुण परजाय परिणंति, भाउ सुभाउ गति जोई ।। चेतन० ॥ १ ॥ स्व-पर रूप-वस्तु की सत्ता, सीझे एक नहीं दोई । सत्ता एक अखंड अबाधित, यह सिद्धत पच्छ जोई ।। चेतन० ।। २ ॥ अन्वय अरु व्यतिरेक हेतु को, समझि रूप भ्रम खोई । पारोपित सब धर्म और हैं, आनन्दघन तत सोई ।। चेतन० ।। ३ ।। अर्थ -यह चेतन सर्वव्यापक बना है। लोक, अलोक की सब स्थिति प्रात्मा जानता है। केवली समुद्घात के समय यह आत्मा लोकप्रमाण अपने प्रात्मप्रदेशों में फैलता है, इस प्रकार भी वह सर्व व्यापक होता है, अन्यथा तो यह आत्मा देह के प्रमाण ही होता है। ये दोनों अवस्थाएँ केवलज्ञान प्राप्ति पर ही होती हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी वही स्थिति प्राप्त करने के लिए कहते हैं कि हे चेतन ! सर्व व्यापक बन, ऐसा उद्यम कर जिससे केवलज्ञान प्राप्त हो। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२०६ ___ इस चेतन में सत्-असत्, अस्ति-नास्ति दोनों धर्म हैं। स्व द्रव्य को अपेक्षा इसमें अस्ति धर्म है, पर द्रव्य की अपेक्षा नास्ति धर्म है । आत्मा अपने ज्ञानादि गुण, मनुष्यादि पर्याय-इन गुण-पर्याय की परिणति, क्षायिक भाव तथा निज चेतन स्वभाव की गति से चेतन सत् है एवं जड़ धर्म की अपेक्षा असत् है, अर्थात् जड़ पदार्थ के गुण, वर्ण-गन्ध-रसस्पर्श-चेतन में नहीं हैं ।।१।। विवेचन ---योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण आत्मा की अपेक्षा से सत् हैं, परन्तु पर द्रव्य की अपेक्षा से प्रात्म-द्रव्य एवं आत्मा के गुण असत् हैं। आत्मा के गुण एवं पर्याय ही आत्मा की परिणति हैं। हे अात्मन् ! तुझे अपनी शुद्ध परिणति में रमण करना चाहिए। उपशम भाव, क्षयोपशम भाव और क्षायिक भाव उत्तरोत्तर शुद्ध भाव कहलाते हैं। यदि आत्मा अपने उपशम आदि भाव से रमण करे तो शुभ गति प्राप्त कर सकता है। देवलोक एवं मनुष्यभव दो शुभ गतियाँ हैं। तीसरी पंचम गति को क्षायिक भाव से प्राप्त करता है। अर्थ स्व एवं पर वस्तु का स्वरूप एवं सत्ता एक ही सिद्ध नहीं होती, ये भिन्न-भिन्न हैं, दो हैं। अर्थात् चेतन की स्वसत्ता चेतन रूप है तथा जड़ की सत्ता जड़ रूप है। यह जड़ भाव एवं चेतन भाव दोनों एक वस्तु में सिद्ध नहीं होते। यह सिद्धान्त पक्ष है कि चेतन एक अखण्ड एवं अबाधित सत्ता है ॥२॥ _ विवेचन मुक्ति प्राप्त करने पर एक चेतन ही शुद्ध रहता है । चेतन की एक अबाधित अखण्ड सत्ता है। तीन काल में चेतन अपनी सत्ता छोड़ता नहीं, यह सिद्धान्त पक्ष से कहा जाता है। __. 'अर्थ उस चैतन्य सत्ता को अन्वय एवं व्यतिरेक हेतु से समझकर स्वरूप सम्बन्धी सम्पूर्ण भ्रम मिटा देना चाहिए। मानसिक, वाचिक और कायिक धर्म भिन्न हैं। ये आत्मा के धर्म नहीं हैं। इन समस्त आरोपित धर्मों को भिन्न समझ कर आनन्द के समूह रूप ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा को जानना चाहिए। यही तत्त्व रूप परम सत्य है। इस चेतन शक्ति की. पूर्णता प्राप्त करना ही सर्वव्यापक होना है ॥३॥ विवेचन-अन्वय एवं व्यतिरेक हेतु से प्रात्मा का स्वरूप समझते पर वस्तुओं से आत्मत्व का भ्रम मिट जाता है। योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि आत्मा ही स्वतत्त्व है, वही आनन्द का घन है, . और वही पाराध्य है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २१० ( ६ ) ( राग - वसन्त ) प्यारे, अब जागो परम गुरु परम देव । मेटहु हम तुम बीच भेद ।। आली लाज निगारो गमारी जात । मोहि प्रान मनावत विविध भाँति ।। प्यारे० ।। १ ।। प्राली पेर निमूली चूनडी कानि । मोहि तोहि मिलन विच देत हानि ।। प्यारे० ।। २ ।। श्राली पति मतवाला और रंग । रमे ममता गणिका के प्रसंग || प्यारे० ।। ३ ।। जड़ ते जड़ता घात : अन्त । चित्त फूले आनन्दघनं अब वसन्त || प्यारे० ।। ४ ( उपर्युक्त पद में कोई तारतम्य नहीं है । पहले पति को सम्बोधित किया गया है और आगे जाकर सखी से वार्तालाप होता है । प्रतीत होता है कि कोई पंक्ति कहीं की और कोई पंक्ति कहीं को लेकर पद बनाया गया है । अतः शंकास्पद है । ). अर्थ-सुमति कहती है कि है परम गुरु, परम देव ! अब तो सचेत हो जाओ। आपके और मेरे मध्य जो अन्तर है उसे मिटा दो । हे सखि ! लज्जा निगोडी गँवार जाति की है । वह मुझे विविध प्रकार की आज्ञाएँ देकर मुझसे कार्य कराना चाहती है ॥१॥ विवेचन - सुमति आत्म-स्वामी को सचेत होने का निवेदन करती है । चेतन ममता के संग प्रमाद - निद्रा में है । सुमति उन्हें जाग्रत करना चाहती है । सुमति जानती है कि ममता निर्लज्ज है, गँवार है, उससे भाँति-भाँति की प्रज्ञाओं का पालन कराना चाहती है । अर्थ-सुमति कहती है कि हे सखी ! यह लज्जा शृंगार सजकर, चुनड़ी पहनकर अपने मिलन में बाधक बनती है ॥२॥ विवेचन - सुमति कहती है कि ममता अन्य व्यक्तियों का निर्मूल करने वाली कुलटा है, विघ्न - सन्तोषी है । यह नहीं चाहती कि हमारा मिलन हो । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - २११ अर्थ- हे सखी ! पतिदेव तो ममता रूपी वेश्या के जाल में फँसकर मतवाले हो रहे हैं । वे उसी रंग में ममता के साथ रमरण कर रहे हैं ॥३॥. के विवेचन - आत्मा के साथ अशुद्ध भाव में रहने वाली ममता आत्मा मूल धर्म में विकार उत्पन्न करके उसे भ्रान्ति के खड्ड में गिराती है । अतः वह अपनी सखी को कहती है कि पतिदेव उस कुलटा ममता के जाल में फँसकर मतवाले हो रहे हैं । उन्हें उसके फन्दे से छुड़ाना अत्यन्त आवश्यक है । अर्थ - सुमति कहती है कि अब तो जड़ होने पर ही अर्थात् पौद्गलिक भाव का नाश होने वसन्त का आगमन होगा, मेरा चित्त रूपी पुष्प आनन्द की प्राप्ति होगी ॥ ४ ॥ वस्तु के ममत्व का अन्त पर ही प्रात्मज्ञान रूप खिलेगा और प्रत्यन्त विवेचन - अन्त में प्रात्मा को ज्ञात हुआ कि जड़वास का अन्त जड़ है । जड़ में ममता करने से जड़ वस्तु का तो अन्त हो जाता है । सुमति के उपदेश से ज्ञात हुआ कि जड़ वस्तुओं की ममता करना हितकर नहीं है । आत्मन् सुमति के घर आने लगे जिससे वसन्त तुल्य वातावरण हो गया । सुमति की संगति से आत्मा आनन्द का उपभोग करने लगा । ( अब कुछ ऐसे पद हैं जिनको 'भाषा एवं शैली श्रीमद् श्रानन्दघन जी के पदों से भिन्न है । ये पद किसी अन्य जैन कवि के अथवा कवियों के हो सकते हैं। इनके विषय में शोध चल रही है ।) ( ७ ) ( राग - प्रासावरी ) बेर बेहेर नहीं आवे रे अवसर, बेहेर बेहेर नहीं आवे || ज्यू जां त्यू कर ले भलाई, जनम-जनम सुख पावे । अव ० ।। १ । तन धन जोबन सब ही झूठो प्रारण पलक में जावे । अव० ।। २ ॥ तन छूटे धन कौन काम को, काय कूँ कृपण कहावे । अव० ।। ३ ॥ जाके दिल में सांच बसत है, ताकू झूठ न भावे । अव० ।। ४ ।। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२१२ आनन्दघन प्रभु चलत पंथ में, समरि समरि गुण गावे । प्रव० ॥ ५ ॥ अर्थ-बार-बार अवसर प्राप्त नहीं होगा। ऐसा संयोग पुनः पुनः नहीं आयेगा। अर्थात् यह मानव-जन्म पुनः नहीं मिलेगा। अतः जब भलाई करने का अवसर हो, उस समय भलाई कर ले, ताकि जन्मजन्मान्तरों में सुख प्राप्त हो ॥१॥ ... विवेचन-योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि हे मनुष्यो ! नर-भव पुनः पुनः प्राप्त होने वाला नहीं है। दुर्लभ मानव-जन्म पाकर धर्म रूप परमार्थ के कार्य करने चाहिए। जैसे-जैसे ज्ञान प्रकट होता रहे वैसे-वैसे उपकार के कार्य करने चाहिए। परमार्थ के कार्य करोगे तो भावी जन्मों में सुख प्राप्त करोगे। देव आदि की गति में शाता वेदनीय के भोक्ता बनोगे। अर्थ-तन, धन और यौवन सब झूठे हैं, क्षणभंगुर हैं क्योंकि प्राण तो पल मात्र में चला जाता है ।२।। .. विवेचन - हे मानव ! तू बाह्य वस्तुओं में अपना हित सोचकर तनिक भी विचार मत करना। तू अपने मन में फल कर कुप्पा मत होना। तू जिस तन, धन तथा यौवन का गुमान करता है, उन पर अहंकार करता है, वह तन धन तथा यौवन सर्वथा मिथ्या है। रावण के समान अभिमानी नृप भी प्राण त्याग कर पल भर में अन्य भव में चले गये। मूर्ख मनुष्य तन, धन और यौवन को अपना मानते हैं। हम कोटि उपाय करें तो भी क्या रेत में से घी निकल सकता है ? कदापि नहीं। इसी तरह से करोड़ों उपाय करने पर भी तन, धन एवं यौवन में से स्थायी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। अर्थ-जब तन ही नहीं रहे तो धन किस काम आयेगा ? तन के अभाव में धन का क्या उपयोग है ? फिर व्यर्थ ही तू कृपण क्यों कहलवाता है ? ३॥ विवेचन–श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे मानव ! तू धन के पीछे क्यों पागल है ? धन की ममता में तू रात-दिन क्यों लीन हो रहा है ? धन तो जड़ वस्तु है। इसे यहीं छोड़ कर लाखों मनुष्य चले गये, असंख्य मनुष्य चले गये; परन्तु धन आज तक किसी के साथ नहीं गया। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२१३ हे मनुष्य ! तू जिस धन को एकत्र कर रहा है, वह तेरा नहीं होगा । अतः तू जाग्रत होकर धन की ममता का परित्याग कर और इसका सदुपयोग कर। प्राण जाने के पश्चात् धन तेरे किसी काम नहीं आयेगा। अतः तू स्वयं को जगत् में कृपण क्यों कहलवाता है। तू अपनी अशुभ दशा का परित्याग कर ताकि लोग तुझे कृपण न कह सकें और पर-भव में तुझे सुख प्राप्त हो। ' अर्थ-जिस व्यक्ति के अन्तर में सत्य का निवास है, उसे असत्य कदापि नहीं सुहायेगा। जिसके हृदय में सत्य की ज्योति है उसे असत्य के प्रति कोई रुचि नहीं होती। सत्य-तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति सत्य को ही ग्रहण करते हैं ॥४॥ विवेचन सत्य के चाहक को असत्य के प्रति घणा होती है। सत्य का प्रकाश जिस अन्तर में होगा, वहाँ असत्य का अन्धकार भला कैसे ठहर सकता है ? सत्य-तत्त्व मनुष्य को सत्य ग्रहण करने के लिए ही प्रेरित करता है। अर्थ--श्रीमद् योगिराज श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि राह में - चलते-चलते बार-बार प्रभु का स्मरण करके हे मानव तू उनके गुण-गान • कर ले ॥५॥ . . . विवेचन–श्रीमद् आनन्दघन स्वयं बाह्य परिग्रहों का परित्याग .. करके भगवान के सद्गुणों का स्मरण करते हुए कहते हैं कि संसार के मार्ग में जो आत्म-साधक मनुष्य भगवान के सद्गुणों को स्मरण करके गाते रहते हैं वे प्रभु के मार्ग पर चले जाते हैं। अत: हे मनुष्यो ! तुम तनिक सचेत हो जाओ और भगवान का स्मरण करके उनके गुण गाते ... ' रहो। . (८) ( राग-बेलावल ) दुल्हन री ! तू बड़ी बावरो, पिया जागे तू सोवे ।। पिया चतुर हम निपट, अज्ञानी, न जाने क्या होवे ? प्रानन्दघन पिया दरस पियासे, खोल घूघट मुख जोवे ॥ १॥ नोट-यह पद अनेक प्रतियों में नहीं है। श्री कापड़िया ने इस पद के सम्बन्ध में शंका की है कि यह पद श्री प्रानन्दघनजी द्वारा रचित नहीं Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २१४ है । यह पद शंकास्पद है क्योंकि इसकी भाषा एवं शैली श्री श्रानन्दघनजी की शैली से सर्वथा भिन्न है । अर्थ – हे दुल्हन ! हे नई नवेली नारी ! हे चतुर्थ गुणस्थान में प्राप्त श्रद्धा सम्यक्त्वी प्रात्मा ! तू अत्यन्त ही बावरी है क्योंकि तू जानती है कि पति बड़ी कठिनाई से मिलेगा, फिर भी तू सो रही है और तेरा पति जग रहा है। पति विभाव दशा में है। दुल्हन ने उत्तर दिया कि मेरा प्रियतम अत्यन्त ही चतुर है और मैं पूर्णतः अज्ञानी हूँ। मैं तो कुछ भी नहीं जानती सर्वथा अनभिज्ञ हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए ? आनन्दघन जी कहते हैं कि दुल्हन अपने प्रियतम के दर्शन की प्यासी है। वह तो लज्जा - मर्यादा त्याग कर घूँघट हटाकर प्रियतम का मुँह देखने लग गई और आशा करने लगी कि अब ये प्रियतम मेरी ओर निहारेंगे । ( विभावदशा छोड़कर स्वभाव दशा में आयेंगे ) ॥ १ ॥ " विवेचन - प्रात्मा चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व प्राप्त करता 1 केवलज्ञान की दृष्टि तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होती है । अनुभव, कहता है कि हे दुर्लभ केवलज्ञान दृष्टि ! तू क्यों सो रही है ? तेरे स्वामी चतुर्थ गुणस्थान में जग रहे हैं । जब तक आत्मा तेरहवें गुणस्थान में प्रविष्ट न हो, तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होता । जहाँ चतुर्थ गुणस्थान में श्रात्मा होता है, वहाँ केवलज्ञानावरणीय कर्म के उदय से केवलज्ञान दृष्टि प्राच्छादित होती है । अतः आत्म-स्वामी के जाग्रत रहने पर भी वह नींद में प्रतीत होती है । अनुभव उसे सीख देने तु कह रहा है कि तू क्यों सो रही है ? तब वह उत्तर देती है कि मेरा स्वामी आत्मा तीन भुवन का स्वामी है, परन्तु मैं तो केवलज्ञानावरणीय कर्म के उदय से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ । मुझ पर इतने अधिक प्रावरण आ गये हैं कि मैं चतुर्थगुणस्थान में स्थित अपने आत्म-स्वामी को पहचान भी नहीं सकती । चौथे गुणस्थान में मेरी दृष्टि ही नहीं खुलती । मैं नहीं जानती कि क्या होगा ? मेरे स्वामी के बिना मुझे कुछ भी प्रिय नहीं है । इस पर केवल दृष्टि रूपी नारी आत्मस्वामी में अत्यन्त लीन हो गई और अपने शुद्ध चेतन का स्वरूप निहारने के लिए तत्पर हुई । जब आत्मस्वामी बारहवें गुणस्थान पर पहुँचे तब स्वामी के दर्शन की प्यास बुझाने के लिए केवलज्ञानावरणीय कर्म रूपी घूँघट दूर करके उनका रूप देखने लगी । वह अपने स्वामी को मिलने के लिए तत्पर हुई, परन्तु आत्मस्वामी गुणस्थान रूपी भूमिका का उल्लंघन करके तेरहवें गुणस्थान Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - २१५ 1 रूपी गृह में प्रवेश करें तो वह तुरन्त स्वामी को मिल सकती है । सती एवं कुलीन स्त्री मर्यादा का परित्याग करके परिभ्रमण नहीं करती । केवलज्ञान दृष्टि सती नारी है । वह आत्मा के असंख्यात प्रदेश रूपी घर में रहती है । वह स्वयं पर कर्म के अनेक आवरण आने पर भी अपने आत्मस्वामी को छोड़कर अन्य की नहीं बनती । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि वह केवलज्ञान -दृष्टि कर्म रूपी घूँघट खोलकर उन्हें निहारती है । (ε) (राग - गौड़ी श्रासावरी ) आज सुहागन नारी अवधू | मेरे नाथ आप सुध लीनी, कीनी निज अंग चारी ॥ श्रवधू० ।। १ ।। प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे झीनी सारी । महिंदी भक्त रंग की राची, भाव अंजन सुखकारो || ० ।। २ ।। अवधू ० सहज सुभाव चूरियाँ पहेनी, थिरता कंगन भारो । ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुन माल आधारी ॥ अवधू० ।। ३ ।। सुरत सिन्दूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी । उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, प्रारसी केवलकारी ॥ अवधू० ।। ४ ।। उपजी धुनी अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी । झड़ी सदा श्रानन्दघन बरखत, बन मोर एक न तारी ।। श्रवधू० ।। ५ ।। नोट - भाषा-शैली आनन्दघन जी की नहीं होने के कारण यह पद शंकास्पद है । अर्थ - चेतना कहती है कि हे अवधूत आत्मन्! आपकी कृपा से आज मैं सौभाग्यवती स्त्री बनी हूँ । आज आपने मेरी सुध ली Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२१६ जिससे आपने मुझे अपनी सहचरी बनाया। ममता की संगति छोड़कर आज आपने मुझे स्वीकार कर लिया है। इससे अधिक मेरा सौभाग्य और क्या होगा ? ॥१॥ विवेचन -चेतना कहती है कि हे प्राणनाथ ! आपने मेरी सुधि ली और मुझे अपनी सहचरी बनाया, यह आपने अत्यन्त ही उत्तम कार्य किया है। आप यदि मेरी राय से चलेंगे तो क्रोध आप पर आधिपत्य नहीं जमा सकेगा। समता के प्रताप से क्रोध दूर रहता है। समता की संगति करने से कुमति का जोर नहीं चलता और ममता भी अपनी प्रबलता नहीं बना सकती। आपने यह अत्युत्तम कार्य किया है। समता की संगति से आप परम शान्ति का अनुभव कर सकेंगे। अर्थ-सौभाग्यवती चेतना ने प्रेम एवं श्रद्धा के रंग में रंगी हई रुचिकर रंग वाली बारीक साड़ी पहन ली अर्थात् पति के सद्गुणों में एकरस हो गई। भक्ति रूपी मेहंदी लगाई और भाव रूपी सुखद अञ्जन लगाया ॥२॥ विवेचन--चेतना ने प्रेम-प्रतीति रूपी बारीक साड़ी पहन ली है। आपके सद्गुणों का प्रेम ही उसकी साड़ी है। चेतना आपके प्रेम में तन्मय हो गई है। चेतना आपके शुद्ध स्वरूप में ऐसी तन्मय हो गई है कि उसे बाह्य वस्तुओं का तनिक भी भान नहीं रहा। सती नारी इस प्रकार सद्गुणों के द्वारा अपने पति का मन प्रसन्न करती है। चेतना जानती है कि भक्ति के रंग में अद्भुत शक्ति है, अतः उसने वही रंग धारण किया है। बाह्य रंगों से अज्ञानी को आकर्षित किया जा सकता है, परन्तु ज्ञानी के मन को अन्तरंग भक्ति के बिना आकर्षित नहीं किया जा सकता। चेतना के नेत्रों में भाव अञ्जन डाला है। इस कारण से उस पर प्रात्मपति का भाव सहज ही प्रकट हुआ है। अर्थ –चेतना ने सहज स्वभाव रूप (ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि) चड़ियाँ और स्थिरता रूप मूल्यवान कंगन हाथों में पहने तथा ध्यान रूप उरवशी माला प्रियतम के गुणों से पिरोई हुई गले में धारण की ।। ३ ।। विवेचन-दोनों हाथों में सहज स्वभाव रूप चड़ियाँ पहनी। चड़ियाँ स्मरण कराती हैं कि किसी भी परिस्थिति में राग एवं द्वेष रूप विभाव पक्ष में नहीं पड़ना चाहिए। जो स्त्री अपने सहज भाव में नहीं Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२१७ रहतो, वह अपने स्वामी की बदनामी कराती है। अतः अपना सहज स्वभाव छोड़कर कदापि कृत्रिम स्वभाव धारण नहीं करना चाहिए। 'प्रतिपल चड़ियों पर दृष्टि पड़ती है जिससे चेतना पौद्गलिक भाव में नहीं रंगती। उसने स्थिरता रूपी बहुमूल्य कंगन पहने हैं। मोहनीय कर्म का क्षय होने पर स्थिरता गुण प्रकट होता है। स्थिरता रूपी कंगन सूचित करते हैं कि नित्य आत्म-स्वामी की आज्ञा में स्थिर रहना चाहिए, कदापि चंचल नहीं होना चाहिए। उसने गले में ध्यान रूपी उरवशी धारण की है। ध्यान रूपी उरवशी सीने पर रहने से किसी ओर से कोई पीड़ा नहीं होती। ध्यान के कारण मोह-शत्रु का जोर नहीं चलता। ध्यान से अनेक कर्मों की निर्जरा होती है और परमात्मपद प्राप्त किया जा सकता है। ___ अर्थ-चेतना ने अनुभव ज्ञान रूपी दर्पण में प्रतिबिम्ब देखकर शुद्धोपयोग रूपी सुन्दर रंग वाला सिन्दूर मांग में भरा और पति के गुणों की तन्मयता रूपी वेणी को सजाया, जिससे हृदय में एक नूतन ज्योति का प्रकाश फैल गया ॥ ४ ॥ विवेचन अपने स्वामी के शुद्ध गुणों में रमण करने को, अपने स्वामी के साथ असंख्य प्रदेशों रूपी अंगों का आलिंगन करने को 'सुरत' कहते हैं। चेतना ने सुरत रूपी सिन्दूर मांग में लगाया है। बाह्य जगत् के खेल से निवृत्त चेतना ने विरति वेणी को सजाया है। वह जड़ पदार्थों पर रति धारण नहीं करती। ऐसी स्थिति में वह स्वामी के महल में गुणस्थान रूपी सीढ़ियों पर होकर जाने लगी, उस समय वहाँ अनुभव ज्ञान रूपी प्रकाश प्रकट हुआ जिससे हृदय में अनुभव रूपी दर्पण के द्वारा तीन लोकों के पदार्थ प्रकाशित होने लगे। . अंर्थ--इस प्रकार शृगार सजने पर हृदय में अजपा जाप की ध्वनि उत्पन्न हुई और द्वार पर अनहद नाद के विजय नगारे बजने लगे, जिससे आनन्द मेघों की झड़ी लग गई और मन-मयूर उस आनन्द में लोन हो गया ॥५॥ विवेचन -अपने स्वामी के साथ रहने से अजपा जाप की ध्वनि उत्पन्न हो गई और चेतना अपने आत्म-स्वामी 'सोऽहं'-'सोऽहं' तथा 'हंसहंस' का जाप करके स्मरण करने लगी। स्वामी का स्मरण करतेकरते विजय के नगारों की अनहद ध्वनि प्रकट होने लगी। अन्तर में आनन्द छा गया। ज्यों-ज्यों वह उनके स्वरूप में शुद्ध उपयोग से रमण Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२१८ करने लगी, त्यों-त्यों आनन्द-मेघ-वृष्टि की झड़ी लग गई। ऐसी वृष्टि होने लगी कि मयूर का शब्द भी सुनाई नहीं देता था। सर्वत्र असंख्यात प्रदेशों में नख-शिख पर्यन्त आनन्द व्याप्त हो गया। आनन्दघन स्वामी के संग से त्रिविध ताप नष्ट हो गये। कोई भी उपद्रव नहीं रहा। मन की चंचलता से उत्पन्न होने वाले अनेक प्रकार के विकार शान्त हो गये। उसके असंख्यात प्रदेश रूपी घर में ज्ञानादि अनेक गुण प्रकाश उत्पन्न करने लगे, जिससे वह सचमुच सौभाग्यशालिनी बन गई। हे अवधूत आत्मन् ! यह सब आपकी कृपा का ही सुफल है। आपकी कृपा-दृष्टि से दुःखी मनुष्य भी सत्य सुख के भोक्ता बनते हैं। श्रीमद्. आनन्दघनजी कहते हैं कि ऐसी उच्च प्रकार की सुखमय.दशा होने से आपकी ही शोभा है। ( १०) ( राग-काफी ) . ए जिनके पाय लाग रे, तूने कहिये ये केतो। पाठोइ जाम फिरे मदमातो, मोह निदरिया सुजाग रे ।। । तूने० ।। १ ।। प्रभुजो प्रोतम बिन नहीं कोई प्रीतम । प्रभुजी नी पूजा घणी मांग रे ।। तूने० ।। २ ।। भव फेरा वारी करो जिनचंदा, आनन्दघन पाय लाग रे ।। तूने० ।। ३ ।। नोट-प्रस्तुत पद की भाषा-शैली श्रीमद् प्रानन्दधनजी की भाषा-शैली से भिन्न है। अतः यह पद उनका नहीं प्रतीत होता। यह पद शंकास्पद है। यह पद 'जिनचंद' नामक किसी कवि का होना चाहिए। अर्थ-हे मन! मैंने तुझे कितना कहा कि तू श्री जिनेश्वर भगवान के चरणों में लीन हो जा। तू आठों पहर मोह-नींद में मस्त होकर फिरता है। अरे मन! अब तो तू इस मोह-नींद से जाग्रत हो ॥१॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२१६ __ विवेचन -हे मन! तू मदोन्मत्त होकर रात-दिन स्वेच्छानुसार कल्पित सुख के भ्रम में परिभ्रमण करता है। सोलह कषाय, नौ नोकषाय और तीन दर्शनमोहनीय -इस प्रकार मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृति है। यदि मन आत्मा के सम्मुख रहे तो मोहनीयकर्म की नींद का नाश होता है। अतः हे मन! तू मोह-नींद से जाग्रत हो और परमात्मा के स्वरूप में तन्मय हो जा। __. अर्थ - हे मन ! ये जिनेश्वर भगवान ही तेरे वास्तविक प्रियतम हैं। तेरा अन्य कोई प्रियतम नहीं है। अतः तू इन जिनेश्वर भगवान के चरणों की पूजा की अधिकतम याचना कर, तू उस पूजा में लीन हो जा ॥२॥ विवेचन -हे मन ! यदि तू भ्रम-वश जड़ वस्तुओं को प्रिय मानता रहा तो भी ये तेरी बनने वाली नहीं हैं । एक जिनेश्वर भगवान ही सच्चे प्रीतम हैं। अतः तु निश्चय कर ले कि जिनेश्वर भगवान के बिना अन्य कोई तेरा प्रीतम नहीं है। तू भगवान की पूजा की याचना कर। जब तू जिनेश्वर भगवान की पूजा में लीन हो जायेगा तब तू आनन्द के नशे में तर हो जायेगा। ज्ञानमय पूजा-भक्ति में लीन होने पर तू आनन्द की खुमारी का अनुभव करेगा। अर्थ - हे जिनचंद, आनन्द के समूह जिनेश्वर भगवान के चरणों में लग कर संसार के आवागमन को दूर कर ।। ३ ।। विवेचन हे मन ! भव-भ्रमण का निवारण करने वाली श्री जिनेश्वर भगवान की भाव-पूजा में तू तन्मय हो जा, मग्न हो जा। तू उन आनन्द के समूह जिनेश्वर भगवान के चरणों में शीश नवा । श्री जिनेन्द्र भगवान अठारह दोषों से रहित हैं, वे अनन्त गुणों के आगार हैं। उनका ध्यान करने से आत्मा शुद्ध बनती है, निर्मल बनती है और उनके ध्यान में लीन रहने से आत्मा परमात्मा रूप बन जाती है। (११) ( राग-सोरठ) निराधार केम मूकी, श्याम मुने निराधार केम मूकी ? कोई नहीं, हूँ कुणसु बोलू, सहू पालम्बन टूकी ।। __ श्याम० ।। १ ।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२२० प्राणनाथ तुमे दूर पधार्या, मूकी नेह निरासी। जण जणना नित्य प्रति गुण गातां, जनमारो किम जासी ?? श्याम० ।। २ ।। जेहनो पक्ष लहीने बोलू, ते मन मां सुख प्राणे । जेहनो पक्ष मूकी ने बोलू, ते जनम लगे चित्त ताणे । श्याम० ॥ ३ ॥ बात तमारी मन मां आवे, कोण आगल जई बोलू। .. ललित खलित खल जोते देखू, प्राम माल धन खोलू ।। - श्याम० ।। ४ ।। घटे घटे छो अन्तरजामी, मुज मां कां नवि देखू। जे देख ते नजर न आवे, पुणकर वस्तु विसेखू ।। .. . श्याम० ।। ५ ॥ अवधे केहनी वाटडी जोऊँ, विण अवधे अति. झूरू। आनन्दघन प्रभु वेगे पधारो, जिम मन आशा पूरूँ ।। श्याम० ।। ६ ॥ नोट-इस पद की भाषा-शैली देखने से यह भी शंकास्पद प्रतीत होता है। अर्थ चौथे गुणस्थान से च्युत चेतनराज को दु:खी चेतना कह रही है --हे नाथ ! आपने मुझे बिना सहारे के क्यों छोड़ दिया है ? कारण तो बताइये। मेरा तो अब कोई नहीं है। मैं किसके साथ दिल खोल कर बात करूँ? मेरे तो समस्त अवलम्ब दूर हो गये हैं ।। १॥ विवेचन -आत्मा प्रथम गुणस्थान से जब चौथे गुणस्थान में जाती है तब उसे सम्यक्त्वदृष्टि की प्राप्ति होती है। जब आत्मा चौथे गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में आती है तब सम्यक्त्व-दृष्टि का रूप परिवर्तित हो जाता है और वह मिथ्यादृष्टि का रूप धारण करती है। आत्मा के प्रथम गुणस्थान में जाने पर सम्यक्त्वदृष्टि का कोई आधार नहीं रहता। उस समय सम्यक्त्वदृष्टि के उद्गार भिन्न प्रकार के निकलते हैं। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२२१ चौथे गुणस्थान वाली सम्यक्त्वदृष्टि अपने स्वामी को प्रथम गुणस्थान में गये हुए देखकर दुःखी होती है और स्वामी के वियोग में करुणाजनक उद्गार व्यक्त करती है-हे स्वामिन् ! आपने मुझे निराधार क्यों छोड़ा? आपके अतिरिक्त, आपके बिना मेरा कोई नहीं है, मैं बात भी किसके साथ करूँ ? आत्मा के सम्यक्त्वदृष्टि का त्याग करने में सम्यक्त्वदृष्टि का कोई दोष नहीं है, आत्मा पर आने वाले कर्म-आवरणों का ही दोष है। सम्यक्त्वदृष्टि तो स्वामी को कदापि छोड़ना नहीं चाहती। वह उन्हें शुद्ध हृदय से मिलती है, परन्तु आत्मा द्वारा किये गये कर्मों के उदय से वह प्रथम गुणस्थान में चली जाती है। उस समय वह एकाकी रह जाती है और स्वामी के समस्त अवलम्बों से रहित हो जाती है। अर्थ - वह आगे उद्गार व्यक्त करती है कि हे प्राणनाथ ! आप तो मुझे छोड़कर दूर चले गये हो। मैं तो सर्वथा निराश हो गई हूँ। आपके विरह में नित्य प्रति प्रत्येक के गुण गाते हुए मेरा जीवन कैसे व्यतीत होगा? ॥२॥ विवेचन - हे स्वामी ! आप तो प्रथम गुणस्थान की सुदूर भूमिका में चले गये और मुझे निराश कर दिया। अब मैं क्या करूँ? इस तरह आपके बिना मैं अन्य मनुष्यों के गुण गा-गाकर अपना जीवन कैसे व्यतीत करूंगी? - अर्थ --हे स्वामिन् ! मैं अकेली पड़ी हुई जिसका पक्ष लेकर बोलती हैं, वह तो मन में प्रसन्न होता है और मैं जिसके विरोध में कहती हूँ, वह जीवन पर्यन्त मुझसे शत्रुता रखने लगता है ।। ३ ।। विवेचन -चेतन और चेतना का अभेद है। जहाँ चेतन है वहाँ चेतना है। प्रथम गुणस्थान में गये हुए चेतन के साथी मिथ्यात्व की ही वृद्धि करते हैं। अतः चेतना कहती है कि मिथ्यात्व में प्राप्त प्रत्येक मनोवृत्ति के अनुकूल बोलती हैं तो वे प्रसन्न होते हैं अर्थात मिथ्यात्व की वृद्धि होती है और यदि विरोध में कुछ कहती हूँ तो मनोवृत्तियाँ तन जाती हैं। अन्तरात्मा हुए बिना सम्यक्त्वदृष्टि नहीं रह सकती। आत्मा जब चौथे गुणस्थान से प्रथमस्थान में आती है तब सम्यक्त्वदृष्टि भी मिथ्यात्व में बदल जाती है, जिससे वह स्याद्वाद नय के बिना एकान्तवाद Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२२२ से जिस दर्शन का पक्ष लेती है, उस दर्शन वाले प्रसन्न होते हैं और जिनके दर्शन का वह खण्डन करती है, उसके अन्तर में क्लेश उत्पन्न होता है। मिथ्यादृष्टि के कारण बाह्य में वत्ति चलती है और जैसी मनोवृत्ति होती है वैसा सामने वाला पदार्थ दृष्टिगोचर होता है। अर्थ-विरहिणी चेतना कहती है कि हे स्वामिन् ! मेरे मन में तो आपके साथ रहे सम्बन्ध की ही बातें आती हैं। मैं आपकी बातें तनिक भी नहीं भूलती। आपके अभाव में आपकी बातें किसके सामने करूँ ? सुन्दर तथा पतित करने वाली मनोवृत्तियों को अपने समक्ष जब देखती हूँ तो उनके समक्ष अपना रहस्य कैसे प्रकट करू ? ।।४।। विवेचन-विरहिणी सम्यक्त्व दृष्टि कहती है कि आत्मस्वामिन् ! मैं आपका हो स्मरण करती रहती हूँ। आपके बिना मैं चेतन तत्त्व का वर्णन किसके समक्ष कर सकती हूँ ? सम्यक्त्वदृष्टि कहती है कि अन्तरात्मस्वामी से मिलाप हो, तो ही मैं समस्त धन खुला करके बता सकती हूँ। आत्मा में अनन्त गुणी ऋद्धि है, परन्तु सम्यक्त्व दृष्टि हुए . बिना वह दृष्टिगोचर नहीं होती। अर्थ हे स्वामिन ! आप तो अन्तर्यामी हैं, परन्तु मैं तो अपने में आपके दर्शन कर ही नहीं पाती। जब मैं अपने भीतर देखने लगती हँ तो आप कहीं दृष्टिगोचर ही नहीं होते। मैं तो आपको गुणमय मानती हूँ; ज्ञान, दर्शन आदि से युक्त मानती हूँ। वे गुण मुझे कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते ॥५॥ विवेचन-सम्यक्त्वदृष्टि कहती है कि जगत् में अनन्त आत्माएँ हैं। मुझमें भी अन्तर्यामी आत्मा है, परन्तु मैं उसे क्यों नहीं देखती ? अर्थात् मैं देखती हूँ परन्तु जब वह प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में गमन करता है तब मेरा उनके साथ वियोग हो जाता है। प्रात्मस्वामी के बिना बाह्य दृश्य वस्तुएँ चाहे जैसी हों, तो भी वे मेरे ध्यान में नहीं आतीं और वे मुझे पसन्द नहीं आतीं। हे आत्मस्वामिन् ! आप सबके अन्तर में निवास करते हैं, परन्तु मैं सम्पूर्णतः आपको अपने हृदय में देख नहीं सकती। आपके अतिरिक्त मैं जो-जो जड़ वस्तु देखती हूँ, वह मुझे दृष्टिगोचर नहीं होती। अर्थ- हे नाथ ! यदि आप कोई अवधि बताकर जाते तो मैं शान्ति से आपकी प्रतीक्षा करती, परन्तु आपने तो कोई अवधि नहीं बताई, अतः मैं विलाप करती हूँ। (चौथे गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में जाकर Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२२३ चौथे में आने का कोई निश्चित समय नहीं है, अत: चेतना विलाप करती है) मेरी ऐसी निराधार दशा को देखकर हे स्वामिन् ! आप शीघ्रातिशीघ्र प्रायें ताकि मैं अपने मन की आशा पूर्ण कर सकू; अर्थात् चेतन मिथ्यात्व त्याग कर सम्यक्त्वी बने और क्षपक श्रेणी चढ़कर शुद्ध-बुद्ध बने तो मेरी समस्त आशाएँ, अभिलाषाएँ पूर्ण हो ॥६।। विवेचन - सम्यक्त्व दृष्टि कहती है कि मैं कभी से आप की प्रतीक्षा कर रही हूँ कि चेतन अाज आयेंगे, कल पायेंगे और प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा में अपना जीवन व्यतीत करती हैं। आपके आगमन की अवधि के बिना तो दिन भी व्यतीत नहीं होते। मैं विरहिणो विलाप करती हूँ कि कब आपका आगमन होगा? वह विरह से दु:खी होकर कहती है कि हे आनन्द के समूहभूत चेतन ! अब आप शीघ्र आयें ताकि मैं अपनी समस्त आशाएँ पूर्ण कर सकू। सम्यक्त्वदृष्टि तथा अध्यात्मदृष्टि की प्रेमदशा और उन दोनों के उद्गार सचमुच हृदय पर प्रभाव डालते हैं। अध्यात्मदृष्टि के भी अन्तरात्म-स्वामी के विरह में वैसे ही उद्गार निकलते हैं। प्रात्मा एवं जड़ वस्तु का परोक्ष प्रमाण से भेद जानना और आत्मा को आत्मा के रूप में मानना अध्यात्मदृष्टि है। · अध्यात्मदृष्टि का प्रारम्भ-काल चौथे गुणस्थान से है और अध्यात्मंचारित्र तो गुणस्थान के अधिकार के अनुसार प्राप्त होता है। (१२) . ( राग-सूरति टोडी ) प्रभु तो सम अवर न कोई खलक में । हरि हर ब्रह्मा विगूते सो तो,मदन जीत्यो तें पलक में ।। प्रभु० ।। १ ।। ज्यों जल जग में अगन बुझावत, बड़वानल सो पीये पलक में । प्रानन्दघन प्रभु वामा रे नन्दन, तेरो हाम न होत हलक में ।। प्रभु० ॥ २ ॥ नोट-इस पद में प्रानन्दघनजी को चौबीसी की शैली भी नहीं है। प्रतः ग्रह पद उनका नहीं माना जा सकता। सम्भव है यह पद किसी अन्य जैन कवि का हो और प्रानन्दघनजी के नाम पर चढ़ गया हो। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२२४ अर्थ-इस पद में वामा-नन्दन पार्श्वनाथ प्रभु की स्तवना की गई है। हे अश्वसेन राजा एवं वामादेवी के पुत्र पार्श्वनाथ प्रभो ! इस संसार में आपकी समानता करने वाला अन्य कोई नहीं है। विष्णु, महादेव और ब्रह्मा-ये तीनों महान् कहे जाते हैं, जिन्हें भी कामदेव ने धर दबाया अर्थात् भ्रष्ट कर दिया। तात्पर्य यह है कि सरस्वती तो ब्रह्मा की पुत्री कही जाती है। उसे देखकर ब्रह्मा कामातुर हो गये, विष्णु सदा लक्ष्मी के संसर्ग में रहते हैं और महादेव भीलनी का रूप देखकर मोहित हो गये। इस प्रकार तीनों महान् देवों को कामदेव ने भ्रष्ट कर दिया। उसी कामदेव को हे प्रभो! आपने पल भर में जीत लिया ॥१॥ विवेचन --हे वामानन्दन पार्श्वनाथ प्रभो! ब्रह्मा, विष्णु, महादेव की त्रिपुटी भी काम को वश में नहीं कर सकी। वे तीनों काम की प्रबलता से दब गये। काम की गति अत्यन्त बलवान है। . काम के वेग से तपस्वी भी च्युत हो जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों को भी काम सताता रहता है। उस कामदेव को आपने पल मात्र में जीत लिया। अर्थ -संसार में जिस प्रकार जल अग्नि को बुझा देता है और अग्निशामक जल को बड़वानल क्षरण मात्र में पी जाता है, उसी प्रकार हे वामा-नन्दन ! आपने भी कामाग्नि को पी लिया है, उसका शमन कर लिया है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे वामादेवी के पुत्र पार्श्वनाथ प्रभु ! आपकी शक्ति का वर्णन कण्ठ से नहीं किया जा सकता। आपकी काम-विजय शक्ति अनिर्वचनीय है अर्थात् आपके ब्रह्मचर्य-व्रत का वर्णन वाणी से नहीं किया जा सकता ।। २ ।। विवेचन - काम बड़वानल से भी अधिक दाहक है। अग्नि अन्य पदार्थों को जला कर राख कर देती है, पर वह मन को नहीं जला सकती। कामरूपी बड़वानल तो हृदय को भी जला कर राख कर देती है। जगत् में जल अग्नि को बुझाता है। जल में अग्नि को बुझाने की शक्ति है। उस जल का पान करने वाला भी बड़वानल है। हे भगवन् ! ऐसे बड़वानल तुल्य कामरूपी बड़वानल का आपने पान किया। काम रूपी बड़वानल का पान करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। हे आनन्द के समूहभूत त्रिलोकीनाथ ! हे वामा-नन्दन पार्श्वनाथ ! आपके कण्ठ काम रूप बड़वाग्नि को पान करने की जो शक्ति है, वैसी किसी अन्य देव के गले में नहीं है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे पार्श्वनाथ ! मैं आपका ध्यान करता हूँ। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२२५ ( १३ ) ( राग-मालसिरी) वारे नाह संग मेरो यूं ही जोबन जाय । ए दिन हसन खेलन के सजनी, रोते रैन विहाय ।। वारे० ॥ १ ॥ नग भूषण से जरी जातरी, मो तन कछु न सुहाय । इक बुद्धि जोय में ऐसी पावत है, लीजै री विष खाय ।। वारे० ॥ २॥ ना सोवत है लेत. उसासन, मन ही में पिछताय । । योगिनी हुय के निकसू घर तें, आनन्दघन समजाय ॥ वारे० ॥ ३ ॥ नोट-इस पद को भाषा-शैली भी प्रानन्दघनजी की भाषा-शैली से भिन्न होने के कारण यह पद भी शंकास्पद है । अर्थ-शुद्ध चेतना अपनी सखी समता को कह रही है-हे सखी! बाल पति के साथ अर्थात् बाल भाव छद्मस्थ अवस्था वाले चेतन के साथ मेरा यह यौवन व्यर्थ ही जा रहा है। यौवन तो हँसने, खेलने और मौज करने के दिन हैं किन्तु पति छोटे होने के कारण मेरी रात्रि तो रुदन करतेकरते ही व्यतीत होती है; अर्थात् यौवन अवस्था रूप धर्म-साधनाकाल तो हँसने-खेलने रूप ज्ञान, ध्यान, तप आदि करने का समय है, किन्तु चेतन यह समय प्रमाद में व्यतीत कर रहा है। इस कष्ट से मेरी शान्ति रूप रात्रि रोते हुए विरह में व्यथित व्यतीत हो रही है ।। १ ।। विवेचन -शुद्ध चेतना अपनी सजनी समता को अपनी व्यथा सुनाते हुए कह रही है कि मेरे चेतन स्वामी क्षयोपशम भाव के चारित्र-धारक होने से तथा छद्मस्थ होने से वे अभी अन्तरात्म दशा में छोटे हैं और मैं तो तेरहवें गुणस्थान में रहने वाली क्षायिक शुद्ध चेतना अर्थात् केवलज्ञानदृष्टि हूँ। मेरे स्वामी अन्तरात्म दशा वाले क्षयोपशम भाव वाले होने के कारण वे मेरी दशा जान नहीं सकते। इस कारण मेरा यौवन अकारथ जा रहा है। मेरे तेरहवें गुणस्थान का समय अनन्त आनन्द का खेल खेलने का है और ऐसे समय आनन्द प्राप्त नहीं होने से मैं अनेक चिन्ताओं Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २२६ में अकुला रही हूँ । मेरे दिन रुदन में व्यतीत हो रहे हैं । मेरे लिए यह कितनी खेद की बात है ? मेरे बाल स्वामी मेरी व्यथा जान नहीं सकते। मेरे चेतन स्वामी छद्मस्थ होने से मेरा सम्बन्ध जान नहीं पा रहे हैं । अर्थ - क्षमा, शील, सन्तोष आदि रत्नों से जड़ित व्रत रूपी प्रभूषण चेतन स्वामी के बाल भाव में होने से मुझे अच्छे नहीं लगते । मैं उनसे जल सी रही हूँ । इस दशा के कारण तो मेरा मन हो रहा है कि मैं विष-पान कर लूँ ।। २ ॥ विवेचन - हे समता सखी! मैं आभूषणों से अलंकृत हूँ परन्तु आभूषण मुझे अच्छे नहीं लग रहे । स्वामी के बिना आभूषण पहने हुए हैं पर वे देह को सुशोभित नहीं कर रहे। अब तो यही इच्छा हो रही है कि विष पान करके मर जाऊँ ताकि मेरी समस्त वेदना मिट जाये । स्वामी के प्रेम में अत्यन्त मग्न बनी शुद्ध चेतना वियोग - जनित अपने दुःख. से तंग आकर प्रारण-नाशक मार्ग ग्रहण करना चाहती है | चेतनस्वरूप स्वामी के आनन्द-रस की प्यासी शुद्ध चेतना अपने स्वामी के सामने अपनी देह तथा प्राण का भी कोई मूल्य नहीं समझती । वह अपने स्वामी में लीन हो गई है। स्थिर उपयोग से वह अपने स्वामी का ध्यान करती है । आत्म-स्वामी की बाल्यावस्था होने से शुद्ध चेतना का कार्य नहीं हो पाता । जगत् व्यवहार में भी यदि 'छोटे कन्त बड़ी बहू' हो तो परिणाम विपरीत होता है । श्रीमद् श्रानन्दघनजी के अनुसार बाल-विवाह के निषेध का बोध प्राप्त होता है । 1 अर्थ - हे सखी! सोना भी मेरे भाग्य में नहीं है । मैं सो भी नहीं पाती । स्वामी की बाल्यावस्था से दुःखी मैं निःश्वास छोड़ती हूँ और मन ही मन पछताती रहती हूँ । स्वामी चेतनराज पर-भाव छोड़कर स्व-भाव दशा में नहीं आ रहे हैं । यह मेरे लिए भारी विपत्ति है । हे सखी समता ! तू उन चेतनराज को समझा, अन्यथा मैं योगिनी बनकर घर से निकल पड़गी, किसी काम की नहीं रहूंगी ॥ ३ ॥ विवेचन - शुद्ध चेतना कहती है कि चिन्ता के कारण मेरी नींद भी उड़ गई है । मेरे स्वामी की बाल अवस्था के कारण घातक कर्मों ने मुझे घेर लिया है । स्वामी यह भी ध्यान नहीं रखते कि घर में क्या हो रहा वे कषाय, नोकषाय आदि प्रमाद के स्थानों में खेलने के लिए दौड़ है ? Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२२७ . जाते हैं। श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि शुद्ध चेतना अत्यन्त प्रेममय है। उसके उद्गार विचारणीय हैं। वह घर से चली जाना चाहती है, योगिनी बनकर दूर जाना चाहती है। ( १४ ) . ( राग-यमन ) लागी लगन हमारी, जिनराज सुजस सुन्यो मैं ।। लागी० काहूके कहे कबहू नहीं छूटे, लोकलाज सब डारी । जैसे अमली अमल करत समें, लाग रही ज्यू खुमारी ।। जिन० ।। १ ।। जैसे योगी योग ध्यान में, सुरत टरत नहीं टारी । तैसे प्रानन्दघन अनुहारी, प्रभु के हूँ बलिहारी ॥ जिन० ।। २ ॥ ___नोट-यह प्रद भी शंकास्पद है क्योंकि इसकी भाषा-शैली भी श्रीमद् प्रानन्दघनजी की भाषा-शैली से भिन्न है । अर्थ -हे जिनेश्वर भगवान ! मैंने जब से आपका सुयश सुना है, अर्थात् आपकी विषय-कषायों पर विजय तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ्य भावना के विषय में सुना है, तब से ही मेरी लगन आपके साथ लग गई है, मेरी दृढ़ प्रीति आपसे हो गई है। ___यह लगन जो मेरी आपके साथ लग गई है वह किसी के कहने से .नहीं छट सकती। आपसे प्रीति लगाने के लिए मैंने लोक-लज्जा का परित्याग कर दिया है। जिस प्रकार अफीमची पर नशा करते समय नशे का प्रभाव बढ़ता जाता है, उसी प्रकार मेरी लगन आपके साथ बढ़ती जा रही है ।। १ ॥ विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कह रहे हैं कि हे जिनेश्वर भगवान मेरी आपके साथ लगन लग गई है। मैं आपके ज्ञानादि गुणों का अत्यन्त प्रेमी बन गया हूँ। आपकी कीर्ति सुन कर संसार के लोगों की लज्जा का परित्याग करके मैंने आपका शुद्धस्वरूप अङ्गीकार किया है। मैंने अब संसार की समस्त जड़ वस्तुओं का परित्याग कर दिया है। मैंने आपके शुद्ध गुणों को पहचान कर आपसे प्रीति जोड़ी है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २२८ यह प्रीति कदापि छूट नहीं सकती । श्रीमद् श्रानन्दघनजी ने अपने शुद्ध प्रेम का प्रभु के साथ जो सम्बन्ध बताया है और शुद्ध प्रेम के जो उद्गार प्रकट किये हैं, वे सचमुच अपूर्व हैं । हमें भी आनन्दघनजी की तरह परमात्मा के साथ प्रेम जोड़ना चाहिए । वीतराग परमात्मा के साथ प्रेम की लगन लगने पर जगत् के समस्त जीवों के साथ मैत्रीभाव प्रकट होता है । वीतराग परमात्मा के साथ प्रेम होने से जगत् के जीवों का श्रेय हो जाता है । अर्थ - जिस प्रकार ध्यानस्थ योगी की स्मरण में लगी तन्मयता दूर करने पर भी दूर नहीं होती; उसी प्रकार श्री जिनेश्वरदेव में लगी हुई मेरी लगन अफीमची तथा योगी की तन्मयता का अनुकरण करने वाली है । आनन्द की वृष्टि करने वाले जिस प्रभु से मेरी लगन लगी है उस प्रभु की मैं बार-बार बलिहारी जाता हूँ। मैं उन पर श्रात्मोत्सर्ग करके उनके अनुरूप बनना चाहता हूँ ।। २ ।। विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि जिस प्रकार योगी योग के सातवें अंग रूप ध्यान में प्रवेश करता है और उस समय वह इष्ट लक्ष्य में सुरता धारण करता है तथा अनेक विक्षेपों का निवारण करता है । योगी पद्मासन लगा कर कुम्भक आदि प्राणायाम के द्वारा प्राण एवं चित्त की शुद्धि करता है और इष्ट ध्येय के लिए एकाग्रतापूर्वक ध्यान करता है, वह मेरुपर्वत की तरह ध्यान में स्थिर रहता है और ध्यान में से समाधि में प्रवेश करके सहजानन्द का अनुभव करता है; उसी प्रकार से जिसकी भगवान के साथ सुरता की लगन लगी है, उसकी मैं बलिहारी जाता हूँ । श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं मेरी भी भगवान से ऐसी ही लगन लगी है । इन्द्र, देवता, मनुष्य एवं तिर्यंच आदि चाहे जैसे उपसर्ग करें तो. भी प्रभु के साथ लगी हुई मेरी लगन छूटने वाली नहीं है । परमात्मा के सम्बन्ध में स्थिर होने से आत्मा परमात्मा बनता है । वीतराग परमात्मा के अनन्त सुख का अनुभव होने पर वीतराग परमात्मा के प्रति शुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है । ( १५ ) ( राग - धनाश्री ) चरी मेरो नाहेरो प्रतिवारो, मैं ले जोबन कुमति पिता बेंभना अपराधी, नउवा है कित जाऊँ । बजमारो ॥ श्ररी० ॥ १ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२२६ भलो जानि के सगाई कीनी, कौन पाप उपजारो । कहा कहिये इन घर के कुटुम्ब ते, जिन मेरो काम बिगारो ।। अरी० ॥ २ ॥ नोट-प्रस्तुत पद में कहीं भी प्रानन्दघनजी का नाम नहीं है। भाषा तथा शैली भी भिन्न है। अतः पद शंकास्पद है। अर्थ –शुद्ध चेतना कह रही है कि हे सखी समता! मेरा पति तो अत्यन्त ही छोटा है अर्थात् प्रथम गुणस्थान में ही है। मैं अपनी यह युवावस्था (धर्मसाधन का समय ) लेकर कहाँ जाऊँ ? मेरे पिताजी (सम्यक्त्व) की बुद्धि पर तो पर्दा पड़ गया। सम्बन्ध कराने वाला वह पुरोहित ही अपराधी है। उस नाई के सिर पर वज्र गिरो जिसने यह सम्बन्ध जुड़ाया है अर्थात् सम्यक्त्व से च्युत करने वाले विचार तथा शुभ अध्यवसायों से दूर हटाने वाली वृत्तियों पर वज्र गिरो जिन्होंने मेरा सम्बन्ध अशुद्ध चेतन से कराया है ॥१॥ विवेचन -श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी महाराज ने इसका अर्थ बताया है कि अन्तर्मुख वृत्ति नामक चेतन की स्त्री अपनी चेतना सखी को ' कहती है कि हे सखी ! मेरे दुःख का अन्त किसी प्रकार नहीं आ सकता। मेरा स्वामी मुझसे मिलने आने में विलम्ब करने वाला है, तो मैं अपना . यौवन लेकर कहाँ जाऊँ ? कुमति का पिता मोह कुबुद्धि देने वाला है और मेरे प्राणनाथ को भ्रमित करने वाला होने से वह अपराधी है। कुमति का पिता मोह दुष्ट बुद्धि से मेरे चेतन को मुझसे दूर रखकर मेरा जीवन निष्फल. कर रहा है जिससे मेरा जीवन अच्छी तरह जाये यह प्रतीत नहीं होता क्योंकि मेरी युवावस्था पति के समागम के लिए अर्थ -मेरे पिता सम्यक्त्व और माता श्रद्धा ने तो चेतन को भला व्यक्ति (अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र का धनी) समझ कर ही सम्बन्ध किया था किन्तु अब यह कौनसा पाप उदय में आया है ? अशुद्ध चेतन के परिवार वाले लोगों (कषाय आदि) को क्या कहा जाये, क्या उपालम्भ दिया जाये ? इन्होंने तो मेरा समस्त कार्य बिगाड़ दिया है अर्थात् मुझे चेतन से मिलने ही नहीं दिया जाता। मैं चेतन को अपनी ओर खींचती हूँ, शुद्धता की ओर (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप की ओर) लाना चाहती हूँ किन्तु ये दुष्ट परिवारजन (कषाय आदि) चेतन को छोड़ते ही नहीं हैं । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३० मैं इस दुःख से व्यथित हूँ। चेतन को शुद्ध, बुद्ध बनाने वाले क्षमता रूप यौवन को लेकर मैं कहाँ जाऊँ ? ।। २ ।। विवेचन--श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी महाराज ने व्याख्या करते हुए बताया है कि हे चेतना सखी! सम्यक्त्व पिता तथा श्रद्धा माता ने चेतन के साथ मेरा सम्बन्ध किया, परन्तु न जाने कौनसा पाप उदय में आया कि जिसके कारण मेरा और पति का सम्बन्ध हो ही नहीं पाता। सखी ! मोह एवं मोह के परिवार को क्या कहें ? मोह के परिवार का स्वभाव ही ऐसा है कि वह मेरे साथ आत्मा का सम्बन्ध होने ही नहीं देता। आत्मा के साथ रमणता करना ही मेरा इष्ट कार्य है, उससे मोह के परिवार ने बिगाड़ दिया है, अतः अब उसे क्या कहें ? मोह के परिवार को कितनी ही बार धिक्कारा जाये तो भी उस पर कोई प्रभाव होने वाला नहीं है, अतः उसे उपालम्भ देना भी व्यर्थ है, क्योंकि दुष्ट मोह का परिवार अपना दुष्ट स्वभाव कदापि छोड़ने वाला नहीं है। क्षयोपशम की अन्तर्मुखवृत्ति का उपर्युक्त विवेचन अन्तर में अनुभव करने योग्य, है। अन्तमुखवृत्ति को आत्मा के साथ मिलाप करने में विघ्न डालने वाला कुमति का पिता मोह और उसका समस्त परिवार है। मनुष्य मोह-वश अन्तर्मुखवृत्ति प्राप्त नहीं कर सकते। अन्तर्मुखवृत्ति से योगी समाधि के सत्य सुख का उपभोग करके स्वकीय जन्म सफल कर सकते हैं। अन्तर्वृत्ति प्राप्त करने में मोह का परिवार विघ्न डालता है। काम, क्रोध, लोभ, माया, मत्सर, अहंकार, हास्य, भय, शोक, निन्दा एवं कलह आदि मोह के योद्धाओं को जीते बिना अन्तर्वत्ति के प्रदेश में गमन नहीं किया जा सकता। इस पद का सारांश यह है कि बाह्यवृत्ति का परित्याग करके अन्तर्वत्ति का आदर करना चाहिए। अन्तर्वत्ति की प्राप्ति के लिए सद्गुरु के द्वारा प्रयत्नशील होना ही मनुष्यों का मुख्य कर्त्तव्य है। (राग-प्रासावरी) मनु प्यारा मनु प्यारा रिखभदेव प्रभु प्यारा । प्रथम तीर्थंकर प्रथम नरेसर, प्रथम यतिव्रत धारा । रिखभ० ।। १॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२३१ नाभिराया मरुदेवी को नंदन, जुगला धर्म निवारा । रिखभ० ।। २ ॥ केवल लही मुगते पोहोता, आवागमन निवारा । रिखभ० ॥ ३ ॥ प्रानन्दघन प्रभु इतनी विनती, आ भव पार उतारा । रिखभ० ॥ ४॥ टिप्पणी-श्री ऋषभदेव को यह स्तुति भाषा-शैली की भिन्नता के कारण शंकास्पद है। . अर्थ –मेरे मन को भगवान श्री ऋषभदेव अत्यन्त ही प्रिय लगते हैं। वे श्री ऋषभदेव भगवान सबसे प्रथम होने वाले प्रथम तीर्थंकर, सबसे प्रथम होने वाले नरेश हैं और उन्होंने ही सर्वप्रथम साधु-व्रतधारण किया है, स्वीकार किया है ।। १ ॥ विवेचन -श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान. मेरे मन में अत्यन्त प्रिय लगते हैं। अन्य योगी भी आदिनाथ के नाम से श्री ऋषभदेव भगवान की आराधना करते हैं । वे ही प्रथम तीर्थंकर एवं प्रथम नरेश्वर की पदवी के धारक हैं। इस अवसपिणी काल में सर्वप्रथम उन्होंने ही यतिव्रत धारण किया था। अर्थ ---वे श्री ऋषभदेव भगवान महाराजा नाभिराय एवं मरुदेवी के पुत्र हैं। उन्होंने ही युगल रूप में उत्पन्न होने के नियम का निवारण किया है ॥२॥ विवेचन-वे श्री नाभिनप के पुत्र और मरुदेवी माता के नन्दन हैं। . वे ही युगलियों का धर्म निवारण करने वाले हैं। अर्थात् उन्होंने पुत्र पुत्री के साथ उत्पन्न होने के नियम का निवारण किया । अर्थ-भगवान ऋषभदेव ने साधु-व्रतों का पालन करके केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त की और संसार में जन्म-मृत्यु का क्रम निवारण किया ॥ ३ ॥ ... विवेचन-श्री ऋषभदेव भगवान ने घर-परिवार का परित्याग करके महाव्रत धारण के रूप में दीक्षा अंगीकार की, साधु-वेष में अनेक Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३२ वर्षों तक आत्म-ध्यान किया और पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान प्राप्त करके अन्त में केवलज्ञान प्राप्त किया तथा मुक्तिपद को प्राप्त किया। इस प्रकार उन्होंने अपना आवागमन निवारण किया। वे दस हजार मुनिवरों के साथ अष्टापद पर्वत पर देह का त्याग करके मुक्त हुए अर्थात् गमनागमन के भ्रमण से रहित हो गये । अर्थ-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी प्रार्थना करते हैं कि हे . ऋषभदेव भगवान ! मेरी इतनी ही विनती है कि मुझे इस संसार से पार उतार दो। मुझे भी आप जन्म-मरण के फेरे से मुक्ति दिला दो ।। ४ ।। विवेचन–श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे श्री ऋषभदेव भगवान ! मुझे भी आप भव-सागर से पार उतार दो।. तात्पर्य यह है कि आपके ज्ञानादि सद्गुणों का ध्यान करके संसार-समुद्र का पार पाया जा सकता है। हे प्रभो! मैं आपकी स्तुति करके भव-सागर तरूगा। (१७) (राग-केरबा) प्रभ भज ले मेरा दिल राजी रे ।। प्रभ० ।। आठ पहर की साठज घड़ियाँ, दो घड़ियाँ जिन साजी रे। प्रभु० ॥ १ ॥ दान-पुण्य कछु धर्म कर ले, मोह-माया . त्याजी रे। प्रभु० ॥ २ ॥ आनन्दघन कहे समझ-समझ ले, आखर खोवेगा बाजी रे । प्रभु० ॥ ३ ॥ विशेष -यह पद भी भाषा-शैली से शंकास्पद ज्ञात होता है कि यह योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी द्वारा रचित नहीं है। अर्थ-हे चेतन ! हे मेरे मन ! तू जिनेश्वर भगवान का स्मरण कर, इससे मुझे प्रसन्नता होगी। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२३३ दिन-रात के आठ प्रहर होते हैं और आठ प्रहर में २४-२४ मिनट की साठ घड़ियाँ होती हैं। इन साठ घड़ियों में से कम-से-कम दो घड़ी (एक मुहूर्त) तो तू श्री जिनेश्वर भगवान की भक्ति में लगा ।। १ ।। विवेचन - श्रीमद् आनन्दघनजी भव्य जीव को उपदेश देते हुए कहते हैं कि हे भव्य जीव ! तू सांसारिक प्रपंचों में प्रवृत्त होकर रागद्वेष में क्यों अन्धा होता है ? तू श्री वीतराग प्रभु का स्मरण कर । तू यदि वीतराग प्रभु का स्मरण करेगा तो मेरा मन प्रसन्न होगा। तू आठ प्रहर. की साठ घड़ियों में से दो घड़ी सामायिक करेगा तो तुझे अत्यन्त लाभ होगा। उससे राग-द्वेष की परिणति मन्द पड़ेगी। अतः हे भव्य जोव ! तू भगवान का स्मरण कर । __ अर्थ - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि अरे चेतन ! मोह-माया को छोड़कर संसार के भ्रम-जाल को छोड़कर कुछ दान-पुण्य और आत्म-शुद्धि के लिए धर्म-कार्य कर ले ॥२॥ विवेचन--श्रीमद् कहते हैं कि हे भव्य जीव ! दान-पुण्य आदि जो तुझसे हो सकता है वह व्यवहार धर्म कर ले। दान देने से उच्च गति की प्राप्ति होती है। समस्त धर्मों में दान का महत्त्व है। पुण्यानुबन्धी पुण्य के हेतुओं का सेवन करके मुक्ति की ओर दृष्टि रख । मोहमाया का परित्याग करके हे भव्य जीव ! आत्मा में रमणता हो उस प्रकार प्रवृत्ति कर। मोह-माया का परित्याग करके भागवती दीक्षा अंगीकार करके पंचमहाव्रत धारण कर । अर्थ-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे चेतन ! तू अच्छी तरह सोच-विचार कर ले। यदि तूने दान-पुण्य और धर्म नहीं किया तो अन्त में तू मानव-भव की बाजी खो बैठेगा। तेरा मनुष्य-जन्म व्यर्थ चला जायेगा। विवेचन–श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे भव्य जीव ! तू इतनी बात में सब कुछ समझ ले। यदि तू नहीं समझा तो अन्त में मनुष्य-भव की बाजी खो देगा। मनुष्य-भव अमूल्य है अतः हे मानव तू चेत । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३४ (१८) (राग-मारू) ब्रजनाथ से सुनाथ बिन हाथों हाथ बिकायो। बीच को कोउ जन कृपाल, सरन नजरि नायो । टेक ।। .. जननी कहुं जनक कहुं, सुत सुता कहायो। भाई कहुँ भगिनी कहुं, मित्र शत्रु भायो ।। ब्रज० ।। १ ।। रमणी कहुँ रमण कहुँ, राउ रज तुलायो। . .. सेवक पति इन्द चन्द, कीट भृग गायो ।। ब्रज० ।। २ ।। कामी कहँ नामो कहुँ, रोग भोग मायो। निसपति धरी देह गेह विविध विधि धरायो ।। ब्रज० ।। ३ ।। विधि निषेध नाटक धरि, भेष ठाट छायो। भाषा षट् वेद चारि, सांग सुध पठायो ।। ब्रज० ।। ४ ।। तुम्ह से गजराज पाइ, गर्दभ चढ़ि धायो। . पायस सुगृह को विसारि, भीख नाज खायो ।। ब्रज० ।। ५ ।। लीला मुंह टुक नचाइ, कही जु दास प्रायो। रोम-रोम पुलकित हूँ, परम लाभ पायो ।। ब्रज० ।। ६ ।। अर्थ-श्रीमद् अानन्दघन जी महाराज वीतराग परमात्मा को कृष्ण कहकर उनकी स्तुति करते हैं। कदाचित् वे ब्रज में गये हों उस समय कृष्ण रूप में सापेक्ष दृष्टि से वर्णन किया प्रतीत होता है। ब्रज अर्थात् समूह, आत्मा का असंख्य प्रदेश रूप ब्रज देश जाने और परमात्मा, उसके नाथ होने के कारण ब्रजनाथ कहलाते हैं। श्रीमद् आनन्दघन जी हृदय में से भक्ति की मियाँ बाहर निकालते हैं। भगवान की भक्ति से सब प्रकार के पाप नष्ट होते हैं। भगवान की सेवा के बिना अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमरण करना पड़ा। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य एवं अनन्त सुख के नाथ के बिना, उनकी भक्ति एवं ध्यान के बिना चेतन जगत् में कन्दमूल आदि अवतारों में हाथों हाथ बिका। गौ आदि पशुओं के तथा दासों के अवतारों में अनेक बार बिका। परमात्मा के Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२३५ अतिरिक्त जगत् में कोई शरण नहीं है। अत: हे प्रभो ! अब मैं आपकी शरण में आया हूँ ॥१॥ अनेक बार जननी के अवतार हुए तथा अनेक बार पिता के रूप में अवतार पाया, अनेक बार पुत्रों का अवतार धारण किया, अनेक बार पुत्रियों के अवतार धारण किये, अनेक बार अनेक जीवों के भ्राता के रूप में जन्म लिया और अनेक बार बहन के रूप में सम्बन्ध धारण किया और अनेकबार अनेक जीवों के मित्र तथा शत्रु के रूप में सम्बन्ध धारण करना पड़ा ।। २ ।। हे भगवन् ! अनेकबार अनेक जीवों के साथ पत्नी के रूप में सम्बन्ध धारण करना पड़ा। कर्म-योग से अनेक प्रकार के अवतार लेने पड़े। कभी राजा बना और कई बार रज (मिट्टी) तुल्य गिना गया। देवताओं के स्वामी इन्द्र एवं चन्द्रमा आदि के अवतार भी धारण करने पड़े और अनेकबार कीट एवं भृग के अवतार धारण करने पड़े ।। ३ ।। जगत् में स्त्री-वेद, पुरुष-वेद और नपुसक-वेद के कारण कामी की अवस्था धारण की। हे प्रभु ! अनेक प्रकार के नाम धारण किये। क्या-क्या नाम गिनाऊँ ? मैंने. अनेक प्रकार के रोग सहन किये तथा अनेक भोगों का उपभोग 'किया, परन्तु तनिक भी शान्ति प्राप्त नहीं हुई ।। ४ ।। - हे भगवन् ! विधि तथा निषेध के नाटक धारण करके आठ प्रकार के भेष से छाया रहा। छह प्रकार की भाषा, चार वेद और उसके अंगों का शुद्ध पाठ पढ़ा, परन्तु हे भगवन् ! अात्मा में उतरे बिना और यथाविधि सेवा-भक्तिपूर्वक उसकी आराधना किये बिना मेरा कोई ठिकाना नहीं बन पड़ा ।। ५॥ हे परमात्मा ! आपके समान गजराज को प्राप्त करके भी मोह रूपी गर्दभ पर सवार होकर संसार-मार्ग में दौड़ा। अपने असंख्यात प्रदेश रूपी घर के आनन्द रूपी पायस भोजन का त्याग करके पुद्गलरूपी जठे अन्न की मैंने भिक्षा मांगी और उसे खाया ॥ ६ ॥ हे भगवन् ! संसार की लीला भूमि में नाच कर अब तो यह दास आपकी शरण में आया है। आपकी शरण प्राप्त करके मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया है और आपके दर्शन से मैं परम लाभान्वित हुया हूँ। भगवान वीतरागदेव की शरण में आने से कर्म का सम्बन्ध तनिक भी Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२३६ नहीं रहता। परमात्मा का शरण सचमुच समस्त प्रकार के गुणों को प्रकट करता है। अहंत्व एवं ममत्व की भावना लय करके परमात्मा के स्वरूप में लीन हो जाना ही परमात्मा का शरण लेना कहा जाता है ।। ७ ॥ अरे! आप स्वयं को पतितोद्धारक कहते हैं सो क्या नशा पीकर कहते हैं ? आज तक आप मेरे जैसे पापी का उद्धार किये बिना पतितोद्धारक ऐसा विरुद कैसे धारण कर सकते हैं ? मेरे जैसे कर, कुटिल और कामी का आप उद्धार करें तो मैं आपका पतितोद्धारक विरुद सत्य मान सकू ।।८।। आपने हे भगवन ! अनेक पापियों का उद्धार किया और करनी के बिना कर्ता कहलाये; परन्तु मैं आपको पूछता हूँ कि एक का तो नाम बतायो। कारण के बिना कर्ता होने से आपको मैं असत्य विरुद को धारण करने वाला क्यों न मानू ? ये वचन प्रेम-भक्ति के आवेश के हैं ।। ६॥ धर्म-करनी करके अनेक मनुष्य .भव-सागर. तर गये जिसके लिए शास्त्र साक्षी हैं। वे सब धर्म-करनी करके तर गये मौर आपको शोभा देकर आपकी पत रखी, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है ।। १० ।। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि अत्यन्त पाप रूप अपराध करने वाला मैं अज्ञानी आपका दास हूँ। यदि आप हृदय में मेरी लज्जा रखकर मुझे सुधारेंगे और पार लगायेंगे तो मैं आपकी उद्धारकता मानूगा। परमात्मा हृदयरहित है। मन, वाणी एवं काया से रहित सिद्ध परमात्मा है, परन्तु भक्त भक्ति के आवेशं में उपर्युक्त वचन कहता है ॥ ११ ॥ आप कहेंगे तू अन्य का उपासक है, अतः मैं तेरा उद्धार कैसे कर सकता हूँ ? आप ऐसा द्वैत-भाव न रखें। उपास्य और उपासक दो का भेद है, ऐसा विचार आपके लिए करना उचित नहीं प्रतीत होता। परमात्मा को दुविधा नहीं होती है, परन्तु भक्त भक्ति के प्रेमावेश में पाकर भगवान को इस प्रकार कहता है। राग-द्वेष का पूर्णतः क्षय होने से परमात्मा में कोई दुविधा नहीं है। भक्ति के उल्लास में और प्रेम.से गद्गद भक्त जो कहता है, उसमें भक्तिरस की मुख्यता, हृदय की शुद्धता और भक्तिजन्य नम्रता देखने की आवश्यकता है। भक्ति-रस में तन्मय बना भक्त परमात्मा के साथ एकता का अनुभव करता है ।। १२ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली- २३७ भक्ति की धुन में रसिक बना भक्त एक छोटे बच्चे की तरह भगवान को पिता तुल्य मानकर जो वचन कहता है उस समय वह जगत् के साथ का द्वैतभाव भूल जाता है । उसका अन्तर भक्ति रस से श्रानन्दमय हो जाता है, वह भक्ति योग की समाधि का अनुभव करता है । हे नाथ ! जो बात गई, सो गई । अब आप पुनः ऐसा न करें। आप अपने सेवक का उद्धार करने में तनिक भी विलम्ब न करें । सेवक का उद्धार करना आपका परम कर्त्तव्य है । मैं आपके भक्ति रूपी द्वार पर आप मुझे अपना बना लें । अब तो आप केवल यह कहें कि तू मेरा है । बस, फिर मुझ सेवक के आनन्द का पार नहीं रहेगा ।। १३ ।। हे भगवन् ! अब तो अपने दास को प्राप सुधार लीजिये । मैं आपको बार बार क्या कहूँ ? हे आनन्द के घनभूत परमात्मा ! आप अपने 'हरि' नाम की रीति का निर्वाह करें। इस प्रकार श्रीमद् आनन्दघनजी ने श्रीकृष्णरूप वीतरागदेव को निवेदन किया । यहाँ राग-द्वेष का क्षय करके क्षायिक भाव से सिद्ध बने परमात्मा को कृष्ण कहकर उनकी स्तुति की गई है । केवलज्ञान में लोकालोक का आभास होता है । अतः केवलज्ञान की अपेक्षा सिद्ध भगवान विष्णु कहलाते हैं । किसी भी नाम से वीतराग जिनेश्वर की स्तुति की जाये तो कर्म का क्षय होता है । ऐसा श्री बुद्धिसागरजी का मत है । १४ ॥ ( ( १६ ) राग - श्रासावरी ) अवधू राम नाम जग गावे, बिरला अलख लखावे ।। • मतवाला तो मत में माता, मठवाला मठ राता । जटा जटाधर पटा पटाधर, छता छताधर ताता ।। अवधू० ।। १ ।। श्रागम पढि प्रागमधर थाके, मायाधारी छाके । दुनियाधार दुनी सो लागे, दासा सब श्रासा के || प्रवधू ० ।। २ ।। फंद रेता । प्राणी तेता || अवधू० ।। ३ ।। बहिरात मूढा जग जेता, माया के घट अन्तर परमातम भावे, दुरलभ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २३८ खगपद गगन मीन पद जल में, जो खोजे सो बोरा । चित 'पंकज' खोजे सो चीन्हे, रमता अन्तर भौंरा || श्रवधू ० ।। ४ ।। विशेष - यह पद श्रीमद् श्रानन्दघनजी का न होकर 'पंकज' नामक कवि का है। अर्थ - हे अवधूत आत्मन् ! जगत् राम-राम गा रहा है । अनेक व्यक्ति तो 'राम-राम' बोलकर माला गिनते हैं, परन्तु कोई बिरला ही राम का अलक्ष्य स्वरूप समझ सकता है। रामानुज, गोस्वामी, कबीरपन्थी, दादूपंथी, नानकपन्थी यदि मत वाले अपने मत में प्रसन्न हो रहे हैं । मठों में निवास करने वाले शंकर, गिरि, भारती, पुरी, सरस्वती गेरी मठ, गोवर्धन मठ, ज्योतिर्मठ, तथा शारदा मठ आदि मठों में मस्त हैं । वे अपने मठों का महत्त्व एवं मठों की क्रियाएँ करने में ही प्रसन्न । जटाधारी मतों के बाबा अपने पक्ष में प्रसन्न हैं । लकड़ी के पट्टे.. एवं चीमटे आदि धारण करने वाले अपने मत में प्रसन्न हैं और वे अपने मतों की स्थापना हेतु अनेक युक्ति कर रहे हैं । छत्र, धारण करने वाले छत्रपति राजा अपने-अपने मत में प्रसन्न हैं । अपनी बात पर दृढ़ रहकर अन्याय करते हैं । अधिकारी कैसे बन सकते हैं ? ।। १ ।। I वे अपनी सत्ता के बल पर वे भला राम को पहचानने आगमों का अध्ययन करने वाले अनेक प्रागमधर थक गये परन्तु आगम पढ़कर वे भी राग-द्वेष की मन्दता नहीं कर सके । वे गच्छों के भेद के कारण खण्डन- मण्डन में पड़कर आगमों के बताये मार्ग पर चल नहीं सके । शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति करना ही आगमों की शिक्षा है । माया को धारण करने वाले माया में छक गये हैं । जगत् के समस्त जीव माया देवी के वश में हो गये हैं । बाजीगर की तरह माया समस्त जीवों को नाच नचा रही है । जगत् मोह के वश में पड़कर अपने लक्ष्य आत्म-स्वरूप की ओर ध्यान नहीं देता । समस्त मनुष्य आशा दासी के वश में हैं । कोई विरले मनुष्य ही आत्मा के स्वरूप को पहचानने के लिए ध्यान दे रहे हैं ।। २ ।। बाह्य वस्तुओं में आत्मत्व भाव रखने वाले जगत् में जितने मूढ़ मनुष्य हैं, वे सब माया के फन्दे में हैं । मूढ़ मनुष्य मायां में ही सुख मानते हैं । वे लोभ के वश में होकर देव, गुरु, धर्म से भी दूर रहते हैं । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२३६ अपने हृदय में आत्मा रूप चिदानन्द परमात्मा बिराज रहे हैं। प्रात्मतत्त्व का ज्ञान करने से सत्य तत्त्व का अवबोध होता है। अपने हृदय में आत्मा को पहचान कर उसकी भावना करने वाले मनुष्य जगत् में दुर्लभ हैं। हमें आत्म-तत्त्वज्ञानी सत्पुरुषों की संगति करनी चाहिए। सद्गुरु के साथ दीर्घकाल तक रहना चाहिए ताकि अभिनव ज्ञान की प्राप्ति हो सके। आत्मा के ज्ञानादि गुणों को विकसित करने से आत्मा परमात्मा बनती है, परन्तु कोई विरले मनुष्य ही प्रात्म-तत्त्व की भावना करते हैं ।। ३ ।। पक्षियों का आकाश में किस प्रकार पदन्यास होता है तथा जल में मछलियों का किस प्रकार पदन्यास होता है। तत्सम्बन्धी शोक करने वाला मूर्ख गिना जाता है और उस प्रकार की जड़ वस्तुओं में जो सुख को खोजता है, वह भी मूर्ख है। जिस प्रकार आकाश में पक्षियों के पद-चिह्न तथा जल में मछलियों के पद-चिह्न खोजने से कोई फल प्राप्त होने वाला नहीं है, उसी प्रकार पर-वस्तु जो क्षणिक हैं, उनमें आत्मत्वबुद्धि को धारण करने वाला मूर्ख है। आत्मा का ज्ञान करने से मनुष्य जन्म की सफलता होती है। समस्त ज्ञानों में आत्मा का ज्ञान श्रेष्ठ है, समस्त वस्तुओं के धर्मों में आत्म-धर्म श्रेष्ठ है। श्रीमद् अध्यात्म तत्त्ववेत्ता आनन्दघन जी कहते हैं कि जो प्रात्म-तत्त्व के जिज्ञासु भव्य सूक्ष्म दृष्टिधारक हृदय-कमल में सत्, चित्त और आनन्दमय आत्म-भ्रमर को खोजते हैं वे पूर्ण आनन्द प्राप्त करते हैं। अतः हृदय-कमल में आत्मा का ध्यान करो। आनन्द का घन आत्मा ही राम है और वह समता रूपी सीता के साथ रहता है, ऐसे प्रात्मा रूप राम का स्याद्वाद रूप से जो ध्यान करता है वह परमात्म-पद को प्राप्त करता है ।। ४ ।। .. . ( २० ) ( राग-सोरठ मुलतानी ) साइडां दिल लगा बंसी वारे सु, प्राण पियारे सु। मोर मुकुट मकराकृत कुडल, पीताम्बर पटवारे सु ।। साइ० ।। १ ।। चंद्र चकोर भये प्रान पपइया, नागरि नंद दुलारे सु। इन सखा के गुण गंध्रप गावै, प्रानन्दघन उजियारे सु ॥ साइ० ।। २ ।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २४० टिप्पणी- जैन महात्मा के लिए श्रीकृष्ण का उपासक होना सम्भव है । इस पद की भाषा व शैली श्रानन्दघनजी के पदों से मेल नहीं खाती । श्रतः यह पद श्री श्रानन्दघनजी का नहीं है । यह पद भक्त कवि श्रानन्दघन का हो सकता है । अर्थ - श्रीमद् श्रानन्दघनजी अपने आत्मा को कृष्ण रूप मानकर उसके गुण गाते हैं और कहते हैं कि 'सोऽहं सोऽहं' शब्द की बंसी बजाने वाले आत्मा रूप श्रीकृष्ण के साथ मेरा दिल लग गया है; अथवा अनहद ध्वनि रूप बाँसुरी बजाने वाले आत्मा रूप श्रीकृष्ण के साथ मेरा दिल लग गया है, केवल कुम्भक प्राणायाम की सिद्धि होने पर अन्तर में बाँसुरी की ध्वनि के समान मन्द स्वर सुनाई देता है । अन्तर में बंसी बजाने वाला प्रारणों से भी प्यारा श्रात्मा रूप श्रीकृष्ण है । उसने विवेक रूपी मोड़ धारण किया है तथा क्षमा रूपी मुकुट पहना है । आत्मा रूप . श्रीकृष्ण ने धैर्य रूपी मकराकृत कुण्डल पहने हैं आत्मा रूप श्रीकृष्ण ने शील रूपी पीताम्बर पहना है । आत्मा रूप श्रीकृष्ण को बाह्य भोगों की प्रिय नहीं लगती । वह अन्तर में विद्यमान मोह आदि का नाश करता है । अतः ऐसे आत्मा रूपी श्रीकृष्ण के साथ रात-दिन मेरा मन लगा रहता है ।। १ । आत्मा रूप श्रीकृष्ण शीतल समता का प्रकाश करता है अतः वह चन्द्र रूप है | उसके सामने मैं चकोर जैसा हो गया हूँ । आत्मा रूप कृष्ण सचमुच मेघ के समान है और उसके सामने मेरा भाव प्रारण पपीहे का सा आचरण करता है और अनेक प्रकार के धर्मोपदेश के द्वारा नागरिकों को सत्य सुख दिखाता है । हे समता सखी! आत्मा रूप श्रीकृष्ण के गुण बड़े-बड़े महर्षि रूप गन्धर्व गाया करते हैं । आनन्दघन आत्मा श्रीकृष्ण है जो अपने गुणों से प्रकाशित है । अध्यात्म शैली से इस प्रकार के श्रीकृष्ण को जो मानते हैं वे अचल शिव रूप अच्युत धाम में प्रवेश करते हैं ||२|| ( २१ ) ( राग-कान्हरो ) भमरा किन गुन भयो रे उदासी । पंख तेरी कारी मुख तेरा पीरा, सब फूलन को बासी ॥ १ ॥ सब कलियन को रस तुम लीनो, सो क्यूँ जाय निरासी । 'प्रानन्दघन' प्रभु तुम्हरे मिलन कुरूं जाय करवत ल्यूं कासी ।। २ ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२४१ टिप्पणी-पद की भाषा-शैली श्रीमद् प्रानन्दघन जी के अनुरूप नहीं है तथा काशी करवत लेने का उल्लेख जैन दर्शन के अनुकूल नहीं है। अतः यह पद श्री प्रानन्दघन जी का नहीं है। अर्थ एवं विवेचन-समता का पति आत्मा है। आत्मा को भ्रमर के संकेत से समता बुलाती है। समता अपने आत्मा रूप भ्रमर को कहती है कि भ्रमर की तरह पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय रूप पुष्पों के विषय-रस को ग्रहण करने वाले हे आत्मन् ! तू उदास क्यों है ? आत्मा रूप भ्रमर की दशा देखकर समता कहती है कि तू किस गुण से उदास बना है ? कर्मयुक्त प्रात्मा रूप भ्रमर के राग-द्वेष रूप दो पंख काले हैं और पदार्थों का भोग रूप मुंह पीला है। वह सांसारिक विषयों रूपी पुष्पों में निवास करके पुष्पों का निवासी बना है ॥१॥ ___समता अपने आत्मा रूप भ्रमर को कहती है कि तूने विषय रूप पुष्पों की समस्त कलियों का रसपान किया है और अब निराश होकर क्यों जा रहा है ? वह कहती है कि तुम सुख की आशा का त्याग करके क्यों जाते हो? तुम बाह्य विषय रूप पुष्पों के रस-भोग से निराश हुए हो तो निराश होकर मत बैठो, मेरे पास आयो और अनुभव रस का पान करो, जिससे तुम्हारे अन्तर में आनन्द का महासागर प्रकट होगा ॥२॥ .. समता अपने स्वामी को कहती है कि हे आत्म प्रभो! आपसे मिलने के समस्त उपाय मैंने कर लिये। अब मेरा मन नहीं मानता। हे प्रानन्दघनभूत आत्म प्रभो ! अब आपको मिलने का अन्य कोई उपाय नहीं है। इतने उपाय करने पर भी यदि आप नहीं मिलो तो अब तो मैं आपको मिलने के लिए काशी जाकर करवत लेकर अन्य भव में प्रत्यक्ष रूप से मिलने का संकल्प करूंगी। यही केवल अन्तिम उपाय है । अतः आप अब मुझे शीघ्र मिलो ।।३।। . (२२) राग-सारंग (प्रासावरी ) ... अब हम अमर भये न मरेंगे। या कारण मिथ्यात दियो तज, क्यू कर देह धरेंगे ।। अब० ।। १॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४२ राग-दोस जग बंध करत हैं, इन को नास करेंगे। मरचो अनन्त काल तें प्राणी, सो हम काज हरेंगे ॥ . अब० ।। २ ।। देह विनाशी मैं अविनाशी, अपनी गति पकरेंगे। नासी जासी हम थिरवासी, चोखे ह निखरेंगे ।। अब० ।। ३ ।। मरयो अनन्त बार बिन समझे, अब सुख दुःख बिसरेंगे। आनन्दघन निपट निकट अक्षर दो, नहीं समरे सो मरेंगे ।। अब० ।। ४ ।। टिप्पणी--यह पद थानतरायजी का है। 'द्यानत-विलास' में पद संख्या ८८ पर है। इसे संग्रहकर्ता ने भूल से प्रानन्दघन जी के पदों में सम्मिलित कर लिया है। अर्थ-- श्रीमद् आनन्दघन जी क्षयोपशम भाव से कहते हैं कि अब मैंने अपनी आत्मा का स्वरूप पहचान लिया है कि मेरा आत्मा अमर है । आत्मा की मृत्यु नहीं है। पैंतालीस आगम, चणि, भाष्य, नियुक्ति, टीका और परम्परा तथा ज्ञान के द्वारा देखने पर प्रतीत हुआ कि प्रात्मा तो द्रव्य रूप से नित्य है । जन्म एवं मृत्यु के हेतु मिथ्यात्व, अविरति, कषाय एवं योग हैं। उनमें से मिथ्यात्व बुद्धि के हेतुओं का मैंने परित्याग कर दिया है । मिथ्यात्व जाने के पश्चात् मृत्यु के अन्य हेतु भी अल्प काल में नष्ट हो जाते हैं। अतः हम अब अमर हो गये हैं ।।१।। अर्थ-श्रीमद् आनन्दघन जी महाराज कहते हैं कि राग एवं द्वेष ये दोनों जगत् में बन्धन हैं। अतः हम इनका नाश करेंगे। अभी तक मेरे भीतर से राग-द्वेष गये नहीं हैं, परन्तु अब मैं समता के द्वारा राग-द्वेष का नाश करूंगा। आज तक मैं राग-द्वेष से हैरान हुआ, पर अब तो मैं राग और द्वेष का नाश करूंगा। राग एवं द्वेष के कारण अनन्त काल से प्राणी मरता रहा परन्तु अब तो हम काल का हरण करेंगे। राग, द्वेष एवं अज्ञान से आत्मा पर-वस्तु में आत्मत्व के भ्रम में कषायों के वश में हो जाता है और जिससे कर्म के योग से देह धारण करता है और चौरासी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री आनन्दघन पदावली-२४३ लांख जीव-मोनि में परिभ्रमण करता है। अतः अब राग-द्वेष की आवश्यकता नहीं है। अब मैं राग-द्वेष को नष्ट करने के लिए खड़ा हुश्री हूँ। अपने मन की शुद्धि करने के लिए मैं आत्मोपयोग में रमण करूंगा और काल का नाश करूंगा ।।२।। अर्थ --श्रीमद् अानन्दघन जी महाराज कहते हैं कि देह तो विनाशी है। इसमें से अनेक पुद्गल गिरते हैं और अनेक नये देह में आते हैं । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ---इन पाँच प्रकार की देहों में भी प्रति पल परिवर्तन होता रहता है। देह विनाशी है परन्तु मैं आत्मा तो अविनाशी हूँ। आत्मा तीनों कालों में द्रव्य के रूप में एक समान रहता है। आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं और वे अविनाशी हैं, जिससे मैं अविनाशी चैतन्यमय आत्मा हूँ। असंख्यात प्रदेशों में लगे हुए अष्ट प्रकार के कर्म नष्ट स्वभाव वाले हैं, वे नष्ट हो जायेंगे और मैं आत्मा तो स्थिरता पूर्वक निवास करूंगा। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को दूर करके प्रात्मा को शुद्ध करूंगा। पंच महाव्रत दीक्षा लेकर सर्व विरति रूप चारित्र अंगीकार करके सकल कर्मों का क्षय करूंगा और कर्म का सम्बन्ध दूर करके ज्ञानादि गुणों की स्थिरता करूंगा। श्री आनन्दघन जी महाराज कहते हैं कि मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार, . परमात्मास्वरूप बनूगा ।।३।। अर्थ --आत्मा अपना स्वरूप ज्ञात किये बिना अनन्त बार मरता रहा। आत्मा के अज्ञान से ही वह बाह्य वस्तुओं में मेरा-तेरा करके अनादि काल से परिभ्रमण करता है। आत्मा पर वस्तु में ममत्व का भ्रम करता है। आत्मज्ञान के बिना अनन्त बार उसकी जन्म, जरा तथा मृत्यु हुई। अब तो अपने प्रात्मा का शुद्ध स्वरूप दिखाई दिया। शाता वेदनीय एवं अशाता-वेदनीय से सांसारिक सुख-दुःख होता है, परन्तु अब तो सुख-दुःख भूलेंगे। अब मैं पिण्डस्थ ध्यान में प्रवृत्त होऊंगा और . चेतन का ध्यान करके अवसर आने पर अजरामर पद प्राप्त करूंगा। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि पिण्ड में बार-बार उत्पन्न होने वाले निपट, सर्वथा निकट हंस-इन दो अक्षरों से बोध्य चेतन का जो स्मरण नहीं करेगा, वही मरेगा। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि श्वासोच्छ्वास के बाहर निकलने वाले 'हंस' शब्द का स्मरण करते हैं, जिससे हम तो अल्प भव में अमर हो जायेंगे ॥४॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४४ ( २३ ) ( राग-प्रासावरी) अवधू ऐसो ज्ञान विचारी, वामें कोण पुरुष कोण नारी ॥ . - अवधू० ।। बम्मन के घर न्हाती धोती, जोगी के घर चेली। कलमा पढ़-पढ़ हुई रे तुरकडी, आप ही पाप अकेली ।। अवंधूं० ।। १ ।। सुसरो हमारो बालो भोलो, सासू बाल कुमारी । पियुजी हमारो पोढे पारणिये तो, मैं हूँ झुलावनहारी ।। अवधू० ॥ २ ॥ नहीं हूँ परणी, नहीं हूँ कुवारी, पुत्र जणावन हारी । काली दाढ़ी को मैं कोई नहीं छोड्यो, . तोए हजु हूँ बालकुमारी प्रवधू० ॥ ३ ॥ अढी द्वीप में खाट खटूली, गगन प्रोशीकु तलाई । धरती को छेड़ो, पाभ की पिछोड़ी, तोय न सोड भराई ।। . अवधू० ।। ४ ।। गगन मंडल में गाय बियाणी, बसुधा दूध जमाई । सउरे सुनो भाई बलोणु बलोवे तो, तत्त्व अमृत कोई पाई । अवधू० ॥ ५॥ नहीं जाऊँ सासरिये, नहीं जाऊं पीयरिये, पियूजी की सेज बिछाई । आनन्दघन कहे सुनो भाई साधु तो, ज्योति में ज्योति मिलाई ।। अवधू० ।। ६ ।। टिप्पणी-इस पद की भाषा व शैली कबीर की भाषा व शैली से मिलती है। प्रानन्दघनजी ने अपने पदों में कहीं भी 'मानन्दघन कहे सुनो भाई साधु'-इस तरह अपनो छाप नहीं लगाई। श्री हजारीप्रसादजी द्विवेदी के 'कबीर' नामक ग्रन्थ में पृष्ठ ३०१ पर इस पद की Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२४५ प्रथम पंक्ति है। 'कबीर' नामक ग्रन्थ के पद ११८ एवं ११६ की पंक्तियाँ इसी भाव की हैं। अतः यह पद कबीरदासजी का ही है। भजन-गायकों ने कुछ पंक्तियाँ इधर-उधर की हैं। अर्थ, भावार्थ, विवेचन हे अवधत! तु इसके ज्ञान का विचारक बन। जो मैं नीचे बताता हूँ उसमें पुरुष कौन है और नारी कौन है ? इसका विचार करके अपने आत्मा को निश्चयज्ञान रूप उत्तर दे। इस पद में आत्मा को पुरुष के रूप में बताया गया है, जिसकी पाँच इन्द्रियाँ और मति रूप स्त्री है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बिना मति संयोगों के अनुसार परिणत होती है। जब आत्मा ब्राह्मण के घर जन्म लेती है तब ब्राह्मण की देह में रही हुई आत्मा रूप पुरुष की मति रूप पत्नी नहाने-धोने आदि के रूप में परिणाम प्राप्त करती हुई प्रतीत होती है। प्रात्मा जब ब्राह्मण के घर अवतरित होती है, तब उसकी मति उस कूल में प्रवृत्त आचार-विचारों को ग्रहण करके नहाने, धोने के रूप में परिणत होती है। आत्मा रूपी पुरुष ने जब जोगी का वेष पहना, तब धनी धरवाना, मस्तक पर जटा रखनी, चोला पहनना और देह पर राख मलना इत्यादि कार्य करने प्रारम्भ किये। जोगी की अवस्था में मति सचमुच, जोगी की चेली बनकर उपर्युक्त कार्य करने लगी। प्रात्मा जब मुसलमान बना तब उसकी मति रूपी पत्नी इस्लाम धर्मानुसार कलमा पढ़कर तुरकड़ी बन गई । यदि विचार करें तो मति तो अपने रूप में ही है अर्थात् वह उपर्युक्त बातों से न्यारो अकेली है। बाह्य संयोगों के निमित्त से मति को वृत्ति जहाँ जिस प्रकार के संयोग प्राप्त होते हैं वहाँ उस प्रकार को हो जाती है। श्रीमद् आनन्दघनजी ने आत्मा को पुरुष की उपमा देकर अोर सम्यक्त्वरहित सामान्य मति को स्त्री की उपमा देकर अन्तर में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध बताकर अपूर्व भाव प्रशित किया है। जोगी मनोवत्ति को चेली के रूप में बनाने के लिए अनेक प्रकार की साधना करता है जिससे जोगी के घर चेली रूप मति को जो जानता है वह संसार-भूमि में आत्मा रूप पुरुष और मति रूप स्त्री की सूक्ष्म लीला का पर-भावरूप नाच देखकर आश्चर्यचकित होता है। मुसलमान के रूप · में उत्पन्न आत्मा रूप पुरुष की मति रूप पत्नी अन्य धर्म के अनुयायियों को काफिर गिनकर उन्हें मार डालने में अधर्म नहीं मानती। ईसाई आत्मा को मति रूप पत्नो अपने धर्म के अतिरिक्त समस्त धर्मों को असत्य गिनती है और अपने द्वारा मान्य धर्म को सत्य मानकर हिंसा आदि पापाचरण करके भी प्रभु को प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २४६ मिथ्यात्व बुद्धि का नाश हुए बिना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता । श्री सर्वज्ञ वीतरागदेव के शुद्ध धर्म का अनेक मनुष्य श्रवण करते हैं, परन्तु जिसकी भव- स्थिति परिपक्व होती है उसे वीतरागदेव के धर्म के प्रति रुचि होती है ।। १ ।। अर्थ, भावार्थ, विवेचन -मति कहती है कि मेरा व्यवहार सम्यक्त्वरूप श्वसुर है और मार्गानुसारी के गुणों आदि व्यवहार धर्म के प्राचरण के रूप में मेरी सास है । व्यवहार सम्यक्त्व श्वसुर बाला-भोला अर्थात् बालक है, वह सरल है । व्यवहार धर्माचरण रूप सास भी अन्तरंग ध्यान - क्रिया को अपेक्षा बालिका है और वह किसी भी एक जीव के साथ ही सदा काल का सम्बन्ध नहीं रखती होने से कुमारी मानी जाती है । व्यवहार सम्यक्त्व एवं सत्य व्यवहार धर्माचरण के द्वारा अन्तरात्मा की उत्पत्ति होती है, जिससे व्यवहार सम्यक्त्व और व्यवहार धर्माचरण दो जनक होने से अन्तरात्मा के पिता तथा माता गिने जाते हैं और उन दोनों से अन्तरात्मा की उत्पत्ति होने से अन्तरात्मा पुत्र रूप गिना जाता है और वह मति का स्वामी कहलाता है । मति कहती है कि मैं अपने स्वामी को अनेक प्रकार के परिणाम रूप भूले में झुलाने वाली हूँ । मार्गानुसारी गुणों तथा देव गुरु की भक्ति, दया, प्रेम, भ्रातृ-भाव, मध्यस्थ भाव, सत्य तत्त्व की जिज्ञासा और अहिंसा आदि व्रतों के धर्माचरण के बिना उपशम आदि सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता जिसके बिना ऊपर के गुणस्थानकों में प्रवेश नहीं होता । निष्पक्ष बुद्धि से जो मनुष्य जिनवाणी का उपदेश श्रवण करते हैं उन्हें सम्यक्त्व हो जाता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए सद्गुणों की आवश्यकता है, मार्गानुसारी के व्यावहारिक गुणों को प्राप्त करने की आवश्यकता है, जैनागमों के अध्ययन, श्रवण एवं मनन करने की आवश्यकता है और व्यवहार सम्यक्त्व के चारों पर आचरण करने की आवश्यकता है । भेड़-चाल की तरह कतिपय मनुष्य अन्ध श्रद्धा से धर्म - क्रियाएँ करते हैं, परन्तु वे सत्य नहीं बोलते और धन के स्वार्थ से देव- गुरु की सौगन्ध खा लेते हैं अर्थात् वे प्रामाणिकता आदि नीति के गुणों से भ्रष्ट होते हैं । उनका व्यवहार-धर्माचरण रूखा गिना जाता है ।। २॥ अर्थ-मति कहती है कि मैंने किसी के साथ विवाह नहीं किया, क्योंकि अमुक आत्मा ही मेरा स्वामी है, ऐसा मैंने निश्चय नहीं किया । मैं कुमारी भी नहीं हूँ क्योंकि आत्म-स्वामी के बिना मैं कदापि अकेली Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२४७ रही ही नहीं और न रहूंगी। यदि मैं मिथ्यात्व परिणाम को प्राप्त होती हूँ तो कर्म रूप पुत्र को उत्पन्न करतो हूँ और सम्यक्त्व परिणाम के द्वारा यदि मैं आत्मरूप स्वामी के साथ परिणत होती हूँ तो अन्तरात्म स्वामी के सम्बन्ध से परमात्मरूप पुत्र को उत्पन्न करती हूँ। मति कहती है कि विभावदशा में परिणाम प्राप्त करके कृष्णलेश्या परिणाम रूप जिसकी काली दाढ़ी है ऐसे किसी भी जीव को मैंने नहीं छोड़ा। उसने कहाकोई ऐसा काली दाढ़ी वाला मनुष्य नहीं है जिसे मैंने अशुद्ध परिणति के द्वारा संसार में नहीं खिलाया हो। मिथ्यात्वपरिणाम प्राप्त मैं पहले भी न तो विवाहित थी और न कुमारी थी। आज तक मैं बाल-कुमारी हूँ ॥ ३ ॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन ---मति कहती है कि जिसमें मनुष्य निवास करते हैं ऐसे ढाई द्वीप में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव रूप चार पायों वाले ज्ञेय वस्तु रूप खाट पर मैं लोटती हूँ। मति कहती है कि उच्च परिणाम रूप गगन का तकिया और ज्ञेय पदार्थ रूप पृथ्वी का किनारा अर्थात् उसका अन्त मेरी.तलाई है तथा मैंने समस्त आकाश की पछेड़ी अोढ़ी है तो भी मैं उपर्युक्त मर्यादा में समा नहीं सकती। ___मति कहती है कि मैं ढाई द्वीप में सदा निवास करती हैं, देवलोक में ऊपर भी रहती हैं, मैं पृथ्वी के किनारे तक निवास करती हूँ, सात पृथ्वी के नोचे के किनारे तक मैं निवास करती हूँ। देवों तथा नरक के जीवों के भी मति है अर्थात् चौदह राजलोक में मति के धारक समस्त जीव निवास करते हैं। द्रव्य चारित्र एवं भाव चारित्र के उच्च परिणाम को धारण करने वाली मति का सद्भाव सचमुच मनुष्य लोक में होने से मति ढाई द्वीप को अपना खटिया कहे तो युक्त ही है। उच्चपरिणाम धारक मति को तकिये की उपमा दी जाये तो वह भी उपमा की अपेक्षा उचित ही है। .. मनुष्यों को सम्यक्त्वधर्म तथा चारित्रधर्म की परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई है। मनुष्य चौदह गुणस्थानकों तक गमन कर सकते हैं । उनकी मति को कोई पहुँच नहीं सकता। चरम से चरम क्षीणमोह दशा को मति प्राप्त करा सकती है ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-कर्णरूप आकाश मण्डल में श्री सर्वज्ञ प्रभु की वारणी रूप गाय की प्रसूति हुई, जिसका श्री द्वादशांगी रूप पृथ्वी पर दूध जमाया, जिसका विवेकी मनुष्यों ने मन्थन किया और उसमें से Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२४८ मक्खन निकला जिसे विरले मनुष्यों ने प्राप्त किया तथा जो छाछ निकली उसमें अनेक मनुष्य लालायित हुए । श्री सर्वज्ञ परमात्मा की वाणी गुरु-परम्परा से आज तक चली आई है। उपदेश की वाणी कर्णमण्डल रूप आकाश में उत्पन्न होती है और पुस्तकों में लिखी जाती है। पुस्तक में लिखी गई भगवान की वाणी रूप दूध को पण्डित लोग एकत्र होकर बिलोते हैं अर्थात् उसका सार निकालते हैं, जिसमें से मक्खन रूपी अमृत को कोई विरले ही प्राप्त कर सकते हैं। शेष बची छाछ जैसी असार वस्तु में अनेक मनुष्य लालायित होकर प्रसन्न होते हैं। श्री सर्वज्ञ की वाणी का सिद्धान्तों में समावेश होता है। ग्यारह अंग और बारहवाँ दृष्टिवाद मिलकर द्वादशांगी गिनी जाती है, जिसमें से इस समय ग्यारह अंग विद्यमान हैं, बारहवाँ दृष्टिवाद अब नहीं है। वर्तमान में पैंतालीस आगम और सुविहित आचार्यों द्वारा रचित हजारों ग्रन्थ विद्यमान हैं। वे समस्त प्रमाणभूत माने जाते हैं। सूत्र, नियुक्ति, चूणि, भाष्य, वृत्ति, अनुभव एवं गुरु-परम्परा का जो निषेध करता है, उसे भगवान की वाणी रूप गाय के दूध का नाशक समझे। सिद्धान्तों में से सार निकालना दही में से मक्खन अथवा घृत निकालने के समान है। आगम रूप समुद्र का पार पाना अत्यन्त दुर्गम है। आगम रूप सागर में जो प्रादेय तत्त्व हैं, वे अमृत तुल्य हैं । आगम रूप सागर में अनेक रत्न भरे हुए हैं। जो ज्ञानी आगम रूप सागर का मन्थन करके उसमें से रत्न रूप सार निकाल लेते हैं, वे वास्तव में विवेकी हैं। जो उस में से शुद्धात्म स्वरूप अमृत प्राप्त कर लेते हैं, वे सच्चे विवेकी हैं। श्रीमद् आनन्दघन जी के कहने का आशय है कि इस भव में अमृत तुल्य प्रभ वाणी का सार सचमुच शुद्धात्मधर्म-रमणता है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा आत्मा के शुद्ध गुणों में रमणता करके नित्य सुख रूप अमृत का पान करना ही प्राप्तव्य कार्य है ।।५।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन - सम्यग्मति कहती है कि अब मैं अप्रमत्त दशा की अवस्था प्राप्त करके निश्चय सम्यक्त्व के कारण स्वरूप व्यवहार सम्यक्त्व एवं बाह्य धर्म क्रिया रूप ससुर के पास जाना नहीं चाहती और न मैं बहिरात्म भावरूप अथवा मोह भाव रूप पीहर में ही जाऊंगी। अब तो मैं अपने अन्तरात्मपति की शुद्ध समता रूप शय्या बिछा कर प्रिय Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२४६ आत्म-स्वामी के साथ सदा आनन्द में रमण करूंगी। आनन्दघन जी कहते हैं कि हे साधुओ ! अन्तरात्मा परमात्मा रूप बनकर सिद्धालय में अनेक सिद्धों के साथ सादि अनन्तवें भाग में प्राप्त होता है, वहाँ प्रति समय अनन्त सुख का भोग लेता है। अप्रमत्त दशा को अनुभूति करने वाले मुनिवर सचमुच परम सुख की झलक का अनुभव करते हैं। जिसे आत्मानन्द के भोग में प्रेम है उसे ललनामों के भोग-सम्बन्ध की अभिलाषा नहीं रहती। जिसके रोम-रोम में आत्मा के शुद्ध रस का शुद्ध प्रेम प्रकट हुया है, उसे पाँच इन्द्रियों के पौद्गलिक सुख में कदापि आनन्द प्राप्त नहीं होता। सम्यग्मति का संग पाकर चारित्र आदि साधनों के द्वारा पूर्व में अनन्त जीवों को शुद्ध धर्म में रमणता करके परमज्योति पद प्राप्त हुआ, महाविदेह क्षेत्र में वर्तमान में प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में अनन्त जीव परमज्योति पद प्राप्त करेंगे। भव्य जीवों को परमज्योति पद प्राप्त करने के लिए सम्यग्मति के द्वारा अन्तरात्मा में सदा रमण करना चाहिए ॥६॥ . ( २४ ) ... ( राग-प्रासावरी ) . अवधू वैराग बेटा जाया, याने खोज कुटंब सब खाया। अवधू० ।। जेणे माया ममता खाई, सुख दुःख दोनों भाई । काम क्रोध दोनों कु खाइ, खाई तृष्णा बाई ।। अवधू० ।। १ ॥ दुरमति दादी मत्सर दादा, मुख देखत ही मुना। मंगल रूप बधाई बांची, ए जब बेटा हुमा ।। अवधू० ।। २ ।। पाप पुण्य पड़ोसी खाये, मान लोभ दोउ मामा। मोह नगर का राजा खाया, पीछे ही प्रेम ते गामा ।। अवधू० ।। ३ ॥ भाव नाम धर्यो बेटा को, महिमा वरण्यो न जाई । आनन्दघन प्रभु भाव प्रकट करी, घट-घट रहो समाई ।। अवधू० ।। ४ ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - २५० टिप्पणी -- यह पद श्री श्रानन्दघन जी का नहीं है | महाकवि बनारसीदास जी आगरा वाले द्वारा रचित ' बनारसी विलास' में यह पद पृष्ठ संख्या २५० पर है, तनिक अन्तर अवश्य है । अर्थ- भावार्थ-विवेचन - योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि योगी पुरुषों के वैराग्य रूप पुत्र उत्पन्न होता है । योगी के वैराग्य पुत्र ने मोह राजा के परिवार को खोज खोज कर खा लिया । वैराग्य ने सर्वप्रथम तो ममता का नाश किया। वैराग्य के बिना ममता का नाश नहीं होता । वैराग्य ने ममता का भक्षण किया तथा माया का नाश किया । शातावेदनीयजन्य सुख और प्रशातावेदनीय जन्य दु:ख इन दोनों का भी वैराग्य ने भक्षण किया । वैराग्य ने काम एवं क्रोध दोनों का भक्षण किया । ज्ञानगर्भित वैराग्य से काम का नाश होता है । काम के वेग को दबाने के लिए ज्ञानगर्भित वैराग्य के समान अन्य कोई उपाय नहीं है | ज्ञानगर्भित वैराग्य से क्रोध को जीता जा सकता है। ज्ञानगर्भित वैराग्य ने तृष्णा का भी भक्षण किया || १॥ अर्थ - भावार्थ-विवेचन - दुर्मति दादी तथा मत्सर दादा तो वैराग्य का मुँह देखते ही मर गये । ज्ञानगर्भित वैराग्य पुत्र का जन्म होने पर आत्मा ने मंगल रूप बधाई दी और मन में अत्यन्त हर्ष माना ||२|| अर्थ- भावार्थ- ज्ञानगर्भित वैराग्य ने पुण्य एवं पाप रूप दो पड़ोसियों का भक्षण किया तथा मान जो जगत् के जीवों को अनेक प्रकार की पत्तियों में डालता है, उसका भी वैराग्य ने भक्षणं किया । लोभ का कोई नहीं है । दसवें गुणस्थानक तक लोभ की स्थिति है । स्वयं-भू रमण समुद्र का पार पाया जा सकता है, परन्तु लोभ रूपी समुद्र का कोई पार नहीं पा सकता । लोभ समस्त प्रकार के पापों का मूल है । ज्ञानगर्भित वैराग्य ने मान एवं लोभ रूप दो मामात्रों का और मोह नगर के राजा का भी नाश किया तथा तत्पश्चात् प्रेम रूपी गाँव का भी भक्षण किया || ३ || अर्थ - भावार्थ – ज्ञानगर्भित वैराग्य की सर्वोत्कृष्ट दशा प्राप्त करने वाला मनुष्य प्रेम में भी अधिकार प्राप्त करके दुःखी नहीं होता । उसने ज्ञानगर्भित पुत्र की उम्र बढ़ जाने पर उसका नाम 'भाव' रखा । उपशमभाव, क्षयोपशमभाव और क्षायिक भाव की वृद्धि होने पर उसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता । अध्यात्म भाव की दशा की वृद्धि होने पर मुक्ति-सुख के पकवान का आस्वादन किया जा सकता है । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२५१ अध्यात्म भाव की महिमा अवर्णनीय है। जो व्यक्ति अध्यात्मभाव का अधिकारी नहीं है वह यदि उसकी निन्दा करे, जिससे उपशम आदि भाव रूप अध्यात्म की कोई हानि नहीं होती। उल्ल यदि सूर्य की निन्दा करे तो सूर्य की कोई हानि होने वाली नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे आनन्द के समूहभूत मनुष्यो! परमात्मा का भाव प्रकट करो ॥ ४ ॥ . . ( २५ ) ( राग-प्रासावरी ) अवधू ! सो जोगी गुरु मेरा, इन पद का करे रे निवेड़ा ।। अवधू० ।। तरुवर एक मूल बिन छाया, बिन फूले फल लागा। शाखा पत्र नहीं कछु उनकु, अमृत गगने लागा ।। अवधू० ।। १ ।। तरुवर एक पंछी दोउ बैठे, एक गुरु एक चेला । चेले ने जुग चुण-चुण खाया, गुरु निरन्तर खेला ।। अवधू० ।। २ ।। गगन मंडल में अधविच कुवा, उहाँ है अमी का वासा । सगुरा होवे सो भर भर पीवे, नगुरा जावे प्यासा ।। अवधू० ।। ३ ॥ गगन मंडल में गउनां बियानी, धरती दूध जमाया। . माखन था सो बिरला पाया, छासे जग भरमाया ।। अवधू० ॥ ४ ॥ थड़ बिनु पत्र, पत्र बिनु तुबा, बिन जीभ्या गुण गाया। गावन वाले का रूप न रेखा, सुगुरु मोही बताया । अवधू० ।। ५ ।। आतम अनुभव बिन नहीं जाने, अन्तरज्योति जगावे । घट अन्तर परखे सोही मूरति, प्रानन्दघन पद पावे ।। अवधू० ।। ६॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५२ टिप्पणी-पद की भाषा, शैली एवं अभिव्यक्ति से तो शंका रहती है कि यह पद योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी का नहीं है। 'घनानन्द और प्रानन्दधन' के सम्पादक श्री विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे सन्त कबीर का पद माना है। 'कबीर ग्रन्थावली' के पृष्ठ सं. ८४-८५ पर तनिक परिवर्तनयुक्त यही पद है। पद प्रायः मिलता-जुलता है। अतः इस पद को कबीर का ही मानना पड़ेगा। ___ अर्थ-भावार्थः-श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि जो व्यक्ति इस पद . का फैसला करेगा वह अवधत योगी मेरा गुरु है। तरुवर के मूल होनी चाहिए, शाखा होनी चाहिए। शाखा हो तो पत्र एवं फूल आते हैं, फूल हों तो फल आते हैं और वैसे वृक्ष की छाया पड़ती है, परन्तु आत्मा रूप वृक्ष के मूल नहीं है; आत्मा अनादिकाल से है, जिससे उसकी मूल नहीं हो सकती। आत्मा अरूपी है जिससे उसका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ सकता। प्रतिबिम्ब तो रूपी का ही पड़ता है। आत्मा अरूपी वृक्ष होने से बाह्य वृक्ष की तरह उसके पत्र, शाखा, फूल आदि का सम्बन्ध नहीं है। प्रात्मा ही कारण एवं कार्य रूप है। आत्मा कर्मों का क्षय करके स्वयं परमात्मपद प्राप्त करता है और वह सिद्धशिला पर एक योजन के चौबीस भाग करें तो चौबीसवें भाग पर परमात्मा बनकर रहता है। आत्मा रूप वृक्ष पर परमात्मा रूप फल एवंभूत नय की अपेक्षा से लगते हैं। आत्मारूप वृक्ष पर अजरामर परमात्मा रूप फल लगते हैं ।। १ ।। अर्थ-भावार्थ-श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि देह रूपी वृक्ष पर अन्तरात्मा एवं मन रूपी दो पक्षी बैठे हुए हैं। अन्तरात्मा गुरु है और मन शिष्य है। अन्तरात्मा मन को उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर उसे अपने वश में रखने का प्रयास करता है। वह गुरु-पद के लिए योग्य है परन्तु शिष्य का स्वभाव चंचल है। वह बाह्य जगत् के विषयों में भटकता है और जगत् के पदार्थों को ग्रहण करता है। अन्तरात्मा रूपी गुरु बाह्य विषयों में लक्ष्य नहीं देता। वह स्वयं के गुणों में रमण करता है। वह बाह्य विषयों को चुन-चुन कर खाना पसन्द नहीं करता। वह अपने सहज आनन्द में निरन्तर खेलता रहता है ।।२।। अर्थ-भावार्थ-मुख रूपी गगन-मण्डल के मध्य में एक कुया है। वहाँ एक प्रकार के रस रूपी अमृत का निवास है। जिस शिष्य ने खेचरी मुद्रा का गुरु-गम ज्ञान प्राप्त करके उसकी सिद्धि की है, ऐसा गुरुवाला शिष्य उस अमृत का पान करता है और अपनी प्यास तृप्त करता है। जिसका कोई गुरु नहीं है, वह मनुष्य प्यासा ही लौटता है ।।३।। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • श्री श्रानन्दघन पदावली - २५३ विवेचन - गोरख आदि योगी इस प्रकार का बाह्य अर्थ करते हैं । सहज योगी ऐसे अमृत की अभिलाषा नहीं करते, परन्तु हठयोगी ऐसा प्रयत्न करते हैं । मनुष्य की देह स्थित गगन - मण्डल का मध्य भाग नाभि है, जहाँ आत्मा के प्राठ रुचक प्रदेश रूपी अमृत का कुआ है । प्रत्येक प्रदेश में अनन्त आनन्द रूपी अमृत का कुआ है । नाभि में जो आठ प्रदेशों के स्थान में गुरुगम लेकर ध्यान लगाता है वह आनन्द रूपी अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है। चौदह राजलोक गगन मण्डल के मध्य I तिच्छे लोक स्थित है । वहाँ तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती है और उनकी देशना के कारण मनुष्य लोक में श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म रूपी अमृत का कुविद्यमान है । सुगुरु का शिष्य श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म रूपी कुए में से आनन्द रूपी अमृत के प्याले भर-भर कर पीता है और गुरु-हीन व्यक्ति प्यासा लौटता है ||३॥ अर्थ - भावार्थ-विवेचन - श्री तीर्थंकर भगवान के मुख रूपी गगनमण्डल में वाणी रूपी गाय ब्याई अर्थात् वाणी रूपी गाय का प्रकाश हुआ और वाणी से निकले उपदेश रूपी दूध का जगत् में जमाव हुआ । उस दूध में से विरले ज्ञानयोगियों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अखण्डानन्द रूपी मक्खन को प्राप्त किया। शेष स्वमत, कदाग्रह, क्लेश, वाद-विवाद रूपी खट्टी छाछ से जगत् के लोग भ्रमित हुए । विवेचन - दूध-दही का असार अंश छाछ कहलाता है, उस प्रकार भगवान के उपदेश का सार छोड़ कर प्रसार ग्रहण करने वाले अपनी विपरीत बुद्धि के कारण छाछ तुल्य कदाग्रह क्लेश रूपी भाग को ग्रहरण करते हैं । भगवान की वाणी से हेय, ज्ञेय एवं उपादेय तत्त्वों का प्रकाश होता है। नौ तत्त्वों में हेय, ज्ञेय एवं उपादेय तत्त्वों का विवेक करके जो मनुष्य सम्यक्त्व शुद्ध चारित्र रूपी समाधि को ग्रहरण करते हैं वे मक्खन रूपी सारांश ग्रहण करने वाले हैं । श्रोताओं के श्रोत्राकाश रूपी गगनमण्डल में भगवान की वाणी रूपी गाय का प्रसव हुआ और उसके दूध का हृदय रूपी धरती में जमाव हुआ । उपदेश रूपी दूध में से उपादेय सार रूप शुद्ध धर्म रूपी मक्खन को तो कोई विरले प्राप्त कर पाये और शेष असार भाग रूपी छाछ में सम्पूर्ण संसार भ्रमित हुआ है ||४|| अर्थ- भावार्थ-विवेचन - बाह्य तम्बूरे से भगवान के गुण गाये जाते हैं, यह सर्वविदित है । बाह्य तम्बूरे की उत्पत्ति ज्ञात करने से पता लगता है कि सर्वप्रथम तू बे के बीज में से अंकुर प्रस्फुटित होते हैं । उसमें Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५४ से बेल का थड़ उत्पन्न होता है और बेल बड़ी होने पर उसमें से पत्त निकलते हैं और फिर फल आते हैं और तत्पश्चात् बड़ा तूम्बा फल के रूप में उत्पन्न होता है, जिसका तम्बूरा बनाया जाता है। इस प्रकार तम्बूरे का उद्भव होता है। आत्मा रूपी तम्बूरे का थड़, पत्ते, फल आदि कुछ नहीं है। प्रात्मा रूपी तम्बूरा परा भाषा से भगवान के गुण गाता है। आत्मारूपी तम्बूरे का गायक आत्मारूपी गवैया है, जिसका रूप अथवा रेखा कुछ भी नहीं है, वह किसी से उत्पन्न नहीं हुआ, अत: उसकी बाह्य तम्बूरे की तरह कारण-परम्परा नहीं है। असंख्यात प्रदेशरूपी तम्बूरे को पराभाषा के द्वारा आत्मारूपी गवैया बजाता है। ऐसा आत्मा. सुगुरु ने बताया है। उसे जो जानता है वह अपने आत्मा रूपी तम्बूरे के द्वारा परमात्मा का बिना जीभ के पराभाषा के द्वारा भजन करता है ।। ५ ।।। अर्थ-भावार्थ --प्रात्मा के अनुभव में मोह के अभाव में सुषुप्ति दशा नहीं होती। संकल्प-विकल्प के अभाव में स्वप्न एवं जागृत दशा भी नहीं होती, परन्तु जिसमें विकल्पता के शिल्प की विश्रान्ति है, ऐसे अनुभव में चतुर्थ दशा होती है। अनुभव का स्वरूप अनुभवी व्यक्ति ही जान सकते हैं। जो मनुष्य अनुभव-ज्ञान प्राप्त करते हैं वे आत्मा की ज्ञानज्योति का प्रकाश करते हैं और आत्मा के असंख्य प्रदेशरूपी व्यक्ति का ज्ञान से निश्चय करते हैं, तथा श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि वे आनन्द का समूहभूत परमात्म-पद प्राप्त करते हैं ।। ६ ॥ (२६) (राग-बेलावल) ता जोगे चित्त ल्याऊ रे वहाला। . समकित दोरो शील लंगोटी, घुल-घुल गाँठ घुलाऊँ। तत्त्व गुफा में दीपक जोऊँ, चेतन रतन जगाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ।। १ ।। प्रष्ट करम कंडे की धूनी, ध्याना अगन जलाऊँ । उपशम छनने भसम छरणाऊँ, मलि मलि अंग लगाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ।। २ ।। आदि गुरु का चेला होकर मोह के कान फराऊँ। धरम सुकल दोय मुद्रा सोहे, करुणा नाद बजाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ॥ ३ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्री आनन्दघन पदावली-२५५ इह विध · योग-सिंहासन बैठा, मुगतिपुरी . ध्याऊँ । प्रानन्दघन देवेन्द्र से योगी, बहुरि न कलि में पाऊँ रे वहाला । ता जोगे० ।। ४ ॥ टिप्पणी-यह पद शंकास्पद माना गया है। यह श्रीमद् प्रानन्दघनजी की भाषा एवं शैली से मेल नहीं खाता। लगता है कि इस पद के रचयिता कोई 'देवेन्द्र' नामक व्यक्ति हैं। अर्थ-भावार्थ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी कहते हैं कि हे प्रिय प्रभो ! मैं उस योग में अपना चित्त लगाता हूँ। मैं अन्तर के योग में चित्त लगाता हूँ। · योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी अन्तर की योगदशा का भेष तथा उसे धारण करने का तरीका बताते हुए कह रहे हैं कि समकित रूपी डोरी और शील रूपी लंगोटी धारण करता हूँ और उस डोरी के बीच-बीच में समकित के सड़सठ बोल रूपी घुली-घुली गाँठें लगाता हूँ; तथा तत्त्वरूपी गुफा में प्रविष्ट होकर वहाँ ज्ञानरूपी दीपक प्रज्वलित करता हूँ तथा चेतनरूपी रत्न का प्रकाश फैलाता हूँ। चेतनरूपी रत्न पर कर्मरूपी मैल लगा हुआ है, जिसे मैं दूर करता हूँ। १ ।। .: विवेचन - प्रात्मा रत्न की तरह प्रकाशमय है। जिस प्रकार रत्न पर लगे हुए मैल का नाश होता है, उस प्रकार आत्मा के असंख्यात प्रदेशों के साथ लगी हुई कर्म-प्रकृतियों का भी नाश होता है। रत्न पार्थिव वस्तु है अतः उसका मूल्याङ्कन होता है, परन्तु आत्मा रूपी रत्न तीनों कालों में नित्य रहता है, अत: उसका मूल्य नहीं प्राँका जा सकता। पार्थिव रत्न क्षणिक सुख प्रदान कर सकता है परन्तु वह यह नहीं जान सकता कि सुख क्या है ? आत्मा रूपी रत्न नित्य सुख प्रदान करता है अर्थात् वह अनन्त सुख का स्वयं ज्ञाता और भोक्ता बनता है और अनन्त सुख को अपने असंख्यात प्रदेश में धारण करता है। अतः आत्मा रूपी रत्न को प्रकाशमय करने का योग मैं तत्त्व-गुफा में बैठकर धारण करता हूँ॥१॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों का आत्मप्रदेशों के साथ क्षीर नीरवत् बँधना; आत्म-प्रदेशों के साथ कर्मों का चिपकना बन्ध कहलाता है। कर्म का उदय में आना और आत्मा को विपाक का अनुभव कराना-इसे उदय कहते हैं। कर्म को खींचकर उदय Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५६ में लाने को उदीरणा कहते हैं। कर्मों का आत्म-प्रदेशों के साथ पड़ा रहना सत्ता कहलाता है। बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता-इन चार प्रकारों से कर्म-बन्धन होता है। प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध, रस-बन्ध और प्रदेश-बन्ध-चार प्रकारों से कर्मों का बन्ध होता है। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि जिस प्रकार काष्ठ अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है, उस प्रकार अष्टकर्म रूपी काष्ठ को ध्यानरूपी अग्नि से जलाकर उसकी धनी निकालता हूँ और उपशम रूपी चलनी से भस्म को छानकर उसे अपने अंगों पर मलता हूँ अर्थात् ऐसी भस्म अंगों पर मल कर अन्तर की योगदशा धारण करता हूँ ।। २ ।। विवेचन-उपशम भाव रूपी चलनी से कर्म की भस्म सम्यक् प्रकार से छानी जा सकती है। ध्यान रूपी अग्नि से कर्म रूपी काष्ठ जलकर भस्म हो जाता है। ध्यान के चार भेद हैं -आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल-ध्यान, जिनमें से प्रारम्भ के दो ध्यान त्याग करने योग्य हैं। अतः आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान का परित्याग करके धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को चित्त में, लगाता हूँ और इनसे कर्मों को जलाकर भस्म करता हूँ। अपने मन को मैं एक ध्येय में स्थिर रखता हूँ। मैं राग-द्वेष का परित्याग करके आत्मा का ध्यान धरके अन्तरंगयोग-भूमिका में प्रविष्ट होता हूँ। मैं तत्त्व-गुफा में सिद्ध होने के लिए सिद्धासन लगाकर इस प्रकार योग-मार्ग में लीन होता हूँ ॥ २ ॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन-तीर्थंकर आदिनाथ हैं। वे तीर्थंकर गिने जाते हैं और गुरुओं की परम्परा की अपेक्षा वे गुरु भी गिने जा सकते हैं। उनकी आज्ञा मानकर मैं मोह के कान फड़वाऊँगा अर्थात् मोह का नाश करूंगा। समस्त गुणों की आदि में सम्यक्त्व गुण उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व प्रदान करने वाले गुरु आद्य गुरु गिने जाते हैं। उनकी आज्ञा में रहकर मैं कर्म का नाश करूंगा। समस्त गुणों में सत्य-असत्य का निर्णय करने वाला विवेक गुण उत्पन्न होता है। उक्त विवेक गुण के द्वारा समस्त धर्म-कार्य किये जा सकते हैं। अत: वे भी निश्चय से आद्य गुरु गिने जाते हैं। वैसे योगियों के गुरु आदिनाथ गिने जाते हैं । मत्स्येन्द्र, गोरखनाथ आदि योगी आदिनाथ को अपने गुरु के रूप में मानते हैं। जैनशास्त्रों में श्री ऋषभदेव को आदिनाथ कहते हैं, योगियों के गुरु आदिनाथ हैं और वे अठारह दोषों से रहित आदिनाथ श्री ऋषभदेव स्वामी हैं। अतः वे भी पूर्वोक्त अपेक्षा से गुरु हैं। मैं उनका आज्ञाकारी शिष्य बनकर मोह-महामल्ल के कान फाडगा। धर्म-ध्यान Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - २५७ एवं शुक्ल - ध्यान रूपी दो मुद्राओं को दोनों कानों में धारण करने से दोनों कान सुशोभित हैं । करुणा रूपी श्रृंगनाद करने से समस्त मनुष्यों के हृदय में दया भाव उत्पन्न किया जाता है, करुणा भावना रूपी नाद के द्वारा आत्मा की दया वृत्ति खिल उठती है और परमात्मा के अन्तर में हर्ष प्रकट होता है अर्थात् आत्मा परमात्मा रूप बन जाता है । अतः मैं ऐसी योग की दशा धारण करना चाहता हूँ ।। ३ ।। 7 अर्थ - भावार्थ-विवेचन - इस प्रकार योगरूपी सिंहासन पर बैठकर मैं मुक्तिपुरी का ध्यान धरता हूँ । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-योग के आठ अंग गिने जाते हैं । योग रूपी सिंहासन पर बैठकर योग के अंगों का सेवन करने से अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। योग के अंगों का सम्यक् प्रकार से सेवन करने से अट्ठाईस लब्धियों में से अमुक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । पाँचवें आरे में भो कतिपय लब्धियाँ प्राप्त होती हैं । श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य तथा चौदह सौ चवालीस ग्रन्थों के प्रणेता पूर्वाचार्य श्री हरिभद्रसूरि जी ने योग के अंगों का सम्यक् रूप से वर्णन किया है । श्री हरिभद्रसूरि ने तो अपने योग-बिन्दु में योग का सुन्दर वर्णन किया है । श्रीमद् चिदानन्द जी ने 'चिदानन्द स्वरोदय' में योग का स्पष्ट वर्णन किया है । श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि देवेन्द्र की तरह मैं योग - सिंहासन पर प्रारूढ़ होकर पुनः कलियुग में न आऊँ - ऐसी स्थिति मैं प्राप्त करूँ । वे ऐसी योग - दशा की अभिलाषा रखते हैं ॥। ४ ॥ ( २७ ) (राग - सारंग ) चेतन शुद्धातम कु ध्यावो । पर परचे धामधूम सदाई, निज परचे सुख पावो । निज घर में प्रभुता है तेरी, पर संग प्रत्यक्ष रीत लखी तुम ऐसी, गहिये यावत तृष्णा मोह है तुमको, तावत स्व संवेद ग्यान लही करवो, छंडो नीच भाप चेतन० ।। १ ।। कहावो । सुहावो । चेतन० ।। २ ।। मिथ्या भावो । भ्रमक विभावो । चेतन० ।। ३ ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२५८ सुमता चेतना पतिकु इण विध, कहे निज घर आवो। प्रातम उच्छ सुधारस पीये, 'सुख प्रानन्द' पद पावो । चेतन० ।। ४ ।। टिप्पणी : इस पद में आनन्दघन जी का नाम तक नहीं है, परन्तु 'पानन्द' शब्द देखकर ही इसे श्रीमद् प्रानन्दघन जी का मान लिया है। पद की अन्तिम पंक्ति में रचयिता का नाम 'सुख प्रानन्द' दिया गया है। श्रीमद् प्रानन्दघन जी ने अपने किसी भी पद में 'मानन्द' अथवा 'सुख प्रानन्द' शब्द का प्रयोग नहीं किया है। अतः यह प्रानन्दघन जी का प्रतीत नहीं होता। पद में श्रीमद् प्रानन्दघन जी जैसी भाषा और शैली भी नहीं है। अर्थ-भावार्थ-विवेचन--श्रीमद् आनन्दघनजी अपनी आत्मा को कहते हैं कि हे चेतन! तू अपने शुद्धात्म-पद का ध्यान धर, जिससे कर्म-मलिनता नष्ट होगी। जगत् में ध्यान के समान कोई उत्तम मोक्ष-हेतु नहीं है। ध्याता, ध्यान तथा ध्येय की एकता करने वाले अनन्य चित्त वाले योगी के समस्त दुःखों का क्षय हो जाता है। अतः हे प्रात्मन् ! अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान करने में ही तू समस्त प्रकार की सिद्धि जान। परपुद्गल के परिचय में नित्य राग, द्वेष, प्रमाद, ईर्ष्या, विषय-वासना, क्लेश, दुःख एवं जन्म-मृत्यु की नित्य धाम-धूम रहती है। अतः पर-पुद्गल वस्तु के परिचय से कदापि शान्ति नहीं मिलेगी। अपने शुद्धात्म के सम्बन्ध से तुम सुख प्राप्त कर सकते हो। अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करने से आधि, व्याधि एवं उपाधि की अनेक पीड़ाओं का शमन होता है और अन्तर में सहज शान्ति की अनुभूति होती है। समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध से आत्मा न्यारा है-ऐसी भावना लाने से प्रात्मा अपने शुद्ध स्वरूप का आश्रय लेकर सहज सुख प्राप्त करती है। अतः हे चेतन! ऐसी श्रद्धा रखो कि आत्म परिचय करने से तुम सुख प्राप्त करोगे ।। १ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन ! अपने असंख्यात प्रदेश रूप घर में तुम्हारी प्रभुता है। चेतन के घर में चेतन की प्रभुता है परन्तु जड़वस्तु के सम्बन्ध में चेतन की प्रभुता नहीं है। पर-वस्तु के सम्बन्ध से जो अपनी प्रभुता मानता है वह भ्रान्त है। पर-वस्तु के अहंत्व से रसगारव, ऋद्धि-गारव और शाता-गारव उत्पन्न होते हैं। पर-वस्तु के सम्बन्ध की अहंता से आठ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२५६ प्रकार के अहंकार उत्पन्न होते हैं। पर-जड़ वस्तु के लालच से जीव यत्र-तत्र परिभ्रमण करता है और किसी इष्ट जड़-वस्तु का लाभ होने पर मन में फूल जाता है। धनवान व्यक्ति धन के घमण्ड में फल जाता है, विद्वान् व्यक्ति विद्या के घमण्ड में फल जाता है, कोई व्यक्ति परिवार के घमण्ड से फल जाता है, कोई व्यक्ति लोगों द्वारा मान-सम्मान मिलने से फल जाता है, कोई महात्मा अपने शिष्यों की अधिकता से फल जाता है और कोई किसी वस्तु का लाभ होने पर अभिमान में आ जाता है तथा कोई पर-जड़ वस्तु स्वरूप देह के सौन्दर्य से प्रसन्न होते हैं; परन्तु यह सब भ्रम है। सनत्कुमार चक्रवर्ती को भी रूप के अहंकार से शान्ति प्राप्त नहीं हुई। जड़ वस्तुओं की प्राप्ति से जो व्यक्ति मन में प्रफुल्लित होता है, वह तो ऐसा है जैसे बैलगाड़ी के नीचे कुत्ता चल रहा हो । वह जानता है कि बैलगाड़ी मैं ही चला रहा हूँ। जो महात्मा, शिष्यों अथवा भक्तों की अधिकता से फूला नहीं समाता, वह अज्ञानी है। जो व्यक्ति विषयवासना को प्राप्ति से फलता है, वह कसाई के घर के बकरे के समान है। श्रीमद् आनन्दघन जी अपनी आत्मा को कहते हैं कि हे चेतन ! जड़, कर्म तथा देह आदि के कारण तुम्हारी प्रभुता नहीं आंकी जाती, उल्टी नीचता गिनी जाती है। संसारं के लोग जिसमें प्रभुता मानते हैं, जिनवाणो उसमें नीचता मानती है। अतः प्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार जड़ और चेतन की नीचता एवं प्रभुता को समझकर हे चेतन! अपना शुद्ध स्वभाव ग्रहण करना चाहिए। राग-द्वेष को दूर किये बिना कदापि शान्ति एवं परमात्मा की प्राप्ति नहीं होगी। राग-द्वेष की अशुद्धता दूर करने पर ही सहज सुख की प्राप्ति होगी। अतः अप्रमत्त होकर आत्मा के स्वभाव को ग्रहण करना चाहिए। हे चेतन! तुम जड़ पदार्थ में, 'मैं' तथा 'मेरा' ऐसा प्रत्यय क्यों सोचते हो ? अर्थ-भावार्थ-विवेचन -योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे चेतन ! जब तक तुम्हें तृष्णा एवं मोह है, तब तक चारित्र-नय की अपेक्षा से मिथ्या-भाव ही है। पर के सम्बन्ध की प्राप्ति की तृष्णा जब तक मन में रहती है, तब तक तुम्हें सच्ची शान्ति कदापि प्राप्त नहीं हो सकती। तृष्णा राक्षसी जीवों के भाव प्राण को चूस लेती है। तृष्णा अनेक प्रकार की होती है-धन की तृष्णा, पुत्र की तृष्णा, यश की तृष्णा, सम्मान की तृष्णा, प्रतिष्ठा की तृष्णा, पाँच इन्द्रियों के तेईस विषयों की तृष्णा, देवी भोगों के उपभोग की तृष्णा, परिवार की तृष्णा, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २६० घरबार की तृष्णा, मान्य एवं पूजनीय बनने की तृष्णा, सत्ता की तृष्णा, पदवी एवं उपाधि प्राप्त होने की तृष्णा आदि मिथ्यात्व-भाव हैं । . स्व-संवेदन ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा आत्मा के स्वरूप की प्रतीति हो, उस प्रकार का प्रात्मज्ञान प्राप्त करके भ्रामक विभाव का परित्याग करना उचित है और यही प्रमुख कर्त्तव्य है । क्रोध, मान, माया, लोभ, निन्दा, भोगेच्छा, ममता के विचार, हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह तथा ईर्ष्या एवं स्वार्थ के विचार आदि समस्त पर भाव हैं । हे चेतन ! यदि एक घड़ी का समय भी परभाव रहित व्यतीत हुआ तो वह समय महोत्सव तुल्य मानना ।। ३ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन - श्रीमद् श्रानन्दघन जी के हृदय में बसी समता चेतन को कहती है कि हे चेतनस्वामी ! तुम अपने असंख्यात प्रदेश रूप घर में आओ, परभाव - रमरणता रूपी विषयों का परित्याग करके शुद्ध रमरणता रूपी अमृत रस का पान करो, एक श्वासोच्छ्वास जितना समय भी व्यर्थ मत खोप्रो और सुखदायक परमात्म-पद प्राप्त करो । समता कहती है कि हे चेतन ! तुम ममता का त्याग करके अपने घर में आओ । पर-वस्तु को घोर नींद की तरह भूल जाओ और शुद्ध धर्म के प्रति लक्ष्य रखो ॥ ४ ॥ ( २८ ) ( राग - सारंग ) विचारो । चेतन ऐसा ग्यान सोहं सोहं सोहं सोहं, सोहं अणु न बीया सारो ।। चेतन० ॥ निश्चय स्व लक्षरण अवलंबी, प्रज्ञा छैनी निहारो । इह छैनी मध्य पाती दुविधा, करे जड़-चेतन फारो || चेतन ० तस छैनी कर ग्रहिये जो धन, सो सोहं जानि दरो तुम मोहं हं है तुम सोहं समको ० ।। २ ।। धारो । वारो ।। चेतन ० '०' ।। ३ ।। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६१ कुलटा कुटिल कुबुद्धि कुमता, छंडो व निज चारो। 'सुख प्रानन्द' पदे तुम बेसी, स्व पर कु निस्तारो ।। चेतन० ॥ ४॥ टिप्पणी-यह पद भी श्रीमद् प्रानन्दघन जी का नहीं है। यह भी 'सुख प्रानन्द' नामक कवि द्वारा रचित प्रतीत होता है। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन ! तुम उत्तम आत्मिक ज्ञान की सोचो और जगत् का जड़ वस्तु सम्बन्धी ज्ञान तज कर अध्यात्म ज्ञान ग्रहण करो। स्याद्वाद भाव से आत्मा का स्वरूप पहचान कर अन्तर में 'सोऽहं सोऽहं' शब्द का सूक्ष्म जाप करो। आत्मा में सत्ता से विद्यमान परमात्मत्व 'मैं' ही हूँ। आत्मा ही परमात्मा है, परमात्मा ही सिद्ध है। आत्मा तथा परमात्मा में भेद कराने वाले कर्म हैं । कर्म का नाश होने पर आत्मा ही परमात्मा कहलाता है। आत्मा ही मैं हूँ, आत्मा में जो परमात्मपना है, वही मैं हूँ। ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि अनन्त गुणमय आत्मा मैं हूँ। 'सोऽहं' का जाप श्रेष्ठ है अतः श्वासोच्छ्वास में उपयोग में रहकर इसका जाप करो। हे चेतन ! 'सोऽहं' शब्द के जाप से तुम अपने शुद्ध स्वरूप के उपयोग में रहो ॥१॥ शुद्ध निश्चय नय से आत्मा के शुद्ध लक्षण का अवलम्ब लेकर शुद्ध प्रज्ञा रूपी छैनी को देखो। जड़ और चेतन की जो अशुद्ध एकाकार परिणति हो चुकी है उसके मध्य में पड़कर यह छैनी जड़ एवं चेतन की परिणति को भिन्न करती है। - अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक में शुद्ध प्रज्ञा रूपी छैनी उत्पन्न होती है और वह जड़ एवं चेतन की एकाकार परिणति को दो प्रकार से अलग करती है अर्थात् जड़ को जड़ भाव से बताती है और चेतन को चेतन भाव से बताती है। हंस जिस प्रकार क्षीर-नीर को अलग-अलग करता है, उस प्रकार आत्मा भी शुद्ध प्रज्ञा रूपी छैनी के द्वारा जड़ एवं स्वयं को भिन्न-भिन्न करती है, जिससे आत्मा अपनी सहज दशा की ओर उन्मुख होती है, अर्थात् आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप अंश-अंश प्रकट करती है। इस तरह आत्मा अपनी शुद्धता की वृद्धि करती है। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन! इस प्रकार तुम अपने शुद्ध स्वरूप का विचार करो ॥२॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६२ अर्थ-भावार्थ-विवेचन -श्रीमद् आनन्दघन जी अपनी आत्मा को सम्बोधित करके कहते हैं कि शुद्ध उपयोग रूपी शुद्ध प्रज्ञा की छैनी ग्रहण करके तुम हृदय में सोऽहं का जाप करो, एक क्षण के लिए भी सोऽहं को मत बिसरायो। सोऽहं का पूर्णतः सम्यग अर्थ जानकर हे चेतन ! तुम मोह को दबा दो, जिससे समभाव का समय आयेगा। मोह के विचारों की तरंगें मन में उठते ही उन्हें रोकना चाहिए। मोह के कुविचारों की प्रबलता का निवारण करने के लिए 'सोऽहं' का जाप करना चाहिए। 'सोऽहं' का ज्ञान करने पर उपयोगपूर्वक एकाग्रता से जाप करने से समभाव को वृद्धि होती है। जब तक चित्त 'सोऽहं' के जाप के उपयोग में रहता है, और उसमें ही लीन बना रहता है, तब तक मोह के विचार आते ही नहीं। जब चित्त सोऽहं के उपयोग के आलम्बन से च्युत हो जाता है, तब मन में मोह की परिणति का उदय होता है। सोऽहं के जाप से आत्मा प्रति पल, अनन्तगुनी विशुद्ध बनती है और समभाव रूपी सरोवर. को प्रकट करती है, जिसमें आनन्द-रस का पान करके त्रिविध तापों का शमन करती है ॥३॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जो कहते हैं कि हे चेतन ! तुम कुलटा, कुटिल एवं दुबु द्धि कुमति का परित्याग करो। इसका परित्याग ही चारित्र का परिचायक है। आत्मा के धर्म को छोड़ कर पर जड़वस्तु-सम्बन्धी राग-द्वेष करना ही कुमति का लक्षण है। राग-द्वेष का प्रचार रोक कर अपने शुद्ध स्वरूप का स्मरण करना ही आत्मा का मुख्य धर्म है। आत्मा अपने स्वभाव में रमण करे तो उस पर कर्म के आवरण नहीं लग सकते । अनन्त मुनिगण अपने शुद्धात्म स्वरूप में रमण करके मुक्त हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे चेतन ! तुम तो आत्म-स्थान में बैठो, स्थिर होकर समस्त कर्मों का क्षय करके स्वयं का उद्धार करो और अन्य व्यक्तियों को भी पालम्बन देकर उनका भी उद्धार करो। अब तो समस्त पर-भाव का परित्याग करके अपने शुद्ध स्वरूप का ध्यान करो और उसमें ही तन्मय बनो ॥४॥ ( २६ ) ( राग-कल्याण ) या पुद्गल का क्या विसवासा, है सुपने का वासा.रे । या० ।। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६३ चमत्कार बिजली दे जैसा, पानी बिच्च पतासा। या. देही का गर्व न करना, जंगल होयगा वासा ।। _ या० ।। १ ।। जूठे तन धन जूठे जोबन, जूठे हैं घर वासा । 'प्रानन्दघन' कहे सब ही जूठे, सांचा शिवपुर बासा ।। या० ।। २ ।। टिप्पणो -यह पद भी श्रीमद आनन्दघन जी की भाषा एवं शैली से नहीं मिलता। श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने इसे दिगम्बर जैन कवि श्री भूधरदास का माना है। अर्थ-भावार्थ-विवेचन -योगिराज श्रीमद् अानन्दघन जी कहते हैं कि इस देह रूपी पुद्गल का क्या विश्वास करें? जैसे स्वप्न में किसी हवेली में निवास करने का भास हुअा हो और आँख खुलने पर उसमें से कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। उसी प्रकार यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली देह भो क्षणभंगुर है, अतः इसका क्या विश्वास करें ? अनेक प्रकार के रोगों से देह क्षीण होती है, उसका क्षय होता है। चाहे जितने उपाय करने पर भी देह का अन्त में क्षय हो जाता है। आकाश में विद्युत् की चमक के समान देह का भी अचानक नाश हो जाता है। जिस प्रकार पानी में बताशा पल भर में गल जाता है, उस प्रकार देह भी अचानक क्षण भर में नष्ट हो जाती है। ऐसी नश्वर देह का, क्षणिक देह का गर्व करना सर्वथा अनुचित है। इस देह का अन्त में जंगल में वास होगा, अर्थात् इसे जंगल में लेजा कर जला दिया जायेगा। अतः इस के प्रति हमें ममता नहीं रखनी चाहिए। श्रीमद् आनन्दघन जी अपनी आत्मा को कहते हैं कि हे चेतन ! बाह्य पदार्थों पर ममता रखना सर्वथा अनुचित है। तन, धन एवं यौवन असत्य हैं, घर, हवेलो, महक आदि सब असत्य हैं क्यों कि ये जड़ वस्तु आज तक किसी के साथ नहीं गई और न जायेंगी। आत्म-तत्त्व के अतिरिक्त समस्त वस्तुएँ असत्य हैं। केवल मुक्त होकर मोक्ष में निवास करना ही सत्य है। अतः हे चेतन ! समस्त पर वस्तुओं के प्रति ममत्व त्याग कर अपने शुद्धात्म स्वरूप में रमण कर ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६४ (३०) (राग-बसन्त) तुम ज्ञान विभो फूली बसन्त, मन मधुकर ही सुख सों रसंत । तुम० ।। १ ।। दिन बड़े भये वैराग्य भाव, मिथ्या मति रजनी घटाव । तुम ।। २ ।। बहुफूली फली सुरुचि बेल, ज्ञाता जन समता संग ‘केल । तुम० ।। ३ ।। जानत बानी पिक मधुर रूप, सुरनर पशु प्रानन्दघन सरूप । तुम० ।। ४ ।। टिप्पणी-इस पद की भाषा शैली-भी प्रानन्दघन जी से भिन्न है। इस पद की भाषा 'ब्रज' है जबकि श्रीमद प्रानन्दघन जी की भाषा प्रायः राजस्थानी है। यह पद प्रागरा निवासी द्यानतराय जी का अर्थ-भावार्थ-हे प्रभो! आपके ज्ञानरूपी वसन्त फली है जिसमें मन रूपी मधुकर सुख का रसिक बना है। वैराग्य भाव रूपी दिन बड़े हो गये हैं और मिथ्यामति रूपी रात्रि घटने लगी है। सुरुचि रूपी लताएँ अत्यन्त फली-फली हैं। उस वसन्त में ज्ञाताजन आत्मा स्वयं समतारूपी स्त्री के साथ क्रीड़ा करती रहती है। पिक (कोयल) की मधुर वाणी सचमुच कानों में मधुर लगती है। श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि सुर, मनुष्य एवं पशु भी ज्ञान रूपी वसन्त ऋतु के सम्बन्ध से आनन्दमय बन गये हैं। विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने प्रभु के ज्ञान को वसन्त ऋतु की उपमा देकर अपने आन्तरिक वसन्त का सम्यक् प्रकार से वर्णन किया है। प्रभु के ज्ञान से जीव के हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता है। दुःख-गर्भित वैराग्य एवं मोह-गभित वैराग्य का नाश होने पर ज्ञान-गर्भित वैराग्य प्रकट होता है। परमात्मा की वाणी के द्वारा आत्म-ज्ञान होने पर वैराग्य भाव रूपी दिन बड़ा होता जाता है और मिथ्यामति रूपी रात्रि प्रतिदिन घटती रहती है। ऐसा आन्तरिक Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६५ ज्ञान रूपी वसन्त प्राप्त होने पर भी अनेक प्रकार के आत्मिक धर्म की सुरुचि रूपी लता फलती-फूलती है और उस समय उन लताओं के मण्डप-तले आत्मा समता के साथ बैठकर सहज सुख की क्रीड़ा करती है। आत्मा की वाणी रूपी कोयल सचमुच उस समय सुमधुर गीत गाती है जिससे श्रोता आनन्द-विभोर हो जाते हैं। देवता, मनुष्य एवं पशु भी प्रभु की ज्ञानरूपी वसन्त ऋतु का लाभ लेकर आनन्दरसरूप हो जाते हैं। आत्मज्ञान होने पर आत्मा की शुद्धधर्म की रुचियाँ रूपी अनेक बेलें फैलने और फलने लगती हैं जिससे आत्मा में आनन्द का पार नहीं रहता। श्रीमद् आनन्दघनजी ने आन्तरिक वसन्त ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है। आत्मा का स्वरूप ज्ञान प्राप्त करके देवता, मनुष्य एवं पशु सहजानन्द को प्राप्त करते हैं। मनुष्य को यदि आत्मा में वसन्त ऋतु प्रकट करनी हो तो जैनागमों का अध्ययन करना चाहिए। जब भगवान की वाणी अन्तर में उतरती है तब वसन्त ऋतु खिलने लगती है। आत्मा के ज्ञान-वसन्त में अन्तरंग धर्मरुचि की वृद्धि होती रहती है, जिससे प्रात्मा पुष्ट होती है। प्रात्मा उपशम रस के सरोवर में कीड़ा करती रहती है और वैर, क्रोध, क्लेश आदि की मलिनता नष्ट करती है। (३१) (राग-कल्याण) तज मन कुमता कुटिल को संग । जाके संग कुबुद्धि उपजत है, पडत भजन में भंग । तज० ।। १ ।। कौवे कू क्या कपूर चुगावत, श्वान ही नहावत गंग । खर कू कीनो अरगजा लेपन, मरकट भूषण अंग । तज० ।। २ ॥ कहा भयो पय पान पिलावत, विषहु न तजत भुजंग । प्रानन्दघन प्रभु काली कांबलिया, चढ़त न दूजो रंग । तज० ॥ ३ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २६६ टिप्पणी- श्री कापड़िया जी तथा श्री विश्वनाथप्रसाद जी ने इस पद को 'सूरदास' का माना है। सचमुच, यह पद महाकवि सूरदास का ही है। अर्थ - भावार्थ-विवेचन - पद में कुमति, कुटिल मनुष्यों की संगति का परित्याग करने की हित- शिक्षा दी है। कुमति, कुटिल मनुष्यों की संगति से बालजीव धर्म से भ्रष्ट होते हैं । चाहे जैसे श्रेष्ठ मनुष्य की भी कुसंगति से बुद्धि बिगड़ती है । दुर्जनों की संगति से महान् अनर्थ होता है, अत: जैनशास्त्रों में कुटिल मनुष्यों की संगति का त्याग करने की शिक्षा दी गई है । श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि काले कम्बल पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता । कुटिल मनुष्यों के मन पर सन्तों के उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता । काले कम्बल की तरह जिन मनुष्यों के हृदय पाप कर्मों से काले हो गये हैं उन पर धर्म का श्वेत रंग नहीं चढ़ सकता । जो दूरभव्य एवं अभव्य प्राणी हैं उन्हें धर्म की बातें प्रिय नहीं लगतीं । अतः अध्यात्मज्ञानियों को चाहिए कि वे नास्तिकों एवं शठ मनुष्यों से दूर रहें | ( ३२ ) प्रिय माहरो जोसी, हु पोय री जोसरण, कोई पडोसण पूछो जोस । जे पूछते सगलो कहिसो, सो सौ रहै न रहै कोई सोस । प्रिय० ।। १ ।। तस घन सहज सुभाव विचारे, ग्रह युति दृष्टि विचारौ तोस । शशि दिशि काल कला बलधारे, तत्त्वविचारि मनि नाणं रोस । प्रिय ० ० ।। २ ।। सौ निमित सुर विद्या साधै, जीव धातु मूल फल पोस । सेवा पूजा विधि प्राराधै, परगासै 'आनन्दघन' कोस । प्रिय० ।। ३ ।। शब्दार्थ - माहरो = मेरा, जोसी = ज्योतिषी, जोसण = ज्योतिषी की पत्नी, जोस = ग्रह - फल, सगलो = सम्पूर्ण, सोसौ = संशय, सोस = चिन्ता, तोस = सन्तोष, मनि = मन में, ना = न लावे, रोस क्रोध, सौंग = शकुन, सुरविद्याः = स्वर विज्ञान, कोस = कोष, खजाना । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री आनन्दघन पदावली-२६७ :, . ( ३३ ) द्रग्यौ जु महामोह दावानल, उबरू पार ब्रह्म की अोट । कृपा कटाक्ष सुधा रस धारा, बंचे विसम फाल की चोट । द० ॥ १ ॥ अगज अनेक करी जीय बांधी, दूतर दरप दुरित की पोट । चरन सरन पावत तन-मन की, निकसि गई अनादि की खोट । द० ।। २ ॥ अब तो. गहै भाग बड पायौ, परमारथ सुनाव दृढ़ कोट । निरमल मांनि सांच मेरी कहो, प्रानन्दघन धन सादा अतोट । द० ।। ३ ।। शब्दार्थ --- दग्यौ प्रज्वलित हा, उबरू =मुक्त होऊ, अोट= प्राड, शरण, · बचै बचना, अगज मूर्खता, दूतर दुस्तर, कठिन, दरप=गर्व, दुरित = पाप, पोट=गठरी, अतोट= अटूट। कुण पागल कहुँ खाटु मीठु, रामसनेही नु मुखड़, न दीर्छ। मन विसरामी नु मुखकुन दीर्छ, अंतरजामी नु अंतर जामीनु । जे दीठा ते लागइ अनीठा, मन मान्या विरण किम कहुं मीठा । . धरणी अगास बिचै नहीं ईठा ।। कूरण० ।। १ ॥ ‘जोतां जोतां जगत विशेषु, उण उणिहारइ कोइ न देखु । अणसमझ्यु किम मांडु लेखु । कुण० ।। २ ।। कोहना कोहना घर में जावु, कोहना-कोहना नित गुण गावु । जो प्रानन्दघन दरसरण पावु।। कुण० ।। ३ ।। शब्दार्थ-पागल-आगे। दीर्छ- देखा। अनीठा- अनिष्ट, अप्रिय। धरणी=पृथ्वी। ईठा=इष्ट, प्रिय। विशेषु =परीक्षा की। उण=उस । “उणिहारइ अनुसार, समान। कोहना कोहना=किस किसके। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- २६८ ( ३५ ) मिलरण रो बारणक श्राज बण्यो छे जी । मि० ॥ देरागी जेठानी म्हारी, धंधे लागी निणदल पुत्र जिण्यो छे जी । मि० ।। १ ।। सास करत म्हारी पान पंजीरी, प्राडो पडदो तथ्यौ छे जी । मि० ।। २ ।। श्रानन्दघन पिया भले ही पधारे, मन में उमाहो घरणो छे जी । मि० ॥ ३ ॥ शब्दार्थ – बारणक= वेष, अवसर । निरणदल = ननद । जिण्यो = जन्म दिया । पान पंजीरी = खाने का मिष्टान्न । ( ३६ ) सुरण चरखा वाली चरखो बोले तेरो हुं हुं हुं जल में जाया थल में उपना, बंस गया नगर में आप । एक अचंभा ऐसा देखा, बेटी जाया बाप रे ।। सुरण ० ।। १ ।। भाव भगति की रुई मंगाई, सुरत ज्ञान पींजारो पींजरण बैठो, तांत सासु मरेजो नगद एक बुढ़ी नहिं मरे पींजावरण चाली । रणकाई रे । पकड़ सुरण ० ।। २ ।। आप | मिले तो, बेटी जाया बाप रे । बावल मेरो ब्याव कीजो है, अरणजाण्योवर प्रणजाण्यो वर नहीं . सुरण० ।। ३ ।। मरेजो, परण्यो बी मर जाय । तो तिरण चरखो दीजो बताय रे । चरखो मारो रंग रंगीलो, पूरणी है कातरण वाली छैल छबीली, गिन-गिन काढे सुरण ० ।। ४ ।। गुलजार । तार रे 1 सुरण ० ।। ५ ।। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-२६६ इणी चरखा में हुं हुं लिख्यो है, हुं हुं लिखे नहि कोय । “प्रानन्दघन या लिखे विभुति, आवागमन नहि होय रे । सुण ॥ ६ ॥ टिप्पणी - यह पद गुजराती से प्रभावित है। .. शब्दार्थ - सुरत स्मरण, ध्यान। पीजावण=रुई धुनवाना। पीजारो रुई धुनने वाला। बावल=पिता। ब्याव=विवाह । अणजाण्यो=अपरिचित । परण्यो विवाहित पति । विशेष—पद ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८ व ३९ योगिराज आनन्दघन जी के प्रतीत नहीं होते। सरसती स्वामी करो रे पसाय, हं रे गाऊँ, रूडी कुल बह रे । पीउडो चाल्यो छे परदेश, घेर रही रूडु शीयल पालीये रे । ॥१॥ · हारू वारू सासरडे जाय, नानी ते धनुडी रे रमे ढींगले रे । नरपत परपत निशाले जाय, मानो ते पर्यापत पोढ़ो पालणे रे । ॥ २ ॥ बारे वरसे आव्यो रे नाह, छोकरडाने काजे टाचकडा नवी लाविमो रे । हुं तने पुछु. सुकलीणी नार, पीउ विरण छोकरडा क्याथी प्राविया रे ।। ३ ।। गोत्र देवे कर्यो रे पसाय, सायभोरे भोन पधारिया रे । एटले उठीने भाग्यो रे पीय धन्य पनोती तु कुल बहु रे ॥ ४ ॥ एहनो अनुभव लेस्ये रे जेह, तेहु पामे रूडी कुल बहु रे । . आनन्दघन जपा रे सझाय, सुणतां श्रवणे सुखहीये रे ।। ५ ।। शब्दार्थ-पसाय प्रसाद। रूडी अच्छी। पीयुडो प्रीतमा। शीयल= शील, ब्रह्मचर्य । हारू वारू=हार फिर कर। सासरडे= Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २७० ससुराल । धनुडी = एक प्रकार का खेल । रमे = खेलना । ढींगले= टीले पर । पोढो = शयन करना । पालणे = झूले में । नाह = नाथ, पति । छोकरडाने = बच्चे को । काजे = लिए । 1 टाचकडा = खिलौना । नवी = नहीं | सुकलीणी = सुलक्षणी । भोन = भवन | पधारिया = श्राये । पति । पाँच पीढ़ी । क्यांथी = कहाँ से । सायभो= एटले = इतने में । पनोती == ܘ ( ३८ ) रे परदेशी भमरा मोसु रह्यो नहीं जाय । भंवर विलंव्यो केतकी, समके फूल खुलि जाय ॥। १ तुम बिन मोहे कल न परत है, तलफ तलफ जीउ जाय ।। २ ।। श्रानन्दघन प्रभु तुमरे मिलनवु आनन कलि कुमलाय || ३ || शब्दार्थ - विलंव्यो = लटक गया, लिपट गया । समके = समान । - चैन | आनन = मुँह, चेहरा | कल = ( ३६ ) मगरा ऊपर कवुना बोल्यो, पहुंणा प्राया तीन । पहुंगा थारी मूछां बालू, छाणा क्यों नहीं ल्यायो । करकशा नार मिली छे जी, धन्य पियाजी थारा भाग । ॥ करकशा० ॥ पहुंगा आया देखिने, देखिने, चूल्हो दियो बुझाय । दो लात पहुंगा के मारी, आप बैठी रीसाय । करकशा० ।। १ मोठ बाजरो को पीसरणो, ले बैठी अब जो पहुंगा मुझने कहसी, तो जाय घर में घट्टी घर में ऊँखल, पर घर पाडोसण सेती बात करतां, चून . भर सूप | पडूंगी कूप । करकशा० ।। २ ।। पीसण जाय । कूतरा खाय । करकशा० ।। ३ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली - २७१ माँचो बाल्यो वरलो बाल्यो, बाली डोला की डांडी | छपरो बाल्यो सूपरो बाल्यो, तो न चढ़ी इक हांडी । तीन पाव की सात बनाई, सात पाव की एक । परण्यो डाकी सातों खा गयो, हुं सुलच्छनी एक । न्हाई धोई बेस बरगाई, तिलक सूरज सामी अरज करे छे, कब गंगा न्हाई गोमती न्हाई, बिच में श्राई घाटी । घर में आई जोवियो तो, श्रजहि न प्रो भाटी । करकशा० ।। ४ ।। • करकशा० ।। ५ ।। - करकशा० ।। ६ ।। कर्यो अपार । मरसी भरतार | श्रानन्दघन कहे सुन भाई सांधु, एह पद है सुखदाई । इस पद की निन्दा करे तो, नरक निगोद निसाणी । बालू =जलाऊँ । छाणा = गोबर के कण्डे । | ऊँखल = जिसमें पीसरण) = पीसने के लिए रखी हुई वस्तु छाजला । घट्टी = चक्की । भूसी अलग की जाती है । खाट । वरलो बरगद या की। डांडी = डंडी । भाटी करकशा० ।। ७ ।। टिप्पणी - यह पद भी श्रीमद् श्रानन्दघन जी का नहीं है । आठवीं गाथा में तुक भी नहीं मिलती । 'आनन्दघन कहे सुन भाई साधु' इस प्रकार कहीं भी श्रीमद् श्रानन्दघन जी के पदों में नहीं मिलता । इस प्रकार की छाप तो कबीर के पदों में दृष्टिगोचर होती है । यह पद श्री जगड़जी के संग्रह में एक पत्र पर लिखा हुआ मिला है । करकशा० ॥ ८ ॥ शब्दार्थ – मगरा=पर्वत । कवुना = कौा । पहुंणा - प्रतिथि | रीसाय = क्रोधित होकर । सूप = अन्न फटकने का अन्न डालकर मूसल से चन = = आटा । कूतरा = कुत्ता | माँचो = पीपल की लकड़ी । डोला की = दीवार भट, योद्धा । कद = कब | Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२७२ (४०) (राग-वेलावल) मेरे ए प्रभु चाहिये, नित्य दरिसन पाउ । चरण कमल सेवा करू, चरणे चित्त लाउ ।। मेरे० ।। १ ।। मन पंकज के मोल में, प्रभु पास बेठाउ। . निपट नजीक हो रहुं, मेरे जीव रमाउ ।। मेरे० ।। २ ।। अंतरजामी पागले, अंतरिक गुण गाउ । ' आनन्दघन प्रभु पास जो मैं तो और न ध्याउ ।। मेरे० ।। ३ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन -योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे प्रभो! मेरी यही चाह है कि मैं नित्य आपके दर्शन पाऊँ। मेरो यही अभिलाषा होती है कि नित्य आपके चरण-कमलों की सेवा करूँ और आपके चरणों में मैं अपना चित्त रखू। हे पार्श्वनाथ प्रभो ! मन पङ्कज के महल में आपको बिठाऊँ और नित्य आपके आत्मा के समीप रहूँ और अपने जी को मैं वहाँ खिलाऊँ। मेरे अन्तर्यामी ! आपके समक्ष मैं आपके आन्तरिक गुण गाता हूँ, उनका स्मरण करता हँ और तन्मय होता है। श्रीमद् कहते हैं कि हे पार्श्व प्रभो! आप जैसे सर्वज्ञ वीतराग को पाकर मैं अन्य देवों का कदापि ध्यान करने वाला नहीं हूँ। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी भगवान श्री पार्श्वनाथ की इस प्रकार स्तुति करके अपने अन्तर में अपूर्व ज्ञान-भक्ति रस जाग्रत होने का अनुभव करते हैं। भक्ति-रस के रसिक योगिराज अपने अन्तर में पार्श्व प्रभु को स्थापित करते हैं और वे पार्श्व प्रभु के अतिरिक्त अन्य कुदेव का ध्यान नहीं करने का प्रण करते हैं। वे परमात्मा के पालम्बन से अपनी आत्मा को शुद्ध करते हैं। परमात्मा की नवधा भक्ति करने से भक्त स्वयं परमात्मा रूप बन जाता है। कलियुग में भक्ति-योग का महान् पालम्बन है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ज्ञानयोगी एवं भक्ति-योगी थे। उनकी आत्मा अत्यन्त उज्ज्वल थी जिससे परमात्मा की स्तुति में तन्मय होकर वे बाह्य जगत् का ध्यान भूल जाते थे । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - २७३ ( ४१ ) निरंजन यार मोय कैसे मिलेंगे ? दूर देखूं मैं दरिया डूंगर ऊँची बादर नीचे जमीं युं तले । निरं० ॥ १ ॥ धरती में घडुता न पिछानु, अग्नि सहु तो मेरी देही जले । निरं० ।। २ ।। आनन्दघन कहे जस सुनो बातां, ये ही मिले तो मेरो फेरो टले । निरं० ॥ ३ ॥ अर्थ- भावार्थ - विवेचन—- योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी और उपाध्याय श्रीमद् यशोविजय जी दोनों का मिलाप हुआ । उपाध्याय जी को योगिराज के प्रति पूज्य भाव था । श्रीमद् श्रानन्दघन जी भी उपाध्याय जी को गीतार्थ धर्म-रक्षक मानते थे । श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि कर्म रूप अंजन से रहित - परमात्मा स्वरूप शुद्ध मित्र से मेरा मिलाप कब होगा ? निरंजन निराकार प्रभु की प्राप्ति मुझे कैसे होगी ? यदि मैं दूर देखता हूँ तो समुद्र और पर्वत दृष्टिगोचर होते हैं और यदि आकाश में ऊपर देखता हूँ तो बादल दिखाई देते हैं, नीचे भू-तल दिखाई देता है परन्तु निरंजन परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती । अरूपी परमात्म स्वरूप का मिलाप नहीं हो रहा । यदि मैं पृथ्वी में प्रविष्ट करके देखता हूँ तो वहाँ भी निरंजन परमात्मा दृष्टिगोचर नहीं होते । यदि मैं पंचाग्नि की साधना करता हूँ तो मेरी देह जलती है । मैं अनेक कष्ट सहन करता हूँ तो भी निरंजन यार का मिलाप नहीं होता । अतः अब मैं क्या उपाय करूँ ताकि निरंजन परमात्मा मित्र की प्राप्ति हो ? श्रीमद् श्रानन्दघन जी कहते हैं कि हे यशोविजय जी उपाध्याय ! निरंजन यार से मिलाप हो तो ही मेरा भव - भ्रमरण का फेरा टल सकता है। निरंजन यार मिले बिना चार गति रूपी परिभ्रमण टलने वाला नहीं है । आत्मा रूपी निरंजन की प्राप्ति होना कोई सामान्य बात नहीं है । सब वस्तु की प्राप्ति की जा सकती है, परन्तु निरंजन परमात्म पद की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है । इसके लिए तो अनुभवज्ञान की आवश्यकता है । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २७४ । इस कारण ही उन्होंने 1 । योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी के मन में परमात्मा की प्राप्ति की अनन्य उत्कण्ठा प्रकट हुई थी और उन्होंने निराकार प्रभु का ध्यान करने की अमुक योग्यता प्राप्त कर ली थी निरंजन यार के विरह के उद्गार प्रकट किये थे पृथ्वी में समाधि लेने वाले हठयोगियों का उन्होंने खण्डन किया है । ' पृथ्वी में गलकर मैं निराकार परमात्मा को पहचान नहीं सकता।' उन्होंने पंचाग्नि तप को भी अज्ञानमय कष्ट बताया है क्योंकि अग्नि में देह जलने से कोई कर्म नहीं जल जाते । वे मानते हैं कि साकार वस्तु में निराकार परमात्मा का आरोप करके निरंजन की भक्ति करने से निरंजन की प्राप्ति होती है । योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी ने निरंजन सिद्ध परमात्मा को मित्र के रूप में सम्बोधित किया है । उनमें सिद्ध परमात्मा से मित्रता करने की योग्यता थी । इसी कारण से उनके अन्तर में से निरंजन यार के विरह के उद्गार प्रकट हुए हैं । ( ४२ ) (राग - श्रासावरी ) हमारे, काया चलो संग हमारे । अब चलो संग तो बहोत यत्नकरी राखी, काया अब चलो संग हमारे ।। १ ।। झूठ अपारे । तोये कारण मैं जीव संहारे, बोले चोरी करी पर-नारी सेवी, जूंठ धारे । काया० ।। २ ॥ पर आभूषण सुंघा चुना अशनपान फेर दिने खट रस तोये सुन्दर, ते सब परिग्रह नित्य न्यारे । मल कर डारे । जीव सुगो या रीत अनादि, कहा कहत मैंन चलूंगी तोये संग चेतन, पाप-पुण्य काया० ।। ३ ।। बारंबारे । दोय लारे | जिनवर नाम सार मज आतम, कहा मरम सुगुरु वचन प्रतीत भये तब, आनन्दघन काया० ।। ४॥ संसारे । उपगारे | काया० ।। ५ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२७५ भावार्थ-इस पद में चेतन मरते समय काया को अपने साथ चलने के लिए अनेक युक्तियों से बोध देता है। उसका उत्तर देती हुई काया कहती है कि हे चेतन ! अनादिकाल से मेरी ऐसी रीति है कि मैं एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय साथ नहीं जाती। हे चेतन ! तेरे साथ मेरे सम्बन्ध के कारण तेरे द्वारा किये हुए पुण्य और पाप साथ आयेंगे, जिससे पर-भव में तू पुण्य-पाप के कारण शुभ-अशुभ देह धारण करेगा और सुख-दुःख भोगेगा। संसार में केवल जिनेश्वर भगवान का नाम ही सत्य है। सुगुरु के वचनों से आत्मधर्म की प्रतीति होती है। अतः श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि वह समस्त उपकार सुगुरु का है। (४३ ) हुं तो प्रणमु सद्गुरु राया रे, माता सरसती वंदु पाया रे । हुं तो गाऊँ आतमराया, जीवन जी बारणे मत जाजो रे । तुमे घर बैठा कमावो, चेतन जी बारणे मत जाजो रे ॥ १ ॥ तारे बाहिर दुर्गति राणी रे, केता शुकुमति कहे वाणी रे । तुने मोलवी बाघशे ताणी ।। जीवन जी० ॥ २ ॥ तारा घरमा छे त्रण रतन रे, तेनु करजे तु तो जतन रे । . . ए प्रखूट खजानो छे धन्न ।। जीवन जी० ॥ ३ ॥ तारा घरमां बैठा छे धुतारा, तेने काढो ने प्रीतम प्यारा रे । - एहथी रहोने तुमे न्यारा ।। जीवन० ।। ४ ।। सत्तावन ने काढो घर में बैठा थी रे , वीश ने कहो जाये इहांथी रे । पछी अनुभव जागशे मांहे थी रे ।। जीवन० ॥ ५ ।। सोल कषाय ने दियो शीख रे, अढार पापस्थानक ने मंगावो भीख रे । पछे आठ करम नी शी बोक ।। जीवन० ।। ६ ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२७६ चार ने करो चकचूर रे, पांचमी शु थामो हजूर रे । पछे पामो प्रानन्द भरपूर ।। जीवन० ।। ७ ।। विवेक दोवे करो अजुवालो रे, मिथ्यात्व अंधकार टालो रे । - पछे अनुभव साथे म्हालो ।। जीवन० ॥ ८ ॥ सुमति साहेली शु खेलो रे, दुर्गति नो छेड़ो मेलो रे । पछे पामो मुक्तिगढ़ हेलो ।। जीवन० ।। ६ ।। ममता ने केम न मारो रे, जीती बाजी कांई हारो रे । __ केम पामो भवनो पारो ।। जीवन० ।। १० ।। शुद्ध देव गुरु सुपाय रे, मारो जीव आवे कांई ठाय रें। पछे प्रानन्दघन मम थाय ।। जीवन० ।। ११ ।। टिप्पणी-यह पद साराभाई मणीलाल' नवाब द्वारा सम्पादित 'श्री आनन्दघन पद्य रत्नावली' पुस्तक से उद्धत किया गया है। पद की भाषा गुजराती होने के कारण निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि प्रस्तुत पद श्रीमद् आनन्दघन जी का ही है। (४४) . , कन्थ चतुर दिल ज्ञानी हो मेरे, कन्थ चतुर दिल ज्ञानी । जो हम चहेनी सो तुम कहेनी, प्रीत अधिक पिछानी । कन्थ० ।। १ ॥ एक बूद को महल बनायो, तामे ज्योत समानी । दोय चोर दो चुगल महल में, बात कछु नहि छानी । कन्थ० ।। २ ।। पाँच अरु तीन त्रियाजी मन्दिर में, राज्य करे राजधानी। . एक त्रिया सब जग वश कीनी, ज्ञानखड्ग वश पानी। कन्थ० ।। ३ ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२७७ चार पुरुषं मन्दिर में भूखे, कबहु त्रिपत न पानी। दश असली एक असली बूजे, बूजे ब्रह्मज्ञानी । कन्थ० ।। ४ ॥ चार गति में रुलता बीते, कर्म को किणहु न जाणी। प्रानन्दघन इस पद कुबूजे, बूजे भविक जन प्राणी । कन्थ० ।। ५ ।। इस पद में योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने अध्यात्म रस का प्रवाह बहाया है। चतुर कन्त को सम्बोधित करके उन्होंने अध्यात्मज्ञान की गूढ़ बातें बताई हैं। (४५) (प्रभाती आसावरी) रातडी रमीने अहियां थी प्राविया ।। ए देशी ।। मूलडो थोडो भाई व्याजडो घणो रे, केम करी दोधो रे जाय?। तलपद पूजी में प्रापी सघली रे, तोहे ब्याज पूरु नवि थाय । मूलडो० ॥ १ ॥ व्यापार भागो जलवट थलवटे रे, धोरे नहीं निसानी माय । व्याज छोडावी कोई खंदा (कांधा) परठवे रे, .. . तो मूल प्रापु सम खाय ।। मूलडो० ।। २ ।। हाटडु मांडुरूडा माणक चोकमां रे, साजनीयांनु मनडुमनाय । प्रानन्दघन प्रभु शेठ शिरोमणि रे, बांहडी झालजो रे प्राय । मूलडो० ।। ३ ।। अर्थ-भावार्थ-विवेचन-श्रीमद् आनन्दघन जी महाराज कहते हैं कि कर्म की कैसी विचित्र गति है ! मूल पाठ कर्म हैं और उनकी एक सौ अठावन प्रकृतियाँ हैं। एक बार किये गये पाप का दस गुना विपाक होता है, अतः कर्म के विपाकोदय के समय यदि उपयोग नहीं रखा जाये तो अन्य कर्मों का बन्ध हो जाता है और इस प्रकार कर्मों की Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२७८ परम्परा में वृद्धि होती है। मूल कर्म अल्प होते हैं और उनकी परम्परा रूप ब्याज कर्म अधिक होते हैं। मूलकर्म विपाकोदय में आते हैं और उन्हें भोग कर मूलकर्म चुकाने से पूर्व तो उनका ब्याज रूप परम्परा कर्म बहुत बढ़ जाता है। अब कर्म रूपी ऋण मैं कैसे चुका सकता हूँ। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार समस्त सम्पत्ति दे दी तो भी परम्परा कर्म वृद्धि रूप ब्याज चुकता नहीं हो रहा है। कर्म का विपाकोदय भोगते समय प्रात्मा छटपटाती है जिससे नये कर्म बँधते हैं ।। १ ।। - अर्थ-भावार्थ-विवेचन- योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि प्रमत्त आदि दशा के कारण और पूर्व भव में किये हुए कर्मों के उदय से धर्म का व्यापार टूट गया। श्रुत एवं चारित्र धर्म थल-मार्ग एवं जल-मार्ग के व्यापार के समान हैं। श्रत एवं चारित्र के बिना धर्म रूपी धन की वृद्धि नहीं होती। धर्म रूपी धन की वृद्धि के लिए आगमों रूपी श्रुत का अध्ययन करना चाहिए तथा जिनेश्वर-कथित चारित्र ग्रहण करना चाहिए। श्रुतधर्म और चारित्र धर्म में प्रमाद करने से दो मार्गों का व्यापार टूट जाता है और निर्धनता आ जाती है। प्रामाणिकता की निशानी माँग कर व्यापार करने के लिए ऋण दिया जाता है । कोई सद्गुरु कर्म-परम्परा की वृद्धि रूपी ब्याज छुड़वाकर कर्म के कांधे दे अर्थात् कोई मुनिवर कृपा करके ऐसा बोध दे जिससे पूर्व कर्म भोगने के पश्चात् नवीन परम्परा वृद्धि रूपी ब्याज से मुझे मुक्ति मिले । यदि पूर्वकृत कर्म के विपाकोदय को भोगते समय नवीन कर्म नहीं बँधे, ऐसी दशा करा सके तो मैं प्रणपूर्वक कहता हूँ कि समस्त कर्मों को भोग कर कर्म का ऋण सर्वथा चुका दूगा ॥२॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि इस प्रकार कोई मुनिवर कर्म के कांधे कर दे और ब्याज छुड़वा दे तो मैं विवेकरूपी माणेकचौक में धर्म की महान् दुकान प्रारम्भ कर दूं और क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (निर्लोभ), तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचनता एवं ब्रह्मचर्य रूप स्वजनों का मन मनाकर अपना व्यवसाय प्रारम्भ करूं। श्रीमद् आनन्दघन जी ने दीक्षा अंगीकार की थी, अतः Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२७६ वे कहते हैं कि चारित्र में विशेष स्थिर बनूं और सिद्धान्तों का विशेष अध्ययन करूं; प्रमाद दशा टाल कर अप्रमत्त गुणस्थान में रहूँ; ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की सम्यक् प्रकार से आराधना करूँ; नवीन कर्म नहीं बाँधू और पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा करूं तथा वैराग्य भावना के द्वारा समस्त गुणों की पुष्टि करूं। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि समस्त प्रकार के धर्म में श्रेष्ठ-शिरोमणि हे तीर्थंकर परमेश्वर ! आप आकर मेरी भुजा पकड़ो अर्थात् मेरी धर्म-व्यापार में सहायता करो और मुझे क्षायिक धर्मऋद्धि से भरपूर आपके समान बनायो । प्रभो ! मैं आपका आलम्बन लेता हूँ ।। ३ ।। (४६ ) चेतन पापा कैसे लहोई, चेतन । सत्ता एक अखंड अबाधित, इह सिद्धान्त परख जोइ । . चेतन० ।। १ ।। अन्वय अरु व्यतिरेक हेलु को, समज रूप भ्रम खोई । आरोपित सर्वधर्म और है, आनन्दघन तत सोइ । चेतन० ।। २ ॥ अर्थ-भावार्थ-विवेचन–अपने आत्मस्वरूप को कैसे पाया जा सकता है ? चेतन प्रश्न करके कहता है कि प्रात्मा को आत्मा के रूप में अनुभव किये बिना आत्म-तत्त्व की प्रतीति नहीं होती। अतः आत्मा की सत्ता एक है, आत्मा अखण्ड है, आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। आत्मा के एक प्रदेश का भी कदापि नाश नहीं हुआ और न होगा। आत्मा की सत्ता कदापि खण्डित नहीं होती। आत्मा की चैतन्य धर्म की सत्ता का कदापि नाश नहीं होता। इस प्रकार सिद्धान्तों के पक्ष से आत्मा का सत्ता में रहा हुआ स्वरूप जानना चाहिए। कर्मग्रन्थ, तत्त्वार्थ-सूत्र, विशेषावश्यक, प्राचारांग और भगवती सूत्र आदि सिद्धान्तों से आत्मा का सम्यक् स्वरूप जाना जा सकता है ।। १ ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८० अर्थ-भावार्थ-विवेचन-जिसके सत्त्व से जिसका सत्त्व हो उसे अन्वय हेतु समझ और जिसके प्रभाव से जिसका प्रभाव हो उसे व्यतिरेक हेतु कहा जाता है। आत्मा का अस्तित्व होने पर ही ज्ञान का अस्तित्व है। जहाँ आत्मा नहीं है वहाँ ज्ञान नहीं है-जैसे जड़ वस्तुएँ। इस प्रकार प्रात्मा की सिद्धि अन्वय और व्यतिरेक से होती है। आत्मा है, आत्मा कर्म का कर्ता है और कर्म का भोक्ता है तथा आत्मा कर्म का संहर्ता है। आत्मा से कर्म छूटते हैं अतः मोक्ष है और मोक्ष के उपाय हैं। इन छः तथ्यों पर विशेष चिन्तन करके आत्मा के स्वरूप का ध्यान करने से आत्मा का अनुभव आता है। प्रात्मा का ज्ञान होने पर बहिरात्म बुद्धि का नाश होता है और अन्तरात्मत्व प्रकट होता है; बाह्यदशा का भ्रम दूर होता है और अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए सतत इच्छा प्रकट होती है और आत्मा अपने भीतर परमात्मपने की सत्ता को देखता है ।। २ ॥ . . Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य कहते हैं कि श्रीमद् श्रानन्दघनजी के स्तवनों का प्राशय जानने के लिए श्री ज्ञानविमल सूरिजी सूरत में सूर्यमण्डन पार्श्वनाथ भगवान के . जिनालय में छह माह तक ध्यानस्थ रहे थे और तत्पश्चात् उन्होंने उन स्तवनों के अर्थ लिखे हैं । श्रीमद् के स्तवनों में भक्ति की पराकाष्ठा भगवान श्री अजितनाथजी, श्री सम्भवनाथजी, श्री पद्मप्रभुजी, श्री विमलनाथजी आदि के स्तवनों को ध्यान से देखा जाये तो श्रीमद् की प्रभु के प्रति कितनी अनन्य भक्ति थी, उसका खयाल आता है । प्रभु के साथ मिलाप का तथा उनके साथ एक होने का भाव श्रीमद् का अपूर्व था । 'उनके हृदय के उद्गारों में उनकी आध्यात्मिक दशा तथा भक्ति की एक श्रेष्ठतम झलक दृष्टिगोचर होती है । तीर्थंकरों की वास्तविक स्तुति : योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी ने 'चौबीसी' नामक कृति में तीर्थंकरों के गुणों की वास्तविक स्तुति की है। चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथजी के स्तवन में उपदेशयुक्त स्तवना का आभास है । श्री श्रेयांसनाथ प्रभु के स्तवन में अध्यात्म का समावेश किया गया है । भगवान श्री कुन्थुनाथ के स्तवन में मन से सम्बन्धित विचार व्यक्त करके श्री कुन्थुनाथ की स्तवना की गई है। शास्त्रों में उल्लिखित दर्शन-भेद एवं हेतु नयों के द्वारा श्री मुनिसुव्रत स्वामी तथा श्री नमिनाथ भगवान स्तवना की गई है। श्री नेमिनाथ की स्तवना में उन्होंने राजीमती के उपालम्भों से युक्त स्तवना की है । सेवा के वास्तविक उद्गार युक्त विचारों के द्वारा उन्होंने श्री संभवनाथ जिनेश्वर की स्तवना की है । इस Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८२ प्रकार तीर्थंकरों द्वारा कथित गुणों को सम्बोधित करके वास्तविक वर्णन किया गया है। श्रीमद् विहार करते-करते एक बार मेड़ता गये थे। वहाँ एक सेठ की युवा पुत्री का पति चल बसा। युवती पति के साथ जलकर सती होना चाहती थी। उस समय श्रीमद् गाँव के बाहर श्मशान की ओर एक स्थान पर बैठे थे। युवती वहाँ होकर श्मशान की ओर जा रही थी। श्रीमद् ने उसके समीप जाकर उसे भाँति-भाँति से समझाया और कहा कि शव के साथ जल मरने से तुझे तेरे पति का मिलाप होना दुर्लभ है। यदि तू अष्टकर्मरहित, शुद्ध-बुद्ध परमात्मा श्री ऋषभदेव भगवान को आत्मा में रही हुई चेतना के निमित्त कारण रूप में प्रति माने तो आत्मा शुद्ध बने। इस प्रकार उस सेठ-पुत्री को उपदेश देते-देते श्रीमद् आनन्दघनजी जिनेश्वर श्री ऋषभदेव की भक्ति में तन्मय होकर हृदय के उद्गारों के रूप में चौबीसी का प्रथम. स्तवन ललकार उठे........ 'ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, और न चाहूँ रे कन्त' Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन चौबीसी स्तवन ( १ ) श्री ऋषभ जिन स्तवन ( राग मारू : करम परीक्षा करण कुंवर चल्यो, ए देशी) ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो और न चाहूँ कंत । , झ्यो साहब संग न परिहरे, भांगे सादि अनन्त । ऋ० ।। १ ।। प्रीत सगाई जगमा सहु करे, प्रीत सगाई न कोय । प्रीत सगाई निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय । ऋ० ।। २ ।। को कन्त कारण काष्ठ भक्षण करें, मिलस्यूं कंत नै धाय । ए मेलो नवि कुदिये संभवे, मेलो ठाम न ठाय ।। ऋ०।। ३ ।। कोइ पति रंजन प्रति घणुं तप करें, पति रंजन तन ताप । ए पति रंजन मैं नवि चित्त ध, रंजन धातु मिलाप । ऋ० ।। ४ ।। कोइ कहै लीला ललक अलख तरणी, लख पूरे मन ग्रास । दोषरहित ने लीला नवि घटै, लीला दोष विलास । ऋ० ।। ५ ।। चित्त प्रसत्ति पूजन फल का, पूजी प्रखंडित एह । कपट रहित थई प्रातम अरपणा, 'श्रानन्दघन' पद रेह | ऋ० ।। ६ ।। शब्दार्थ - प्रीतम = अत्यन्त प्रिय स्वामी | कंत = पति । इयो = प्रसन्न हुमा परिहरं = छोड़ता है । निरुपाधिक = उपाधि रहित, अलौकिक । सोपाधिक= उपाधियुक्त । को = कोई | काष्ठ = लकड़ी । धाय = दौड़कर | कदिये कभी भी । ठाम = स्थान । ठाय = स्थिति । रंजन = प्रसन्न करने के लिए । ललक = उत्कट अभिलाषा । प्रसत्ति = प्रसन्नता । रेह् = रेखा, चिह्न, लक्षण । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८४ अर्थ-भावार्थ-शुद्ध चेतना अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि श्री ऋषभदेव जिनेश्वर मेरे प्रियतम हैं। अत: मैं अब किसी अन्य को अपना स्वामी बनाना नहीं चाहती। मुझ पर प्रसन्न हुए मेरे ये स्वामी मेरा साथ कदापि नहीं छोड़ेंगे। इनके सम्बन्ध का आदि तो है किन्तु अन्त नहीं है अर्थात् अब मेरा और इनका साथ छूटने वाला नहीं है। यह साथ अनन्तकालीन है ।। १ ॥ संसार में प्रेम-सम्बन्ध तो सभी करते हैं किन्तु वास्तव में यह कोई प्रेम-सम्बन्ध नहीं है। मेरा प्रेम-सम्बन्ध तो निरुपांधिक है अर्थात् उपाधि रहित है और संसार में जो प्रेम-सम्बन्ध है वह उपाधियुक्त है जो प्रात्म-ऋद्धि को खोने वाला है, आत्म-ऋद्धि का विनाशक है ॥२॥ संसार में प्रेम-सम्बन्ध के कारण कोई पत्नी अपने पति की मृत्यु पर उसकी चिता के साथ जल जाना चाहती है और आशा करती है कि इस प्रकार मेरा पति के साथ शीघ्र मिलन हो जायेगा; परन्तु मिलन का कोई निश्चित स्थान नहीं होने से मिलन कदापि सम्भव नहीं है ।। ३ ।। . कोई पत्नी पति को रिझाने के लिए अनेक प्रकार के उग्र तप करती है और समझती है कि देह को तपाने से ही पति प्रसन्न होंगे। इस प्रकार से मिलाप की इच्छा तो शारीरिक धातु के मिलाप की 'प्रात्मा ही परमात्मा है। उससे मिलने के लिए परमात्मा के शुद्ध स्वरूप के साथ आत्मा का तन्मय हो जाना ही सच्चा रंजन है ।' ऐसे ज्ञान-घन अध्यात्मयोगी श्री आनन्दघन जी को हमारे कोटि-कोटि वन्दन ! जय मेवाड़ ब्राण्ड डबल फिल्टर्ड एग मार्क 'मूगफली का तेल' प्रयोग करें। 8 आदिनाथ ऑयल इण्डस्ट्रीज ० . रेलवे स्टेशन के पास, भिण्डर-३१३ ६०३ ।। - - - - - - - - - - -- Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२८५ इच्छा है। शुद्ध चेतना कहती है कि इस प्रकार से पति को प्रसन्न करना मैंने कदापि सोचा ही नहीं। वास्तव में, पति को प्रसन्न करने का तरोका तो धातु-मिलान को तरह है। जिस प्रकार स्वर्ण-चांदी मिलकर एक हो जाते हैं, उसी तरह पति को प्रसन्न करने के लिए उसकी प्रकृति में स्वयं को समर्पित करके एकरस होना है ।। ४ ॥ कतिपय मनुष्य कहते हैं कि ईश्वर को यह लोला है, वह सबकी इच्छात्रों को जानता है और इच्छानों को जानकर वह सबकी आशाएँ पूर्ण करता है। शुद्ध चेतना का कथन है कि दोष-रहित परमात्मा में यह लोला सम्भव नहीं होतो क्योंकि लोला तो दोषों का विलास है ।।५।। पति को चित्त-प्रसन्नता हो पति-भक्ति का फल कहा गया है। पति को प्रसन्न रखने को यह सेवा हो अखण्डित पूजा है, भक्ति है। कपट-रहित होकर भिन्नता का भाव त्याग कर स्वयं को पति के प्रति समर्पित कर देना हो, भगवान में चित्तवृत्ति को लोन करना ही, श्रीमद् अानन्दघन जो कहते हैं कि मोक्ष-पद को रेखा है अर्थात् अनन्त सुख प्राप्त करने का मार्ग है ।। ६ ।। . . ( २ ) श्री अजित जिन स्तवन . (राग -प्रासावरो; म्हारो मन मोह्यो श्री विमलाचले रे, ए देशी) पंथड़ो निहालु बोजा जिन तणो, अजित-अजित गुणधाम । जे ते जोत्या तेणे हुं जोतियो रे, पुरुष किश्यु मुझ नाम । पंथ० ।। १ ।। चरम नयन करि मारग जोवतो, भूल्यो सयल संसार । जिण नयने करि मारग जोइये रे, नयण ते दिव्य विचार । पंथ० ।। २ ॥ . पुरुष परम्पर अनुभव जोवतां, अंधो अंध पलाय । वस्तु विचारे जो प्रागमे करी रे, चरण धरण नहीं ठाय । पंथ० ।। ३ ।। 31-11 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २८६ तर्क विचारे वाद परम्परा रे, पार न पहुँचे कोय | अभिमत वस्तु वस्तुगते कहे रे, ते विरला जग जोय । पंथ० ।। ४ ।। वस्तु विचारे दिव्य नयरण तरणो रे, विरह पड्यो निरधार । तरतम जोगे रे तरतम वासना रे, वासित बोध आधार । पंथ० ।। ५ ।। काल-लब्धि लहि पंथ निहालस्युं रे, ए आशा अवलम्ब । ए जन जीवै जिनजी जाणजो रे, 'प्रानन्दघन' मत अम्ब । पंथ ० ।। ६ ।। निहालूँ = देखता हूँ | बीजा = दूसरे । शब्दार्थ –पंथड़ो = मार्ग | तणो का | अजित = प्रजेय, द्वितीय तीर्थंकर का नाम । धाम = घर, मण्डार ॥ किश्यु = कैसा | तिरण = उनसे । हूँ = मैं | चरम = चर्म । जोवतो = देखता हुआ । सयल = सकल । पलाय= दौड़ता है । ठांय स्थान | अभिमत = इच्छित । वस्तु = तत्त्व | विरला = कोई । वासित = गंधयुक्तः । काललब्धि = योग्य समय । लहि = प्राप्त करके । अवलम्ब= सहारा । अम्ब= ग्राम । अर्थ - भावार्थ - दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ जिनेश्वर के उस मार्ग की ओर निहारता हूँ, जिस मार्ग में उन्होंने सिद्धि प्राप्त की है और जिस मार्ग का उन्होंने उपदेश दिया है । आपका 'अजित' नाम और 'गुणधाम' विशेषण दोनों युक्तिसंगत हैं क्योंकि श्राप राग-द्वेष आदि शत्रुत्रों से अजेय हैं और अनन्त गुणों के धाम हैं। मेरा 'पुरुष' नाम कैसा ? पुरुषार्थ के बिना पुरुष कहलाना निरर्थक है क्योंकि आपने जिन रागादि शत्रुओं को जीता था, उनसे मैं जीत लिया गया हूँ। मैं उनसे पराजित हो गया हूँ ।। १॥ आपके मार्ग को आप द्वारा बताये गये आध्यात्मिक मार्ग को चरम नेत्रों से देखते हुए तो समस्त संसार भूला भटका हुआ ही है । जिन नेत्रों के द्वारा आपका मार्ग दृष्टिगोचर हो सकता है उन नेत्रों को तो दिव्य ( अलौकिक ) ही समझो। आपके स्याद्वाद मार्ग को देखने के लिए ज्ञान चक्षु ही उपयोगी हैं ॥ २ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२८७ गुरुयों की परम्परा के अनुभव की ओर यदि देखें तो प्रतीत होता है कि अन्धा अन्धे के पीछे भागा जा रहा है। पारस्परिक निन्दा में अनेक परम्पराएँ राग-द्वेष की वृद्धि करने वाली हैं। वे अन्धों के पीछे अंधों की दौड़ के समान हैं। यदि आगमों के आधार पर, सिद्धान्तों के अनुसार मार्ग का विचार किया जाये तो चरण रखने के लिए भी कहीं स्थान नहीं है। तात्पर्य यह है कि आगमों के अनुसार कषायों आदि पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन कार्य है ॥३॥ तर्क के आधार पर आपके मार्ग का विचार किया जाये तो वादों की परम्परा ही दृष्टिगोचर होगी। अतः तर्क से आपका मार्ग प्राप्त करना असम्भव है। · इच्छित मार्ग, प्रभु के मार्ग का यथार्थ स्वरूप बताने वाले तो संसार में विरले ही हैं। प्रात्मानुभूति के बिना मार्ग का स्वरूप कौन बता सकता है ? ॥ ४ ॥ यथार्थ मार्ग बताने वाले दिव्य (अलौकिक) नेत्रों का तो इस समय अभाव ही है, किन्तु इस समय तो क्षयोपशम योग्यता के अनुसार जिनमें न्यूनाधिक ज्ञान-संस्कार हैं, वे ही श्रद्धा के आधार हैं ।। ५ ।। _ विवेचन --अपने आराध्य प्रियतम के लिए श्रीमद् का हृदय तड़प रहा है। उनकी खोज में बे आचार्यों के पास जाते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, तर्क करते हैं परन्तु आराध्य का मार्ग उन्हें नहीं मिलता। इस समय तो जो साधन उपलब्ध हों उनसे हो लाभ उठाना चाहिए ।। ५ ।। द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ प्रभु के उस मार्ग को श्री आनन्दघनजी योगिराज निरन्तर निहारते रहे जिस मार्ग से उन्होंने सिद्धि प्राप्त की थी। ऐसे श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज के चरणों में वन्दना । 40 दुकान-20114 घर-20274 • गंगाविशन ओमप्रकाश कोठारी ___ग्रेन मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट दुकान नं. डी-5, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२८८ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी अपने हृदय को सान्त्वना देते हुए कहते हैं कि हे अतिशय आनन्द प्रदान करने वाले अनेकान्तवाद के पाम्रफल श्री जिनेश्वर भगवान ! काल-लब्धि तक, भव-भ्रमण की अवधि परिपक्व होने तक, मैं आपके मार्ग की राह देखूगा। मैं आपका सेवक संयम रूपी परमार्थ-जीवन यापन करता हुआ तथा अध्यात्म गुण की निरन्तर वृद्धि करता हुआ दिव्य अमृत फल क (मुक्ति की) आशा के सहारे जी रहा हूँ ।। ६ ।। विवेचनः --प्रकृति का नियम है कि समय आने पर ही ग्राम पकता है। इसी प्रकार से समय आने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है। यदि सिंचन उचित प्रकार से नहीं किया गया तो आम सूख जायेगा। इसी तरह से प्रात्मार्थी पुरुषार्थ करेगा तो समय आने पर मोक्ष की प्राप्ति होगी; अर्थात् श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञानुसार श्रद्धापूर्वक विषय-कषायों की मन्दता रखते हुए महाव्रतों आदि के पालन के द्वारा जो आत्मभाव में मग्न रहता है वह शीघ्र ही काल लब्धि प्राप्त करता है। हे जिनेश्वर भगवान! मैं उस समय की प्रतीक्षा में हूँ कि कब मुझे दिव्य चक्षु प्राप्त हों और मुझे दिव्य दर्शन हो जाये। मुझे पूर्ण आशा है कि आनन्दघन रूपी आम्रफल समय आने पर अवश्य पकेगा। इसी पालम्बन से मैं जीवन यापन कर रहा हूँ ।। ६ ।। (३ ). श्री सम्भव जिन स्तवन (राग-रामगिरि, रातड़ी रमीने किहांथी प्राविया, ए देशी). संभव देव ते धुर सेवो सब रे, लहि प्रभु-सेवन भेद । सेवन कारण पहिली भूमिका रे, अभय, अद्वष, अखेद ।। संभव० ।। १ ।। भय चंचलता जे परणामनी रे, द्वष अरोचक भाव । खेद प्रवृत्ति करता थाकिये, दोष अबोध लखाव ।। संभव० ।। २ ।। चरमावर्तन चरमकरण तथा, भव परिणति परिपाक । दोष टले वलि दृष्टि खुले भली प्राप्ती प्रवचन वाक । संभव० ।। ३ ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - २८६ परिचय पातक घातक साधुसु प्रकुशल अपचय चेत । ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करि, परिसीलन नय हेत ।। 1 संभव० ।। ४ ।। कारण जोगे कारण नीपजे, एमां कोइ न वाद । पिरण कारण विरण कारज साधिये, ते निज मति उन्माद || संभव० ।। ५ ।। सेवन अगम अनूप । मुग्ध सुगम करि सेवन आदरे, दीजो कदाचित् सेवक याचना, 'श्रानन्दघन' रस रूप ।। शब्दार्थ:-धुर ध्रुव, सर्वप्रथम | == परणामनी = मन के भावों की । लखाव = चिह्न | चरमावर्तन अन्तिम फेर। । संभव० ।। ६ ।। अभय = निर्भय | अखेद=दुःखरहित अरोचक = अरुचिकर । अबोध = अज्ञान । टिप्पणी :- जीव अखिल लोक के सम्पूर्ण पुद्गलों का स्पर्श एवं त्याग कर चुकता है, वह एक पुद्गल परावर्त्त है । इस एक पुद्गल परावर्त्त में जीव अनन्त द्रव्य, भव और भाव का स्पर्श एवं त्याग करता है । द्रव्य से अनन्त पुद्गल परमाणु, क्षेत्र से लोकाकाश के समस्त प्रदेश, काल से अनन्त अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी, भव से अनन्त जन्म-मरण और भाव से अनन्त अध्यवसायं स्थानों को यह जीव परावर्तता है । इस कालचक्र में भ्रमण करता भव्य जीव किसी समय अन्तिम भ्रमरण चक्र को प्राप्त कर • लेता है । विशेष, दाव | भव शब्दार्थ : -- चरम करण = अन्तिम श्रात्मपरिणाम परिणति = भवस्थिति । परिपाक = परिपक्व होना । प्रवचन वाक = सिद्धान्तवाक्य | परिचय = प्रेम सम्बन्ध । पातक पाप । घातक = नाशक । श्रपचय = नष्ट होना । परिसीलन = भली भाँति गहराई में घुस कर पढ़ना । मुग्ध - भोला, मूर्ख, भोगोपभोग में ग्रासक्त । याचना = माँग, भिक्षा । श्रर्थ - भावार्थ:- तृतीय तीर्थंकर श्री सम्भवनाथ को स्तवना करते हुए योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि सेवा का मर्म जानकर सब मनुष्यों का प्रथम कर्त्तव्य श्री सम्भवनाथ जिनेश्वर की सेवा-भक्ति करना है । सेवा-भक्ति की प्राप्ति की प्रथम भूमिका निर्भयता, अद्वेष Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एव उनका काव्य-२६० (प्रेम) और अखेद है। भगवान श्री संभवनाथ की भक्ति के लिए साहस, प्रेम और आनन्द की अत्यन्त आवश्यकता है। इन तीनों गुणों के बिना जीवन के किसी भी क्षेत्र में मनुष्य सफल नहीं हो सकता। भय, ईर्षा एवं शोक मनुष्य के महान् शत्रु हैं। जब तक इन तीनों अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं करली जाये तब तक मनुष्य भगवद्-भक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता ।। १ ।। ___ मानसिक चंचलता से भय, अरुचि से द्वेष और किसी-किसी प्रवृत्ति में निराश होने से खेद उत्पन्न होता है। ये तीनों दोष अज्ञान के चिह्न हैं। सात महा भयों से चित्त चंचल होता है और उनके विसर्जन से अभय प्राप्त होता है। धार्मिक कार्यों में रुचि ही अद्वेष है, मैत्री भाव है और सत्प्रवृत्तियों में जागरूक होकर लगे रहना ही अखेद है; अर्थात् परमार्थ-वृत्तियों में रस लेते हुए नहीं थकना ही अखेद है। अतः भय, द्वेष और खेद को त्याग कर अभय, अद्वेष और अखेद को ग्रहण करना ही श्री संभवनाथ भगवान की परम सेवा है ।। २ ।। जिसने चरमकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण अर्थात् .. अभूतपूर्व शुभ परिणाम, हेयोपादेय का ज्ञान तथा मिथ्यात्व के उदय को दूर कर सम्यक्त्व प्राप्ति के योग्य शुभ परिणाम कर लिया हो अर्थात् प्रथम गुणस्थान से चौथा गुणस्थान प्राप्त कर लिया हो और जिसकी भव-परिभ्रमण की अवधि पूर्णता पर हो, उसके भय, द्वेष, खेद आदि दोष दूर हो जाते हैं। उसके दिव्य नेत्र खुल जाते हैं और उसे प्रवचन वाणी (सिद्धान्त वाक्यों) की प्राप्ति हो जाती है। उसे जिनेश्वर भगवान की वाणी पर पूर्ण श्रद्धा हो जाती है ॥ ३ ॥ हे मानव ! तू आत्म-कल्याण कर। यह जीवन क्षण-भंगुर है। इसे अकारथ मत जाने दे । ... (0) 20167 UPR) 20130 ४ श्री जय नृसिंह एण्ड कम्पनी ४ ग्रेन मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट 26, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - २६१ , पाम-नाशक सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र रूपी मोक्ष-मार्ग के साधन और समिति गुप्तियों के पालन में जागरूक साधुयों के परिचय से, सत्संग "से अकल्याणकारी वृत्तियों का ज्ञान हो जाता है । उस समय आध्यात्मिक ग्रन्थों को श्रवण करने से और मनन करने से तथा तत्त्वों का नैगम आदि नयों के द्वारा भली भाँति विचार करने से प्रभु भक्ति का उद्देश्य प्राप्त हो जाता है ।। ४ ।। उचित कारण से ही कार्य सिद्ध होता है, इसमें कोई विवाद नहीं है। बिना कारण हो कार्य की सिद्धि चाहे तो यह मूर्खता है; क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य की सिद्धि होती है । जिस कार्य का जो कारण नहीं है उसे उसका कारण मानकर कार्य सिद्धि मानना मात्र मूर्खता है । जो भय, ईर्षा और शोक का त्याग किये बिना ही, आत्म-ज्ञानी मुनियों के सत्संग के बिना हीं तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों के श्रवण, मनन के बिना ही आत्मोत्थान चाहते हैं, वे अपनी मूर्खता का परिचय देते हैं ।। ५ ।। इस पद्यांश में योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी भक्ति मार्ग की भिक्षा माँगते हुए उसकी कठिनता प्रदर्शित करते हैं । भोले मनुष्य भक्ति को सुगम जानकर उसे स्वीकार करते हैं, उसका आदर करते हैं किन्तु सेवा का मार्ग (उपासना) बड़ा ही अगम्य और अद्वितीय है । हे सम्भव जिन ! मुझ अकिंचन को भी कभी यह सेवा प्रदान करना, यही मेरी प्रार्थना है ।। ६ ।। ( ४ ) श्री अभिनन्दन जिन स्तवन (राग -- धन्याश्री सिंधुप्रो - श्राज निहजो रे दीसे नाहलो - ए देशी ) अभिनन्दन जिरण दरसण तरसिये, दरसण दुरलभ देव । मत मत भेदे जो जइ पूछिये, सहु थापे अहमेव ॥ अभि० ।। १ ।। सामान्ये करि दरसण दोहिल, निरणय सकल विशेष । मद में घेर्यो हो प्राँधो किम करे, रवि ससि रूप विलेष || अभि० ।। २ ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६२ हेतु विवादे चित धरि जोइये, अति दुरगम नयवाद । पागम वादे, गुरु गम को नहीं, ए सबलो विषवाद ।। अभि० । ३ ।। घाती डूगर आडा अति घणा, तुझ दरसण जगनाथ । धीठाई करि मारग संचरूं, सेंगू कोई न साथ ।। अभि० ।। ४ ।। दरसण दरसण रटतो जो फिरूं, तो रण-रोझ समान। .. जेहने पिपासा अमृत पान नी, किम भाँजे विष-पान ।। • अभि० ।। ५ ।। तरस न आवे मरण जीवन तणो, सीझे जो दरसण काज। दरसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, 'आनन्दघन' महाराज ॥ .. . .. अभि० ।। ६ ।। .. शब्दार्थः-दरसण-दर्शन, सम्यग्दर्शन । तरसिये व्याकुल होना । मत-मत=भिन्न-भिन्न दर्शन वालों से । अहमेव= अहंकार । दोहिलू =दुर्लभ । विलेष जांच करना। घाती-मारक । डूगर=पर्वत । घाती-डूगर=चार घाती कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय । आड़ा= रुकावट, बाधक । धीठाई धृष्टता। संचरू' =चलू। सेंगू =मार्ग-दर्शक । रण-रोझ= वन की नील गाय की तरह अरण्यरोदन । सीझ = सफल हो । अर्थ, भावार्थ, विवेचन-योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कह रहे हैं कि मैं श्री अभिनन्दन जिनेश्वर के दर्शन के लिए तरस रहा हूँ। हे देवाधिदेव ! आपके दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं। जब भिन्न-भिन्नं दर्शनशास्त्रियों के पास जाकर पूछा तो सभी को अपने 'दर्शन' की श्रेष्ठता का अहंकार करते देखा ।। १॥ दर्शनशास्त्र का सामान्य अध्ययन करना ही कठिन है, फिर उसे पढ़कर उस पर निर्णय करना तो अत्यन्त ही दुष्कर कार्य है। नशे में चर अन्धा व्यक्ति सूर्य और चन्द्रमा के रूप का विश्लेषण कैसे कर सकता है ? वह उनके बिम्ब को कैसे पहचान सकता है ? ।। २॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६३ प्रभो! आपका दर्शन कैसे होगा? इसके हेतु के विवाद में चित्त लगा कर देखा जाये तो नयवाद को समझना अत्यन्त ही दुष्कर है। आगमों के ज्ञाता कोई सद्गुरु भी नहीं मिल रहे हैं, जिसके कारण चित्त में असमाधि है, उद्विग्नता है ।। ३ ।। हे जगत के नाथ ! आपके दर्शन में रुकावट डालने वाले घाती कर्म बाधक हैं। यदि धृष्टता करके साहस के साथ मार्ग पर चलू तो किसी ज्ञानी का साथ भी नहीं मिलता ।। ४ ।। हे स्वामिन् ! यदि आपके दर्शन की रट लगाता हुअा फिरता रहूँ तो जंगल के रोझ के समान लोग मुझे मानते हैं। रोझ जंगल में प्यास के कारण पानी की खोज में भटकता है, उसी प्रकार मैं दर्शन के लिए भटक रहा हूँ। जिसको प्रात्म-साक्षात्कार रूपी अमृतपान करने की अभिलाषा हो, उसकी. प्यास मतवादियों के सिद्धान्त रूपी विष-पान से कैसे तृप्त हो सकती है ? ॥५॥ हे त्रिभुवन स्वामिन् ! मुझे मृत्यु और जीवन से कोई कष्ट नहीं है । मुझे तो आपके दर्शन हो जाये तो मेरे समस्त कार्य सफल हो जायें। श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे अनन्त आनन्द के स्वामी ! वैसे तो आपके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं परन्तु आपको कृपादृष्टि से वे अत्यन्त सुलभ हैं ।। ६ ।। PM 'हे नाथ ! आपके दर्शन में अनेक घाती कर्म बाधक हैं। दीन-दयालु ! मुझे तो केवल आपके दर्शन चाहिए।' ये उद्गार थे महान् योगिराज श्री आनन्दघनजी के जिन्होंने अध्यात्म के द्वारा स्व-पर जीवन धन्य-धन्य कर दिया। ऐसे योगिराज को हमारे कोटि कोटि वन्दन । दुकान-20122 घर-20127, 20171 रामदास रामानन्द एण्ड कम्पनी : ___जनरल मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट दुकान नं. 8, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी-341510 (राजस्थान) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-२६४ श्री सुमति जिन स्तवन (राग- वसन्त तथा केदारो) सुमति चरण कॅज प्रातम अरपण, दरपण जिम अविकार, सुज्ञानी । मति तरपण बहु संमत जाणिये, __ परिसर पण सुविचार, सुज्ञानी ॥ १.। त्रिविध सकल तनुधर गत पातमा, बहिरातम धुर भेद, सुज्ञानी । बीजो अन्तर-आतम, तीसरो, परमातम अविछेद, सुज्ञानी ।। २ ।। प्रातम बुद्धे कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघरूप, सुज्ञानी। कायादिक नो साखीधर रह्यो, अन्तर प्रातम भूप, सुज्ञानी ।। ३ ।। ज्ञानानन्दे पूरण पावनो, वरजित सकल उपाध, सुज्ञानी । अतीन्द्रिय गुण गण मणि आगरू, इम परमातम साध, सुज्ञानी ।। ४ ।। बहिरातम तजि अन्तर पातमा, रूप थई थिर भाव, सुज्ञानी । परमातम नु प्रातम भाववु, प्रातम अरपण दाव, सुज्ञानी ।। ५ ।। पातम अरपण वस्तु विचारतां, ___ भरम टले मति दोष, सुज्ञानी । ' परम पदारथ सम्पति संपजे, 'पानन्दघन' रस पोष, सुज्ञानी ।। ६ ।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - २६५ शब्दार्थ : - कँज – कमल । अरपण = भेंट करना । तरपण= तर्पण, तृप्त करना । परिसरपण = अनुगमन । तनुधर = देहधारी । धुर = प्रथम | 'अविछेद = अखंड, अविनाशी । अघ= पाप | साखीधर == साक्षी | पावनो= पावन, पवित्र । वरजित = छोड़ा हुआ । उपाध= उपाधि, बाधा । भाववु = विचारना । दाव = उपाय । परम पदारथ = मोक्ष | संपजे = = प्रकट हो । आगरू= खजाना । अर्थ- भावार्थ - श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि श्री सुमतिनाथ जिनेश्वर के चरण कमल दर्पण के समान अविकारी और निर्मल हैं । मैं उनके चरण-कमलों में आत्मसमर्पण करता हूँ । उनके चरण-कमल अनेक मनुष्यों के द्वारा मान्य हैं और मति को तृप्त करने वाले हैं, सन्तुष्ट करने वाले हैं । अत: इस विचार का ही अनुगमन करना चाहिए ।। १ ।। समस्त देहधारियों में आत्मा की स्थिति तीन प्रकार से है । बहिरात्मा, द्वितीय अन्तरात्मा और तृतीय अविनाशी अखण्ड प्रथम परमात्मा ।। २ ॥ देह आदि पुद्गल पिण्ड को आत्मबुद्धि से ग्रहण करना, उसे आत्मा मानना पाप रूप बहिरात्म भाव है । देह आदि के कार्यों में साक्षी रहने वाला ही राजा अन्तरात्मा है ।। ३ ।। परम पावन, समस्त उपाधियों से रहित, अविकारी, ज्ञानानन्द से परिपूर्ण, इन्द्रियातीत तथा अनेक गुरण रूपी रत्नों का भण्डार परमात्मा को समझें ॥। ४ ॥ हरात्म भाव को त्याग कर, अन्तराभिमुख होकर स्थिरता से धैर्यपूर्वक अपने भीतर ही आनन्द की खोज करके परमात्म स्वरूप का चिन्तन ही आत्म-समर्पण का श्रेष्ठ दाव ( उपाय ) है ।। ५ ।। आत्म अर्पण तत्त्व पर विचार करने से मति - दोष का भ्रम ( संशय ) टल जाता है; मोक्ष रूपी महान् सम्पदा प्रकट होती है जो आनन्द रस की पोषक हैं ।। ६ । श्रीमद् के अनुसार देह आदि के कार्यों में साक्षी अन्तरात्मा है । ऐसे महान्, अध्यात्म योग के धनी श्री श्रानन्दघनजी के चरणों में कोटि कोटि वन्दन । * जुगलकिशोर, शान्तिकिशोर 14, कृषि उपज मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 (0) 20101, (R) 20175, 30251 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-२६६ (६) श्री पद्मप्रभु जिन स्तवन (राग - मारू तथा सिन्ध : चांदलिया संदेशो कहिजे म्हारा कंत ने रे, ए देशी) पद्मप्रभु जिन तुझ मुझ प्रांतरू, किम भांजे भगवन्त । करम विपाकै कारण जोइने, कोई कहे मतिवन्त ।। • पद्म ।। १. ।। पयई ठिई अणुभाग प्रदेश थी, मूल उत्तर बहुभेद । घाती अघाती बंधोदयोदीरणा, सत्ता करम विछेद ।। पद्म ॥ २ ॥ कनकोपलवत पयडी पुरुष तणी, जोड़ी अनादि सुभाय । अन्य संजोगी जंह लगि प्रातमा; संसारी कहवाय ।। , पद्म ।। ३ ।। कारण जोगे बाँधे बंधने, कारण मुगतिं मुकाय । प्रास्रव संवर नाम अनुक्रमे, हेयोपादेय सुणाय ।। , पद्म ।। ४ ।। जुजन करणे अंतर तुझ पड्यो, गुण करणे करि भंग । ग्रन्थ उक्ति करि पंडित जन कह्यो, अन्तर भंग सुअंग ।। . पद्म ।। ५ ।। तुझ मुझ अन्तर अन्ते भांजसे, बाजसे मंगल तूर । जोव सरोवर अतिशय वाधसे रे, 'पानन्दघन' रस पूर ।। पद्म ।। ६ ।। शब्दार्थः-प्रांतरू =अन्तर। भांजे नष्ट हो। विपाके फल । मतिवंत बुद्धिमान । पयइ = प्रकृति बंध। ठिई स्थिति बंध । अणुभाग= कर्म का बल । मूल मुख्य । घाती=ज्ञानादि गुणों के नाशक । अघाती= मूल गुणों को नष्ट न करने वाले तथा संसार में परिभ्रमण कराने वाले कर्म । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६७ बंधोदयोदीरणा=बंध, उदय, उदीरणा (बंध कर्मों का आत्मा के साथ मिलाप) । उदय कर्मफल प्रवृत्ति काल । उदीरणा कर्मफल प्रवृत्तिकाल से पूर्व ही कर्मों को उदय के लिए खींचना। सत्ता = प्रात्मा के साथ कर्मों की उपस्थिति । विच्छेद =अलग होना। कनकोपलवत स्वर्ण एवं पत्थर के समान । पयडी= कर्म प्रकृति । जोडी=सम्बन्ध, साथ । सुभाय =स्वभाव से ही। आस्रव= फर्मग्रहण का द्वार। संवर=कर्मग्रहण के मार्ग की रोक । हेयोपादेय =त्याग करने एवं ग्रहण करने योग्य । जुजन करणे =कर्मों से जुड़ना। गुण करणे= गुण ग्रहण करने पर । भंग नष्ट । सुअंग= उत्तम उपाय । वाजसे=बजेंगे । तूर =तुरही (बाजा)। वाधसे बढ़ेगा। अर्थ-भावार्थ-विवेचन हे पद्मप्रभो! आपका एवं मेरा अन्तर कैसे दूर होगा? इसका कोई बुद्धिमान व्यक्ति अन्तर होने के कारणों पर विचार करके उत्तर देता है कि कर्म-विपाक होने से अर्थात् कर्म के कारणों का अभाव होने पर अन्तर दूर होगा ।।१।। ____ कर्मों के सम्बन्ध में बताया है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-ये चार भेद हैं। कर्म के मूल पाठ भेद हैं और उत्तर अनेक भेद हैं। (कर्मों के मूल पाठ भेद हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय, वेदनीय, नाम कर्म, गोत्र कर्म और आयुष्य कर्म; उत्तर भेद तो . . .हे पद्मप्रभु भगवन् ! मैं आप में और मुझमें जो अन्तर है उसे पाटना चाहता हूँ। सत्ता कर्मों का क्षय होने पर ही भगवान और मेरे मध्य जो अन्तर है वह समाप्त होगा। . ऐसे उद्गारों से जीवों को उपदेश देने वाले अध्यात्मयोगी श्रीमद् प्रानन्दघनजी के चरणारविन्द में कोटि-कोटि वन्दना । 4220014 दुकान . 8 डोसी देवकरण श्रीचन्द जैन ४ ग्रेन मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट 15, कृषि उपज मण्डी, मेड़ता सिटी-341510 (राजस्थान) Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - २६८ अनेक हैं । मुख्य १४८ अथवा १५८ हैं । ) कर्म के मूल भेदों में प्रथम चार घाती कर्म हैं और अन्तिम चार घाती कर्म हैं । मूल आठ कर्मप्रकृतियों एवं इनकी उत्तर प्रकृतियों का बंध होता है अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ मेल होता है । तत्पश्चात् ये उदय में आते हैं, फल देते हैं । बद्धकर्मों की उदीरणा होती है अर्थात् तप आदि करके इन्हें उदय में लाकर नष्ट कर दिया जाता है। शेष कर्म 'सत्ता' कहलाते हैं । इन सत्ता कर्मों का क्षय होने पर ही पद्मप्रभु भगवान और मेरे बीच का अन्तर नष्ट होगा, यह बुद्धिमानों का कथन है || २ || कर्म प्रकृति एवं पुरुष ( आत्मा ) की जोड़ी स्वर्ण एवं पत्थर की तरह अनादि काल से चली आ रही है । स्वर्ण एवं पत्थर अनादि काल से खान में मिले हुए पाये जाते हैं । जब तक आत्मा का कर्म - पुद्गलों के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह संसारी कहलाता है ||३|| कारण उत्पन्न होने पर ही आत्मा कर्म बाँधता है । कर्म-बन्ध के कारण हैं - मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग । कर्म-बन्धन के कारणों को छोड़ने से ही आत्मा की मुक्ति होती है । आस्रव से कर्मबन्ध होता है अतः ये त्याज्य हैं और संवर से कर्मबन्ध रुकता है, अतः ये उपादेय हैं। अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं ||४|| टिप्पणी- बुद्धिमानों का कथन है कि हेय उपादेय की विवेकपूर्वक प्रवृत्ति होने से ही भगवान श्री पद्मप्रभु से अन्तर दूर होगा । कर्मों से जुड़ने के कारण ही हे जिनेश्वर भगवान ! आपके और मेरे मध्य व्यवधान पड़ा है। आत्म - गुणों ( ज्ञान, दर्शन और चारित्र ) के विकास से यह व्यवधान नष्ट होगा । शास्त्रों के प्रमाण से ज्ञानियों ने इसे व्यवधान दूर करने का श्रेष्ठ उपाय माना है ||५|| टिप्पणी- आत्मा का कर्म से सम्बन्ध करने की क्रिया 'गु ंजनकरण' कहलाती है । आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र ग्रहण करने की क्रिया को 'गुणकरण' कहा गया है । गुणकरण से ही गुंजनकरण का नाश होता है ||५|| हे प्रभो ! आपके और मेरे मध्य का यह व्यवधान दूर होगा और मंगल वाद्य बज उठेंगे । अनाहत नाद की झंकार होगी । जीव रूपी यह सरोवर आनन्द - रस से छलछला उठेगा और मेरी निर्भल आत्मा 'पद्मप्रभु' तुल्य बन जायेगी और पूर्णानन्द प्राप्त होगा ।। ६ ।। • Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-२६६ (७) श्री सुपार्श्व जिन स्तवन (राग-सारंग मल्हार ललना नी देशी) श्री सुपास जिन वंदिये, सुख सम्पत्ति नो हेतु, ललना। शान्त सुधारस-जलनिधि, भवसागर मां सेतु, ललना । श्री सुपास ॥ १॥ सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर देव, ललना । सावधान मनसा करो, धारो जिन-पद सेव, ललना । श्री सुपास ।। २ ।। सिव संकर जगदीश्वरू, चिदानन्द भगवान, ललना । जिन अरिहा तीर्थंकरू, जोति स्वरूप असमान, ललना । श्री सुपास ।। ३ ॥ अलख निरंजन वच्छलू, सकल जन्तु विसराम, ललना । अभयदान दाता सदा पूरण प्रातम राम, ललना । श्री सुपांस ।। ४ ।। वीतराग मद कल्पना, रति अरति मय सोग, ललना । निद्रा तन्द्रा दुरदसा, रहित अबाधित जोग, ललना । श्री सूपास ।। ५ ।। परम पुरुष परमातमा, परमेसर परधान, ललना। परम पदारथ परमेष्ठी, परम देव परमान, ललना । श्री सुपास ।। ६ ॥ विधि बिरंचि विश्वभरू, ऋषीकेस जगनाथ, ललना । अघहर प्रघमोचन धणी, मुगति परमपद साथ, ललना। श्री सुपास ।। ७ ॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०० इम अनेक अभिधा धरे, अनुभव-गम्य विचार, ललना। जे जाणे तेहने करे 'आनन्दघन' अवतार, ललना। श्री सुपास ।।८।। टिप्पणी--इस पद में सर्वधर्म समन्वय दृष्टि है। शब्दार्थः-सुख =आत्मिक सुख । सम्पत्ति मम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र । हेतु कारण । शान्त=स्थिरता । सुधारस =अमृत रस । सेतु=पुल । सात महाभय से तात्पर्य है-इहलोक भय, परलोक भय, आदान भय, अकस्मात् भय, आजीविका भय, अपयश भय और मृत्यु-भय । अरिहा कर्म-शत्रु नाशक अरिहन्त । असमान=अनुपम । निरंजन= निर्लेप। वच्छल वत्सल, कल्याणकारी। मद=गर्व । विधि विधाता। विरंचि - ब्रह्मा, प्रात्म गुणों की रचना करने वाले। विश्वंभरू=संसार में आत्म-गुणों के पोषक । ऋषिकेस इन्द्रियों के स्वामी। घणी स्वामी। अभिधा=नाम, गुणनिष्पन्न नाम । अर्थ-भावार्थ-श्री सुपार्श्वनाथ भगवान की भक्तिपूर्वक वन्दना करें, जो सांसारिक एवं अनन्त आत्मिक सुख-सम्पत्ति के हेतु हैं और जो वैराग्य रूपी अमृत के समुद्र हैं तथा भवसागर को पार करने के लिए पुल के समान हैं ॥१॥ - - - - - - - - - - - सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ मेरे अन्तर का अन्धकार नष्ट करें। वे जगदीश्वर, चिदानन्द, जिन और अरिहन्त हैं। उन सुपार्श्वनाथ का नित्य रटन करने वाले योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी का कोटि-कोटि वन्दन । 20133 दुकान 20193 घर गुलाबचन्द प्रकाशचन्द 8 ग्रेन मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट 29, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी - 341510 (राजस्थान) Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३०१ ये सातवें जिनेश्वर भगवान सातों प्रकार के महान् भयों (इहलोकभय, परलोक-भय, आकस्मिक-भय, आजीविका-भय, आदान-भय, अपयशभय और मृत्यु-भय) तथा सात आध्यात्मिक महाभयों (काम, क्रोध, मद, हर्ष, राग, द्वेष और मिथ्यात्व) को नष्ट करने वाले हैं। अतः सावधान होकर तथा मन लगाकर इन सातवें तीर्थंकर भगवान की सेवा धारण करो ॥२॥ . ये सातवें जिनेश्वर श्री सुपार्श्व स्वामी उपद्रव-नाशक होने से 'शिव' हैं, कल्याणकारी होने के कारण 'शंकर' हैं, आत्म-साम्राज्य के शासक होने के कारण 'जगदीश्वर' हैं, ज्ञानमय एवं आनन्दमय होने से ये 'चिदानन्द' हैं, आपने ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया है अतः भगवान हैं, राग-द्वेष-विजयी होने के कारण जिन हैं, कर्म-रिपुत्रों के नाशक होने से 'अरिहन्त' हैं, चतुर्विध संघ के संस्थापक होने के कारण 'तीर्थंकर' हैं, ज्ञान-ज्योति से प्रकाशित होने के कारण “ज्योति स्वरूप' हैं और इनकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती अतः 'असमान' हैं। इस प्रकार ये अनेक नामों से जाने जाते हैं ॥३॥ नेत्रों के द्वारा नहीं देखे जाने के कारण ये 'अलख' हैं, वासना रहित होने के कारण ये 'निरंजन' हैं, प्राणियों के प्रति वात्सल्य-भाव रखने के कारण ये 'वच्छलु' हैं तथा समस्त प्राणियों के 'विश्राम' स्वरूप हैं। ज्ञानामृत का पान करा कर सबको अभय करने के कारण ये 'अभयदानदाता' हैं। ये समस्त प्रकार से 'पूर्ण' हैं और शुद्ध आत्म-स्वरूप में निरन्तर रमण करने वाले होने के कारण 'पातमराम' हैं ।।४।। . भगवान श्री सुपार्श्वनाथ राग-रहित अर्थात् वीतराग हैं। ये मद, कल्पना, रति-अरति, भय, शोक आदि मानसिक विकारों तथा निद्रा, तन्द्रा, आलस आदि शारीरिक विकारों से रहित होने के कारण अबाधित योग वाले हैं अर्थात् केवली अवस्था में मन-वचन-काया के योग आपके लिए बाधक नहीं हैं ॥५॥ - वे पूजा के परम पात्र होने से 'परम पुरुष' हैं, परम-पद पाने के कारण परमात्मा हैं। अनन्त शक्ति रूपी ऐश्वर्य धारण करने के कारण 'परमेश्वर' हैं, 'प्रधान पुरुष' हैं। आप ही प्राप्त करने योग्य 'परम पदार्थ' हैं, सेवा एवं भक्ति करने योग्य 'परमेष्ठी' हैं और पूजा करने योग्य 'परमदेव' स्वयं सिद्ध हैं ॥६॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०२ आप द्वादशांगी रूपी मुक्तिमार्ग के प्रणेता होने के कारण विधि हैं, मोक्षमार्ग का विधान करने के कारण आप ब्रह्मा हैं, आपके उपदेश आत्मिक गुणों के पोषक होने के कारण आप 'विश्वम्भर' हैं। इन्द्रियों के स्वामी होने के कारण आप 'हषीकेश' हैं और जगत् द्वारा पूज्य होने के कारण आप 'जगन्नाथ' हैं। हे स्वामी! आप पापों को हरने वाले हैं, पापों से मुक्ति दिलाने वाले हैं और साथ ही आप परम-पद मोक्ष प्रदान करने वाले हैं ॥७॥ इस प्रकार आप इन अनेक अभिधानों (नामों) को धारण करने वाले हैं। इन सबका विचार अनुभवगम्य है। जो इन अभिधानों का यथार्थ स्वरूप जानता है उसे श्री सुपार्श्वनाथ भगवान आनन्द का अवतार ही बना देते हैं, अर्थात् आनन्दस्वरूप बना देते हैं ।।८।। श्री चन्द्रप्रभु जिन स्तवन (राग-केदारो, गौडी-कुमरी रोवे. प्राक्रन्द करे, मुने कोइ मुकावे-ए देशी) चन्द्रप्रभ मुखचन्द सखी मुने देखण दे, उपसम रस नो कन्द । सेवे सुर नर इन्द सखी०, गत-कलिमल दुःख दंद । सखी० ।।१।। सुहम निगोदे न देखियो सखि०, बादर अति ही विसेस । पुढवी पाऊ न लेखियो सखी०, तेऊ वाऊ न लेस । सखी० ।।२।। वनसपती प्रति घण दिहा सखी०, दीठो नहीं दीदार । वि ती चौरिदी जल लोहा सखी०, गति सन्नी पट धार । ___ सखी० ॥३॥ सुर तिरि निरय निवास माँ सखी०, मनुज अनारज साथ । अपज्जता प्रतिमास माँ सखी०, चतुर न चढ़ियो. हाथ । सखी० ॥४॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३०३ इम अनेक थल जाणिये सखी० दरसण विन जिनदेव । आगम थी मति प्राणिये सखी०, कीजे निरमल सेव । सखी० ॥५॥ निरमल साधु भगति लही सखी०, जोग अवंचक होय । किरिया प्रवंचक तिम सही सखी०, फल अवंचक जोय । सखी० ॥६॥ प्रेरक अवसर जिनवरू सखो०, मोहनीय खय थाय । कामित पूरण सुरतरु सखो०, 'प्रानन्दघन' प्रभु पाय । सखी० ॥७॥ शब्दार्थ-उपसम रस= शान्त रम। कंदमूल । कलिमल = रागद्वेष आदि मैल । दंद=उत्पात । सुहम =सूक्ष्म । निगोदे साधारण वनस्पति काय में। बादर=दिखने वाले जीव । पुढ़वी=पृथ्वीकाय । आउ =जल, अप्काय । तेऊ=अग्निकाय । • वाऊ हवा के जीव । लेस जरा भी। घण=अधिक । दीहा=दिवस। दीठो देखा। दीदार=दर्शन । वि= दो इन्द्रिय जीव । • ति तीन इन्द्रिय जीव । . चौरिदी=चार इन्द्रिय वाले जीव । लीहा लकीर । सन्नी-मन वाले जीव । तिरि = तिर्यंच । निरयनरक । अनारज =अनार्य । अपज्जता=अपर्याप्त जीव । प्रतिभास =अन्तमुहूर्त काल की स्थिति । चतुर == पूर्ण ज्ञानी प्रभु । लही--प्राप्त कर । प्रवंचक= कपट रहित । कामित-इच्छित । यह जीवन क्षणभंगुर है, श्रीमद् चन्द्रप्रभु का मुख-चन्द्र देखने के लिए लालायित है । ऐसे योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन । _20059 दुकान 20259 घर मै. रामाकिशन जगन्नाथ है जनरल मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट .मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341510 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०४ अर्थ-भावार्थ-भक्त को सुमति अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि हे सखी! मुझे श्री चन्द्रप्रभु का मुख-चन्द्र देखने दे जो उपशम रस का मूल है और कलुषित मल एवं दुःख-द्वन्द्व रहित है। ऐसे प्रभु के मुख-चन्द्र को मुझे निहारने दे ॥ १॥ ऐसा मुख-चन्द्र मैंने न तो सूक्ष्म निगोद में देखा और बादर निगोद में भी मैंने विशेष तौर पर नहीं देखा। ऐसा मुख-चन्द्र मैंने पृथ्वी, जल, अग्निकाय तथा वायुकाय में भी लेशमात्र नहीं देखा। अब मनुष्य भव में तो हे सखी ! मुझे भगवान श्री चन्द्रप्रभु का मुख निहारने दे, मुझे उनसे लगन लगाने दे ॥२॥ वनस्पति में भी बहुत समय तक ऐसे मुख-चन्द्र के दर्शन नहीं हुए। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय एवं संज्ञीपंचेन्द्रिय पर्यायों में भी. ऐसे मुख के दर्शन के बिना जल की रेखा के समान में विफल रही ॥ ३ ॥ देवलोक में, तिर्यंच योनि में, नरक के निवासों में भी यह चन्द्र-मुख दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अनार्य मनुष्यों की संगति के कारण दुर्लभ मनुष्य भव में भी इस मुख-चन्द्र के दर्शन नहीं हए और अन्तमुहर्त काल को स्थितिरूप अपर्याप्त अवस्था में भी यह चतुर ज्ञानी परमात्मा मेरे हाथ नहीं आया। अतः हे सखी श्रद्धा! तू चन्द्रप्रभु के दर्शन मुझे करने दे ॥ ४ ॥ इस प्रकार जिनेश्वर देव श्री चन्द्रप्रभु के दर्शन के बिना अनेक स्थान व्यतीत हो गये। अब तो जिनागमों में बुद्धि निर्मल करके निष्काम भाव से निर्मल भक्ति करें।५॥ साधुत्रों की निर्मल भक्ति से हे सखी! अवंचक योग की प्राप्ति होती है, जिसकी क्रियाएँ भी अवंचक अर्थात् अमोघ होती हैं और फल भी अवंचक होता है। तात्पर्य यह है कि आत्म-स्वरूप को प्राप्त सद्गुरु के योग से उक्त अवंचक त्रिपुटी सिद्ध होती है ।। ६ ।। श्री जिनेश्वर भगवान के वचनों की प्रेरणा से ऐसे अवसर प्राप्त होते हैं और उनकी अचिन्त्य शक्ति से मोहनीय कर्म क्षय हो जाते हैं। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि ऐसे श्री चन्द्रप्रभु भगवान के चरण-कमल इच्छित फल प्रदान करने वाले कल्प-वृक्ष हैं ॥ ७ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३०५ (ε) श्री सुविधि जिन स्तवन राग - केदारो - इम धन्नो धण ने परचावे-ए देशी ) सुविधि जिणेसर पाय नमीने, शुभ करणी इम कीजे रे प्रति घण उलट अ ंगधरीने, प्रह ऊठी पूजीजे रे । सुवि० ।। १ ।। 1 द्रव्य भाव सुचि भाव धरीने, हरखि देहरे जइये रे । दह तिग परण अहिगम सांचवतां, एकमनांधुर • थइये रे । सुवि० ॥ २ ॥ o कुसुम अक्खत वर वास सुगंधो, धूप दीप मन साखी रे | पूजा पर भेद सुणी इम, गुरु मुख श्रागम भाखी रे | सुवि० ।। ३ ।। एहन फल दुइ भेद सुरंगीजे, अन्तर ने परम्पर रे । प्रारणा पालन चित्त प्रसत्ति, मुगति सुगति सुर-मन्दिर रे । सुवि० ॥ ४ ॥ फूल प्रक्खत वर धूप पइबो, गंध निवेज, फल जल भरि रे । • अंग अग्र पूजा मिलि ड विधि, भावे भविक शुभ गति वरि रे । सुवि० ॥ ५ ॥ सत्तर भेद इकवीस प्रकारे, श्रट्टोतर सत भेदे रे । भाव पूजा बहुविधि निरधारी, दोहग दुरगति छेदे रे । सुवि० ॥ ६ ॥ तुरिय भेद पडिवत्ती पूजा, उपसम खीण चउहा पूजा उतरायणे, भाखी सयोगी रे | केवलभोगी रे | सुवि० ॥ ७ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०६ इम पूजा बहुभेद सुणीने, सुखदायक शुभ करणी रे । भविक जीव करसे ते लहसे, 'पानन्दघन' पद धरणी रे। . सुवि० ।। ८ ।। शब्दार्थ-उलट-उल्लास । प्रह=प्रातःकाल । सुचिपवित्र । हरखि हर्षपूर्वक । देहरे मन्दिर । दह=दस। तिग-तीन। पण = पाँच । अहिगम-अभिगम। साचवतां पूर्ण करके । घर=स्थिर । अक्खत=अक्षत, चावल । वर=श्रेष्ठ । वास=सुगन्ध से । सुगंधो-गंधित । दुई-दो। अनन्तर=तुरन्त । परम्पर=परम्परा से । प्राणायाज्ञा । प्रसत्ति प्रसन्नता। सुगति = अच्छी गति (मनुष्य, देव) सुर मन्दिर-वैमानिक देवों के स्थान । पइबो दीपक । गंध केसर आदि। निवेज-नैवेद्य, मेवे । अडविधि =अष्टप्रकारी। भविक = भव्य जीव, मुक्ति में जाने वाले प्राणी । सत्तर=सतरह । अटोत्तर=एक सौ आठ । दोहग = दुर्भाग्य । छेदे नष्ट करता। तुरिय=चौथा। पडिवत्ती=अात्मस्वरूप प्राप्ति । भाखी कही। धरणी=पृथ्वी। आनन्दघनपदधरणी=मोक्ष। .. अर्थ-भावार्थः --श्री सुविधिनाथ भगवान के चरणों में नमन करके शुभ कार्य करने चाहिए। हृदय में अत्यन्त उमंग और उल्लास से प्रात:काल में उठते ही श्रद्धापूर्वक भगवान का स्मरण, पूजन करना चाहिए ॥१॥ श्री सुविधिनाथ जिनेश्वर की भक्ति में तन्मय श्रीमद् आनन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि नमन । 20215 दुकान 20183 घर ० मै० श्रीराम ट्रेडर्स 8 ____३१, कृषि उपज मण्डी समिति मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341510 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३०७ द्रव्यं और भाव से शुद्ध होकर (देह-शुद्धि, वस्त्र-शुद्धि और भावशुद्धि - अन्तर को काम, क्रोध, लोभ एवं वासना से रहित करके) भाव पूर्वक अत्यन्त हर्षित होकर जिनालय में जाना चाहिए। दस त्रिकनिसीहि त्रिक, प्रदक्षिणा त्रिक, प्रणाम त्रिक, पूजा त्रिक, अवस्था त्रिक, दिशा त्रिक, प्रमार्जन त्रिक, आलंबन त्रिक, मुद्रा त्रिक तथा प्रणिधान त्रिक और पाँच अभिगमों-सचित्त त्याग, अचित्त ग्रहण, उत्तरासन, नत मस्तक एवं अंजलीकरण और एकाग्रमन का पालन करते हुए एकाग्रचित्त होना चाहिए ।।२।। पुष्प, अक्षत (चावल), सुन्दर वास चर्ण, सुगन्धित धूप एवं दीपक —यह पाँच प्रकार की अंग पूजा जिसे गुरु-मुख से श्रवण की है और जिसके सम्बन्ध में आगमों में उल्लेख है - वह मन लगा कर करनी चाहिए ।। ३ ।। । ___ इस पूजा का दो प्रकार का फल होता है-एक तो अन्तर रहित, तुरन्त प्रत्यक्ष में प्राप्त होता है और दूसरा फल परम्परा से परोक्ष में अर्थात् अन्य भव में प्राप्त होता है। जिनाज्ञा का पालन तथा चित्त की प्रसन्नता प्रत्यक्ष फल है और परोक्ष फल मुक्ति है, अन्यथा उत्तम सामग्री युक्त मनुष्य भव अथवा देव-गति की प्राप्ति है ।। ४ ।। पुष्प, अक्षत, उत्तम धप, दीपक, केसर-चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ नैवेद्य, फल और जल-कलश-इस सामग्री से अंग एवं अग्र पूजा दोनों मिलाकर आठ प्रकार की होती हैं। जो भव्य प्राणी भावपूर्वक ये पूजाएँ करता है, वह शुभ गति प्राप्त करता है ॥ ५ ॥ _ सत्तरह भेदी, इक्कीस प्रकारी तथा एक सौ आठ भेद वाली अनेक पूजाएँ हैं तथा भाव-पूजा के भी (चैत्यवन्दन, स्तवन, जाप आदि) अनेक भेद निर्धारित हैं, जो दुःख एवं दुर्गति का नाश करती हैं ।। ६ ।। __ अंग पूजा, अग्र पूजा एवं भाव पूजा के पश्चात् चौथा भेद प्रतिपत्ति पूजा है। प्रतिपत्ति से तात्पर्य अंगीकार करने से है। जिनाज्ञा का अनुसरण, समर्पण भाव जहाँ ध्यान, ध्याता एवं ध्येय का लोप हो जाता है ऐसी प्रतिपत्ति पूजा उपशान्त मोह, क्षीणमोह एवं सयोगी अवस्था में होती है। इस चौथी पूजा का वर्णन केवलज्ञानी भगवान ने उत्तराध्ययन सूत्र में किया है ।। ७ ।। ___ इस प्रकार पूजा के अनेक भेद श्रवण करके जो भविक जीव यह सुखदायक शुभ करनी करेगा, वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करेगा। ऐसा श्रीमद् अानन्दघनजी ने कहा है ॥ ८ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३०८ श्री शीतल जिन स्तवन (राग-धन्याश्री गौड़ी-गुणह विसाला मंगलिक माला-ए देशो) शीतल जिनपति ललित त्रिभंगी, विविध भंगि मन मोहे रे । करुणा कोमलता, तीक्षणता, उदासीनता सोहे रे। शीतल० ॥ १ ॥ सर्व जीव हित करणी करूणा, कर्म विदारण तीक्षण रे । ' हानादान रहित परणामी, उदासीनता वीक्षण रे । शीतल ॥ २ ॥ पर-दुःख-छेदन इच्छा करुणा, तीक्षण पर दुःख रीझे रे । . उदासीनता उभय विलक्षण, एक ठामि किम सीझे रे। .. . . . शीतल ॥ ३ ॥ अभयदान ते मलक्षय करुणा, तीक्षणता गुण भावे रे । प्रेरण विण कृत उदासीनता, इम विरोध मति नावे रे । - शीतल० ।। ४ ।। शक्ति व्यक्ती त्रिभुवन प्रभुता, निग्रंथता सयोगे रे । योगी भोगी वक्ता मौनी, अनुपयोगी उपयोगे. रे । ___शीतल ॥ ५ ॥ इत्यादिक बहुभंग, त्रिभंगी, चमत्कार चित देती रे । अचरजकारी चित्र विचित्र, 'प्रानन्दघन' पद लेती रे। शीतल० ॥६॥ शब्दार्थ:-ललित=सुन्दर । त्रिभंगी तीन प्रकार को भंगिमा वाले । तीक्षणता प्रचण्डता। उदासीनता =अलिप्तता। विदारण काटने में । हानादान त्याग और ग्रहण । परिणामीभाव वाले। वीक्षण=देखना । रीझे प्रसन्न होते हैं। विलक्षण=अद्भुत । ठामि स्थान । सीझे रे= सफल होना। मलनय कर्म मल नष्ट करना । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३०६ अर्थ-भावार्थः-श्री शीतलनाथ जिनेश्वर की त्रिभंगी अत्यन्त ललित है, जिसकी विविध भंगिमा अत्यन्त मन-मोहक है। उनमें करुणा रूपी कोमलता के साथ तीक्षणता भी है और इन दोनों से अद्भुत उनकी उदासीनता भी शोभायमान है ।। १ ॥ समस्त, जीवों के लिए हितकर करुणा उनकी कोमलता है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को विदीर्ण करने में जो उनमें कठोरता है वह उनकी 'तीक्ष्णता' है। श्री शीतलनाथ भगवान त्याग एवं ग्रहण परिणामों से रहित हैं अर्थात् सम-परिणामी हैं । यह आपकी विलक्षण उदासीनता है ।। २।। दूसरों के दुःखों को नष्ट करने की इच्छा आपकी करुणा है । पौद्गलिक दुःखों में प्रसन्नता यह आपकी 'तीक्ष्णता' है। परिषह सहन करने में प्रसन्नता ही आपकी तीक्ष्णता है। कोमलता एवं तीक्ष्णताइन दोनों से अद्भुत आपकी 'उदासीनता' है। ये तीनों विरोधी भाव एक साथ एक ही स्थान पर कैसे सफल हो सकते हैं ? परन्तु आत्मानन्द में रमण करने वालों के लिए सब सम्भव है ॥ ३ ॥ समस्त मनुष्य कर्म-मल से भयभीत हैं, जन्म-मरण-रोग-शोक आदि से सब त्रस्त हैं। श्री शीतलनाथ भगवान की अभयदान रूपी करुणा है; . भावों में दृढ़ता आपकी 'तीक्ष्णता' है। वे बाईस परिषहों से विचलित - श्री शीतलनाथ प्रभु अनन्त ज्ञान, दर्शन के स्वामी हैं। उनकी भक्ति में लीन आध्यात्मिक योगी श्री आनन्दघनजी के चरणारविन्द में शत-शत नमन । 1. 20054 दुकान - 20132 घर - शाह उदयराज सुरेशचन्द चोपड़ा 8 ग्रेन मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट दुकान नं. 4, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341510 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३१० नहीं होते। वे उन्हें सहर्ष सहन करते हैं। यह पर-दुःख-रीझन स्वरूप तीक्ष्णता है। यह सब प्रवृत्ति किसी प्रेरणा के बिना स्वाभाविक रूप से होती है, यह आपकी 'उदासीनता' है ॥४॥ तीसरे पद के विरोध-भाव का यहाँ परिहार हो जाता है। श्री शीतलनाथ भगवान में शक्ति, व्यक्तित्व, त्रिभुवन-प्रभुता, निर्ग्रन्थता, योगी, भोगी, वक्ता, मौनी, उपयोग-रहितता एवं उपयोगसहितता है। अनन्त ज्ञान-दर्शन उनकी शक्ति है। ये गुण इन्होंने अपने पुरुषार्थ से प्रकट किये हैं-यह उनका व्यक्तित्व है। स्वयं के गुण स्वयं में प्रकट हों, इसमें न शक्तित्व है, न व्यक्तित्व है-इस रूप में तीसरा भंग होने से 'त्रिभंगी' सिद्ध हो जाती है। तीनों लोकों में पूज्य होने से 'त्रिभुवनप्रभुता', माया-ममता आदि अन्तरंग सामग्री नहीं होने से इनकी 'निर्ग्रन्थता' सिद्ध होती है। उनमें स्वयं को पुजाने की इच्छा नहीं होने से 'न त्रिभुवन प्रभुता' और निर्ग्रन्थ के बाह्य लक्षण नहीं होने से 'न निर्ग्रन्थता' है। इस तरह त्रिभंगी सिद्ध होती है। चित्त-वृत्ति के निरोध से तथा तेरहवें गुणस्थान सयोगी केवली अवस्था में मन, वचन, काया के योग के कारण वे योगी हैं। प्रात्म-रमणता के रूप में सुखों का उपभोग करने के कारण वे भोगी हैं। मन-वचन-काया के योग, कर्मक्षय के कारण बाधा उत्पन्न नहीं करते अतः वे अयोगी हैं और इन्द्रिय-जनित विषयों के त्यागी होने से वे अभोगी हैं। द्वादशांगी के कथन से 'वक्ता' पापास्रव विषयक वचन नहीं कहने से 'मौनी' तीर्थकर जो कहते आये हैं वही आपने कहा है, यह आपकी 'प्रवक्तृता' हैं और धर्म-तीर्थ-प्रवर्तनं हेतु देशना देना आपका 'अमौनीपन' है। आपको केवलज्ञान के कारण अनन्त पदार्थ प्रत्यक्ष हैं, अतः आप 'अनुपयोगी' हैं। आपके ज्ञान-दर्शन उपयोग हैं अतः आप उपयोगवन्त है। योगरूंधन के पश्चात् सिद्ध अवस्था में ज्ञान-दर्शन का उपयोग अनुपयोग करने का कोई उद्देश्य नहीं रहता, अतः आप न उपयोगी हैं, न अनुपयोगी हैं। इस प्रकार श्री शीतलनाथ जिनपति. में त्रिभंगियों के संयोग की सम्भावना प्रशित की गई है ॥५।। इन त्रिभंगियों के और भी अनेक भेद कहे जा सकते हैं क्योंकि भगवान अनन्त गुण-निधान है। ये त्रिभंगियाँ चित्त में चमत्कार उत्पन्न करती हैं, आश्चर्य उत्पन्न करने वाली हैं। ये चित्र-विचित्र त्रिभंगियाँ मोक्ष-पद प्राप्त कराती है। ऐसा श्रीमद् आनन्दघनजी का कथन है ॥६॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३११ ( ११ ) श्री श्रेयांस जिन स्तवन ( राग - गौड़ी श्रहो मतवाले साजना - ए देशी ) श्री श्रेयांस जिन अंतरजामी, श्रातमरामी नामी रे अध्यातम मंत पूरण पामी, सहज मुगति गति गामी रे । श्री० ॥ १ ॥ सयल संसारी इंद्रियरामी, मुनिगरण श्रातमरामी रे । मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निःकामी रे । श्री० ।। २ ।। निज सरूप जे किरिया साधे, ते अध्यातम लहिये रे । जे किरिया करि चउ गति साधे, ते न अध्यातम कहिये रे । श्री ० ० ।। ३ ।। नाम अध्यातम ठवरण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम भाव अध्यातम निजं गुण साधे, तो तेह थी रढ छंडो रे । मंडो रे । अध्यातम जे वस्तु विचारी, बीजा जारण वस्तुगते जे वस्तु प्रकासे, 'श्रानन्दघन' मत श्री० ० ।। ४ ।। शब्द अध्यातम प्ररथ सुणी ने, निरविकल्प आदरजो रे । शब्द अध्यातम भजना जाणी, हानि ग्रहण मति धरजो रे । श्री० ॥ ५ ॥ लबासी रे । वासी रे । श्री ० ० ।। ६ ।। शब्दार्थ --- प्रतमरामी = आत्म स्वरूप में रमण करने वाले । नामी= प्रसिद्ध | अध्यातम = प्राध्यात्मिक । मत = तत्त्व । पामी = प्राप्त करके । गामी = जाने वाले । सयल = सब | इंद्रियरामी - इंद्रिय सुख में रमण करने वाला । निःकामी = निष्कामी । ठवरण = स्थापना । रढ = रटन, प्रीति । निरविकल्प = विकल्प रहित । लबासी = लबार । मत = सिद्धान्त । वासी निवासी । == Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३१२ अर्थ - भावार्थ:-श्री श्रेयांसनाथ जिनेश्वर अन्तर्यामी हैं । वे सुप्रसिद्ध आत्मगुणों में रमण करने वाले हैं। उन्होंने पूर्णतः आत्म-तत्त्व को प्राप्त किया है और स्वाभाविक भाव से मोक्ष गति प्राप्त कर ली है ।। १ ।। समस्त संसारी तो इन्द्रिय-सुखों में रमण करते हैं । केवल मुनिवर ही प्रात्मिक सुख में लीन रहने वाले हैं । जो मुख्यतः प्रात्मानन्द में लीन रहते हैं मात्र वे ही निस्पृह होते हैं ||२| जो प्रत्मार्थी श्रात्मा के लिए क्रिया करता है वह अध्यात्म प्राप्त करता है, परन्तु जो किसी प्रकार की कामना से क्रिया करता है वह चारों गतियों में भ्रमण की साधना करता है, वह अध्यात्म नहीं कहलाता ॥३॥ नाम मात्र के अध्यात्म शब्द को, स्थापना अध्यात्म को तथा द्रव्य अध्यात्म को छोड़ो और ज्ञान दर्शन रूप भाव अध्यात्म की साधना करो, उसमें तन्मय हो जाओ ||४|| सद्गुरु से अध्यात्म शब्द का अर्थ सुनकर संकल्प - विकल्प रहित शुद्ध आत्म-भाव को ग्रहण करो, उसका सम्मान करो। केवल अध्यात्म शब्द आध्यात्मिकता नहीं है । वह तो भाव में है । यह जानकर क्या त्याग करने योग्य है और क्या ग्रहण करने योग्य है, उसमें अपनी बुद्धि लगा ।। ५ ।। योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी के पद-पङ्कज में कोटि-कोटि वन्दन दुकान 20103, 30203, 20203 घर 20148 * मैसर्स जैन ट्रेडर्स x गुड़, शक्कर, कपासिया के व्यापारी व कमीशन एजेण्ट दुकान नं. 34, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी ( राजस्थान ) 341510 सम्बन्धित फर्म सरावगी ट्रेडर्स, मेड़ता सिटी ( राज० ) O.203, R.148 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३१३ जो आत्म-वस्तु के विचारक हैं वे ही अध्यात्मी हैं अर्थात् साधु, संत, मुनि अध्यात्मी हैं, शेष दूसरे तो केवल बकवास करने वाले भेषधारी हैं । वस्तु में निहित गुणों तथा पर्यायों को यथार्थ रूप से प्रकट करने वाले हैं वे ही आनन्दघन प्रभु के सप्तनय-प्राश्रित मत के वासी हैं अर्थात् रमण करने वाले हैं ॥ ६ ॥ विवेचनः - इस स्तवन में बताया है कि सच्चे अध्यात्मी को ही मान्यता देनी चाहिए। उसी में कल्याण है। नाम मात्र के अध्यात्मी को मान्यता देने से भव-भ्रमण बढ़ता है, प्रात्म-कल्याण नहीं होता। सम्मान के योग्य तो वही है जिसमें कषायों की मन्दता हो, जो साधु का नाम उज्ज्वल करने वाला हो। अन्य व्यक्ति गुरु मानने योग्य नहीं हैं। केवल भाव-अध्यात्मी ही आदर का पात्र है, उसे ही जीवन अर्पण करना चाहिए। ( १२ ) - श्री वासुपूज्य जिन स्तवन (राग-गौड़ो-तुगिया गिरि शिखर सोहे-ए देशी) वासुपूज्य जिन त्रिभुवन स्वामी, घणनामी परणामी रे । निराकार साकार सचेतन, करम करम फल कामी रे । ... वासु० ।। १॥ निराकार अभेद संग्राहक, भेद ग्राहक साकारो रे । दर्शन ज्ञान दुभेद चेतना, वस्तु ग्रहण व्यापारो रे । वासु० ।। २ ।। करता परिणामी परिणामो, करम जे जोवे करिये रे । एक अनेक रूप नय वादे, नियते नर अनुसरिये रे । वासु० ॥ ३ ॥ सुख-दुःख रूप करमफल जाणो, निश्चय एक आनंदो रे । चेतनता परिणाम न चूके, चेतन कहे जिन चंदो रे । वासु० ॥ ४ ।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- ३१४ परिणामी चेतन परिणामो, ज्ञान करम फल भावी रे । ज्ञान करम फल चेतन कहिये, लीजो तेह मनावी रे । वासु० ।। ५ ।। श्रातमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो वस्तु-गते जे वस्तु प्रकाशे, 'प्रानन्दघन' द्रव्यलिंगी रे | संगी रे | मत वासु० ।। ६ ।। शब्दार्थ : --- घणनामी = अनेक नाम वाले । परणामी = शुद्धात्मं गुण में परिणमन करने वाले । कामी = कामना करने वाले । संग्राहक = सत्यस्वरूप ग्रहण करने वाले । दुभेद = दो भेद विभाग | परिणामी = परिणामी भाव वाले । अनुसरिये = अनुसरण करें । श्रमण = साधु, बीजा = अन्य । द्रव्यलिंगी = वेशधारी | . अर्थ - भावार्थ:-श्री वासुपूज्य प्रभु तीनों लोकों के स्वामी हैं और वे अनेक नामों वाले हैं। उन्होंने श्रात्मा को परिणामी, साकार, निराकार, चैतन्य स्वरूप, कर्म का कर्त्ता और फल का भोक्ता कहा है ।। १ ।। अभेद को ग्रहण करने वाले दर्शनोपयोग को निराकारोपयोग और भेद को ग्रहण करने वाले ज्ञानोपयोग को साकारोपयोग बताया है । इस तरह चेतना के दर्शन एवं ज्ञान दो भेद हैं । इस चैतन्य वस्तु से ही श्री वासुपूज्य स्वामी के अनन्य उपासक अध्यात्म योगी श्रीमद् श्रानन्दघनजी के चरणों में शत-शत नमन । 20296 दुकान * महावीर ट्रेडिंग कम्पनी जनरल मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट D-8, कृषि उपज मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३१५ आत्मा वस्तुओं को देखता-जानता है। तात्पर्य यह है कि अभेद को ग्रहण करने वाले द्रव्य नय की अपेक्षा आत्मा निराकार और भेद को ग्रहण करने वाले नय की अपेक्षा आत्मा साकार है। चेतना के ज्ञान एवं दर्शन दो भेदों के द्वारा हो वस्तु के जानने तथा देखने का कार्य सम्पन्न होता है ॥२॥ विवेचन-प्रत्येक द्रव्य सामान्य एवं विशेषात्मक होता है। चेतन भी द्रव्य है, अतः वह भी सामान्य एवं विशेषात्मक है। ज्ञान तथा दर्शन इसके दो रूप हैं। दर्शन उसका सामान्य स्वरूप है तथा ज्ञान उसका विशेष स्वरूप है। सामान्य उपयोग दर्शन है, विशेष उपयोग ज्ञान है। जीव कर्ता है क्योंकि परिणामों में परिणमन करता है और कर्म को करता है। नयवाद से इस कत्तत्व के अनेक रूप हैं। अशुद्ध निश्चय नय से जिन राग आदि भावों में परिणमन करता है उनका कर्ता है और व्यवहार नय से ज्ञानावरण आदि पौद्गलिक कार्यों एवं शारीरिक नोकर्म का कर्ता है तथा उपचार से घर, नगर आदि का कर्ता है। इस प्रकार इसमें कर्तृत्व एवं मरिणमनशीलता है किन्तु मनुष्य को शुद्ध निश्चय नय के अनुसार अपने भाव में परिणमन करना चाहिए ॥ ३ ॥ ___ सुख-दुःख दोनों को कर्म-फल जानें। निश्चय से तो केवल आनन्द ही है। चन्द्रमा तुल्य श्री वासुपूज्य जिनेश्वर ने कहा है कि प्रात्मा किसी भी अवस्था में अपनी चेतन प्रकृति को नहीं छोड़ता। अत: वह चैतन्य है और निश्चय नय से वह आनन्दस्वरूप है ।। ४ ।। . समस्त द्रव्य परिणामी हैं (परिवर्तनशीलता को परिणामीपना कहते हैं) अपने-अपने स्वभाव में सब परिणमन करते हैं अत: चेतन भी परिणामी है। उसका परिणमन ज्ञान, कर्म एवं कर्म-फल के रूप में होता है। इन्हें क्रमशः ज्ञान-चेतना, कर्म-चेतना और कर्म-फल-चेतना कहना चाहिए। ज्ञानचेतना शुद्ध है और कर्मचेतना एवं कर्मफल चेतना अशुद्ध है। ये दोनों अज्ञान चेतनाएँ संसार को बीज हैं और ज्ञानचेतना मुक्ति बोज है। अतः हे भव्य जीवो! अपने चेतन को मनाकर आत्म-स्वरूप प्राप्त करो ॥ ५ ॥ आत्म-ज्ञानी ही श्रमण कहे जाते हैं, अन्य तो द्रव्य लिङ्गी भेषधारी हैं। जो जड़ और चेतन भाव को यथार्थ रूप से प्रकाशित करते हैं और Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३१६ राग आदि भावों को जड़ कर्म के संयोग से उत्पन्न जान कर छोड़ते हैं वे वारित्रवान हैं, आनन्दघन मत के साथी हैं अर्थात् वे ही अत्यन्त आनन्द करे. प्राप्त करते हैं ॥ ६ ॥ श्री विमल जिन स्तवन (राग-मल्हार-इडर प्रांबा प्रांबलो रे, इडर दाडिम दाख-ए देशी) दुःख दोहग दूरे टल्या रे, सुख सम्पत सु भेट । . . धींग धरणी माथे कियो रे, कुण गंजे नर खेट । विमल जिन'दीठा लोयण आज म्हारा सीझा वांछित काज । विमल ।। १ ।। चरण कमल कमला वसे रे, निरमल थिर पद देख । . समल अथिर पद परिहरी रे, पंकज पामर पेख। ' . , विमल ।। २ ॥ मुझ मन तुझ पद-पंकजे रे, लीनो गण मकरंद । रंक गणे मंदर धरा रे, इन्द्र चन्द्र नागिन्द । , विमल ।। ३ ।। साहिब समरथ तू धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विसरामी वालहो रे, प्रातमचो आधार । - विमल ॥ ४॥ दरसण दीठे जिन तणो रे, समय रहे न वेध । दिनकर कर भर पसरतां रे, अंधकार प्रतिषेध । विमल ।। ५ ।। अमी भरी मूरति रचि रे, उपमा घटे न कोय । . शांत सुधारस झीलती रे, निरखत तृपति न होय । विमल ॥ ६ ॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३१७ एक प्ररज सेवक तणी रे, अवधारो . कृपा करी मुझ दीजिये रे, 'आनन्दघन' जिनदेव | पद सेव । विमल ।। ७ ।। शब्दार्थः — दोहग = दुर्भाग्य | टल्या टल गये । । नेत्रों से पर्वत । गंजे=जीते । . नरखेट = नराधम शिकारी, मोह आदि कषाय हुए । दीठा = देखा । लोयण = लोचनों से, लीनो = लीन । रंक = तुच्छ । मन्दर = मेरु विसरामी विश्राम स्थल । वाल्हो = प्रिय | पसरतां = फैलते ही । प्रतिषेध = रुकावट । हुई । अवधारो = ग्रहण करो । चो = का । अमी = अमृत | । धींग = = प्रबल । सीझा = सफल पामर = पापी | नागिन्द= नागेन्द्र वेध = कसक । झीलती = भरी अर्थ - भावार्थ:- योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि श्री विमल जिनेश्वर के दर्शन से मेरे समस्त दुःख एवं दुर्भाग्य दूर हो गये हैं । मुझे सुख और रत्नत्रय रूपी सम्पत्ति प्राप्त हो गई है । ऐसे समर्थ स्वामी जब मेरे सिर पर हैं तब भला मोह आदि शिकारी ( शत्रु) मुझे कैसे जीत सकते हैं । आज मैंने ज्ञान चक्षुत्रों से श्री विमल जिनेश्वर के दर्शन कर लिये हैं, जिससे मेरे समस्त मनोवांछित कार्य सिद्ध हो गये हैं ।। 11 कमल को मैला कीचड़ युक्त देखकर लक्ष्मी ने उस अस्थिर स्थान का परित्याग कर दिया है और आपके चरण रूपी कमल को निर्मल एवं स्थिर स्थान वाला देखकर लक्ष्मी ने वहाँ अपना निवास कर लिया है ।। २ ।। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन । - 20201 फैक्ट्री 20360 घर महालक्ष्मी ऑयल इण्डस्ट्रीज खाद्य तेलों के विक्रेता G-45, इण्डस्ट्रियल एरिया, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३१८ मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल के पराग में लीन है। मेरा मन इन्द्र, चन्द्र एवं नागेन्द्र तथा मन्दराचल (मेरु) पर्वत की धरा को आपके चरणों की तुलना में तुच्छ मानता है ।। ३ ॥ हे स्वामी ! आप समस्त प्रकार से समर्थ हैं। मुझे आपके समान परम उदार स्वामी प्राप्त हो गया है। आप मेरे मन के लिए विश्राम स्वरूप हैं और मुझे अत्यन्त ही प्रिय हैं। आप मेरी आत्मा के आधार हैं। मैंने आज ज्ञान-चक्षुओं से आपके दर्शन कर लिये हैं ।। ४ ।। हे प्रभो! जिस प्रकार सूर्य की किरणों के फैलते ही अन्धकार लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार से हे जिनेश्वर ! आपके दर्शन से संशय आदि का मूलोच्छेदन हो जाता है ।। ५ ॥ हे प्रभो ! आपकी मूत्ति अमृत से परिपूर्ण है जिसके लिए कोई उपमा दी ही नहीं जा सकती। आपकी मूर्ति में प्रशम रस रूपी पीयष उमड़ रहा है, जिसे निहारते-निहारते मन भरता ही नहीं, तृप्ति ही नहीं होती ॥ ६ ॥ हे जिनेश्वर भगवान ! मुझ सेवक का एक निवेदन है जिसे आप स्वीकार करें। कृपा करके मुझे आनन्दघन रूपी परम पद की सेवा प्रदान करें ॥७॥ ( १४ ) श्री अनन्त जिन स्तवन (राग-रामगिरि कडखा-ए देशी) धार तरवार नी सोहिली, दोहिली चउदमा जिन तणी चरण सेवा। धार पर नाचता देखि बाजीगरा, सेवना धार परि रहे न देवा ।। धार० ।। १॥ एक कहे सेविये विविध किरिया करी , फल अनेकान्त लोचन न देखे । फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा , रडवडे चार गति मांहि लेखे । धार० ।। २ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३१६ गच्छना · भेद बहुनयण निहालतां , • तत्त्व नी वात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज काज करता थकां, मोहनडिया कलिकाल राजे ॥ धार० ॥ १ ।। वचन निरपेख व्यवहार झूठो कह्यो , - वचन सापेख व्यवहार सांचो। वचन निरपेख व्यवहार संसार फल , . सांभली प्रादरी कांइ राचो ।। धार० ।। ४ ॥ देव गुरु धर्म नी शुद्धि कहो किम रहे , किम रहे शुद्ध श्रद्धान आयो। शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया करी , छारि परि लीपणो तेह जाणो । धार० ।। ५ ।। पाप नहि कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो , . धर्म नहि कोई जग सूत्र सरीखो। . सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे , ...... तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ।। धार० ॥ ६ ॥ एह उपदेशनु सार संक्षेप थी , जे नरा चित्तमां नित्य ध्यावे । ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी , नियत 'प्रानन्दघन' राज पावे ।। धार० ।। ७ ।। शब्दार्थ -सोहिलो सरल। दोहिलो=कठिन । बापड़ा=बिचारा । रडवडे = भटकते हैं। गच्छना=समुदाय के। निहालतां देखते हुए । मोहनडिया=मोह में फंसे हुए। निरपेख=निरपेक्ष, तटस्थ । सापेख = सापेक्ष, जिनवचनानुसार । रांचो प्रसन्न होना। पादरी-ग्रहण करके । कांइ= क्या। श्रद्धान=विश्वास । प्राणो-लामो, प्राप्त करो। छारि=मिट्टी पर । लीपणोलीपना। उत्सूत्र=जिन वचनों के विरुद्ध । सूत्र=आगम शास्त्र । सरीखो - समान । परिखो परीक्षा करो। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२० अर्थ-भावार्थ - श्रीमद् आनन्दघनजी के अनुसार तलवार की धार पर चलना सरल है, परन्तु चौदहवें तीर्थंकर भगवान श्री अनन्तनाथ की चरण-सेवा अत्यन्त दुष्कर है। तलवार की धार पर तो अनेक नट चलकर दिखाते हैं परन्तु भगवान की चारित्र-सेवा रूपी धार पर देवता भी नहीं ठहर सकते क्योंकि उन्हें चारित्र-रत्न की प्राप्ति नहीं हो सकती। _ विवेचन–अनेक क्रियावादियों का कथन है कि त्याग-वैराग्य आदि क्रियाओं के द्वारा भगवान की सेवा-भक्ति करनी चाहिए। . उन समस्त. विविध क्रियाओं का फल भी विविध होता है, जिसे नेत्र नहीं देख पाते। जिन क्रियानों को करने से मोक्ष-पद की प्राप्ति नहीं होती, भाँति-भाँति के अन्य फल प्राप्त होते हैं जिनसे वे बिचारे चार गतियों में परिभ्रमण करते हैं, जिनका लेखा नहीं बताया जा सकता। अत: अमुक क्रियाएँ . करने से सच्ची सेवा-भक्ति नहीं होती ।।१।। अर्थ-भावार्थः-जो क्रियाएँ एकलक्ष्यी नहीं होतीं उनका फल भी , मोक्ष नहीं होता है, एक लक्ष्यी क्रिया ही चार गतियों का भ्रमण टाल सकती है ।। २ ॥ विवेचनः --जिस प्रकार लक्ष्य साध कर छोड़ा गया तीर ठीक निशाने पर लगता है और बिना लक्ष्य के छोड़ा गया तीर ऊपर नीचे हो जाता है और निशाने पर नहीं लगता ।। २ ॥ अर्थ-भावार्थः-श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि गच्छों के अनेक भेद दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे गच्छसमर्थक तत्त्वों की बातें करते हुए अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघन जी को शत-शत नमन ! 0 20233 8 मैसर्स अमुराम सुखदेव ७ (जनरल मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट) दुकान नं. 1, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341 510 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३२१ तनिक भी संकोच नहीं करते, तनिक भी नहीं लजाते। अपनी उदरपूर्ति आदि कार्य करते हुए ये लोग कलिकाल के राज्य में मोह में फंसे हुए हैं ।। ३ ।। विवेचनः-इन क्रियाओं के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दृष्टि से अनेक गच्छों एवं सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। श्रीमद् आनन्दघनजी का कथन है कि साधुनों को विभिन्न गच्छों के मत-भेद की क्रियाओं आदि की चर्चा करके क्लेश बढ़ाकर आत्म-हित नहीं चकना चाहिए। उन्हें गच्छों की विभिन्न क्रियाओं की मान्यता के भेद से असहिष्णुता से ईर्ष्या, क्लेश, निन्दा एवं खण्डन के शुष्क-विवाद करके समाधि-रूपी चारित्र से च्युत नहीं होना चाहिए। श्रीमद् आनन्दघनजी का आशय यह है कि गच्छ के भेदों के द्वारा क्लेश करके, प्रमादी बन कर जो साधु तत्त्वों की बातें करते हैं वे न तो गच्छ को सुशोभित कर सकते हैं और न वे आत्मकल्याण ही कर सकते हैं; वे मोह में पड़ जाते हैं ।। ३ ।। अर्थ-भावार्थः-निरपेक्ष वचन असत्य हैं, सापेक्षवाद ही सत्य है। सापेक्षवाद का प्रयोग ही उत्तम व्यवहार है। निरपेक्ष वचनों के प्रयोग से संसार की वृद्धि होती है। यह सुनकर, स्वीकार कर उसमें क्यों निमग्न : होते हो ? ॥ ४ ॥ विवेचनः-जैनधर्म सापेक्षवाद को महत्त्व देता है। यह धर्म का सच्चा स्वरूप बतलाता है। अपेक्षा दृष्टि के बिना एकान्त दृष्टि की समस्त मान्यताएँ अंसत्य हैं, पतन की ओर ले जाने वाली हैं, जिनका परिणाम भव-भ्रमण ही है, मुक्ति नहीं ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थः-आगम-शास्त्रों की साक्षी के बिना निरपेक्ष वचनों से, एकान्तवाद से देव, गुरु, धर्म की शुद्धि कैसे रह सकती है ? शुद्ध श्रद्धा-रहित की हुई समस्त क्रियाएँ इस प्रकार व्यर्थ हो जाती हैं जिस प्रकार छार (मिट्टी) के प्रांगन पर किया गया लीपरण ।।५। अर्थ-भावार्थः-- उत्सूत्र भाषण (आगम-विरुद्ध भाषण) के समान संसार में कोई पाप नहीं है और आगमों के अनुसार कथन तथा आचरण के समान कोई धर्म नहीं है। सूत्रों के अनुसार आगमों के अनुसार जो भव्य जोव क्रियाएँ करता है उसके चारित्र को ही शुद्ध समझना चाहिए ।। ६ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२२ विवेचनः-सूत्रों के प्रतिकल बोलने के समान कोई पाप नहीं है। केवल सूत्रानुसार, प्रागमों के अनुसार सच्ची श्रद्धापूर्वक जो क्रिया की जाये वही धर्म है। पैंतालीस आगम हमारे सूत्र गिने जाते हैं। सूत्रों के अनुसार पूर्वाचार्यों के द्वारा नियुक्ति, वृत्ति, भाष्य, चर्णी आदि की हुई होती हैं वे भी सूत्र रूप मानी जाती हैं। सूत्रों के अनुसार रचित प्रामाणिक ग्रन्थ, प्रकरण आदि भी सूत्रों की श्रेणी में आते हैं। इस कलियुग में श्री महावीर परमात्मा के आगमों का ही आधार है। श्रीमद् : आनन्दघनजी का कथन है कि वर्तमान में विद्यमान सूत्रों के समान कोई श्रुतधर्म नहीं है। श्रीमद् की नस-नस में, रोम-रोम में जैनागमों की श्रद्धा का रंग लगा था। जो व्यक्ति आगमों के अर्थ का असत्य उपदेश देता है उसकी शुद्धि प्रायश्चित्त से भी नहीं हो सकती, क्योंकि जो व्यक्ति अपने व्रत भंग करता है, वह स्वयं की आत्मा को ही मलिन करता है परन्तु जो सिद्धान्त-ग्रन्थों का मषा उपदेश देता है वह अनेक आत्माओं को मलिन करता है, उन्हें संसार-सागर में डुबोता है। यह घोर पाप है ॥ ६ ॥ अर्थ-भावार्थः - यह छन्द श्री जिनेश्वर भगवान के उपदेश का सार-संक्षेप है। जो व्यक्ति इस आर्ष धर्म का चित्त में प्रति क्षण विचार करेगा, वह दीर्घ काल तक दिव्य सुख की अनुभूति करके निश्चय ही अनन्त आनन्द-दायक मोक्ष को प्राप्त करेगा ।। ७ ।।, विवेचनः-सूत्रों में बताये गये अपेक्षावाद के अनुसार सोच-विचार कर, समझ कर क्रियाएँ की जायें तो वे क्रियाएँ फलदायक और शाश्वत आनन्द-दायिनी होती हैं ॥ ७ ॥ श्री धर्म जिन स्तवन (राग-गौड़ी सारंग, रसिया की देशी) । धर्म जिनेश्वर गाऊँ रंग सू भंग म पडशो हो प्रीत । ' बीजो मन मन्दिर प्राणू नहीं, ए अम्ह कुलवट -रीत । धरम० ।। १ ।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३२३ धरम धरमं करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो ममं । धरम जिनेसर चरण ग्रह्यां पछी, कोई न बंधे हो कर्म । धरम० ।। २ ॥ प्रवचन अंजन जो सद्गुरु करे, देखे परम हृदय नयन निहालै जग-धरणी, महिमा मेरु दौड़त दौड़त दौड़त दौड़ियो, जेती मननी प्रेम प्रतीति विचारो ढुकड़ी, गुरुगम लीज्यो एक पखी किम प्रीति परवडे, उभय हूँ रागी मोहे फंदियो, तू निरमल गुणमरिण रोहण भू-धरा, धन ते नगरी धन वेला घड़ी, निधान । समान । धरम० ।। ३ ॥ हो दौड़ । हो जोड़ | धरम० ।। ४ ॥ मिल्या होय संधि । नीरागी नीरागी निरबंध | धरम० ।। ५ ॥ परम निधान प्रगट मुख अगले, जगत उलंघी हो जाय । ज्योति बिना जोवो जगदीशनी, अंधो अंध पुलाय मुनिजन मात-पिता धरम० ।। ६ ।। मानस हंस । कुल वंश | धरम० ।। ७ ॥ मन मधुकर वर कर जोड़ी कहे, पद-कज निकट निवास । घननामी 'श्रानन्दघन' सांभलो, ए सेवक अरदास । धरम ० ।। ८ ॥ बाधा । म= शब्दार्थः - रंग सु = आनन्द से, आत्म भाव में लीन होकर । = नहीं | अम्ह = हमारी | रहस्य | पछी = पीछे | धरणी = स्वामी | एकांगी । उमय = दोनों | पर्वत । कुलवट=कुल परम्परा । ढकड़ी = समीप | पुलाय = दौडना । कज = कञ्ज कमल । अरदास = प्रार्थना भंग = मर्म = एकपखी = रोहण - रोहणाचल । भूधरा । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३२४ अर्थ - भावार्थ:- भक्ति रंग में लीन होकर मैं श्री धर्मनाथ जिनेश्वर का स्तवन -गान करता हूँ । हे प्रभो ! आपके प्रति जो मेरी भक्ति है वह कभी टूटे नहीं, यही मेरी प्रार्थना है। मेरे मन-मन्दिर में आपके 'अतिरिक्त किसी अन्य के लिए कोई स्थान नहीं है । यही हमारा कुलधर्म है, आत्म-स्वभाव है, कुल परम्परा है ।। १ ।। अर्थ - भावार्थ:- यह संसार धर्म, धर्म कहता हुआ फिर रहा है, किन्तु धर्म के मर्म को, रहस्य को, वह तनिक भी नहीं जानता । अत: निज स्वरूप-रूप धर्म में परिणमन करने वाले धर्मनाथ जिनेश्वर के चरण पकड़ने के पश्चात्, चारित्र का अनुसरण करने के पश्चात् कोई भी पाप कर्म नहीं बँधता ।। २ ।। विवेचन :- हे प्रभो ! आपके बताये धर्मानुसार चलने के पश्चात् किसी शुभ कर्म का बन्ध नहीं होता । सम्पूर्ण संसार "धर्म करो, धर्म करो,” चिल्लाता है परन्तु धर्म का असली रूप नहीं पहचानता ।। २ ।। अर्थ - भावार्थ:- सद्गुरु प्रवचन रूपी अञ्जन जिस किसी व्यक्ति के हृदय रूपी नेत्रों में लगाते हैं, वह स्व स्वरूप रूपी परम निधान देख लेता है । हृदय नेत्रों से वह जगत- पति को देख लेता है जिसकी महिमा, जिसका यश मेरु के समान है ।। ३ ।। योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघन जी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन ! 20246 अफिस 20146 घर * भागचन्द तिलोकचन्द जैन ( जनरल मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट ) 18, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राज.) 341510 सम्बन्धित फर्म: सरावगी ट्रेडर्स बी-14, चांदपोल अनाज मण्डी, जयपुर (राजस्थान ) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३२५ - विवेचनः-यदि सच्चा गुरु मिल जाये और आँखों में प्रवचन रूपी अंजन डाले तो हृदय-नेत्र खुल जायें ताकि भगवान की महिमा का आभास हो ।। ३ ॥ अर्थ-भावार्थः—मन अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार जितना दौड़ सकता था उतना दौड़ा, परन्तु उसकी दौड़ व्यर्थ गई। सद्गुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान को अपनी बुद्धि के साथ जोड़कर विचार करने से प्रेमप्रतीति (भक्ति एवं श्रद्धा) का आधार आत्म-दर्शन तो मन के अत्यन्त समीप ही है ।। ४ ।। विवेचन-हम इधर-उधर कितने ही दौड़ें परन्तु सच्चे गुरु के बिना धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। कस्तूरी-मृग के समान वह दौड़ व्यर्थ सिद्ध होती. है। सद्गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान को यदि बुद्धि के साथ जोड़ा जाये तो प्रेम-प्रतीति का आधार आत्म-दर्शन तो मन के निकट ही है ।। ४ ॥ अर्थ-भावार्थ-एकपक्षीय प्रीति भला कैसे निभ सकती है ? दोनों समान धर्मियों के मिलाप से मिलन होना सम्भव है। मैं रागी हूँ, मोहपाश में फंसा हुआ हूँ और आप राग-रहित एवं बन्ध-रहित हैं। आपके साथ मेरी प्रीति तो तभी होगी जब मैं भी आपके समान वीतरागी बन जाऊँ ।। ५॥ विवेचन–भगवान से प्रीति होनी कितनी कठिन है ? मैं रागी हूँ और वे वीतराग हैं। अतः जब दोनों का मिलाप हो जाये तभी प्रीति हो सकेगी ॥५॥ अर्थ-भावार्थ-परम निधान (मोक्ष-सुख) मुंह के सामने ही है, परन्तु संसारी मनुष्य अन्धे की तरह उसे लाँघ कर चले जाते हैं। जगदीश्वर की ज्ञान ज्योति के बिना संसारी एक अन्धे के पीछे दूसरे अन्धे की तरह दौड़ लगा रहा है और परम निधान आत्म-तत्त्व को अपने पास होते हुए भी नहीं पहचानता ॥ ६ ॥ विवेचन-सामने ही खजाना पड़ा है परन्तु अन्धा उसे देख नहीं सकता। इसी प्रकार से ज्ञान-ज्योति के बिना भगवान के गुणों को हम नहीं समझ सकते हैं ॥ ६ ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२६ अर्थ-भावार्थ-हे प्रभो! आप निर्मल गुणरत्नों के रोहणाचल पर्वत हैं तथा मुनियों के मन रूपी मान-सरोवर के हंस हैं। वह नगरी घन्य है जो आपके चरणों से पावन हुई है। वह घड़ी भी धन्य है जिसमें आपका जन्म हुआ। आपके माता, पिता, कुल तथा परिवार सभी धन्य हैं ॥ ७ ॥ विवेचन-जिस प्रकार रोहणाचल पर्वत रत्नों की खान है, उसी प्रकार से भगवान भी अनेक गुणों की खान हैं। उनके माता, पिता, वंश, जन्म-स्थान तथा जन्म का समय सब धन्य हैं ।। ७ ।।. अर्थ-भावार्थ - मेरा श्रेष्ठ मन रूपी भ्रमर हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि हे प्रभो! आपके चरण-कमलों के समीप ही मुझ सेवक को स्थान दें। हे आनन्दघन प्रभो! आप इस सेवक की इतनी प्रार्थना सुनकर अवश्य स्वीकार करें ।। ८ ।। ( १६ ) श्री शान्ति जिन स्तवन(राग-मल्हार, चतुर चौमासो पडकमी-ए देशी) शान्ति जिन एक मुझ विनती, सुणो त्रिभुवन राय रे । शान्ति स्वरूप किम जाणिये, कहो मन किम परखाय रे। - शान्ति० ।। १ ॥ धन्य तु प्रातम एहवो, जेहने प्रश्न अवकाश रे.। धीरज मन धरि संभलो, कहूँ शान्ति प्रतिभास रे । शान्ति० ।। २ ॥ भाव अविशुद्ध सुविशुद्ध जे, कह्या जिनवर देव रे । ते तिम अवितत्थ सद्दहे, प्रथम ए शान्ति पद सेव रे । शान्ति० ।। ३ ।। प्रागमधर गुरु समकिती, किरिया संवर सार रे। ' सम्प्रदायी अवंचक सदा, सुचि अनुभवाधार रे । ॥ ४ ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३२७ शुद्ध पालम्बन प्रादरे, तजि अवर जंजाल रे । तामसी वृत्ति सवि परिहरे, भजे सात्त्विक साल रे। शान्ति० ।। ५ ॥ फल विसंवाद जेहमां नहीं, शब्दते अर्थ सम्बन्धी रे । सकल नयवाद व्यापी रह्यो, ते शिवसाधन संधि रे । शान्ति० ॥ ६ ॥ विधि प्रतिषेध करी प्रातमा, पदारथ अविरोध रे । ग्रहणविधि महाजने परिग्रह्यो, इस्यो अागमे बोध रे । . शान्ति० ।। ७ ।। दुष्ट जन संगति . परिहरी, भजे सुगुरु सन्तान रे । जोग-सामर्थ्य चित्त भाव जे, घरे मुगति निदान रे । . शान्ति० ॥८॥ मान-अपमान चित्त सम गिणे, सम गिणे कनक पाषाण रे । वन्दक निन्दक सम गिणे, इस्यो होय तु जाण रे । शान्ति० ।। ६ ।। सर्व जग-जन्तु ने सम गणे, गणे तृण-मणि भाव रे । मुक्ति-संसार बेउसम गणे, मुणे भव-जलनिधि नाव रे । शान्ति० ।। १० ॥ आपणो प्रातम भाव जे, एक चेतना धार रे । अवर सवी साथ संयोग थी, एह निज परिकर सार रे । शान्ति० ।। ११ ॥ प्रभु मुख थी एम सांभली, कहे प्रातमराम रे । ताहरे दरसणे निस्तों, मुझ सीधां सवी काम रे । शान्ति० ।। १२ ।। अहो अहो हूँ मुझने कहूँ, नमो मुझ नमो मुझ रे । अमित फल दान दातार नी, जेहथी भेंट हुई तुझ रे । शान्ति० ॥ १३ ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३२८ शान्ति सरूप संक्षेप थी, कह्यो निज पर रूप रे । मागम मांहि विस्तार घणो, कह्यो शान्ति जिन भूप रे। . . शान्ति० ।। १४ ।। शान्ति सरूप एम भावशे, धरी शुद्ध प्रणिधान रे । 'प्रानन्दघन' पद पामशे, ते लहशे बहुमान रे । ____ शान्ति० ।। १५ ।। शब्दार्थः-त्रिभुवन राय - तीनों लोकों के स्वामी। परखाय =पहचामना । प्रतिभास=स्वरूप। अवितत्थ =यथार्थ । सद्दहे माने। सम्प्रदायी= सम्प्रदाय-रक्षक। अवंचक =निष्कपट । सुचि = पवित्र । अवर=अन्य । साल - सार, निष्कर्ष । विसंवाद=संशय । प्रतिषेध =निषेध । त्रिण=घास । परिकर परिवार। अमित अनन्त । प्रणिधान=समाधि, एकाग्रता। ___ अर्थ-भावार्थः -- हे शान्तिनाथ प्रभो! हे तीन लोकों के राजेश्वर ! मेरी एक विनय सुनिये। मैं आपके शान्त स्वरूप को कैसे पहचान सकता हूँ! आप कृपा करके मुझे यह सब बताइये ।। १ ।। विवेचनः -- यह एक भावनात्मक प्रश्न किया गया है कि आप मुझे इतना बतायें कि मैं आपका शान्त स्वरूप कैसे जान सकता हूँ। अर्थ-भावार्थः- इस द्वितीय पद्यांश में उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि हे आत्मा! तू धन्य है जिसे ऐसा प्रश्न करने का अवसर प्राप्त हुआ। तू धैर्य धारण करके सुन । जैसा शान्ति स्वरूप मुझे प्रतीत हुआ है, वैसा ही यहाँ कहा जा रहा है ।। २ ।। विवेचनः -इस पद्यांश में मानों स्वयं शान्तिनाथ प्रभु ही उत्तर देते हैं, अथवा यह कह सकते हैं कि ज्ञान चेतना कहती है ।। २ । अर्थ-भावार्थः--श्री जिनेश्वर भगवान ने जिन भावों को विशेष शुद्ध और जिन भावों को अशुद्ध कहा है, उन्हें उसी रूप में जानकर यथार्थ जानकर उन पर श्रद्धा रखना ही शान्ति-पद प्राप्ति की प्रथम सेवा है ।। ३ ।। विवेचनः--शान्ति पद प्राप्त करने के लिए प्रथम तो दृढ़ श्रद्धा की आवश्यकता है ॥ ३ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३२६ अर्थ-भावार्थः-आगमों के परमार्थ को धारण करने वाले अर्थात जिनेश्वर भगवान द्वारा कथित आचारांग आदि शास्त्रों के ज्ञाता, संवरक्रिया करने वाले, मोक्ष-मार्ग सम्प्रदाय के अनुयायी वीतराग देव श्री शान्तिनाथ भगवान की परम्परा के रक्षक सदा निष्कपट, पवित्र, आत्मानुभव के आधार रूप सद्गुरु को सेवा हो शान्ति-स्वरूप प्राप्त करने का उत्कृष्ट मार्ग है ॥ ४ ॥ . विवेचनः-इस पद्य में श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व का महत्त्व एवं लक्षरण बताया गया है। जीव अनन्त काल तक स्वच्छन्द चले तो भी अपने आप ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ज्ञानी की आज्ञा का आराधक अन्तमुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। अतः ज्ञानी की प्राज्ञा का अवलम्बन हितकर है ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थः--समस्त अन्य जंजालों को त्याग कर जो शुद्ध आत्मस्वरूप का अवलम्बन करते हैं और समस्त तामसी वृत्तियों जैसे कषाय आदि राग-द्वेष का त्याग करके जो मैत्री, करुणा, प्रमोद आदि सात्त्विक वृत्तियों को ग्रहण करते हैं वे ही शान्ति-स्वरूप को प्राप्त करने वाले सद्गुरु हैं ।। ५. अर्य-भावार्थः-गुरु का उपदेश कैसा होना चाहिए यह बताते हए कहा है कि फल के प्रति सन्देह जिसमें नहीं है अर्थात् जो निश्चय रूप से मुक्ति-दायक है, जिसके उपदेश यथार्थ अर्थ के सूचक हैं, जिसमें सकल श्री शान्तिनाथ भगवान के बताये हुए मार्ग का अनुकरण करने वाले श्रीमद् आनन्दघन जी के चरणों में शत-शत नमन ! - दुकान : 20186 घर : 20034 मैसर्स गौतमचन्द दिनेशचन्द जैन ४ कृषि उपज मण्डी समिति, दुकान नं. 21 . .. मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341 510 треннике Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३३० नयवाद की पूर्णरूपेण व्यवस्था है, अर्थात् समस्त दृष्टिकोणों का समन्वय है; वह गुरु-उपदेश शिवमार्ग (मोक्ष-मार्ग) का साधन रूप एवं सन्धिरूप है ॥ ६॥ अर्थ-भावार्थ-इस पद्य में शान्ति-स्वरूप के साक्षात्कार के प्रकार को स्पष्ट किया है। प्रात्म पदार्थ के द्वारा ही विधि और निषेध की व्यवस्था एवं निर्णय होता है। जिन क्रियाओं का आत्म-भाव से विरोध नहीं है, वह 'विधि-मार्ग' है जो ग्रहण करने योग्य है। आत्मभाव से जिन क्रियानों का विरोध हो, जो निषिद्ध हों, वे करने योग्य नहीं हैं। महापुरुषों ने इस ग्रहण-विधि एवं त्याग-विधि को अपनाया है, ऐसा आगमों से बोध होता है ।। ७ ।। विवेचन-क्रोध आदि कषाय, राग-द्वेष एवं अशुभ योग प्रात्म-भाव विरोधी हैं, अतः ये त्याज्य हैं और तप, संयम आदि क्रियाएँ विधिमार्ग होने से ग्रहण करने योग्य हैं। ऐसा करने से शान्ति-स्वरूप प्राप्त करने में कोई बाधा नहीं पाती, ऐसा अागमों से बोध होता है ।। ८ ॥ अर्थ-भावार्थ-दुष्ट मनुष्यों की संगति त्याग कर जो प्रारम्भपरिग्रह-त्यागी, निःस्पृही, अल्प-कषायी गुरु सन्तान (शिष्य परम्परा) की सेवा करता है वह योगशक्ति से, सामर्थ्य-योग से चित्त के भावों को आत्मसात् करके अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है। अथवा जो मन, वचन, काया के योगों को आत्म-शक्ति से वश में करके इस परम पावन आत्मतत्त्व को हृदय में आत्मसात् करता है वह निश्चित रूप से मुक्ति प्राप्त करता है। अर्थात् यों कहें कि जो मन-वचन-काया के योगो को इतना संक्षिप्त करता है, ऐसे सम्यक योग को साध लेता है जिससे चित्तवृत्ति इधर-उधर न जाकर आत्मा में ही लीन रहती है, वह अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है ।। ८ ॥ अर्थ-भावार्थ-मान-अपमान को चित्त में समान समझकर, स्वर्ण एवं पत्थर को भी समान गिनकर, वन्दक एवं निन्दक को भी तू समान ही जान, उनमें भेद मत कर। जब तू ऐसा हो जायेगा तब तू शान्तिस्वरूप बन जायेगा ॥६॥ अर्थ-भावार्थ-जो जगत् के समस्त जीवों को समान गिनता है, जो मरिण-रत्न आदि को तृणवत् समझता है और जो मुक्ति एवं संसार दोनों को समान गिनता है, ऐसी विचार-धारा भव-सागर से पार जाने के लिए नाव तुल्य है ।। १० ।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३३१ . अर्थ-भावार्थ-अपना आत्म-भाव एक चेतना के आधार से ज्ञानदर्शन रूप ज्ञायक भाव ही है। यही सार रूप आत्मा का परिवार है। अन्य सब साथ (धन, स्त्री, पुत्र आदि) तो संयोग-जन्य हैं, अस्थायी हैं। अतः हे आत्मन् ! तू समस्त प्रपचों को छोड़कर आत्म-भाव में ही रमण कर ॥ ११ ॥ अर्थ-भावार्थ-भगवान के श्रीमुख से ऐसा बोधप्रद उपदेश सुनकर आतमराम, चेतन भक्त-कवि कहता है कि हे प्रभो! आपके दर्शन से मेरा उद्धार हो गया, मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो गये ॥ १२ ॥ अर्थ-भावार्थ-भक्त-कवि आत्मविभोर होकर कहता है कि मेरा अहो भाग्य है, धन्य है मेरा भाग्य । मुझको (आतमराम को) नमस्कार हो, वन्दन हो। हे नाथ ! अनन्त फल-दाता उस दानेश्वर से जिसकी भेंट हो गई, वह सचमुच.धन्य है ।। १३ ॥ विवेचन-जब परमात्म स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है, तब इसी प्रकार के उद्गार निकलते हैं --"जो मैं हूँ, वह ही परमात्मा है; जो परमात्मा है, सो मैं हूँ। मैं ही मेरा उपास्य हूँ।" अर्थ-भावार्थ --शान्ति-स्वरूप-प्राप्ति के मार्ग का शान्तिनाथ भगवान ने यह संक्षिप्त. वर्णन किया है। इसमें निज-स्वरूप एवं पर-स्वरूप को समझने का वर्णन है। इसका आगम ग्रन्थों में अत्यन्त विस्तार से वर्णन उपलब्ध है जो श्री शान्तिनाथ भगवान द्वारा बताया गया है ।। १४ ।। अर्थ-भावार्थ-जो मनुष्य श्री शान्तिनाथ भगवान के स्वरूप का इस प्रकार भक्तिपूर्वक, निष्काम भाव से, एकाग्रतापूर्वक शुद्ध चित्त से ध्यान करेंगे वे अत्यन्त प्रानन्द-दायक परम-पद को प्राप्त करेंगे और संसार में अत्यन्त सम्मान प्राप्त करेंगे ।। १५ ।। (१७) श्री कुन्थु जिन स्तवन (राग-रामकली-अंबर देहु मुरारी हमारो-ए देशी) - कुन्थु जिन मनडू किम हो न बाजे हो । कुन्थु जिन०.... जिम जिम जतन करीने राखू, तिम तिम अलगू भाजे हो । कुन्थु० ॥ १॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३३२ रजनी वासर वसती ऊजड़, गयण पयाले जाय । 'सांप खाय ने मुखडू थोथू , ए उखाणो न्याय । कुन्थु० ॥ २ ॥ मुगति तणा अभिलाषी तपिया, ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे । बयरीडु कांइ एहवु चिन्ते, नाखे अवले पासे ।। कुन्थु० ॥ ३ ॥ पागम आगमधर ने हाथे, नावै किण विध प्रांक। किहां कणे जो हट करि हटकू, तो व्याल तणो परे वाकू । कुन्थु० ॥ ४॥ जो ठग कहूँ तो ठगतो न देखू, साहुकार पिण नाही। सर्व माहिने सहु थी अलगू, ए अचरज मन मांहि । कुन्थु० ॥ ५॥ जे जे कहूँ ते कान न धारे, पाप मते रहे कालो। सुर नर पंडितजन समझावे, समझे न म्हारो सालो। - , कुन्थु० ॥ ६ ॥ मैं जाण्यो ए लिंग नपुसक, सकल मरद ने ठेले । बीजी बातें समरथ छे नर, एहने कोई न झेले । कुन्थु० ॥ ७ ॥ मन साध्यु तिण सघलू साध्यु, एह बात नहीं खोटी। इम कहे साध्यु ते नवि मानू, एक ही बात छे मोटी। कुन्थु० ॥ ८ ॥ मनड़ो दुराराध्य ते वसि पाण्यु, पागम थी मति प्राणु। 'प्रानन्दघन' प्रभु म्हारो प्राणो, तो साचूं करि जाणु। .. कुन्थु० ॥ ६ ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३३३ = जतन = उपाय । शब्दtर्थ- -न बाजे बाज नहीं आता, मानता नहीं है । पयाले = =पाताल | थोथुं=खाली । प्रांकू = अंकुश लगाऊँ । पिण= परन्तु | हटकूं= सालो = - पत्नी समरथ = बलवान । झेले=पकड़े । वासर = दिन । ऊखाणो = 1= कहावत । रोकूं । का भाई । ठेले = दूर हटाता है । दुराराध्य = दुःसाध्य | मति = बुद्धि | गयरण = गगन । वयरीडु = शत्रु | वाकू = टेढ़ा | व्याल= साँप | स्तवन के सम्बन्ध में विशेष - इस पद में ऐसा प्रतीत होता है कि श्रीमद् श्रानन्दघनजी केवल मन की प्रबलता तथा दुराराध्यता दिखलाकर रह गये हैं, उस पर विजय पाने का मार्ग नहीं बताया । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से सोचें तो रहस्य स्पष्ट हो जाता है । वे समस्याओं में उलझकर ही नहीं रह जाते, वे तो अन्त में उनका समाधान कर ही लेते हैं । उन्होंने रहस्यमय ढंग से समाधान दिया है कि चाहे शास्त्र पढ़ो, योगसाधना करो, तप करो, ध्यान का अभ्यास करो, यह मन तब तक वश में नहीं होता जब तक भक्ति का दीप प्रज्वलित न हो । मन को वश में करने के लिए समर्थ महापुरुष का आश्रय लेना चाहिए श्री कुन्थुनाथ वैसे ही मन - विजेता हैं । अतः अपनी दशा का वर्णन करके कहा है कि मुझे भी वैसा ही मन - विजेता बना दो । । - भावार्थ हे कुन्थुनाथ प्रभो ! मेरा मन मानता नहीं है । यह स्तवना के समय वाणी के स्वर में स्वर न मिलाकर इधर-उधर क्यों भटकता है ? मैं जैसे-जैसे उसे तन्मय करने का प्रयत्न करता हूँ, वैसेवैसे यह मुझसे दूर भागता है ।। १ ।। मन-विजेता श्रीमद् श्रानन्दघन जी योगिराज के चरणारविन्द में कोटि-कोटि वन्दन ! दुकान : 20153 घर : 20353 * मैसर्स रामकिशोर काबरा एण्ड कम्पनी x ( कमीशन एजेण्ट ) 28, नई अनाज मण्डी, मेड़ता सिटी - 341510 (राज.) Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एव उनका काव्य-३३४ अर्थ-भावार्थ- यह मेरा मन रात-दिन बस्ती में, जंगल में एवं आकाश-पाताल में जाता रहता है, फिर भी तृप्त नहीं होता। जिस प्रकार साँप काटता है परन्तु उसका मुह खाली ही रहता है। उसके मुंह में कुछ नहीं आता। इस कहावत के अनुसार मन कोरा ही रहता है चाहे कितना ही भटके। विषयानन्द तो इन्द्रियाँ प्राप्त करती हैं ।।२।। अर्थ-भावार्थ-मुक्ति के अभिलाषी महान् तपस्वियों एवं ज्ञानध्यान के अभ्यासियों को भी यह वैरी मन कुछ ऐसा चिन्तन कराकर. उलटे मार्ग पर लगा देता है ।। ३ ।। अर्थ-भावार्थ-- शास्त्रज्ञों के हाथ में पागम रूपी अंकुश रहता है, फिर भी यह मदोन्मत्त हाथी रूपी मन वश में नहीं रहता। यदि इसे किसी स्थान से बलपूर्वक हटाया जाता है तो यह मन साँप की तरह और अधिक टेढ़ा हो जाता है, वश में नहीं होता ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थ-यदि मैं इसे ठग कहूँ तो इसे मैं ठगी करते हुए नहीं देखता, क्योंकि भोगोपभोग रूपी ठगी तो इन्द्रियाँ करतीं प्रतीत होती हैं । मैं इसे साहूकार भी नहीं कह सकता क्योंकि इसके सहयोग के बिना इन्द्रियाँ प्रवत्ति नहीं करतीं। मेरे मन में एक विस्मय हो रहा है कि यह मन समस्त इन्द्रियों के साथ रहकर भी सबसे अलग है ।। ५॥ अर्थ-भावार्थ-मैं इसे जो-जो बातें कहता हूँ (परमार्थ की बातें), उस ओर तो यह कान ही नहीं देता और अपने मते ही कलुषित रहता है। देव, मनुष्य, पण्डित-जनों के समझाने पर भी यह कुमति का भाई मेरा साला समझता ही नहीं ॥ ६ ॥ अर्थ-भावार्थ - (संस्कृत में 'मन' शब्द नपुसक लिङ्ग का है) मैंने तो इसे नपुंसक लिङ्ग ही समझा था परन्तु यह तो बड़े-बड़े समर्थ पुरुषों को दूर ढकेलता है। अन्य बातों में मनुष्य भले ही समर्थ हो, परन्तु इसका तेज कोई सहन नहीं कर सकता ॥ ७ ॥ विवेचन–मनुष्य सिंह को वश में कर सकता है, सागर पार कर सकता है, आग पर चल सकता है और हवा में भी उड़ सकता है, परन्तु मन को वश में करना कठिन है ॥ ७ ॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली - ३३५ श्रर्थ - भावार्थ - जिसने मन को वश में कर लिया उसने सब कार्य सिद्ध कर लिया। इस बात में कोई खोट नहीं है, परन्तु इसे वश में करने का कोई दम्भ करे और कहे कि मैंने मन को वश में कर लिया है तो मैं यह मानने के लिए तत्पर नहीं हूँ, क्योंकि मन को जीतने की यह एक ही बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं दुष्कर है ॥ ८ ॥ 4 अर्थ - भावार्थ - हे नाथ ! मैंने यह बात आगमों से ज्ञात कर ली है कि आपने कठिनाई से आराधना करने योग्य अर्थात् कठिनाई से वश मेंने योग्य मन को वश में कर लिया है, जीत लिया है । हे अनन्त आनन्द के स्वामी प्रभो ! यदि आप मेरा मन वश में कर लोगे तो मैं उसे प्रत्यक्ष प्रमाण से जान लगा ।। ६ ।। ( १८ ) श्री श्ररनाथ जिन स्तवन ( राग - पर जियो मारू - ऋषभ - वंश रयणयरू - ए देशी ) धरम परम अरनाथ नो, किम जारण भगवंत रे । स्व पर समय समझाविये, महिमावंत महन्त रे । धरम० ।। १ ।। शुद्धातम अनुभव सदा, स्व समय यह पर बडी छहाँड़ी जे पड़े, ते पर समय तारा नखतं ग्रह चंदनी, दरसरण ज्ञान चरण थकी, भारी पीलो चीकणो, कनक परजाय दृष्टि न दीजिये, एकज दरसण ज्ञान चरण थकी, निर विकलप रस पीजिये, ज्योति दिनेश सकति निजातम अलख सुद्ध विलास रे । निवास रे । धरम० ।। २ ॥ अनेक कनक मझार रे । धार रे । धरम० ।। ३ ।। तरंग रे । अभंग रे । धरम ० ॥। ४ ॥ सरूप अनेक रे । निरंजन एक रे । धरम० ।। ५ । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३३६ परमारथ पद जे कहे, ते रजे इक तंत रे । व्यवहारे लखि जे रहे, तेना भेद अनन्त रे। .. धरम० ।। ६.॥ व्यवहारे लाख दोहिलो, कांइ न आवे हाथ रे।। शुद्ध नया थापन सेवतां, नहि रहे दुविधा साथ रे।। धरम० ॥ ७ ॥ एक पखि लखि प्रीतनी, तुम साथ जगनाथ रे। किरपा करीने राखज्यो, चरण तले गति हाथ रे। धरम० ।। ८ ।। चक्री धरम तीरथ तणा, तीरथ फल तत सार रे। तीरथ सेवे ते लहै, 'पानन्दघन' निरधार रे। .. . . धरम० ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:--स्व-अपना । पर अन्य का। · समय=सिद्धान्त । महिमावंत यशस्वी। परवड़ी अनात्म भाव वाली बड़ी। नखत नक्षत्र । दिनेश सूर्य । परजाय पर्याय, अवस्था । अभंग = भेद रहित । चरण= चारित्र । अलख जो दिखाई न दे। निरंजन=निर्दोष। रंजे प्रसन्न होवे । लखि=लक्ष्य । लख = लक्ष्य । दोहिलो=कठिन । दुविधा संशय । गहिपकड़कर। चक्री=चक्रवर्ती। लहैं प्राप्त करे। निरधार= निश्चय ही। अर्थ-भावार्थः-श्री अरनाथ जिनेश्वर का धर्म परम उत्कृष्ट है। ऐसे उत्कृष्ट धर्म को मैं कैसे जान सकता हूँ? हे महिमावन्त प्रभो! आत्म-धर्म एवं पर-दर्शन (विभाव धर्म) का स्वरूप मुझे समझाइये ।। १॥ अर्थ-भावार्थः-द्वितीय पद्यांश में मानों स्वयं भगवान उत्तर देते हैं कि शुद्ध आत्म-स्वरूप का दिव्य अनुभव होता रहे, यह सब समय का विलास है। पर-पदार्थ अर्थात् अनात्म भाव की जहाँ छाया पड़ती है, तो वह पर-समय निवास है। अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थिति पर-समय है ॥ २॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३३७ विवेचनः -- हे भव्य जीव ! जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थिर रहता है उसे स्व समय जानो और जो जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित होता है उसे पर समय समझो । अर्थ - भावार्थ:- जिस प्रकार तारों, नक्षत्रों, ग्रहों और चन्द्रमा की ज्योति सूर्य में निहित है; उसी प्रकार से दर्शन ज्ञान और चारित्र को निज आत्म-शक्ति ही समभो ।। ३ ।। - अर्थ - भावार्थः – स्वर्ण भारी, पीला, चिकना आदि अनेक भेद युक्त गुण- पर्याय वाला है किन्तु पर्याय को गौण समझें तो स्वर्ण में समस्त तरंगों (भेदों) का अखण्ड रूप से समावेश हो जाता है । अर्थात् स्वर्ण के भारीपन, पीलेपन, चिकनेपन पर दृष्टि न दें तो केवल स्वर्ण दृष्टिगोचर होता है । उसी प्रकार से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आत्मा के साधारण तौर पर पृथक्-पृथक् गुण प्रतीत होते हैं, किन्तु वे समस्त श्रात्मा रूप ही हैं ॥ ४ ॥ अर्थ - भावार्थ:-- दर्शन, ज्ञान और चारित्र के भेद से अलख आत्मा के अनेक स्वरूप हैं । विकल्प त्याग कर शान्तिपूर्वक यदि सम्यक् दृष्टिकोरण से देखें तो शुद्धं निरंजन श्रात्मा तो एक ही है । अर्थात् आत्म गुण पर्याय दृष्टि से अनेक स्वरूप युक्त हैं और निर्विकार दृष्टि से उसका शुद्ध निरंजन स्वरूप है, सिद्ध स्वरूप है ।। ५ ।। जगनाथ श्री अरनाथ प्रभु के जो अनन्य उपासक हैं, ऐसे योगिराज श्रीमद् नन्दघनजी महाराज के चरणारविन्द में कोटि-कोटि वन्दन । 20195 8.5427 85423 घर दुकान ० मैसर्स पाटनी ब्रदर्स ० जनरल मर्चेण्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट बी-22, कृषि उपज मण्डी, मेड़ता सिटी - 341 510 ( राजस्थान ) Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३३८ अर्थ - भावार्थ:- जो परमार्थ मार्ग बताने वाले हैं, जो परमार्थ मार्ग पर आचरण करने वाले हैं, निश्चयवादी हैं; वे तो केवल आत्म-तत्त्व से प्रसन्न होते हैं और जिनका व्यवहार की ओर लक्ष्य रहता है अर्थात् जो व्यवहार नयवादी हैं उन्हें इसके ( आत्मा के ) अनन्त भेद ( ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अजर-अमर, अव्याबाध आदि) दृष्टिगोचर होते हैं ।। ६ ।। श्रर्थ - भावार्थ:- व्यवहार नय से लक्ष्य तक पहुँचना कठिन है । व्यवहार नयवादी अन्तरंग से अनभिज्ञ होने के कारण उसको परमार्थरूप कुछ भी हाथ नहीं आता, परन्तु शुद्ध नय को हृदय में स्थापित करके जो मनुष्य आचरण करता है, उसे किसी प्रकार की दुविधा का सामना नहीं करना पड़ता ।। ७ ।। अर्थ - भावार्थ :- हे जगनाथ श्री अरनाथ प्रभो ! आपके प्रति मेरी प्रीति एकपक्षीय है क्योंकि आप तो वीतराग हैं और मैं साधक की दशा में हूँ। मैं साधक दशा से गिर न जाऊँ, अतः कृपा करके मेरा हाथ पकड़ कर आप मुझे चरणों के तले ही रखना ।। ८ ।। अर्थ - भावार्थ :- हे अरनाथ प्रभो ! प्राप चतुर्विध संघ रूपी धर्मतीर्थ के चक्रवर्ती हैं, सम्राट् हैं । आप ही इस धर्म - तीर्थ के फल रूप ध्येय है । जो भव्य आपके धर्म - तीर्थ की सेवा आराधना करता है, वह निश्चय ही आनन्दघन पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है | !! ( १९ ) श्री मल्लिन जिन स्तवन ( राग काफी ) सेवक मि श्रवगणिबेहो, मल्लि जिन, ए अब सोभा सारी । अवर जेने आदर प्रति दिये, तेने मूल निवारी हो । मल्लि० ।। १ ।। ताणी । प्राणी हो । मल्लि० ।। २ ।। ज्ञान सरूप अनादि तुमारू, ते लीधो तुम जुम्रो ज्ञान दशा रीसावी, जातां कारण न Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३३६ निद्रा सुपन-जागरु जागरता, तुरिय अवस्था प्रावी। निद्रा सुपन दसा रीसाणी, जारिण न नाथ मनावी हो । मल्लि० ॥ ३ ॥ समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवार सु गाढ़ी । मिथ्यामति अपराधण जाणी, घर थी बाहिर काढ़ी हो । ___ मल्लि० ॥ ४ ॥ हास अरति रति सोक दुगंछा, भय पामर करसाली। नोकषाय-गज श्रेणी चढ़ता, श्वान तणी गत झाली हो । मल्लि० । ५ ।। राग-द्वेष अविरतनी परणति, ए चरण मोहना जोधा । वीतराग परणति परणमतां, ऊठी नाठा बोधा हो। मल्लि० ।। ६ ।। वेदोदय कामा परणामा, काम्यक् रसहू त्यागी । निक्कामी करुणारस-सागर, अनन्त चतुष्क पद पागी हो । मल्लि० ॥ ७ ॥ दान विघनवारी सहु जनने, अभयदान पद दाता । लाभ-विघन जग-विघन निवारक, परम लाम रस माता हो । मल्लि० ॥ ८ ॥ वीर्य-विघन पंडित वीर्ये हरिण, पूरण पदवी जोगी। भोगोपभोग दुय विघन निवारी, पूरण भोग सुभोगी हो । __ मल्लि० ॥६॥ ए अठार दूषण वरजित तनु, मुनिजन वृन्दे गाया । अविरति रूपक दोष निरूपण, निरदूषण मन भाया हो । मल्लि० ॥१०॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य- ३४० इविध परखी मन विसरामी, जिनवर गुरण जे गावे । दीनबन्धु नी महर नजर थी, 'श्रानन्दघन' पद पावे हो । शब्दार्थ - अवगरिये उपेक्षा करते हो । जुनो = देखो । रिसाणी = क्रोधित होकर | गाढ़ी = मजबूत | काढी = निकाल 1 करसाली = तीन दांतों वाली दन्ताली । लगते हो। परखी = परख कर, परीक्षा करके । मल्लि० ।। ११ ।। निवारी = दूर करके । कारण = मर्यादा । तुरिय= चौथी । दुगंछा = घृणा | पामर = नीच । झाली = पकड़ी ।. भाया अच्छे श्रर्थ - भावार्थ - हे मल्लिनाथ जिनेश्वर ! आप इतनी शोभा प्राप्त करके भी सेवक की उपेक्षा क्यों कर रहे हैं ? समवसरण के कारण तथा केवलज्ञान प्राप्त करने के कारण आपकी शोभा का पार नहीं है । क्या यही है आपकी महिमा ? जिस राग-भाव को अन्य लोग अत्यन्त सम्मान देते हैं उस राग एवं ममत्व को तो मूल से आपने उखाड़ फेंका है। इससे आपकी शोभा की श्रेष्ठता बढ़ गई है ।। १ ।। अर्थ - भावार्थ - आत्मा के अनादि ज्ञानस्वरूप को आपने अज्ञान के आवरण से खींच कर बाहर निकाल दिया है, जिसके कारण उक्त अज्ञान दशा क्रोधित होकर चली गई । आपने उसे जाती हुई देखकर भी उसकी मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। आपने उस अनादि काल की अपनी सहचरी का तनिक भी विचार नहीं किया ॥ २ ॥ अठारह दोषों से रहित तीर्थंकर भगवान श्री मल्लिनाथ जिनेश्वर के अनन्य उपासक अध्यात्मयोगी श्रीमद् श्रानन्दघनजी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन । x मैसर्स गुलाबचन्द जैन पोलीथिन प्रिण्टर्स एण्ड सप्लायर्स दमन, वापी (गुजरात) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री आनन्दघन पदावली-३४१ अर्थ-भावार्थ-नींद, स्वप्न, जागृति और उजागरता में से आपमें उजागरता अर्थात् जागृति आ गई है। इस कारण नींद एवं स्वप्न-दशा आपसे अप्रसन्न हो गई। यह जानकर भी आपने उसे प्रसन्न करने का प्रयास नहीं किया ॥ ३ ॥ अर्थ-भावार्थ-आपने सम्यक्त्व तथा उसके परिवार (शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्तिकता) के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित किया तथा दुर्बुद्धि को अपराधिनी समझकर आपने आत्म-गृह से निष्कासित कर दिया है ।। ४ ॥ अर्थ-भावार्थ-हँसी, रति, अरति, शोक, दुगंछा (घृणा) तथा भय एवं स्त्री-पुरुष-नपुसक वेद इन नोकषायों ने आपको क्षपक श्रेणी रूपी हाथी पर चढ़ता हुआ देखकर श्वान की चाल पकड़ ली अर्थात् भोंक कर वे चम्पत हो गये ।। ५॥ अर्थ-भावार्थ- राग-द्वेष, अविरति-ये चारित्र-मोहनीय राजा के शक्तिशाली योद्धा हैं। वीतराग के रूप में आपकी परिणति होते देखकर बुद्धिमानी करके ये बिचारे भाग गये ।। ६ ॥ - अर्थ-भावार्थ-वेदोदय से स्त्री-पुरुष में काम-वासना उत्पन्न होती है, किन्तु आप तो काम उत्पन्न करने वाले रस के पूर्णत: त्यागी बने हुए हैं, आप अवेदी बने हैं। इस तरह हे करुणासागर! आप निष्कामी बनकर, कामनाओं से रहित होकर अनन्तज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्यइस चतुष्क पद में लीन हो गये हैं ॥ ७ ॥ .. अर्थ-भावार्थ हे प्रभो! आप दान में विघ्न उत्पन्न करने वाले कर्म को नष्ट करके समस्त भव्य जीवों को अभयदान-पद के दाता हैं। लाभ में विघ्न उत्पन्न करने वाले लाभान्तराय कर्म के विघ्न नष्ट करने वाले विघ्न-निवारक (विनाशक) एवं परम लाभ मोक्ष के शुभ भोगी हैं ॥ ८॥ अर्थ-भावार्थ--हे नाथ ! वीर्य (शक्ति) में विघ्न डालने वाले वीर्यान्तराय कर्म को आत्म-बल से नष्ट करके आपने पूर्णपद अर्थात् अनन्तशक्ति से सम्बन्ध जोड़ लिया है और भोगों एवं उपभोगों में विघ्न डालने वाले भोगान्तराय तथा उपभोगान्तराय इन दोनों कर्मों का विघ्न निवारण करके, उनका क्षय करके आप पूर्ण भोग अर्थात् आत्मानन्द के भोक्ता बने हैं ।। ६॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४२ अर्थ-भावार्थ--उपर्युक्त अठारह दोषों * से रहित आपकी देह है, मुनि-वन्द ने आपकी महिमा गाई है, स्तवना की है, आप अविरति रूपी दोषों को बताने वाले हैं तथा इन दोषों से रहित हैं, अतः हमें आप प्रिय हैं ।। १० ।। ___ अर्थ-भावार्थः-उपर्युक्त अठारह दोष-रहित तीर्थंकर की परीक्षा करके मन को विश्राम देने वाले श्री मल्लिनाथ जिनेश्वर के जो गुण-गान करते हैं वे दीन-बन्धु परमात्मा की कृपा दृष्टि से अानन्द-पूर्ण-पद (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं ।। ११ ॥ (२०) श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन | (राग---काफी-आघा प्राम पधारो पूज्य-ए देशी) मुनिसुव्रत जिनराज, एक मुझ विनती निसुणो । .. .. ॥टेक ॥ प्रातम तत क्यू जाण्यु जगतगुरु, एह विचार मुझ कहिये । प्रातम तत जाण्या विण निरमल, चित्त समाधि नंव लहिये । मुनि० ।। १॥ कोई प्रबंध प्रातम तत माने, किरिया करतो दीसे । क्रिया तणो फल कोण भोगवे, इम पूछ यां चित्त रीसे । __ मुनि० ॥ २ ॥ जड चेतन ए आतम एकज, थावर जंगम सरिखो। सुख दुःख संकर दूषण प्रावे, चित्त विचार जो परिखो । मुनि० ।। ३ ॥ * १. आशा, तृष्णा, २. अज्ञान, ३. नींद, ४. स्वप्न, ५. मिथ्यात्व, ६. हास्य, ७. रति, ८. अरति, ६. भय, १०. शोक, ११. दुगंछा, १२. राग, १३. द्वेष, १४. अविरति, १५. काम्यक दशा, १६. दानान्तराय, १७. लाभान्तराय और १८ भोगोपभोगान्तराय । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३४३ . एक कहे नित्यज प्रातम तत, प्रातम दरसण लीनो । कृत विनास अकृतागम दूषण, नवि देखे मति हीणो। मुनि० ।। ४ ।। सुगत मत रागी कहे वादी, क्षणिक ए पातम जाणो । बंध-मोख सुख-दुःख नवि घटे, एह विचार मन जाणो । मुनि० ।। ५ ॥ भूत चतुष्क वरजी आतम तत, सत्ता अलगो न घटे । अन्ध सकट जो नजर न देखे, तो शु कीजे सकटे । मुनि० ।। ६ ।। इम अनेक वादी मत विभ्रम, संकट पडियो न लहे । चित्त समाधि ते माटे पूछ, तुम विण तत कोण कहे । . मुनि० ।। ७ ।। बलतू जगगुरु इण परि भाखे, पक्षपात सहु छंडी। राग-द्वेष मोहे पंख वरजित, प्रातम सू रढ मंडी । मुनि० ।। ८ ।। प्रातम ध्यान करे जो कोऊ, सो फिर इण में नावै । वागजाल बीजू सहु जाणे, एह तत्त्व चित्त चावै । मुनि० ॥ ६ ॥ • 'जे विवेक धरि ए पख ग्रहियो, ते तत ज्ञानी कहिये । श्री मुनिसुव्रत कृपा करो तो, 'पानन्दघन' पद लहिये । - मुनि० ॥ १० ॥ शब्दार्थ-तत तत्त्व । नवि=नहीं। अबंध-बंध रहित । दीसे= दिखाई देता है। रीसे रुष्ट होता है। थावर=स्थावर । जंगम=चलनेफिरने वाले प्राणी। संकट=संकर दोष । लीनो=निमग्न । सुगत= भगवान बुद्ध । भूत तत्त्व । चतुष्क=चार तत्त्व--पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु । वरजी=रहित । सकट=गाड़ी। बलतू =उत्तर में। रढ़ प्रीति । वागजाल-बकवास । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दधनजी एवं उनका काव्य-३४४ अर्थ-भावार्थ-हे मुनिसुव्रत जिनेश्वर! आप मेरी एक प्रार्थना सुनिये। हे जगत्-गुरु ! मुझे आप प्रात्म-तत्त्व जानने का उपाय बतायें। निर्मल आत्म-तत्त्व को जाने बिना चित्त में शान्ति नहीं प्राप्त होती। मैं उलझन में हूँ क्योंकि प्रत्येक दर्शन का आत्मा के सम्बन्ध में भिन्न मत है ॥ १॥ .. अर्थ-भावार्थ-कितने ही दर्शन प्रात्मा को बन्धरहित मानते हैं, परन्तु प्रात्मा क्रिया करती हुई प्रतीत होती है। जब क्रिया करने वाली आत्मा है तो फिर उस क्रिया का फल अन्य कौन भोगेगा? जब इस प्रकार पूछते हैं तो आत्मा को प्रबन्ध (बन्ध रहित) मानने वाले 'रुष्ट होते हैं ॥ २ ॥ विवेचन-जैनदर्शन निश्चयनय से प्रात्मा को बन्धरहित मानता है किन्तु अन्य नयों की अपेक्षाओं को ध्यान में नहीं रखें तो यह एकान्त वाक्य हो जाता है। यदि आत्मा को पूर्णतः बन्धरहित मान लिया जाये तो प्रश्न उठता है कि आत्मा कर्म करती है तो फल भी भोगेगी ही। आत्मा को क्रिया करती हुई तो मानते हैं, परन्तु उसे फल की भोक्ता नहीं मानते । तब क्या उस क्रिया का फल कोई अन्य भोगेगा? यह प्रश्न करने पर सांख्य एवं वेदान्ती क्रोधित हो जाते हैं ॥ २॥ अर्थ-भावार्थ-अनेक दार्शनिक जड़ और चेतन को एक रूप मानते हैं। यदि यह मानें तो जीव को सुख-दु:ख नहीं होना चाहिए। यदि सुख-दुःख मानें तो इसमें संकर दोष होता है। ऐसा विचार करके आत्मतत्त्व की परीक्षा करनी चाहिए ॥ ३ ॥ विवेचन-भिन्न-भिन्न पदार्थों के लक्षण भिन्न-भिन्न होते हैं। एक-दूसरे में लक्षण घटित होने से 'संकर' नामक दोष होता है। सुख का वेदन हर्ष है और दुःख का वेदन क्लेश है। दोनों का स्वभाव भिन्न है। जब इन्हें एक ही माना जाता है तब संकर दोष होता है। इसी प्रकार से जड़ एवं चेतन को समान समझने में भी संकर दोष है। अद्वैत मत वालों का मानना है कि ‘एको ब्रह्मः द्वितीयो नास्ति ।' इसके अनुसार जड़ चेतन में कोई भेद नहीं है । सब ब्रह्म हैं। विशिष्टाद्वैती जड़-चेतन में एक ही प्रात्मा व्याप्त मानते हैं और द्वेताद्वैत को मानने वाले जड़-चेतन में कुछ भेद मानते हैं। सारांश यह है कि जड़ और चेतन दोनों आत्मा की दृष्टि से एक हैं। इस मान्यता में 'संकर' नामक Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३४५ दोष है क्योंकि सुख-दुःख भी एक ही हुए। इसके अनुसार चैतन्य के कर्म सुख-दुःख जड़ को भोगने पड़ेंगे और जड़ के कृतकर्म सुख-दुःख चैतन्य को भोगने होंगे, जो सम्भव नहीं है। यह संकर दोष है अतः आत्म-तत्त्व की परीक्षा करो ।। ३ ॥ अर्थ-भावार्थ-एकान्तवादी आत्म-तत्त्व को नित्यज मानते हैं क्योंकि वे अपने स्वरूप-दर्शन में लीन हैं। इसमें अपने किये हुए कर्म का फल स्वयं को नहीं मिलता और अकृतागम (जो कर्म अभी तक नहीं किया गया है) की फल प्राप्ति -ये दो दोष हैं । मतिहीन एकान्तवादी व्यक्ति यह बात तनिक भी नहीं देखते ।। ४ ।। विवेचन - समस्त प्राणी संसार में सुख-दुःख भोगते प्रतीत होते हैं । इसका कारण हमारे पूर्व-कृत शुभ-अशुभ कर्म ही हैं। यदि आत्म-तत्त्व को अपने स्वरूप दर्शन में तन्मय (नित्यज) माना जाये तो सुख-दुःख का कर्ता तथा भोक्ता कौन है ? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थ -बौद्ध दर्शन के अनुयायी तर्कवादी आत्मा को क्षणिक, क्षण-क्षण में बदलने वाली, बताते हैं। यदि आत्मा का रूप क्षणिक माना जाये तो बन्ध और मोक्ष तथा सुख-दुःख की व्यवस्था घटित नहीं होती। इसका भी मन में विचार करके देखो ।। ५ ॥ - DHORI भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी की भक्ति में लीन अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघन जी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन ! निवास : 20241 । मैसर्स साँवलराम राम अवतार ४ (जनरल मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेन्ट) दुकान नं. डी-6, कृषि उपज मण्डी समिति, मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341 510 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४६ विवेचन--आत्मा को क्षण-क्षण में बदलती हुई माना जाये तो पुण्य-पाप करने वाली आत्मा दूसरी होगी और सुख-दुःख भोगने वाली आत्मा दूसरी होगी। बन्ध में पड़ने वाली और मुक्त होने वाली आत्मा अलग-अलग होगी। इसी प्रकार से जन्म लेने वाली आत्मा दूसरी होगी और मरने वाली प्रात्मा दूसरी होगी। फिर तो सुख-दुःख, बन्ध-मोक्ष, जन्म-मरण शब्द निरर्थक हैं। आत्मा को क्षणिक मानने में ये बाधाएँ हैं। भगवान बुद्ध ने संसार को दुःख रूप बताया है, चार आर्य सत्य कहे हैं और दुःख से मुक्ति का जो विचार बताया है, वह असत्य ठहरता है क्योंकि आत्मा क्षणिक है। स्वयं बुद्धदेव ने कई दिनों तक कठोर तपस्या की और सुख-दुःख का अनुभव किया। यदि बुद्धदेव को सुख-दुःख की अनुभूति हुई तो आत्मा क्षण में स्थायी का सिद्धान्त गलत हो गया। यदि क्षण-क्षण बदलती आत्माओं ने सुख-दुःख अनुभव किया तो तपस्या करने पर किसकी देह कृश हुई ? इससे प्रात्मा क्षणिक सिद्ध नहीं होती। आत्मा का स्वरूप तो समस्त पर्यायों पर दृष्टि रख कर ही निश्चित किया जा सकता है। चतुष्क भूत अर्थात् चार तत्त्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के अतिरिक्त आत्म-तत्त्व नामक किसी भिन्न वस्तु की सत्ता नहीं है। (यह सिद्धान्त चार्वाक दर्शन के अनुयायियों का है।) यह तो ऐसा सिद्धान्त है कि किसी अन्धे व्यक्ति को आगे खड़ा छकड़ा नजर नहीं आने से वह टकरा जाता है तो इसमें छकड़े का क्या दोष ? क्योंकि आँख वाले के लिए तो छकड़े की सत्ता है ही, पर नेत्र-हीन व्यक्ति छकड़े की सत्ता नहीं देख सके तो क्या इसमें छकड़े का दोष है ? ॥ ६ ।। . विवेचन--चार्वाक मतानुयायी नास्तिक हैं। वे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के मेल को ही चैतन्य शक्ति मानते हैं। इनके अलग-अलग होने पर वे चैतन्य नष्ट हुआ मानते हैं। वे आत्मा अथवा चैतन्य शक्ति की कोई अलग सत्ता नहीं मानते। विचारणीय है कि मृत देह में चार तत्त्व तो हैं ही, फिर उसमें चेतना क्यों नहीं है ? यदि उपयुक्त सिद्धान्त ठीक होता तो मृत-देह में चेतना होनी चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है। चैतन्य शक्ति कोई भिन्न वस्तु है जिसके देह से निकल जाने पर देह में कार्य करने की शक्ति नहीं रहती ।। ६ ।। अर्थ-भावार्थ-इस प्रकार विभिन्न मान्यतामों में मैं अथवा मेरी बुद्धि भ्रम में पड़ गई है। इस संकट के कारण मुझे आत्म-तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। इस कारण मैं चित्त की समाधि के लिए आपसे Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-३४७ प्रार्थना करता.हूँ। आपके बिना मुझे आत्म-तत्त्व समझाने वाला अन्य कौन है ? ॥ ७ ॥ अर्थ-भावार्थ-इसके उत्तर में जग-गुरु श्री मुनिसुव्रत स्वामी इस प्रकार कहते हैं कि समस्त मत-मतान्तरों का पक्षपात छोड़ कर, राग-द्वेष एवं मोह उत्पन्न करने वालों से रहित होकर केवल आत्मा से प्रीति लगायो, उसमें तन्मय हो जायो ।। ८ ।। विवेचन-प्रात्मा अनुभव-गम्य है, वाक्-पटुता अथवा वाणीविलास का विषय नहीं है। प्रात्मानुभव होने पर समस्त विवाद समाप्त हो जाते हैं, चित्त समाधि में लीन हो जाता है । अर्थ-भावार्थ -जो कोई व्यक्ति प्रात्मध्यान करता है, एकाग्रता से चिन्तन करता है वह इन वादों के चक्कर में नहीं आता। अन्य तो सब वाग्-जाल हैं, वाक्-पटुता है। वास्तव में, तत्त्व वस्तु तो आत्म-चिन्तन ही है, जिसकी चित्त सदा इच्छा करता है ।। ६ ।। अर्य-भावार्थ-जिन्होंने सद-असद का विवेकपूर्वक विचार करके आत्म-चिन्तन के पक्ष को ग्रहण किया है, वे ही तत्त्वज्ञानी हैं। योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी कहते हैं कि हे श्री मुनिसुव्रत जिनेश्वर ! यदि आपको कृपा हो तो मैं भी अनन्त आनन्द पद अर्थात् मोक्ष-पद को प्राप्त कर सकूगा ।। १० ।। ( २१ ) श्री नमिनाथ जिन स्तवन (राग-प्रासावरी-धन धन सम्प्रति सांचो राजा-ए देशी) - षड् दरसण जिन अंग भणीजे, न्यास षडंग जो साधे रे । नमि जिनवर ना चरण उपासक, षड्दरसण पाराधे रे । षड्० ।। १ ॥ जिन सुरपादप पाय वखाणो, सांख्य जोग दुय भेदे रे । . आतम सत्ता विवरण करतां, लहो दुग अंग अखेदे रे । षड़० ।। २ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३४८ %3D भेद-अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दुय कर भारी रे । लोकालोक अलंबन भजिये, गुरुगम थी अवधारी रे।... षड्० ॥ ३ ॥ लोकायतिक कूख जिनवर नी, अंस विचार जो कीजै रे। . तत्त्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजै रे। षड्० ॥ ४ ॥ जैन जिणेसर वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे। अक्षर न्यास धरी आराधक, पाराधे गुरु-संगे रे।। षड्० ॥ ५॥ जिनवर मां सघला दरसण छे, दरसण जिनवर भजना रे। सागर मां सघली तटनी छे, तटनी, सागर भजना रे। ... षड्० ।। ६ ॥ जिन सरूप थइ जिन पाराधे, ते सहि जिनवर होवे रे । भंगी इलिका ने चटकावे, ते भृगी जग जोवे रे । . . , षड्० ॥ ७ ॥ चूरणि भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परम्पर अनुभव रे । समय पुरुष नां अंग कह्यां ए, जे छेदे ते दुर भव रे । . षड्० ।। ८ ।। मुद्रा बीज धारणा अक्षर, न्यास अरथ विनियोगे रे । जे ध्यावे ते नवि वंचीजे, क्रिया अवंचक भोगे रे । षड्० ।। ६ ।। श्रुत अनुसार विचारी बोलू, सुगुरु तथा विधि न मिले रे । .. किरिया करि नवि साधी सकिये, ए विखवाद चित्त सबल्ले रे । षड्० ॥१०॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३४६ ते माटे ऊधो कर जोड़ो, जिनवर पागल कहिये रे । समय-चरण सेवा सुध दीज्यो, जिम 'प्रानन्दधन' लहिये रे । षड्० ।।११।। शब्दार्थ--षड्दरसण=छह दर्शन–सांख्य, योग, मीमांसा, बौद्ध, चार्वाक और जैन । न्यास-स्थापना। षडंग=छह अंग-दोनों जंघा, दोनों बाहु, मस्तक, छाती। सुरपादप कल्पवृक्ष । पाय=पर। विवरण=विवेचन । दुग=दो। अखेदे रे खेद रहित । अलंबन= प्राधार । अवधारीधारण करो लोकायतिक = चार्वाक दर्शन-बृहस्पति प्रणीत नास्तिक मत। कूख=कुक्षि । उत्तम अंग मस्तक । भजना रे = कहीं है, कहीं नहीं है। तटनीनदी। भृगी-भ्रमरी। चटकावे डंक मारता है। दुर भव रे=बुरी गति में जाता है। छेदे --अमान्य करे। विखवाद=दुःख । सबले रे=बलवान । आगल=सम्मुख । टिप्पणी-इस स्तवन में छह दर्शनों का समन्वय बताया गया है। अर्थ-भावार्थ -हाथ, पैर, पेट, मस्तक आदि अंग मिलकर शरीर बनता है, उसी प्रकार षट् दशनों. को (सांख्य, योग, बौद्ध, मीमांसा, चार्वाक और जैन) जैनदर्शन के अंग कहना चाहिए। इन षट् दर्शन रूप अंगों को श्री नेमिनाथ जिनेश्वर के अंगों पर स्थापित करके जो साधना करते हैं वे छहों दर्शनों को आराधना करते हैं, उपासना करते हैं ।। १ ।। विवेचनः-षट् दर्शन नमिनाथ भगवान के ही अंग हैं अर्थात् उनकी एकान्त विचारधारा का समन्वय जैन दर्शन में हो जाता है। . अर्थ-भावार्थ -इस दूसरे पद्यांश में षडंग न्यास को रीति बताई गई है। जिन तत्त्व-ज्ञान रूपी कल्पवृक्ष के सांख्य एवं योग दोनों दर्शन मूल रूप चरण-युगल कहे गये हैं। इन दोनों दर्शनों को निस्संकोच जिन तत्त्व ज्ञान रूपो कल्पवृक्ष के अंग समझे ।। २ ।। अर्थ-भावार्थः-बौद्ध दर्शन प्रात्मा को क्षणिक मानता है और मोमांसा दर्शन प्रात्मा को अभेद मानता है। ये दोनों दर्शन जिनेश्वर कल्पवृक्ष के दो विशाल हाथ हैं। बौद्ध दर्शन का अवलम्ब लोक-व्यवहार है, यह व्यवहार नयवादी है। मीमांसा का आधार अलौकिक है, यह निश्चयवादी है। ये बातें गुरु-मुख से समझे। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३५० जैन-दर्शन पुद्गल पर्यायों की अपेक्षा आत्मा को बदलती हुई कहता है। मीमांसक आत्मा को एक ही मानते हैं। जैन दर्शन समस्त आत्माओं की सत्ता एक रूप होना मानता है। निश्चय नय से आत्मा का रूप प्रबंध है, शुद्ध है। इस प्रकार ये दोनों दर्शन जिन तत्त्व दर्शन. के अंग रूप हाथ हैं ।। ३ ॥ अर्थ-भावार्थः-किसी अपेक्षा से सोचा जाय तो वृहस्पति-प्रणीत चार्वाक दर्शन जिनेश्वर भगवान की कुक्षि है । आत्म-तत्त्व के विचार रूप अमृत रस की धारा का सद्गुरु से समझे बिना कैसे पान किया जा सकता है ? वृहस्पति-प्रणीत चार्वाक दर्शन धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक तथा पुनर्जन्म को नहीं मानता। वह तो चार तत्त्वों के मेल से उत्पन्न चैतन्य शक्ति को मानता है। इस इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण विचार की मान्यता के कारण चार्वाक दर्शन को जिनेश्वर भगवान की कुक्षि माना है। आत्म-तत्त्व विचार रूपी अमृत-रस का पान तो सद्गुरु के द्वारा ही हो सकेगा ।। ४ ।। अर्थ-भावार्थः-जैन दर्शन श्री जिनेश्वर भगवान का उत्तम अंग अर्थात् मस्तक है। जिस प्रकार मस्तक समस्त अंगों के ऊपर बाहर दिखाई देता है और भीतर सुविचारों का भण्डार है, उसी प्रकार अन्तरंग में जैन दर्शन राग-द्वेष, मोह, अज्ञान और मिथ्यात्व रहित वीतराग भाव प्रदर्शित करने वाला तथा बाहर चारित्रधर्मी सर्वोत्तम एवं सर्वोपरि है। जैन दर्शन के आराधक सद्गुरु की संगति से अक्षर न्यास के द्वारा, जिनभाषित आगमों के द्वारा बिना किसी परिवर्तन के इनकी आराधना करते हैं, उन पर आचरण करते हैं और जिनेश्वर भगवान के आदेशानुसार चलते हैं ॥५॥ अर्थ-भावार्थः - जैन दर्शन में अन्य समस्त दर्शनों का समावेश हो जाता है, किन्तु अन्य दर्शनों में जैन दर्शन एक अंश मात्र है। जिस प्रकार सागर में समस्त नदियों का समावेश हो जाता है, किन्तु नदी में सागरत्व अंश मात्र है। अन्य दर्शनों में जैन दर्शन अंश रूप से है और जैन दर्शन में अन्य दर्शनों का समावेश हो जाता है। अतः श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि अन्य दर्शनों में खण्डनात्मक दृष्टिकोण न रख कर जैन दर्शन को सर्वोपरि जानकर इसकी आराधना करो ॥ ६॥ . अर्थ-भावार्थः--जो मनुष्य वीतराग बनकर श्री जिनेश्वर भगवान की आराधना करते है, वे निश्चय ही जिनेश्वर बन जाते हैं, जिस प्रकार Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३५१ भ्रमर लट को चटका देता है और वह लट स्वयं भ्रमर बन जाती है जिसे समस्त संसार देखता है ।। ७ ।। विवेचनः-भ्रमर लट को स्वनिर्मित मिट्टी के घर में रख देता है और फिर उस घर के समक्ष भनभनाता है और वह लट कुछ दिनों के पश्चात् भ्रमर बनकर बाहर आती है। यह बात समस्त संसार देखता और जानता है; उसी प्रकार से वीतराग मनुष्य जिनेश्वर तुल्य बन जाता है ॥ ७ ॥ अर्थ-भावार्थः-चूणि (विवेचन), भाष्य (सूत्रों का अर्थ), सूत्र (आगम), नियुक्ति (पदच्छेद पूर्वक अर्थ विवेचन), वृत्ति (टीका) तथा गुरु परम्परागत अनुभव-ज्ञान ये समय पुरुष के (सिद्धान्त पुरुष के) छह अंग हैं। जैन दशन के इन छह अंगों में से एक का भी जो छेदन करता है, एक का भी उत्थापन करता है, वह दुर्भवी है अर्थात् नीच गति में जानेवाला है ॥ ८ ॥ अर्थ-भावार्थः-(जो जिनेश्वर रूप वीतराग बनकर जिनेश्वर परमात्मा को आराधना करता है वह अवश्य ही जिनेश्वर बन जाता है। केवल जिनेश्वर का अनुयायी बनने से जिनेश्वर नहीं बना जा सकता, उसके लिए साधना करनी पड़ती है) शास्त्रानुसार चारित्र की शुद्ध सेवा प्राप्त करने के जिज्ञासु अध्यात्म योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी महाराज के चरणों में . कोटि-कोटि वन्दन ! 0633499, 622238 - 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Mkt. - Ring Road, Surat-2 (Gujrat) Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३५२ आत्म-साधना में ध्यान का विशेष महत्त्व है । यहाँ आलम्बन ध्यान पद्धति का निरूपण किया गया है । ध्यान में मन-वचन-काया के योगों को स्थिर करके एकाग्रता के लिए छह योग बताये गये हैं- १ मुद्रा, २ बीज, ३ धारणा, ४ अक्षर, ५ न्यास और ६ अर्थ विनियोग | (१) मुद्रा से तात्पर्य है -- बैठने, खड़े होने, लेटने आदि का तरीका; हाथ, मुँह, नेत्र, आदि की स्थिति । योग मुद्रा, जिन मुद्रा । ध्यान के समय हाथ, मुँह, पैर, नेत्र आदि किस तरह रखे जायें उसके लिए किसी भी योगासन को ग्रहण करना जैसे सिद्धासन, पद्मासन, सुखासन आदि । (२) बोज - मंत्र ( ॐ ह्रीं श्रीं सहित जाप मंत्र, पंच परमेष्ठी जाप ) ( ३ ) धारणा - चित्त को बीज पर स्थिर करना ( ४ ) अक्षर - जाप मंत्र के अक्षर, पंच परमेष्ठी जाप के अक्षर । ( ५ ) न्यास - स्थापना अर्थात् हृदय-कमल दल, अष्ट दल कमल, सहस्र दल कमल पर जाप के अक्षरों को स्थापित करना । ( ६ ) अर्थ विनियोग - जाप के अक्षरों के साथ उनके का बोध होना । जो मुद्रा में स्थित होकर, बीज - जाप मंत्र ( पंच परमेष्ठी मंत्र ) पर धारणा करता हुआ, चित्तवृत्तियों को स्थिर करता हुआ, जाप के अक्षरों स्थापित करता है, अर्थात् हृदय कमल अथवा प्रष्ट दल कमल अथवा सहस्रदल कमल पर जाप के अक्षरों को स्थापित करता है और साथ ही जाप अक्षरों के अर्थ का बोध रखकर ध्यान करता है, वह कदापि ठगा नहीं जाता । प्रस्रव रूप क्रियाएँ आत्मा को ठगती हैं, जो उन्हें नहीं करता, वह उगाया नहीं जाता और वह प्रवंचकं क्रिया का प्रवंचक फल अर्थात् अनन्त प्रात्मिक सुख भोगता है ।। ६ ।। विवेचनः – जो प्रवंचक रूप धारण करके प्रवंचक क्रिया करता है, वह निश्चय ही आत्मिक सुख ( प्रवंचक फल ) भोगता है । अर्थ - भावार्थ:-श्रुत अर्थात् जैन आगमों के अनुसार पूर्ण रूप से चिन्तन करके बताता हूँ कि आगमों में सद्गुरु के जैसे लक्षण बताये गये हैं, वैसे सद्गुरु आज उपलब्ध नहीं हैं । अतः ऐसे सद्गुरु के आश्रय के for four करके भी आत्म-साधना नहीं कर सका, उसका चित्त में प्रबल विषाद (दुःख) रहता है ॥ १० ॥ अर्थ- भावार्थ - इसलिए हे जिनेश्वर नमिनाथ ! मैं कर जोड़ कर खड़ा हुआ आपके समक्ष प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे चारित्र की शुद्ध सेवा प्रदान करें ताकि आनन्द के समूह को प्राप्त करके मैं अनन्त आत्मिक सुख प्राप्त करू" ।। ११ ।। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३५३ ( २२ ) श्री नेमि जिन स्तवन (राग--मारू-धरणरा ढोला-ए देशी) अष्ट भवान्तर बाल्ही रे वाल्हा, तू मुझ आतमराम । मन रा वाल्हा० मुगति नारी पापणे रे वाल्हा, सगपण कोई न काम । मन रा वाल्हा० ।। १ ।। घर प्रावो हो बालम घर आवों, म्हारी आसा रा विसराम । मनरा० । रथ फेरो हो साजन रथ फेरो, म्हारा मनना मनोरथ साथ । मनरा० ।। २ । नारी पखे स्यों नेहलो रे वाल्हा, साँच कहे जगन्नाथ । मनरा० । ईसर अरधंगे धरी रे वाल्हा, तू मुझ झाले न हाथ । मनरा ।। ३ ।। पशु जन नी करुणा करी रे वाल्हा, प्राणी हृदय विचार । मनरा० । माणस नी करुणा नहीं रे वाल्हा, ए कुण घर आचार । मनरा० ॥ ४ ॥ प्रेम कल्पतरु छेदियो रे वाल्हा, धरियो जोग धतूर । मनरा० । चतुराई रो कुण कहो रे वाल्हा, गुरु मिल्यो जग सूर । मनरा० ॥ ५॥ म्हारो तो एह मां क्यू नहीं रे वाल्हा, आप विचारो राज । मनरा० । राजसभा मां बेसतां रे वाल्हा, किसड़ी वधसी लाज । मनरा० ॥ ६ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३५४ प्रेम करे जग जन सहू रे वाल्हा, निरवाहे ते और । मनरा० । प्रीत करी ने छाँडि दे रे वाल्हा, तेसू चाले न जोर। . मनरा० ।। ७ ॥ जो मन मां एहवो हतो रे वाल्हा, निसपति करत न जाण । मनरा० । निसपति करी ने छांडतां रे वाल्हा, माणस हुय नुकसाण । .. मनरा० ।। ८ ॥ देतां दान संवच्छरी रे वाल्हा, सह लहे वंछित पोष । मनरा० । सेवक वंछित लहे नहीं रे वाल्हा, ते सेवक रो दोष । मनरा० ।। ६ ॥ सखी कहे ए सामलो रे वाल्हा, हूँ कहूँ लखणे सेत । • मनरा० । इण लखणे सांची सखी रे वाल्हा, आप विचारो हेत । मनरा० ॥१०॥ रागी सू रागी सहू रे वाल्हा, वैरागी स्यों राग । मनरा० । राग बिना किम दाखवो रे वाल्हा, मुगत-सुन्दरी माग । मनरा० ॥११॥ एक गुह्य घटतो नहीं रे वाल्हा, सघलो जाणे लोग । मनरा० । अनेकान्तिक भोगवे रे वाल्हा, ब्रह्मचारी गत रोग । __ मनरा० ॥१२॥ जिण जोणी तुमने जोऊँ रे वाल्हा, तिण जोणी जुवो राज । __ मनरा० । एक बार मुझने जोवो रे वाल्हा, तो सीझे मुझ काज । मनरा० ॥१३॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३५५ मोह दसा धरि भावना रे वाल्हा, चित्त लहे तत्त्व विचार । मनरा० । वीतरागता प्रादरी रे वाल्हा, प्राणनाथ निरधार । मनरा० ।।१४।। सेवक पण ते प्रादरे रे वाल्हा, तो रहे सेवक माम । मनरा० । प्रासय साथे चालिये रे वाल्हा, एहिज रूडो काम । मनरा० ।।१५।। त्रिविध जोग धरी आदर्यो रे वाल्हा, नेमिनाथ भरतार । मनरा० । धारण पोखण तारणो रे वाल्हा, नवरस मुगता हार । मनरा० ।।१६।। कारण रूपी प्रभु भज्यो रे वाल्हा, गिण्यो न काज-काज । मनरा० । क्रिपा करी मुझ दीजिये रे वाल्हा, 'आनन्दघन' पद राज । मनरा० ।।१७।। शब्दार्थ--- भवान्तर पूर्व जन्म । वाल्ही=प्रिय । पखे पक्ष में । नेहलो स्नेह । ईसर=महादेव । अरघंग=प्राधे अंग में। छेदियो=काट डाला। किसडी= कैसी । वधसी=बढ़ेगी। निरवाहे=निभाना । निसंपति=सगाई, सम्बन्ध । पोख=पोषण। सामलो- साँवरे श्याम । दोख=दोष। लखण=लक्षण से। सेत= श्वेत । दाखवो बताना । माग=मार्ग । गुह्य=गुप्त । सगलो- सब । अनेकांतिक=अनेकान्त स्याद्वाद बुद्धि । गतरोग रोग रहित । जोणी योनि, जन्म । सीझे= सिद्ध होवे । माम=मर्म। रूडो=श्रेष्ठ । (सन्दर्भ-श्री नेमिनाथ महाराजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ विवाह करने के लिए बारात लेकर आये थे। मार्ग में उन्होंने अनेक पशुओं को एक बाड़े में बन्द देखा। वे चिल्ला रहे थे। श्री नेमिनाथ भगवान को जब यह ज्ञात हुआ कि इन समस्त पशुओं का मेरे विवाह के Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३५६ निमित्त प्राये बारातियों के भोजन के लिए वध होगा, तो उनका हृदय करुणासिक्त हो गया । उन्होंने सारथी को तुरन्त रथ लौटा लेने का आदेश दिया । उनकी आज्ञा का पालन हुआ और रथ लौटने लगा । रथ को लौटा ले जाते देखकर राजीमती श्री नेमिनाथ से निवेदन करने लगी ।) अर्थ - भावार्थ - हे प्राणनाथ ! हे प्रारण प्रिय ! मैं निरन्तर आठ जन्मों से आपकी प्रियतमा रही हूँ, जिससे आप मेरे प्रतमराम बन गये हैं, आप मेरी आत्मा में पूर्ण रूप से रम गये हैं । मुक्ति-नारी से तो पका कभी कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, फिर उससे सम्बन्ध रखने के लिए आप क्यों इतने उत्सुक हैं ? ।। १ ।। अर्थ - भावार्थ - हे मेरे प्राण - प्रिय ! आप घर पधारो । हे मेरी श्राशाओं के विश्राम-स्थल ! श्राप रथ को पुन: इस ओर घुमायो । हे साजन ! आप अपना रथ वापिस लाम्रो । हे प्रारण वल्लभ ! आपके रथ के साथ मेरी गई हुई आशाएँ भी लौट आयेंगी । प्रियतम ! मेरे मनोरथों के साथ आप अपना रथ लौटा लामो ॥ २ ॥ ग्रतः हे. अर्थ - भावार्थ - प्राप कहते हैं कि मैं मुक्ति - रमणी के प्रति आसक्त हो गया हूँ। मैं आपसे पूछती हूँ, हें जगत् के स्वामी प्रियतम ! आप सत्य बतलायें कि पत्नी के प्रति आपका यह स्नेह है क्या ? महादेव शंकर का प्रेम देखिये जो पार्वती को अपने प्राधे शरीर में धारण करके अर्द्धनारीश्वर कहलाते हैं । एक आप नारी के प्रेमी हैं जो मेरा हाथ तक नहीं पकड़ते ।। ३॥ अर्थ - भावार्थ- पशुओं की चीख सुनकर मन में विचार करके पशुओं पर करुणा लाकर आपने उन्हें बन्धन मुक्त कर दिया। परन्तु मुझे आश्चर्य होता है कि आपके हृदय में मनुष्य के लिए तनिक भी दया नहीं है । आप ही बताइये कि यह किस कुल का प्रचार है ? यह किस घर की मर्यादा है ? ॥ ४ ॥ अर्थ - भावार्थ हे प्रियतम ! आपने अपने हृदय में से प्रेम रूपी कल्पवृक्ष को उखाड़ कर उसमें योगरूपी धतूरे का वपन किया है । हे प्राण- वल्लभ ! आप सत्य - सत्य बतायें कि ऐसी बुद्धिमानी सिखाने वाला Sataar शूर-वीर गुरु आपको मिला है ? ।। ५ ।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३५७ अर्थ-भावार्थ--हे प्रियतम राजकुमार! आप तनिक मन में विचार करें, इसमें मेरा तो कोई दोष नहीं है। मैं तो पूर्ण रूप से आपके प्रति आसक्त हूँ। मेरे अन्तर में तो केवल यही दुःख है कि जब आप राज-दरबार में बैठेंगे तब आपकी कौनसी प्रतिष्ठा बढ़ेगी? आपने तो मुझे पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया था। जब आप वचन-भंग करेंगे तो आपकी कौनसी प्रतिष्ठा बढ़ेगी? ।। ६ ।। अर्थ-भावार्थ-जगत् में प्रेम तो सभी मनुष्य करते हैं परन्तु प्रेम का निर्वाह करने वाले विरले ही होते हैं। जो मनुष्य प्रेम करके छोड़ देते हैं उन पर कोई जोर तो नहीं है। आप मेरा प्रेम ठुकरा रहे हैं । मैं आपको घर लौट आने के लिए निवेदन ही कर रही हूँ कि हे प्राण-प्रिय ! आप लौट आइये ।। ७ ।। अर्थ-भावार्थ-यदि आपके मन में मुझे छोड़ जाने का पहले से ही विचार था तो आपको मेरे साथ सम्बन्ध ही नहीं करना था। एक बार सम्बन्ध करके छोड़ने में तो मनुष्य की भारी हानि होती है। लोग भाँति-भाँति की बातें करते हैं। आप बारात लेकर विवाह करने के लिए आये थे और अब आप रथ लौटाकर ले जा रहे हैं, इसमें आपका भी अपयश है। अतः हे प्राण-वल्लभ ! आप घर पधारें ।। ८ ।। ___. अर्थ-भावार्थ-(जैन तीर्थंक र दीक्षा अंगीकार करने से पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन एक करोड़, आठ लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान देते हैं । जब राजीमती को श्री नेमिनाथ के सांवत्सरिक दान की बात ज्ञात हुई तब वह निराशा से दुःखी होकर बोली--) . . हे प्राण-प्रिय ! आपके सांवत्सरिक दान से सबको इच्छित फल प्राप्त होता है, किन्तु मैं आठ भवों से आपकी सेविका हूँ। मुझे इच्छित फल प्राप्त नहीं हो रहा है, यह मेरा ही दोष है ।। ६ ।। अर्थ-भावार्थ-हे प्राण-वल्लभ ! मेरी सखियाँ कहती थीं कि श्री नेमिनाथ श्याम वर्ण के हैं, परन्तु मैंने उन्हें उत्तर दिया था कि यदि उनका वर्ण श्याम है तो क्या हुआ ? उनके लक्षण तो उज्ज्वल हैं, श्वेत हैं। आपके मुझे छोड़कर जाने के लक्षणों से तो सखियों की वह बात ही सत्य सिद्ध होती है। आप स्वयं ही इसका विचार करें। अत: मेरा को मापको पुनः निवेदन है कि हे मेरी आशाओं के विश्राम ! आप घर पारें ॥१०॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३५८ अर्थ-भावार्थ-हे नाथ ! प्रेम करने वाले के साथ तो सब मनुष्य प्रम करते हैं, परन्तु वैरागी व्यक्ति के साथ भला प्रेम कैसा? तो मैं आपसे पूछ रही हूं कि आप बिना राग के मुक्ति-सुन्दरी को प्राप्त करने का मार्ग अपनाकर दूसरों को वह मार्ग कैसे बता रहे हो ? विरक्त बनकर राग रखना तथा राग का कथन करना उचित है क्या ? अतः मेरी विनती स्वीकार करके हे बालम ! आप घर आयें ॥ ११ ॥ अर्थ-भावार्थ:--आप में एक भी गुप्त कर्म घटित नहीं होता। यह बात सभी मनुष्य जानते हैं। आप काम-रोग रहित ब्रह्मचारी हैं। फिर भी आप अनेकान्तिक बुद्धि रूपी नारी के साथ रमण करते हैं। आप अनेकान्तिक बुद्धि का उपभोग करते हैं, यह सभी को ज्ञात है। इसमें कोई गुप्त बात नहीं है। अत: मैं आठ जन्मों को आपकी अर्धाङ्गिनी आपको निवेदन करती हूँ कि हे बालम ! आप घर आयें ॥ ११ ॥ अर्थ-भावार्थः-हे राजवी! जिस दृष्टि से मैं आपको देख रही हूँ, उसी दृष्टि से आप भी मुक्ति-रमणी को निहार रहे हैं। यदि आप एक बार भो मेरो अोर प्रेमदृष्टि से निहारेंगे तो मेरे समस्त कार्य सिद्ध हो जायेंगे। इसलिए हे प्राण-नाथ मेरा आपको निवेदन है कि आप घर लौट आयें ।। १३ ॥ अर्थ-भावार्थः-मोहावत राजीमती के विचारों में यकायक परिवर्तन आ गया। इसी विचार-धारा के मध्य उसका मन तत्त्व-विचार का दिव्य प्रकाश प्राप्त कर गया।. उसे अपने कर्तव्य का ध्यान आया। दिव्य प्रकाश में उसे वास्तविकता का ज्ञान हो गया कि प्राण-वल्लभ नेमिनाथ ने तो वीतरागता स्वीकार कर ली है, वे वीतराग बन गये हैं ॥ १४ ॥ अर्थ-भावार्थः- राजीमती के मन में अनेक विचार आते रहे और उसने निश्चय कर लिया कि अब तो मुझ सेविका की प्रतिष्ठा इसी में है कि मैं भी उस पथ पर चलकर वीतराग बन जाऊँ। सेवक को स्वामी के आशय के अनुसार ही चलना चाहिए। सेवक के लिए यही सर्वोत्तम कार्य है ॥ १५ ॥ अर्थ-भावार्थः-राजीमती कहती है कि मन-वचन-कर्म से मैंने वीतराग भाव धारण करके वास्तव में श्री नेमिनाथ को अपना भरतार' स्वीकार कर लिया है। उन्होंने मुझे नौ रस रूपी अद्वितीय आत्मिक Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३५६ गुणों से युवा-रति-प्रेम रूपी शृगार-रस, रूप-रंग से उत्पन्न हास्य-रस, पर-दु:ख सन्तप्तता रूपी करुण-रस, कर्म-शत्रुओं पर विजय, तप, दान, चारित्र-पालन, पर-दुःख-हरण में उत्साह रूपी वीर-रस; भव-बन्धन में डालने वाले कषायों पर क्रोध के रूप में रौद्र-रस, जन्म-मरण के कष्टों से भयभीत होने के रूप में भयानक-रस, नरक-निगोद के कष्टों से उत्पन्न ग्लानि रूप वीभत्स-रस; संसार की विचित्रता के आश्चर्य-रूप अद्भुत-रस और राग-द्वेष रहित प्रात्म-शान्ति में लीन वैराग्य भाव रूप शान्त-रस रूपी मुक्ता-हार उपहार में दिया है जो मेरा धारण-आधार है, मेरी शोभा है तथा मेरे आत्मिक गुणों को पुष्ट करने वाला है तथा मुझे भव-सागर से तारने वाला है ॥ १६ ॥ अर्थ-भावार्थः-अपने वीतराग-भाव के कारण श्री नेमिनाथ भगवान की मैंने आराधना की है। आराधना में मैंने काज-काज को तनिक भी महत्त्व नहीं दिया। मैं तनिक भी विचार किये बिना उनके प्राशय के अनुसार उनकी आराधना में लीन हूँ। अब मेरा निवेदन है कि हे दयालो! कृपा करके मुझे परमानन्द के समूह मोक्ष का साम्राज्य प्रदान करें ।। १७ ।। विवेचनः-महासती राजीमती की प्रार्थना के फलस्वरूप श्री नेमिनाथ भगवान से पूर्व ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वे मुक्ति की ओर अग्रसर हुई। इस पद्यांश में श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि मैं भी आपके मार्ग का, वीतरागता का अनुगामी हूँ। मैं काज-अकाज अथवा फल का विचार किये बिना ही आपकी आराधना में तल्लीन हूँ। कृपा करके मुझे अनन्त सुख (मोक्ष) प्रदान करें। ( २३ ) श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन (देशी रसिया को) ध्रुवपद रामी हो स्वामी म्हारा, निःकामी गुणराय, सुग्यानी । निज गुण कामी हो पामी तू धणी, ध्रुव पारामी हो थाय, सुग्यानी। ध्रुव० ॥१॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एव उनका काव्य-३६० सर्व व्यापी कहे सर्व जाणग पणे, पर-परणमन स्वरूप । पर रूपे करी तत्त्वपणु वही, स्व सत्ता चिद्रूप, सुग्यानी। . ध्रुव० ।। २ ॥ ज्ञेय अनेके हो ज्ञान अनेकता, जल भाजन रवि जेम सुग्यानी । द्रव्य एकत्व पणे गुण एकता, निज पद रमतां हो खेम, सुग्यानी। ध्रुव० ॥ ३॥ पर क्षेत्रे गम्य ज्ञेय ने जाणवे, पर क्षेत्री थयु ज्ञान, सुग्यानी । अस्तिपणु निज क्षेत्रे तुमे कहो, निर्मलता गुणमान, सुग्यानी । ध्रुव० ।। ४ ॥ ज्ञेय विनाशे हो ज्ञान विनश्वरू, काल प्रमाणे थाय, सुग्यानी । . स्वकाले करि स्व सत्ता पणे, ते पर रीते न जाय, सुग्यानी । ध्र व० ।। ५ ।। पर भावे करी परता पामता, स्व सत्ता थिर ठाण, सुग्यानी । आत्म-चतुष्कमयी परमां नहीं, ___ तो किम सहुनो रे जाण, सुग्यानी। - ध्रुव० ।। ६ ।। प्रगुरुलघु निज गुण ने देखतां, द्रव्य सकल देखंत, सुग्यानी। साधारण गुण नो साधर्म्यता, दर्पण जल दृष्टांत, सुग्यानी । 'ध्र व० ॥ ७ ॥ श्री पारस जिनवर पारस समो, पिण इहां पारस नाही, सुग्यानी। पूरण रसियो हो निज गुण परसनो, 'अानन्दघन' मुझ मांही, सुग्यानी । ध्रुव० ।। ८ ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३६१ शब्दार्थः – ध्रुव =अटल । रामी= = रमण करने वाला | ज्ञाता रूप से । पर पररणमन = अन्य में परिणमन करने वाले । आनन्द । विनश्वरु = नाशवान । और वीर्य रूप । समो = समान । जागगपने = खेम=क्षेम, आत्म चतुष्कमयी = अनन्त ज्ञान दर्शन - चारित्र परसनो = स्पर्श का । चिद्रुप = ज्ञान रूपी । अर्थ - भावार्थ :- हे मेरे स्वामी श्री पार्श्वनाथ भगवान ! आप अविचल पद (मोक्ष) में रमण करने वाले हैं । आप निष्काम हैं एवं अनन्त गुणों के सम्राट हैं । आत्मिक गुणों का अभिलाषी कोई भव्य जीव प्रापको स्वामी के रूप में प्राप्त करके मोक्ष के भवों में निवास करने वाला बन जाता है ॥ १ ॥ अर्थ - भावार्थ:- समस्त गुण पर्यायों के त्रिकाल - ज्ञानी होने के कारण आपको सर्वव्यापी कहा जाता है, परन्तु पर द्रव्य के परिणमनस्वरूप में वही आत्म-तत्त्व है क्या ? अर्थात् नहीं है क्योंकि आपकी सत्ता तो ज्ञानमय है । यदि वह द्रव्यमय हो जायेगा तो वह स्व-स्वरूप में नहीं रह सकेगा । अतः हे. स्वामिन् ग्राप ध्रुवपद रामी हैं ।। २ ।। अर्थ- भावार्थ:- ज्ञेय पदार्थ की अनेकता के कारण ही ज्ञान की अनेकता है, जैसे जल के अनेक पात्रों में सूर्य का प्रतिबिम्ब अनेक रूप में दृष्टिगोचर होता है अर्थात् एक ही ज्ञान अनेक क्षेत्रों में पृथक्-पृथक् रूप में दृष्टिगोचर होता है । उत्तर यह है कि द्रव्य के एक होने के कारण उसका गुण भी एक ही होता है क्योंकि गुण एवं गुरणी पृथक्-पृथक् नहीं हैं। अपने गुण में गुणी का रमण करते रहना ही कुशलता है, स्व सत्ता में रहना है, आनन्द है, मोक्ष है । पर - परिणति में गुण एवं गुणी का एकत्व स्थिर नहीं रहता । अतः हे नाथ ! आप ध्रुवपद-रामी हैं ।। ३ ।। अर्थ - भावार्थ:-- ज्ञान अन्य स्थान में रहने वाले ज्ञेय पदार्थ को उसी क्षेत्र में जानने से अन्य क्षेत्र रूप हो जाता है, किन्तु प्रापने ज्ञान का अस्तित्व अपने क्षेत्र में ही ज्ञान की निर्मलता के कारण बताया है । अन्य क्षेत्र में ज्ञान का अस्तित्व नहीं है । एक आत्मा (ज्ञान) अनन्त श्रेय रूप होने से वह भी अनन्तरूप होगी । तब आत्मा (ज्ञान) का अपने क्षेत्र में अस्तित्व कैसे सम्भव होगा ! ज्ञान की सत्ता तो अपने क्षेत्र में ही है । अतः हे प्रभो ! आप ध्रुवपदरामी हैं ।। ४॥ अर्थ - भावार्थ:- यदि ज्ञान ज्ञेय हो जायेगा तो ज्ञेय के नाश होने पर ज्ञान भी अवधि की समाप्ति होने पर नष्ट हो जायेगा । ज्ञेय के नष्ट 1 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६२ होने पर ज्ञान भी नष्ट हो जायेगा। घटादि पदार्थों की तरह ज्ञान उनके साथ नष्ट नहीं होता। अतः ज्ञान स्वकाल में अनन्त पर्यायों के समय अपनी सत्ता में ही विद्यमान रहता है। वह पर पर्याय रूप नहीं होता। अतः हे ज्ञानमय स्वामिन् ! आप मेरे ध्रुवपदरामी हैं ।। ५ ।। अर्थ-भावार्थ:-पर-भाव में परिणमन करते समय पर रूप बन जाने पर भी आत्मा को अपनी सत्ता और अपने स्थान में स्थिर कहते हो? चतुष्कमयी सत्ता नाशवान होने के कारण ज्ञेय में स्थिर नहीं रह सकती। तब फिर आत्मा को सर्वज्ञ कैसे कहते हो ॥ ६॥ .. अर्थ-भावार्थ:-आत्मा का एक गुण अगुरु-लघु है अर्थात् न भारी और न हल्का। आत्मा अपने 'अगुरु-लघु' गुण को देखते हुए समस्त परद्रव्यों को देखता है। समस्त द्रव्यों में १ अस्तित्व, २ वस्तुत्व, ३ द्रव्यत्व, ४ प्रमेयत्व, ५ प्रदेशत्व और ६ अगुरुलघुत्व ये छह साधारण गुण विद्यमान हैं। इन छह सामान्य गुणों के कारण द्रव्यों में साधर्म्य है। इसलिए जिस तरह दर्पण एवं जल में वस्तु का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी तरह ज्ञान में ज्ञेय प्रतीत होते हैं और वे ज्ञान से जाने जाते हैं। इस तरह ज्ञान पर-परिणति में भी नहीं जाता और न वह नष्ट ही होता है क्योंकि दर्पण में अग्नि का प्रतिबिम्ब पड़ने से दर्पण नहीं जलता। वह तो सदा एक सा रहता है। यही ज्ञान का स्वभाव है ।। ७ ।। अर्थ-भावार्थः-हे पार्श्वनाथ जिनेश्वर ! , आप पारसमणि के समान हैं जो लोहे को स्वर्ण बनाती है, परन्तु आप तो वैसी पारसमणि नहीं हैं। आप तो ऐसे पूर्ण रसिक शिरोमणि पारस हैं जो अन्य को भी पारस बना देते हैं। आप में वे गुण हैं जिनके स्पर्श से मुझमें आनन्द का समूह व्याप्त हो गया है। आत्म-गुणों के स्पर्श से वह आनन्द का समूह पारस बन जाता है ।। ८ ।। ( २४ ) श्री महावीर जिन स्तवन __(राग-धन्याश्री) वीरजी ने चरणे लागू, वीर पणु ते मांगू रे। मिथ्यामोह तिमिर भय भागू, जीत नगारू वामू रे । वीरजी० ॥ १॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३६३ छउमच्छ वीरय लेस्या सगे, अभिसंधिज मति अंगे रे । सूछमथूल क्रिया ने रंगे, योगी थयो उमंगे रे । वीरजी० ॥ २॥ असंख प्रदेसे वोर्य असंखो, जोग प्रसंखित कंखे रे । पुद्गल सिण तिणे ल्यैसु विशेखे, यथासक्ति मति लेखे रे । वीरजी० ।। ३ ।। उत्कृष्टे वीरज ने वेसे, जोग क्रिया नवि पेसे रे । जोग तणी ध्रुवता ने लेसे, आतम सगति न खेसे रे । . वीरजी० ॥ ४ ॥ कामवीर्य वसे जिम भोगी, तिम प्रातम थयो भोगी रे । सूरपणे आतम उपयोगी, थाय तेह अयोगी रे । .. वीरजी० ॥ ५ ॥ वीरपणु ते आतम ठाणे, जाण्यु तुमथी वाणे रे । ध्यान विनाणे सक्ती प्रमाणे, निज ध्रुवपद पहिचाणे रे । वीरजी० ॥ ६ ॥ आलंबन साधन जे त्यागे, पर परणति ने भांगे रे । अक्षय दर्शन ग्यान विरागे, 'आनन्दघन' प्रभु जागे रे । वीरजी० ॥ ७ ॥ शब्दार्थ-तिमिर=अन्धकार। भागू=दूर हो गया। वागू रेबज रहा है। छउमच्छ छद्मस्थ । अभिसंधिज=विशेष प्रयत्न से उत्पन्न । सूछम सूक्ष्म । थूल स्थूल । कंख रे=कामना करते हैं। सिण=सेना । पेसे= प्रवेश करती है। खेसे रे=डिगती है। विनाणे=विज्ञान | विरागे = वैराग्य । अर्य-भावार्थ-मैं श्री महावीर परमात्मा के चरणों में वन्दना करता हूँ और उनके समान वीरत्व की याचना करता हूँ जिसके द्वारा उन्होंने कर्म-शत्रुओं को जोता है। उनके मिथ्यात्व मोह रूपी अन्धकार Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६४ का भय दूर हो गया है और कर्म-रिपुत्रों पर उनकी जीत के नगारे बजे हैं ॥१॥ अर्थ-भावार्थ-छद्मस्थ अवस्था में क्षायोपशमिक वीर्य और शुभ लेश्या के साथ सदुद्देश्य में प्रयत्नशील बुद्धि को उनका अंग बनाकर सूक्ष्म एवं स्थूल क्रिया में रंग कर भगवान महावीर अत्यन्त उमंग से योगी बने हैं ॥ २ ॥ अर्थ-भावार्थ- असंख्य आत्म-प्रदेशों में असंख्य वीर्य अर्थात् अमित आत्म-बल है, जिससे मन-वचन-काया के असंख्य योगों की आकांक्षा होती है। इस योगप्रवृत्ति के बल से आत्मा बुद्धि के द्वारा यथा-शक्ति पुद्गलसेना शुभ लेश्या से गणना करती है अर्थात् कर्मवर्गणा को यथाशक्ति ग्रहण करती है ॥ ३ ॥ अर्थ-भावार्थ-जो आत्मा उत्कृष्ट प्रात्म-बल के प्रभाव में आती है उसमें योग (मन-वचन-काया का) प्रवेश नहीं होता अर्थात् उस आत्मा में योग की प्रवृत्ति नहीं होती क्योंकि योंगों की स्थिरता से आत्मा तनिक भी आत्म-बल से नहीं हटती, नहीं डिगती ।। ४ । , विशेष --यहाँ चौदहवें गुणस्थान में अयोगी अवस्था का वर्णन है। अर्थ-भावार्थ-जिस प्रकार कामी व्यक्ति काम-वासना के वश में होता है, उसी प्रकार से आत्मा भोगी बना है, आत्मा में रमण करने वाला है। इस शूरता के गुण से आत्मा उपयोगमय होकर अयोगी अवस्था प्राप्त कर लेता है अर्थात् सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है ॥ ५॥ अर्थ-भावार्थ-यह वीरता आत्मा में ही स्थित है। यह मैंने आपकी वाणी से जान लिया है। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार ध्यान एवं विशेष ज्ञान (श्रुतज्ञान) से अपना अचल स्थान मोक्ष-पद पहचान लिया है ॥ ६ ॥ अर्थ-भावार्थ-जिसने समस्त बाह्य एवं अभ्यन्तर आलम्बनों और साधनों का परित्याग कर दिया है और अपने से भिन्न भावों को नष्ट कर दिया है, ऐसा आत्मा अक्षय, शाश्वत दर्शन, ज्ञान और वैराग्य से प्रानन्दमय प्रभु होकर जागृत रहता है अर्थात् सिद्ध परमात्मा नित्य आत्म-ज्योति से जगमगाता रहता है ।। ७ ।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् प्रानन्दघनजी कृत चौबीसी के अतिरिक्त स्तवन · एवं उनके नाम से प्रकट अन्य रचनायें श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवन (शान्ति जिन इक मुझ विनती - ए देशी) पासजिन ताहरा रूप नु, मुझ प्रतिभास किम होय रे । तुझ मुझ सत्ता एकता, अचल विमल प्रकल जोय रे । पास० ।। १ ।। तुझ प्रवचन वचन पक्ष थी, निश्चय भेद न कोय रे । विवहारे लखि देखिये, भेद प्रतिभेद बहु लोय रे । पास० ॥ २॥ बंधन मोख नहीं निश्चये, विवहारे भज दोय रे । प्रखंड अनादि नविचल कदा, नित्य अबाधित सोय रे । पास० ॥ ३ ॥ अन्वय हेतु वितरेक थी, प्रांतरो तुझ मुझ रूप रे । अंतर मेटवा कारणे, आत्म सरूप अनूप रे । पास० ॥ ४॥ आतमता परमात्मता, शुद्ध नय भेद न . एक रे । अवर आरोपित धर्म छे, तेहना . भेद अनेक रे । पास० ॥ ५॥ धरमी धरमथी एकता, तेह मुझ रूप प्रभेद रे । एक सत्ता लख एकता कहे, ते मढमति खेद रे । पास० ।। ६ ॥ प्रातम धरम ने अनुसरी, रमे जे आतमराम रे।। 'प्रानन्दघन' पदवी कहे, परम प्रातम तस नाम रे । पास० ।। ७ ।। टिप्पणीः-यह स्तवन श्रीमद् आनन्दघनजी का नहीं है। श्री ज्ञानसारजी कृत इस स्तवन को 'पानन्दघनजी' के नाम से प्रकट किया गया है। यह स्तवन श्री ज्ञानसारजी की प्रति में ही है। अन्य मुद्रित प्रतियों में यह स्तवन नहीं है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६६ अर्थ :- हे पार्श्वनाथ प्रभो ! आप मुझे बतायें कि आपके स्वरूप की झलक मुझे कैसे हो ? आपकी और मेरी सत्ता अटल, निर्मल और निराकार होने के कारण एक है, अभिन्न है ।। १ ।। अर्थः- उत्तर में बताया है कि मेरे कथित वचनों के अनुसार निश्चय नय से तो कोई भेद नहीं है । यह परमात्मा है और यह जीवात्मा है - ऐसा भेद नहीं है; किन्तु व्यवहार नय से देखें तो अनेक भेद हैं ।। २ ।। अर्थ :- निश्चय नय से न बन्ध है और न मोक्ष, किन्तु व्यवहार नय अपेक्षा बंध और मोक्ष दोनों हैं । निश्चय नय के अनुसार आत्मा नित्य सिद्धात्मा की अपेक्षा अखण्ड है. अनादि है और अविचल है । आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह नित्य है, अमर है । अनादि होने के कारण आत्मा के स्वरूप में कोई बाधा नहीं आती, अत: वह अबाधित है ॥ ३ ॥ अर्थः- आपके और मेरे स्वरूप में अन्तर अन्वय एवं व्यतिरेक हेतु कारण हैं । इस अन्तर ( भेद ) को दूर करने का एकमात्र कारण अनुपम आत्मस्वरूप ही है । जब प्रवरण से मुक्त होकर आत्मा अपना स्वरूप प्राप्त कर लेगा तब यह भेद ( अन्तर ) नहीं रहेगा || ४ || अर्थः- आत्मा एवं परमात्मा में निश्चय नय से कोई भेद नहीं है । आत्मा एवं परमात्मा एक ही हैं । स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है । अन्य तो आरोपित स्वरूप है, स्थापित धर्म है । उस आरोपित धर्म के अनेक भेद हैं ।। ५ ।। विवेचनः --- आत्मा कभी मनुष्य, कभी पशु, कभी पक्षी, कभी स्त्री, कभी पुरुष, कभी पिता, कभी पुत्र, कभी भाई, कभी बहन रूप में होता है । ये समस्त प्रारोपित रूप हैं । वास्तव में, आत्मा तो आत्मा ही है । अर्थः–धर्मी एवं धर्म में एकता है अर्थात् धर्मी को धर्म से भिन्न नहीं किया जा सकता । आत्म धर्म युक्त जो आत्मा है उसके स्वरूप में और मुझ में (परमात्म स्वरूप में) कोई भेद नहीं है, किन्तु आत्मा की सत्ता देखकर एकता बताना मूढ़-मतियों का दुराग्रह है || ६ || अर्थः- जो आत्मा आत्मधर्म के अनुरूप अपनी आत्मा में रमण करता है अर्थात् जो आत्म स्वभाव में रहता है, वह आनन्दघन पद प्राप्त ये हुए है और उसी का नाम परमात्मा है ।। ७ ।। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३६७ . श्री पार्श्व जिन स्तवन प्रणम् पाद-पंकज पार्श्वना, जस वासना अगम अनूप रे । मोह्यो मन-मधुकर जेहथी, पामे निज शुद्ध स्वरूप रे । प्रणम ॥ १ ॥ पंक कलंक शंका नहीं, नहीं खेदादिक दुःख दोष रे । त्रिविध अवंचक जोग थी, लहे अध्यात्म सुख पोष रे । प्रणम् ॥ २ ॥ दुरदशा दूरे टले, भजे मुदिता मैत्री भाव रे । वरते नित चित्त मध्यस्थता, करुणमय शुद्ध स्वभाव रे । प्रणम् ।। ३ ।। निज स्वभाव स्थिर कर धरे, न करे पुद्गल की खंच रे। साखी हुई बरते सदा, न कहा पर भाव प्रपंच रे । प्रणम् ।। ४ ॥ सहज दशा निश्चय जगे, उत्तम अनुभव रस रंग रे। राचे नहीं पर भाव शू, निज भावशू रंग अभंग रे। प्रणम् ॥ ५॥ निज गुण सब निज में लखे, न चखे परगुणनी रेख रे । खीर नीर विवरो करे, ए अनुभव हंस शु पेख रे । प्रणम् ॥ ६॥ निर्विकल्प ध्येय अनुभवे, अनुभव अनुभव नी पीस रे । और न कबहु लखी शके, 'प्रानन्दघन' प्रीत प्रतीत रे । प्रणम् ।। ७ ।। टिप्पणीः-श्री ज्ञानसारजी के अनुसार यह स्तवन श्री देवचन्दजी कृत होने का अनुमान है। यह स्तवन श्री पंडित मंगलजी उद्धवजी शास्त्री द्वारा सम्पादित एक गुजराती पुस्तक से उद्धृत है। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३६८ अर्थः: - भगवान श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरण-कमलों में मैं प्रणाम करता हूँ, जिनकी सुगन्ध अगम्य, अनूठी तथा अनुपम है । मेरा मन रूपी मधुकर (भ्रमर ) प्रभु के गुरण रूपी मकरन्द की सुगन्ध में मुग्ध हो गया है और अनादिकालीन मलिनता त्याग कर अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर रहा है ॥ १ ॥ अर्थ :- भगवान के चरण कमलों की सेवा से अशुभ कर्म - कीचड़ लगने की शंका नहीं रहती और न राग-द्वेष - जनित दुःख एवं प्रमाद से उत्पन्न खेद होने का सन्देह ही रहता है । इससे मन-वचन काया के त्रिविध शुद्ध योग से आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति होती है ।। २ ।। अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ प्रभु के नाम-स्मरण से प्रसन्नता, मैत्री भाव, मध्यस्थता (समता ), करुणा भाव आदि शुद्ध स्वभाव निरन्तर मन में बने रहते हैं ।। ३ ।। अर्थ :- भगवान श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वर की भक्ति से आत्मा निज स्वभाव में स्थिरता धारण कर लेती है और उसे पुद्गल का कोई आकर्षण नहीं रहता । तत्पश्चात् श्रात्मा सदा साक्षी भाव में रहता है और हर्ष - शोक आदि पर भावों का प्रपंच नहीं रहता अर्थात् मोह का जंजाल तनिक भी नहीं रहता ॥ ४ ॥ श्रर्थः-तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु की सेवा-भक्ति से आत्मा की सहज दशा निश्चय ही जागृत हो जाती है और उत्तम अनुभव रस के रंग में मन मस्त रहता है । परभावों में मन तनिक भी मग्न नहीं होता । वह तो केवल आत्म-भाव के रंग में ही मग्न रहता है ॥ ५ ॥ अर्थः - श्री पार्श्वनाथ भगवान के स्मरण से आत्मा अपने समस्त गुणों को स्वयं में देखता है औौर पर - गुणों का तनिक भी प्रास्वादन नहीं करता । जिस प्रकार हंस पानी और दूध को अलग करके दूध ही ग्रहण करता है, उसी प्रकार से प्रात्मा अनुभव ज्ञान से विभाव दशा छोड़ कर अपनी स्वभाव दशा को ग्रहण करता है ।। ६ ।। अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ प्रभु की भक्ति से आत्मा अनुभव ज्ञान के अभ्यास से उत्पन्न दशा से निर्विकल्प ध्येय का अनुभव करता है । ऐसे शुद्ध स्वभाव की जागृति के बिना परमात्म-दशा की प्रतीति कदापि नहीं होती । श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि प्रानन्द स्वरूप परमात्म पद की प्राप्ति तो शुद्ध प्रात्मिक स्वभाव के बिना नहीं होती ।। ७ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३६६ श्री महावीर जिन स्तवन (पंथड़ो निहाल रे बीजा जिन तणो रे - ए देशी ) चरम जिरणेसर विगत सरूपनुं रे, भावू केम स्वरूप । साकारी विरण ध्यान न संभवे रे, ए अविकार अरूप | आप सरूपे प्रातम मां रमे रे असंख उक्कौस साकारी पदे रे, रूप नहीं कइये बंधन घट युं रे, . बंध मोख विरण सादि अनंत नुं , तेहना धुर बे भेद | निराकारी निरभेद | चरम ० ।। २ । सूखमनाम करम निराकार जे रे तेह भेदे नहीं अंत । निराकार जे निरगत करम थी रे, तेह प्रभेद अनंत । चरम० ।। ३ । चरम० ।। १ । बंध न मोख न कोय | भंग संग किम होय । द्रव्य बिना तिम सत्ता नवि लहे रे, सत्ता विरण स्यों रूप । रूप बिना किम सिद्ध अनंतता रे, भावू प्रकल सरूप । चरम० ।। ५ । अंतिम भव गहिणे तुझ भावनु रे, भावस्युं तइये 'श्रानन्दघन' पद पामस्युं रे, श्रातम चरम० ।। ४॥ प्रीतमता परणित जे परिणम्या रे, मुझ भेदाभेद । तदाकार विरण मारा रूप नुरे, ध्यावू विधि प्रतिषेद । चरम० ।। ६ । उनकी प्रति में ही है, अन्य किसी प्रति में नहीं । सुद्ध सरूप । रूप अनूप । चरम० ।। ७ ।। टिप्पणी :- यह स्तवन भी श्री ज्ञानसारजी द्वारा रचित है । यह Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३७० अर्थः-श्रीमद् आनन्दघनजी का मन कहता है कि अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर विगत स्वरूपी हैं अर्थात् अरूपी हैं। अतः उनके स्वरूप का मैं कैसे चिन्तन (ध्यान) कर सकता हूँ? क्योंकि आकार रहित का आलम्बन के बिना ध्यान सम्भव नहीं है। वे तो अविकारी तथा अरूपी अर्थः -आत्मा आत्मस्वभाव में रमण करता है। आत्मा के दो भेद हैं-साकार परमात्मा तथा निराकार परमात्मा। साकार परमात्मा के दो भेद हैं-तीर्थंकर केवली भगवान और सामान्य केवली भगवान । साकार परमात्मा उत्कृष्ट असंख्य हैं और निराकार परमात्मा (सिद्ध भगवान) भेद रहित हैं, अनन्त हैं ॥ २ ॥ विवेचनः-जैन आगमों में तीर्थंकरों की संख्या जघन्य बीस और उत्कृष्ट १७० है तथा सामान्य केवलियों की संख्या जघन्य दो करोड़ और उत्कृष्ट नौ करोड़ कही है। यह गणना असंख्या संख्या का ही एक भाग है, अतः साकार परमात्मा को असंख्य कहने में कोई दोष नहीं है। .. अर्थः-निराकार परमात्मा के दो भेद हैं-१. सूक्ष्म नामकर्मी निराकार परमात्मा और २. निर्गतकर्मी निराकार परमात्मा । सूक्ष्म नामकर्मी निराकार परमात्मा के अनन्त भेद हैं। निर्गतकर्मी निराकार परमात्मा अभेदी एवं अनन्त हैं ।। ३ ।। अर्थः-जब प्रात्मा का कोई आकार नहीं है, रूप नहीं है तब उसके बन्ध भी नहीं हो सकता। वह अबंध माना जायेगा। जब कर्म-बंध नहीं होगा तो मोक्ष भी नहीं होगा। बंध एवं मोक्ष के बिना निर्गत-कर्मी निराकार परमात्मा की 'सादि अनन्त' से संगति कैसे हो सकती है ॥ ४ ॥ अर्थः-जब द्रव्य ही नहीं है तो उसकी सत्ता कैसी? द्रव्य के बिना उसकी सत्ता नहीं होती। सत्ता के बिना उसका रूप कैसा? रूप के बिना सिद्ध अनन्त क्यों? तब मैं अकल स्वरूप का, अमूर्त का ध्यान कैसे करूँ ॥५॥ अर्थः -भगवान आगम के माध्यम से उत्तर देते हैं कि मेरी आत्मा का परिणमन तथा परिणमित आत्मा ये दोनों भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। तदाकार हुए बिना मेरे स्वरूप का ध्यान प्रतिषिद्ध है, वजित है। तदाकार होकर ही मेरे स्वरूप का ध्यान विधिवत् है ।। ६ ।। . Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३७१ अर्थ:- : - अतः योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि इस पंचम काल में तो तदाकार होकर ध्यान करना असम्भव है । अत: जब मैं अन्तिम भव ग्रहण करके आपके शुद्ध स्वरूप का ध्यान करूंगा तब आत्म-रूप परमात्मा-पद को प्राप्त करूंगा ॥ ७ ॥ श्री महावीर जिन स्तवन वीर जिनेश्वर परमेश्वर जयो, जग-जीवन जिन भूप । अनुभव मित्ते रे चित्ते हितकारी, दाख्युं तास स्वरूप । वीर० ॥ १ ॥ जेह अगोचर मानस वचन ने अनुभव मित्ते रें व्यक्ति शंकित शुं, तेह अतीन्द्रिय रूप । भाख्यु तास स्वरूप । वीर० ।। २ ।। नय निक्षेपे रे जेह न जारिणये, नवि जिहां प्रसरे प्रमाण । शुद्ध स्वरूपे रे ते ब्रह्म दाखवे, केवल अनुभव भारण । वीर० ० ।। ३ ।। अखंड अगोचर अनुभव अर्थ नो, कोरण कही जणे रे भेद | सहज विशुद्धये रे अनुभव नयन ए शास्त्रेते सघलो रे खेद । वीर० ॥ ४ ॥ न लहे प्रगोचर बात | दिशि देखाडी शास्त्र सवि रहे, कारज साधक बाधक रहित जे अनुभव मित्त विख्यात । , अहो चतुराई रे अनुभव मित्तनी, अहो तस प्रीत अंतरजामी स्वामी समीप ते, राखो मित्र शुं वीर० ।। ५ ।। प्रतीत । रीत । वीर० ॥ ६ ॥ अनुभव संगे रे रंगे प्रभु मल्या, सफल फल्यां सवि काज । निजपद सेवक जे ते अनुभव रे, 'श्रानन्दघन' महाराज । वीर० ॥ ७ ॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३७२ टिप्पणीः-श्री ज्ञानसारजी के उल्लेख के अनुसार यह स्तवन भी श्री देवचन्दजी संवेगी द्वारा रचित है। इसे श्री मंगलजी शास्त्री की पुस्तक से लिया गया है। शब्दार्थः-दाख्यु = बताया गया। अगोचर=जिसे नहीं देखा जा सके । भाख्यु कहा गया। तास=उनका। भाण=सूर्य । प्रथः-जगत् के जीवन, समस्त केवली भगवानों के भूप तथा परमेश्वर श्री महावीर भगवान की जय हो। अनुभव-मित्र ने ऐसे महावीर भगवान का स्वरूप सबके चित्त के लिए हितकारी बताया है ॥ १॥ अर्थः-जो मन और वचन से अगोचर है वह अतीन्द्रिय रूप अनुभव मित्र ही जान सकता है । उसने ही उनका स्वरूप बताया है ।। २ ।। अर्थः --जो नय-निक्षेपों से नहीं जाना जाता है अर्थात जो सात नयों-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत तथा चार निक्षेपों-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से नहीं जाना जाता, जहाँ परोक्ष ज्ञान भी काम नहीं आता ऐसे.शुद्ध स्वरूप परमात्मा को केवल अनुभव-ज्ञान रूपी सूर्य ही बताने में सक्षम है, क्योंकि यह रूप निरंजन, निराकार, निर्विकल्प, निरुपाधि है अतः वाणी एवं परोक्ष प्रमाण आदि भी वहाँ निरुपयोगी हैं ।। ३ ।। अर्थः-ऐसे अखण्ड, अगोचर, अनुभव-गम्य परमात्मा के स्वरूप का भेद कौन बता सकता है ? अर्थात् कोई नहीं बता सकता। यह तो सहज शुद्धि से ही अनुभव-नेत्रों से ही जाना जाता है। समस्त शास्त्र भी उस स्वरूप को बताने में असमर्थ हैं ॥ ४ ॥ अर्थः-समस्त शास्त्र तो केवल दिशा-दर्शन करके ही रह जाते हैं। वे उस अगोचर रूप को स्पष्ट नहीं कर सकते। उस स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए तो साधक, जो बाधाओं से रहित है, वह अनुभव-मित्र ही प्रसिद्ध है ॥ ५ ॥ अर्थः-अहो ! अनुभव मित्र की यह कैसी चतुराई है ? अहो ! उसकी कैसी एकनिष्ठ प्रीति है ? जो अन्तर्यामी प्रभु के समीप सच्चे मित्र की रीति निभा रहा है ।। ६ ॥ अर्थः-ऐसे अनुभव मित्र की संगति से परमात्मा से साक्षात्कार हो गया, जिससे मेरे समस्त मनोवांछित कार्य सफल हो गये। आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने में संलग्न जो सेवक हैं वे अनुभव ज्ञान के द्वारा प्रखण्ड आनन्द रूप बनते हैं ।। ७ ॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकानेर के श्री अगरचंदजी नाहटा के संग्रह से प्राप्त दो स्तवन श्री आदि जिन स्तवन (राग प्रभाती) आज म्हारे च्यारू मंगल चार । देख्यो मैं दरस सरस जिनको, सोभा सुन्दर सार । आज० ॥ १॥ छिन छिन जिन मनमोहन अरचौ, घनकेसर घनसार । धूप उखेवी करो प्रारती, मुख बोलो जयकार । आज० ।। २ ।। विविध भाँति के पुष्प मंगावो, सफल करो अवतार । समवसरण प्रादीसर पूज़ौ, चौमुख प्रतिमा चार । प्राज० ॥ ३ ॥ हीये धरि बारह भावना भावो, ए प्रभु तारणहार । सकल संघ सेवकः जिनजी को 'पानन्दघन' अवतार । आज० ॥ ४॥ चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन ऋषभ जिनेसर राजीउ मन भाय जुहारोजी। प्रथम तीर्थंकर पति राजिउ परिगह परिहारोजी ॥ १ ॥ विजयानंदन वंदीए, सब पाप पलाय जी। जिम सूस्यर नंदीए, सुर नर मन भायजी ॥ २ ॥ संभव भव-भय टालतो, अनुभव भगवन्तजी। मलपति, गज-गति चालतो, खेवे सुर नर संतजी ॥ ३ ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३७४ अभिनंदन जिन जय करू, करुणा रस धारजी। मुगति सुगति नायक वरू, मद मदन निवारजी ॥ ४॥ सुमति सुमत दातारु हुँ, प्रणमु कर जोडिजी। कुमति कुमति परिहार कु, अन्तराय परि छोडिजी ।। ५ ।। पदम प्रभु प्रताप सूं परिवादी विभंगीजी। जिम रवि-केहरी व्याप सू, अन्धकार मतंगजी ॥ ६ ॥ श्री सुपास निज वासतें, मुझ पास निवासजी।। कृपा करि निज दास नेइ, दीजइ सुखवासजी ॥ ७ ॥ चंद्र प्रभु मुख चंदलो, दीठां सब सुख थायजी। .. उपसम रस भर कदलो दुख दालिद्र जायजी ।। ८ ।। सुविधि सुविधि विधि, दाखवइ राखइ निज पासजी। नवम अठम विधि दाखवइ, केवल प्रतिभासजी ॥ ६ ॥ सीतल सीतल जेम अमी, कामित फलदायजी। भाव सु तिकरण सुध नमि, भवयण निरमाइजी ।। १० ।। श्री श्रेयांस इग्यारमो, जिनराज बिराजे जी। ग्रह नवि पीडइ बारमो जस सिर परे गाजे जी ॥ ११ ॥ वासपूज वसुपूज्य नरपति कुल-कमल दिनेशजी। आस पूरे सुरनर जती, मन तणीय जिनेशजी ।। १२ ।। विमल विमल प्राचारनी, तुझ शासन चाह जी। घट पट कट निरधार नइ, जिम दीपइ उमाहजी ॥ १३ ।। अनन्त अनन्त न पामिये, गुण गण अविनासजी। तिन तुझ पद-कज, कामीइ, गणधर पद पासिजी ।। १४ ॥ धरम धरम तीरथ करी, पंचम गति दाइजी.। . ए कंतक मत मद हरी, जिण बोध सवाइजी ।। १५ ।। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली - ३७५ मृगलंछन संतिक संति करी जगधणी, निरलंछन पदवी भरणी, भवियण मरण कुथनाथ तीरथपति चक्रधर पद निरमल वचन सुधा राखे निज संतित श्री अरनाथ सुहामणो, अरे वंछित फल दाता भरणो, जे वचन मुनिसुव्रत सुव्रत तरंगी, मरिण खान वंछित पूरण सुरमणि, रमरिण गुण मल्ली वल्ली कामता वर सूर तस कहीइजी । चरण कमल सिर नायिना, अगणित फल लाहिइजी ।। १६ ।। नमि चरण चित्त राखिये, चेतन परमारथ सुख चाखिये, मानव भव नेमनाथ ने एकमना, साइक नवि तिण कारण सूर धामणी, जरण सगुण सिद्धार सुत सेवियइ, च्याल जंजाल न खेवीइ, सोहेजी । मोहइजी ।। १६ ॥ पारस महारस दीजिये, जन जाचन अभयदान फल लीजिये, प्रसरण पद सुहावइजी । गावइजी ।। २० ।। सिद्धारथ परमारथ CO धारजी । पासजी ।। १७ ।। चतुराइजी । | एय चौबीस तीर्थंकरू निज जिन मत मारण संचरू', 'श्रानन्दघन' मुन गुण साधेजी । राधेजी ॥ १८ ॥ पाइजी ।। २१ ।। लागिजी । मागिजी ।। २२ ।। आवेजी । पावेजी ।। २३ ।। होइजी । जोइजी ॥ २४ ॥ गावुजी । पाउजी ।। २५ ।। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच समिति * ढाल १ * १. ईर्या समिति दोहा-पंच महाव्रत प्रादरो, प्रातम करो विचार । अहो अहो मुझ प्रत्यक्ष थवो, धन्य धन्य अवतार । विनती अवधारो रे, इरियाये चालो रे, शक्ति संभालो आत्म स्वभाव नी रे ॥ १ ॥ इरिया ते कहिये रे, मति सु भेट लहिये रे, ___ पुठ तव बाली कुमति संगथी रे ।। २ ।। द्रव्य थी पण सार रे, किलामणा लगार रे, रखे नवि ऊपजे हवे पर प्राण नेरे ।। ३ ।। मुनि मारग चालो रे, द्रव्य भाव सुम्हालो रे, . आतम ने उजवालो भव दव चक्र थी रे ।। ४ ।। एम सुमति गुण पामी रे, पर भाव ने वामी रे, कहे हवे स्वामी 'प्रानन्दघन' 'ते थयो रे ॥ ५॥ नोट:-पाँच समिति की पाँचों ढाल श्रीमद् आनन्द्रघनजी द्वारा रचित ही हैं। इसमें शंका की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। ये ढालें श्री अगरचन्दजी नाहटा ने श्रीमद् देवचन्द्र सज्झायमाला भाग १ में प्रकाशित कराई थीं। * ढाल २% २. भाषा समिति बोजी समिति सांभलो, जयवंताजी, भाषा को इण नाम रे गुणवंताजी। भाटवे भाषण स्वरूप नु जयवंताजी, रूपो पदारथ त्याग रे गुणवंताजी ।। १ ।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३७७ निज स्वरूप रमणे रह्या जयवंताजी, .. नवी परनो परचार रे गुणवंताजी ।। २ ॥ भाषा समिति थी सुख थयो रे जयवंताजी, ते जाने मुनिराय रे गुणवंताजी ।। ३ ।। ज्ञानवंत निज ज्ञान थी जयवंताजी, अनुभव भाषक थाय रे गुणवंताजी ॥ ४ ॥ भाषा समिति स्वभाव थी जयवंताजी, __ स्व पर विवेचन थाय रे गुणवंताजी ।। ५ ॥ हवे द्रव्य थी पण महामुनि जयवंताजी, ___सावद्य वचन नो त्याग रे गुणवंताजी ॥ ६ ॥ सावखे विरम्या जे मुनि जयवंताजी, ते कहिये महाभाग रे गुणवंताजी ।। ७ ।। पर-भाषण दूरे करी जयवंताजी, ... निज स्वरूप ने भास रे गुणवंताजी ॥ ८ ॥ 'प्रानन्दघन' पद ते लहे जयवंताजी, प्रातम ऋद्धि उल्लास रे गुणवंताजी ।। ६ ।। * ढाल ३१ (राग बंगालो - राजा नहीं) ३. एषणा समिति त्रीजु समिति एषणा नाम, तेणे दीठो आनंदघन स्वाम, चेतन सांभलो। बब दीठो प्रानंदघन वीर, सहज स्वभावे थयो छे वीर, चेतन सांभलो ॥ १ ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३७८ वीर थई अरि पूठे धाय, परि हतो ते नाठो जाय, गयो मामलो। वीरजी सन्मुख कोई न थाय, रत्नत्रयसु मलबा जाय, चेतन सांभलो ॥ २ ॥ • परिबल हवे नथी कांई रे, निज स्वभावमां महाल्यो विशेष, चेतन० निरखण लाग्यो निज घर मांय, तब विसामो लीधो त्यांय, चेतन० ॥ ३ ।। हवे पर घरमां कदीय न जाऊँ, पर ने सन्मुख कदीय न थाऊँ, चेतन एम विचारी थयो घर राय, तब पर परणति रोती जाय, चेतन० ॥ ४ ॥ मुनिवर करुणारस भंडार, दोषरहित हवे ले छे अाहार, चेतन द्रव्य थकी चाले छे एम, पर परणति नो लीधो नेम, चेतन० ॥ ५ ॥ द्रव्य भाव सु जे मुनिराय, समिति स्वभाव मां चाल्या जाय, चेतन० 'आनंदघन' प्रभु कहिया तेह, दुष्ट विभाव ने दीधो छेह, चेतन० ॥ ६ ॥ ४. प्रादान - निक्षेपण समिति के ढाल ४ * (जगत गुरु हीरजी रे......) चोथी समिति आदरो रे, आदान निखेवण नाम । प्रादान ने जे आदर करे रे, निज स्वरूप ने तेम ।। स्वरूप गुण धारजो रे, धारजो अक्षय अनंत, भविक दुख वारजो रे ॥ १॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३७६ निखेवरणा ते निवावु रे, तेह थकी चित्त वालबु रे, पर वस्तु वलि जेह । करवा धर्म सुं नेह | धर्म नेह जब जागियो रे, तब प्रानंद जनाय । प्रगट्यो स्वरूप विषे हवे रे, ध्याता ते ध्येय थाय । अज्ञान व्याधि नसावा रे, ज्ञान आस्वादन हवे मुनि: करे रे, तृप्ति स्वरूप मां जे मुनिवरा रे, समिति सुमति स्वरूप प्रगटावीने रे, दीधो काल अनादि अनंतनो रे, हतो ते पर पुद्गल थीं हवे रे, विरक्त • ५. पारिठावरिया समिति द्रव्य भाव दोय भेदथी रे, मुनिवर 'श्रानंदघन' पद साधसे रे, ते समिति पंचमी मुनिवर श्रादरो रे, स्वरूप० ।। २ ॥ मुनि मारग रूडी परे साधजो रे, स्वरूप ० ।। ३ ॥ सुधारस जेह | न पामे तेह | सुं धरे स्नेह | कुमति नो छेह | * ढाल ५ (रूडा राजवी, ए देशी ) स्वरूप० ।। ४॥ स्वरूप० ।। ५ ।। सलंगण भाव । थयो स्वभाव | समिति धार । मुनिगुरण भंडार । स्वरूप० ।। ६ ।। स्वरूप ० ।। ७ ।। उन्मारग नो परिहार रे, सुधा साधुजी । पर छोडी ने निज संभार रे, सुधा साधुजी ॥ १ ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एव उनका काव्य - ३८० पारिठावरिया नामे वली जे का रे, ते तो परिहरवो पर भाव रे, सुधा० । नादर करवो निज स्वभाव नो रे, ए तो अकल स्वभाव कहेवाय रे, सुधा० ॥ २ ॥ पर पुद्गल मुनि परठवे रे, विचार करी घट माय रे, सुधा० । लोक संज्ञा ने मुनि परिहरे रे, गति चार पछे वोसिराय रे, सुधा० ॥ ३ ॥ अनादि नो संग वलि जे हतो रे, तेनो हवे करे मुनि त्याग रे, सुधा० । विकल्प ने संकल्प ने टालवा रे, वलि जे थया उजमाल, रे, सुधा० ॥ ४ ॥ मनाचीर्ण मुनि परठवे रे, ते जारणी ने अनाचार रे, सुधा० । प्राचार ने वलि जे मुनि श्रादरे रे, कर्त्ता कार्य स्वरूपी थाय रे, सुधा० ॥ ५ ॥ खट् द्रव्यनुं जाणपणु कह्य ु ं रे, ते स्वभाव नु कर्त्ता वलि जे थयो रे, जे जाणे श्राप स्वभाव रे, सुधा० । ते तो अनवगाही कहेवाय रे, सुधा० || ६ || सुमति सु हवे मुनि म्हालता रे, चालता समिति स्वभाव रे, सुधा० । कुमति थी दृष्टि नहीं जोड़त रे, THARIRA # वली तोड़ता जे विभाव रे, सुधा० ॥ ७ ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्री मानन्दघन पदावली-३८१ को पर परणंति कहे सुण साहेबा रे, - :: तमे मुझने मूकी केम रे, सुधा० । । कहो मुनि कवण अपराध थी रे, ... ::: तमे मुझने छोडो एम रे, सुधा० ।। ८ ।। में म्हारो स्वभाव नहीं छोडियो रे, ! नथी म्हारो कोई विभाव रे, सुधा० । पंचरंगी माहरू स्वभाव छ रे,. ": 1: तेने पादरू छु सदा काल रे, सुधा० ।। ६ ।। वर्ण गंध रसादि छोडू नहीं रे, । तो श्यो अवगुण कहेवाय रे, सुधा० । कदी प्रवर स्वभाव न पादरू रे, .... ! सडन पड़न विध्वंसन न छंडाय रे, सुधा० ।। १० ॥ सिद्ध जीव थी अनंत गुणा कह्या रे, .:: म्हारा घरमां जे चेतन राय रे, सुधा० । ते सघला म्हारे वस थई रह्या रे, तमथी छोडी ने केम जवाय रे, सुधा० ।। ११ ।। • ' तब मुनिवर कहे कुमति सुणो रे, थारू स्वरूप जाण्युप्राज रे । थारा स्वरूपमां जिम तू मगन छे रे, . ... म्हारा स्वरूप मां थयो हूँ आज रे ।। १२ ॥ म्हारू स्वरूप अनन्त में जाणियुरे, ते तो अचल अलख कहेवाय रे । सुमतिथी स्वभाव मारगे रमू रे, ॥ ... थारा सामू जोयुकेम जाय रे ।। १३ ।। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८२ थारे म्हारे हवे नहीं बने रे, तमे तमारे घरे हवे जामो रे। माटला दहाडा है बालपणे हतो रे, हवे पण्डिम वीर्य प्रगटायो रे ॥ १४ ॥ सुमति सु में प्रादर मांडियो रे, ए तो बहु गुणवंती कहेवाय रे । सुमति ना गुण प्रगट पणो रे, में तो लीधो उपयोग मांय रे ॥ १५ ॥ सांभल सुमति ना गुण कहूँ रे, जे प्रचल प्रखण्ड रहेवाय रे । स्थिरतापणु सुमति मां घणो रे, . तुझमां तो अस्थिरता समाय रे ॥ १६ ॥ थारा सुख तो हवे में जाणियुरे, ____ दुःखदायक सदा काल रे। थारा सुख विभाव कहेवाय छे रे, , नहीं पुण्य-पापनु ख्याल रे ॥ १७ ॥ ज्ञानी ते एहने सुख नहीं कहे रे, सुख तो जाण्यु एक स्वभाव रे। थारा पूठे पड्या ते तो प्रांधला रे, भव-कूप मां पड्या सदाय रे ।। १८ ॥ थारू स्वरूप में बहु जाणियुरे, तू तो जड़ स्वरूप कहेवाय रे। जड़ पणु प्रगट में जाणियुरे, तू तो पर पुद्गल मां समाय रे ।। १६ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रानन्दघन पदावली - ३८३ तेनो विवरो प्रगट हवे सांभलो रे, समुद्र तृष्णा रूप-जल ते मध्ये घणो रे, पण पीछे तृप्ति न थाय रे ।। २० ।। नो अधिष्ठायक वलि रे, ते तो नामे मोह भूपाल तेना प्रधान वलि पंच छे रे, संसार समुद्र प्रथाह राजधानी एवी ते मेलवी रे, ते तले वीस छड़ीदार रे ।। २१ ।। वाह्य धर्मी जो एने प्रादरे रे, धर्मराय नूं लूटे घन संच रे । बस करी सोपे मोहराय ने रे, तेने मोलवे ते छड़ीदार रे ।। २२ ।। तेथी जाये नरक निगोद मां रे, रे I मोह करावे प्रमाद प्रचार रे । हठधर्मी एथी नहीं चले रे, रे तिहां काल अनादि गमाय रे ।। २३ ।। प्रमादी ने मोह पीठे घणो रे, जे कीधा क्षायक भाव रे । तेणे पंच महाव्रत प्रादर्या रे, श्रप्रमादी घरे नहीं जाय रे ।। २४ ।। भाचार थी हवे हूँ नहीं चालू रे, छोड्या सर्व अनाचार रे । सुरण मुझ चित्त ना अभिप्राय रे ।। २५ ।। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ३८४ कुमति जो कहूँ तुमने एटलू रे, म्हारा सधर्मी छे अनन्त काय रे 1 ते सवने दास पणू दियो रे, ते साले छे मुझ चित्त माय रे ।। २६ ।। श्यु कीजे पूठ ते नहीं करवे रे, तो पण मुझने दया थाय रे । तेथी देशना बहुविध करू ं रे, जिहां चाले म्हारो प्रयास रे ।। २७ ।। चेतन जी ने बहु परे प्रीछवु रे, तेने बनावू स्थिर वास रे । ते तो थारे बस करी न होवे रे, तेने वोसिरावी शिव जाय रे । . धर्मराय नी श्राणने अनुषरे रे, ते तो 'आनन्दघन' महाराय रे ।। २८ ।। शब्दार्थ : - मारगे रमू = घरे रम् । पूठ ते नहि करवे रे ते पूठ नहीं । उजमाल = उज्ज्वल । श्रनाचीर्ण= फेरवे रे | उन्मार्ग= कुमार्ग । परिहरो = छोड़ो। रूडी परे = भली प्रकार से । अकल = सुन्दर । वोसिराय = छोड़ना जिसका आचरण करने योग्य न हो अनवगाही नहीं ग्रहणं करने म्हालता = आनन्द पूर्वक चलते हुए । मूकी = छोड़ी । श्यो = क्यों | पीछे । विवरो = विवरण | प्रथाह = असीम | । = पंच-पांच इन्द्रियाँ । = आकर्षित करके । प्रीछवु = प्रश्न करना | वाला । पूठे = मोलवे Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रानन्दघनजी के कतिपय अप्रकाशित पद आनन्दघनजी के पदों के जो संग्रह प्रकाशित हुए हैं उनमें पदों की संख्या भिन्न-भिन्न है। कई पद ऐसे हैं जो स्पष्ट रूप से श्रीमद् आनन्दघनजी के नहीं हैं। प्रानन्दघनजी के पदों में समय-समय पर अन्य कवियों के पद जोड़-जोड़ कर उनमें वृद्धि होती गई। निम्नलिखित १५ पद अभी तक किसी भी संग्रह में प्रकाशित हुए प्रतीत नहीं होते। इनमें से कतिपय पद तो अन्य भक्त कवियों द्वारा रचित प्रतीत होते हैं और कुछ पद श्रीमद् आनन्दघनजी द्वारा रचित भी हो सकते हैं। वे पन्द्रह अप्रकाशित पद यहाँ दिये जा रहे हैं: (१) राग - प्रासावरी माई प्रीति के फंद परो मत कोई। लाज संकुच सुधि बुधि सब बिसरी, लोक करे बदगोई । . .. माई० ।। १ ॥ प्रसन वसन मन्दिर न सुहावे, रैन नैन भरि रोई । • नींद न आवे विरह सतावे, दुख की वेलि मैं बोई । __ माई० ॥ २ ।। जेता सुख सनेह का जानो, तेता दुख फिर होई। 'लाभानंद' भले नेह निवारई, सुखीय होइ नर सोई । माई० ।। ३ ।। ..... (२) राग - विहाग चौतालो .... हे नैना तोहे बरजो, तू नहीं मानत मोरी सीख । नैना० । टेक बरज रही बरजो नहीं मानत, घर-घर माँगत रूप भीख । नेता० ॥ १ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८६ चित्त चाहे मेरे प्यारे को स्वरूप रूप, स्याम के बदन पर बरसत ईख। 'प्रानन्दघन' पिया के रस प्यारो, टारि न टरत करमे रीख । नैना० ॥ २॥ (३) राग - मारू हां रे प्राज मनवो, हमेरो वाऊरो रे ।। टेक ।। पाप न पावे पिया लखहु न भेजे, प्रीत करन उतावरो रे । पाज०. ॥ १ ॥ प्राप रंगीला पिया सेजहुँ रंगीली, और रंगीलो मेरो सांवरो रे । प्राज० ॥ २ ॥ 'प्रानन्वघन' बाबो निज घर भावे, तो मिटे संतावरो रे । प्राज० ॥ ३ ॥ (४) राग - काफी चेतन प्यारा रे मोरा तुम सुमति संग क्यू न करो, रहो न्यारा ॥ चेतन० पर रमणी से बहुत दुःख पायो, सो कछु मन में विचारा। या अवसर तुहि प्राय मिल्यउ है, भूले नहीं रे गिवारा । तुम कछु समझ समझ भरतारा ॥ चेतन० ॥१॥ माप विचार चले घर अपने, और से कियो निस्तारा। चेतन सुमता मांहि मिले दोउ, खेलत है दिन सारा । मानन्द हां लियो भव-पारा ॥ चेतन० ॥२॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-३८७ (५) राग - काफी भाज चेतन घर पावे, देखो मेरे सहियो ॥ प्राज. काल अनादि कियो परवश ही अब निज चित्त ही चितावे । देखो० ॥ १॥ जनम जनम के पाप किये तो सो निधनमांहि बहावे । श्री जिन प्राज्ञा सिर पर धरके परमानन्द गुण गावे । देखो० ॥ २॥ देत जलांजलि जगहि फिरण कु, . . . फिर के न जगत में प्रावे । विलसत सुख पर प्रखंडित 'प्रानन्दघन' पद पावे । .. . . देखो० ॥३॥ . . (६) राग - काफी कब घर चेतन पावेंगे, सखीरी लेउँ बलैया बार बार । रयण दिना मैनु ध्यान तुषाढ़ा, कबहुक दरश दिखावेंगे। कब० ॥१॥ विरह दिवानी फिरूं ढूढ़ती पिउ पिउ करत पुकारेंगे। पिउ जाय मिले ममता से, काल अनन्त गमावेंगे । कब० ॥ २॥ करू उपाय णक में उद्यम अनुभौ मित्र बुलावेंगे। माय उपाय करके अनुभव, नाथ मेरा समझायेंगे। कब० ॥ ३ ॥ अनुभव चेतन मित्र मिले दो, सुमति निसाण घुरावेंगे। विलसत सुख प्रानन्द लीला में, अनुभव प्राप जगावेंगे । कब० ।। ४ ।। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-३८८ ( ७ ) राम रस मुहंगा रे भाई, जाको मोल सुनत घर जाइ । राम० जेणे चाख्या सोई जाणे, मुख सु कहे सो झूठ । या हम तुम से बहुत कही परमावे सारो ही कूड । राम० ।। १ ।। दर्शन-दर्शन भटकियो, सिर पटक्यो सौ वाट वटाऊ पूछियउ, पायो न ए रस र तप जप किरिया थिर नहीं, ज्ञान विज्ञान प्रज्ञान । साधक बाधक जारिणयउ, और कहा परमाण | द्वैत भाव भासे नहीं, द्वौत ध्यान वृथा सही है, इक होय बार | सार । राम ० ।। २ ।। ! राम० ।। ३ ।। ग्राहक घर ही जान । i सुजान । राम ० ।। ४ । झटा वधार भये नर मुनि, मगन भय चंबडी ऊपर खाख लगाई, फिर जैसा हाय कामना वश तुम्हें मंत्र जंत्र नहीं अनुभवगम्य विचारिये, पावे ' श्रानन्दघन' तंत | विरतंत । रामं० ( 5 ) कूडी दुनिहंदा बे अजब तमासा | पाणी की भींत, पवन का थंबा, वाकी कब लग आसा । ० ।। ५ ।। डी० ॥ १ ॥ जैसा भैंसा । का तैसा । कूडी ० ।। २ ।। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रानन्दघन पदावली-३८६ । कौड़ी कौडी कर एक पइसा जोड्या, जोड्या लाख पचासा । जोड़ जोड़ कर काठी कीनी, संग. न चल्या इक मासा । कूडी० ॥ ३ ॥ केइ नर विणजे सोना रूपा, केइ विणजे जुग सारा । 'प्रानन्दघन' प्रभु तुमकु विणज्या जीत गया जुग सारा। कूडी० ॥ ४ ॥ (९) प्यारा गुमान न करिये, संतो गुमान न धरिये ।। प्यारा० ॥ थोड़े जीवन तें मान न करिये, जनम जनम करि गहिये । प्यारा० ।। १ ।। इस गन्दी काया के मांही, ममता तज़ रहिये । । . प्यारा० ।। २ ।। 'प्रानन्दघन' चेतन में मूरति, भक्तिसुचित हित धरिये । प्यारा० ॥ ३॥ (१०) राग - काफी - नेना मेरे लागे री, श्याम सुन्दर ब्रजमोहन पिय सु, . नैना मोरे लागे री। बिन देखे नहीं चैन सखी री, निश दिन एक टक जागे री। नैना लोकलाज कुल कान बिसारी, ह्वां ही सों मन लागे री। नैना० 'पानन्दघन' हित प्राण पपीहा, कुहकर प्राण पागे री । नैना० Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६० (११) . कुण खेले तोसु होरी रे संग लागोजी पावें । अपने-अपने मंदर निकसी, कांइ सांवली कांइ गोरी रे । संग० ॥१॥ चोवा चन्दन अगर कुकामा, केसर गागर घोरी रे । ___ संग० ॥ २॥ भर पिचकारी रे मुंह पर डारी, जगई तनु सारी रे। .. . संग० ॥ ३ ॥ 'प्रानन्दघन' प्रभु रस भरी मूरत, आनन्द रहिवा झोरी रे । संग० ॥ ४ ॥ (१२) बनडो भलो रिझायो रे, म्हारी सूरत सुहागन सुघर बनी रे । चौरासी में भ्रमत-भ्रमत अबके मौसर. पावो । अबकी विरिया चूक गयो तो कियो आपरो पावो । बनडो० ॥ १॥ साधु संगत किया केसरिया, सतगुरु ब्याह रचानो। साधु जन की जान बनी है, सीतल कलश वंदायो । __ बनडो० ॥ २॥ तत्त्व नाम को मोड़ बंधावो, पडलो प्रेम भरायो। पांच पचीस मिली प्रातमा, हिलमिल मंगल गामो ॥ ३ ॥ चोरासी का फेरा मेटी, परण पति घर प्रायो। निरभय डोर लगी साहब सु, जब साहिब मन भायो। बनडो॥ ४॥ करण तेज पर सैज बिछी है, तां पर पोढ़े मेरा पीवे । 'प्रानन्दघन' पिया पर मैं, पल-पल वारू जीवे । बनडो॥ ५॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मानन्दघन पदावली-३६१ मैं कबहु भव अन्तर प्रभु पाइ न पूजे । अपने रस वसि रीझ के दिल बाढे दूजे । मैं० ॥ १॥ वंछित पूर्ण चरण की मैं सेव न पाई। तो या भव दुखिया भयो, याहि बनि प्राई । मैं० ।। २ ॥ मन के ममं सुमन ही में ज्यों कूप की छैयां । 'पानन्दघन' प्रभु पास जी प्रब दीजे बैयां । मैं० ॥ ३ ।। (१४) राग - भैरव नाटकीयाना खेल . से लागो मन मोरो। और खेल सब सेल हैं पण नाटक दोहरी । नाट० ॥१॥ ज्ञान का ढोल बजाय के चौहटे बाजी मांडु । काम क्रोध का पुतला सोजी ने काढू । नाट० ॥२॥ नर न वांधुले सुर सत ए ऐसा खेल जमाऊँ। मन मोयर प्रागे धरूं कछु मोजां पाऊँ । नाट० ।। ३ ।। प्रणि कटारी पेहर के तजु तन की प्रासा। सरत बांधु बगने चढं देखा तरां तमासा । नाट० ॥ ४ ।। सेल खेल धरती तणु, सोना मोना न सुहाइ। वंशमरत बिना खेल है, ऐसा सुख जचाइ । नाट. ॥ ५ ॥ उलट सुलट गृह खेल कु, ताकु सीस नमाउं । कहे 'प्रानन्दघन' कछु मांगहुँ बेगम पद पाउं । नाट० ।। ६ ।। (१५) हठ करी टुक हठ के कभी, देत निनोरी रोई ।। १ ।। मारग ज्यु रंगाइ के रीही, पिय सदि के द्वारि । लाजडागमन में नहीं, कानि पछेवड़ा टारि ।। २ ।। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एव उनका काव्य-३६२ अनि अनुभव प्रीतम बिना, काहु की हठ के नइ कतिल कोर । हाथी पाप मते अरे, पावे न महावत जोर ॥ ३ ॥ सुनि अनुभव प्रीतम बिना, प्रान जात इन ठाविहि ।। हे जिन आतुर चातुरी, दूरि 'प्रानन्दघन' नाहि ॥ ४ ॥ नोट:-पद २, तथा १० श्रीमद् आनन्दघनजी के ही हैं। पद सं. ६ 'सुखानन्द' कवि रचित है। पद की अन्तिम पंक्ति में 'सुखानन्द' की छाप है। पद सं. ११ भी श्रीमद् आनन्दघनजी का ही होना चाहिए। अभी निर्णय नहीं किया जा सकता। प्रखंड स्वरूप ज्ञान ( राग-तोड़ी ) साखी-पातम अनुभौ रस कथा, प्याला अजब विचार। । अमली चाखत ही मरे, घूमे सब संसार ॥ प्रातम अनुभौ रीति वरी री। ' मोर बनाइ निज रूप अनुपम, तीछन रुचि कर तेग करी री॥ . टोप सनाह सूर को बानो, , इकतारी चोरी पहरी री । प्रातम० ॥ १ ॥ सत्ता थल में मोह विडारत, ए ए सुरजन मुह निसरी री । प्रातम० ।। २ ॥ केवल कमला प्रपछर सुन्दर, गान करे रस रंग भरी री। जीति निसाण बजाइ बिराजे, 'प्रानन्दघन' सरवंग धरी री । प्रातम० ॥ ३ ॥ साखी का अर्थः-प्रात्म-अनुभव-रस-कथा का विचार अद्भुत है। रस का प्याला चखते ही नशेबाज मर-मिट जाता है अर्थात् जो उस पर Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६४ पतित की पुकार ( राग-झिझोरी दादरा ) हरि पतित के उधारन तुम्ह, कैसो पावन नामी। मोसो तुम्ह कब उघार्यो, कूर कुटिल कामी ।। १॥ और पतित केइ उधारे, करनी बिन करता। एक काहू नाम लेहु, झूठे विरद धरता ।। २ ।। करणी करि पार भये, बहुत निगम साखी । सोभा दई तुम्ह को नाथ, आपनी पत राखी ॥ ३ ॥ निपट अगति पापकारी, मोसो अपराधी। जानू जो सुधारि होऽब, नाव, लाज साधी ।। ४ । .. और को उपासक हौं, कैसे के उधारौं । दुविधा यह रावरी न, पावरी विचारौं ॥ ५ ॥ गई सो गई नाथ, फेरि नई कीजै । द्वारि पर्यो ढींगदास, आपनो करि ' लीजै ।। ६ ।। दास को सुधारि लेहु, बहुत कहा कहीये। . 'आनन्दघन' परम रीति, नांव को निबहिये ।। ७ ।। शब्दार्थः --निगम वेद । विरद=यश । पत=प्रतिष्ठा । पावरी= कुछ तो। ढींगदास-दुष्ट, पापी । नांव = नाम । निबहिये=पालन, कीजिये । यह पद आनन्दघनजी का प्रतीत नहीं होता। यह ब्रज भाषा में है और जैन मान्यता के अनुरूप नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी के किसी भी पद में इस तरह का तनिक भी संकेत नहीं है। यह पद ब्रजभाषा के किसी कवि द्वारा रचित है। कदाचित् यह पद सूरदासजी का भी हो सकता है। यह तो निस्सन्देह बात है कि यह पद योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी द्वारा रचित नहीं है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६४ पतित की पुकार ( राग-झिझोरी दादरा ) हरि पतित के उधारन तुम्ह, कैसो पावन नामी। मोसो तुम्ह कब उघार्यो, कूर कुटिल कामी ।। १॥ और पतित केइ उधारे, करनी बिन करता। एक काहू नाम लेहु, झूठे विरद धरता ।। २.।। करणी करि पार भये, बहुत निगम साखी । सोभा दई तुम्ह को नाथ, आपनी पत राखी ।। ३ ।। निपट अगति पापकारी, मोसो अपराधी। जानू जो सुधारि होऽब, नाव लाज साधी ।। ४ ।' और को उपासक हौं, कैसे के , उधारौं । दुविधा यह रावरी न, पावरी विचारौं ।। ५ ।। गई सो गई नाथ, फेरि नई कीजै । द्वारि पर्यो ढींगदास, आपनो करिः लीजै ॥ ६ ।। दास को सुधारि लेहु, बहुत कहा कहीये । 'प्रानन्दघन' परम रीति, नांव को निबहिये ॥ ७ ॥ शब्दार्थः --निगम वेद । विरद=यश । पत=प्रतिष्ठा । पावरी= कुछ तो। ढींगदास=दुष्ट, पापी । नाँव = नाम । निबहिये=पालन कीजिये । यह पद आनन्दघनजी का प्रतीत नहीं होता। यह ब्रज भाषा में है और जैन मान्यता के अनुरूप नहीं है। श्रीमद् आनन्दघनजी के किसी भी पद में इस तरह का तनिक भी संकेत नहीं है। यह पद ब्रजभाषा के किसी कवि द्वारा रचित है। कदाचित् यह पद सूरदासजी का भी हो सकता है। यह तो निस्सन्देह बात है कि यह पद योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी द्वारा रचित नहीं है । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - ( १ ) श्रीमद् को प्राप्त सिद्धियाँ तथा उनके चमत्कार श्रीमद् श्रानन्दघन जो के निकट सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को स्पष्ट प्रभास होता था कि उन्हें अपने ध्यान एवं योग-साधना से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो गई हैं जिनके चमत्कार देखकर लोग दाँतों तले उंगली बाते थे । वे उनके चमत्कारों से अत्यन्त प्रभावित थे । स्वमूत्र से स्वर्ण-सिद्धि उस समय योगिराज पर ध्यान मग्न थे । के पास आया । जब रस- कुप्पिका उनके श्रीमद् आनन्दघन जी की एक योगों के साथ मित्रता थी । उस योगो ने अनेक प्रयोगों के द्वारा एवं अपने अथक प्रयासों से स्वर्ण-सिद्धि करने के लिए रस-सिद्धि की थी । उसने अपने एक शिष्य के साथ श्रीमद् आनन्दघन जो को. रस-सिद्धि की कुप्पिका भेजी । श्रीमद् प्रानन्दघन जी आबू पर्वत के एक शिखर योगी का वह शिष्य रस- कुप्पिका लेकर श्रीमद् श्रीमद् का ध्यान पूर्ण हुआ तब उस शिष्य ने वह समक्ष प्रस्तुत करके निवेदन किया- "मेरे गुरु ने आपकी मित्रता के कारण यह रस- कुप्पिका भेजी है, कृपा करके ग्रहण करें ।" श्रीमद् ने वह रसकुप्पिका ली और उसे शिला में पटक कर फोड़ दी । यह देखकर उस शिष्य से नहीं रहा गया। उसने कहा, “तू जोगटा रस-सिद्धि को क्या समझे? मेरे गुरु ने कितने श्रम से यह रस तैयार किया था, जिसे तुमने बहा दिया, तू महामूढ़ है, तुझे तनिक भी बुद्धि नहीं है ।" उस शिष्य की बात सुनकर श्रीमद् आनन्दघन जी ने कहा, "तेरे गुरु रस- सिद्धि से क्या आत्म-कल्याण करना चाहते हैं ? " शिष्य बोला, "रस से स्वर्णसिद्धि होती है जिससे संसार को वश में किया जा सकता है ।" श्रीमद् बोले, "रस-सिद्धि कोई बड़ी बात नहीं है । आत्मा के समक्ष रस - सिद्धि का कोई महत्त्व नहीं है ।" उस योगी के शिष्य ने कहा, "आत्मा की बातें करने वाले तो अनेक हैं परन्तु रस-सिद्धि करके बताने वाले तो विरले ही हैं। ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करते हो तो स्वर्ण बना करके बतायो ।” उस शिष्य की बात श्रीमद् आनन्दघन जी को चुभ गई । उन्होंने पत्थर की शिला पर मूत्र किया जिससे वह शिला स्वर्ण की हो गई । वह शिष्य तो देखता ही रह गया । उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह शिष्य Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६६ बोला, "धन्य है, जिसके मूत्र में स्वर्ण-सिद्धि है उसे रस-सिद्धि से क्या प्रयोजन है ? धन्य है, श्रीमद् आनन्दघन जी को !" यह कहता हुआ वह शिष्य चला गया। यह सब योग-शक्ति का प्रभाव है। ज्वर को वस्त्र में उतार दिया योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी के चमत्कारों की खबरें सर्वत्र फैलने लगीं। वे मारवाड़-क्षेत्र में जंगलों, पर्वतों और गांवों में विचरण करने लगे। एक बार वे जोधपुर के समीप किसी पर्वत पर एक देवकुलिका में रहे थे। जब जोधपुर के तत्कालीन महाराजा को श्रीमद् आनन्दघन जी के वहाँ स्थिरता के समाचार मिले तो वे उनके दर्शनार्थ वहाँ गये। उस समय श्रीमद् आनन्दघन जी को तीव्र ज्वर था। महाराजा के आगमन का समाचार ज्ञात होने पर श्रीमद् आनन्दघन जी ने अपना ज्वर अपने वस्त्र में उतार दिया और उस वस्त्र को तनिक दूरी पर रख दिया और वे जोधपुर के महाराजा को उपदेश देने लगे। उन्होंने उन्हें आत्म-गुणों की प्राप्ति के अनेक उपाय सुझाये—“प्रात्मा का मूल्य समझे बिना देह की उपयोगिता नहीं ज्ञात होती। सन्तों की सेवा-भक्ति किये बिना राज्य-कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती। सन्तों की सेवा से ही राजा की बुद्धि निर्मल रहती है और साधु-सन्तों के उपदेश से राज्य में शान्ति का वास रहता है। लोगों के धर्मात्मा बनने से राजा भी लाभान्वित होता है। सन्त-साधुओं की भक्ति करने से एवं उनकी उपासना करने से राजा का कल्याण होता है। दान, शील, तप एवं भाव से धर्म की आराधना करनी चाहिए।" इस प्रकार अनेक प्रकार से योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी ने जोधपुर के महाराजा को अमूल्य उपदेश दिया। उपदेश पूर्ण होने पर महाराजा की दृष्टि तनिक दूर पड़े थर-थर काँपते वस्त्र पर पड़ी। महाराजा विचार में पड़ गये कि वह वस्त्र क्यों काँप रहा है ? राजा कोई निर्णय नहीं कर सके, अतः उन्होंने श्रीमद् को पूछ ही लिया। श्रीमद् अानन्दघन जी ने बताया कि वस्त्र में ज्वर के पुद्गल हैं। मुझे आपसे बातें करनी थीं, आपको उपदेश देना था। अतः मैंने वस्त्र में ज्वर उतार कर उसे दूर रख दिया था। अब मैं पुनः उक्त वस्त्र पहनूंगा।" इससे प्रकट होता है कि श्रीमद् में ज्वरं दूर करने की शक्ति थी। कुछ भी हो श्रीमद् में अनेक प्रकार की शक्तियाँ थीं। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३६७ वचन सिद्धि. अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी के सम्बन्ध में लोगों की दृढ़ धारणा थी कि उन्हें 'वचन-सिद्धि' प्रकट हुई थी। जो व्यक्ति वचनसमिति का सम्यक् परिपालन करते हुए विशेष काल तक वचोगुप्ति में रहते हैं तथा नाभिकमल में ध्यानस्थ होकर घण्टों तक पराभाषा में तन्मय हो जाते हैं उनके 'वचन-सिद्धि' प्रकट होती है। जो ध्यानी व्यक्ति कभी किसी को अभिशाप न देता हो, जो किसी का अहित करने का कदापि विचार तक नहीं करता हो और जिसके हृदय तथा वाणी में एकता हो उस आत्म-ध्यानो व्यक्ति के 'वचन-सिद्धि' प्रकट हो जाती है । राजा-रानी का मिलाप हो उसमें प्रानन्दघन को क्या ? ___ एक बार योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी जोधपुर के समीप पर्वतोय कन्दरामों में ध्यान करते और आसपास के गांवों में भिक्षार्थ जाया करते थे। जोधपुर के महाराजा का अपनी पटरानी के साथ कुछ समय से मन-मुटाव चल रहा था। महारानी ने महाराजा को वश में करने के अनेक प्रयत्न किये परन्तु वह उन्हें वश में नहीं कर सकी। उनमें मन-मुटाव चलता रहा। एक दिन किसी व्यक्ति ने महारानी को कहा कि यदि योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी की कृपा हो जाये तो आपका काय सिद्ध हो सकता है। महारानी के मन में श्रीमद् के प्रति श्रद्धा हो गई और वह अपनी सखियों के साथ श्रीमद् के दर्शनार्थ गई । तत्पश्चात् वह अनेक बार योगिराज के दर्शनार्थ आती रही। एक दिन अवसर पाकर महारानी ने श्रीमद् को अपने मन की बात कही और निवेदन किया कि, “आप मुझे कृपा करके कोई ऐसा यन्त्र बनाकर दें कि जिससे राजा का मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न हो और हमारा पारस्परिक मनमुटाव समाप्त हो ।" श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा "ला, एक पत्र ला" रानी ने उन्हें पत्र लाकर दिया। श्रीमद् ने उस पत्र पर लिखा, "राजारानी दोनों का मिलाप हो इसमें आनन्दघन को क्या ?" महारानी ने उस कागज को यन्त्र-रूप मानकर घर जाकर उसे एक ताबीज में डाल दिया। उस दिन से महाराजा का रानी पर प्रेम बढ़ता रहा। महारानी को लगा कि महाराज मेरे वश में हो गये हैं। एक दिन अन्य रानियों ने राजा के कान भरे कि महारानो ने तो श्रीमद् आनन्दघनजी के पास वशीकरण यन्त्र बनवाकर आप को अपने वश में किया है। महाराजा ने कला से उस ताबीज में से यंत्र निकाल कर पढ़ा तो उसमें लिखित शब्दों को Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-३६८ देखकर उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हा और महाराजा को योगिराज की आत्म-दशा के सम्बन्ध में उच्च कोटि का विचार आया। महाराजा को पुत्र-प्राप्ति ___जोधपुर के तत्कालीन महाराजा के पुत्र नहीं था। उन्हें नित्य अपने उत्तराधिकारी की चिन्ता रहती थी। मंत्री एवं महाराजा में विचार-विमर्श हुआ। मंत्री ने परामर्श दिया कि जैन महात्मा के रूप में प्रसिद्ध श्रीमद् अानन्दघनजी महान् योगी एवं चमत्कारी महापुरुष हैं। आशा है, उनकी सेवाभक्ति से लाभ अवश्य होगा। इससे पूर्व महाराजा ने इस सम्बन्ध में अनेक महन्तों, तान्त्रिकों तथा वैद्यों से सम्पर्क किया था। इस बार उन्होंने मन्त्री के परामर्श पर विश्वास करके श्रीमद् आनन्दघनजी की भक्ति करने का अन्त:करण से निश्चय किया। महाराजा ने योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी की सच्चे अन्तःकरण से सेवा की। फलस्वरूप रानी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। इसी प्रकार से मेडता के राजा ने भी श्रीमद की सेवा-भक्ति की थी जिससे उन्हें जैन धर्म के प्रति राग हुअा। , बादशाह का बेटा ! रुक जा एक बार तत्कालीन दिल्ली के शहंशाह का शाहजादा बीकानेर पाया था। वह हिन्दू साधुनों तथा जैन यतियों को .सताता था। एक बार साधुओं ने श्रीमद् आनन्दघनजी को शिकायत की कि "शाहजादा मार्ग में जाते समय हमारी मजाक उड़ाता है, उपहास करता है। आप इसका कोई उपाय करें।” श्रीमद् आनन्दघनजी बीकानेर शहर से बाहर जहाँ शाहजादा ठहरा हुआ था उसके आसपास घूमने लगे। एक दिन शाहजादा अश्व पर सवार होकर घूमने के लिए जा रहा था। उसने मैले-कुचैले वस्त्र पहने वृद्ध यति की मजाक की। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी ने इतना ही कहा, "बादशाह का बेटा, रुक जा।" 'शाहजादे ने अश्व को चलाने का लाख प्रयत्न किया पर अश्व तनिक भी नहीं चला। मानों वह तो वहीं चिपक गया। अन्य अश्वारोही भी वहाँ आ गये। उन्होंने अनेक प्रयास किये परन्तु अश्व वहाँ से आगे चला ही नहीं। श्रीमद् तो 'बादशाह का बेटा रुक जा' कहकर अपने स्थान पर चले गये थे। शाहजादा के साथियों ने उसे पूछा कि अश्व नहीं चलने का कोई कारण यदि मालम हो तो बताओ। शाहजादा बोला, "मुझे अन्य कोई कारण तो ज्ञात नहीं है, परन्तु मैंने एक श्वेत-वस्त्रधारी यति की Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-३६६ मजाक की थी। उस समय उस यति ने कहा कि 'बादशाह का बेटा रुक जा', इतनी बात मैं जानता हूँ।" शाहजादा के साथी समझ गये कि उस यति ने ही कुछ किया है। शाहजादा के मित्रों के कहने से बीकानेर के राजा ने जैन यतियों को पूछताछ की तो ज्ञात हुआ कि यह कार्य तो योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी का प्रतीत होता है, उनके पास जाओ। राजा आदि पता लगाते-लगाते श्रीमद् आनन्दघनजी के पास आये और उन्होंने श्रीमद् को अनेक प्रकार से अनुनय-विनय की। श्रीमद् ने स्पष्ट कह दिया कि बादशाह का बेटा सन्त-साधुओं को सताता है, उनका उपहास करता है, ठठ्ठा करता है तो उसकी भी तो मजाक होनी ही चाहिए। उस पर शाहजादा ने संकल्प किया कि “मैं यतियों को कदापि नहीं छेड़गा।" तब श्रीमद् ने शाहजादा को कहलवाया कि 'बादशाह का बेटा चलेगा।'. ये शब्द शाहजादा को सुनाते ही उसका अश्व चलने लगा। ऐसा चमत्कार.देखकर शाहजादा प्रसन्न हो गया। उसने श्रीमद् आनन्दघनजी के दर्शन किये। श्रीमद् तो औलिया थे, साधुओं एवं यतियों के उपद्रव दूर करने के लिए उन्हें शाहजादा को ऐसा चमत्कार बताना पड़ा। : लोहे का सेर का बाट स्वर्ण का हो गया . एक बार योगिराज श्रीमद् आनन्दघन जी मारवाड़ के एक गांव में एक निर्धन वणिक् के घर पर कुछ दिन ठहरे थे। एक दिन वह निर्धन वरिण उदास बना हुआ श्रीमद् के समक्ष पाया और वन्दन करके बैठा । वह अनेक कष्टों से सन्तप्त होकर श्रीमद् के समक्ष रो पड़ा। रोने का कारण पूछने पर वणिक् ने अपना वृत्तान्त सुनाया। श्रीमद् को उसकी निर्धनता पर तरस आ गया। उन्होंने वणिक् को कहा, 'तेरे पास लोहा हो तो ला।' वरिणक ने घर में से एक सेर का लोहे का बाट लाकर श्रीमद् को दिया। श्रीमद् तो प्रात:काल में विहार करके चले गये। जब वणिक् ने वहाँ देखा तो श्रीमद् तो वहाँ दृष्टिगोचर नहीं हुए। उसने अपना लोहे का एक सेर का बाट ढ ढ़ा तो वह भी वहाँ नहीं मिला, परन्तु — उसके स्थान पर स्वर्ण का एक सेर का बाट दिखाई दिया। उस वणिक् ने उस स्वर्ण को बेच कर अपना समस्त ऋण चुका दिया और सुख से जीवन यापन करने लगा। उस दिन उसे अत्यन्त पश्चाताप हुआ कि मैंने श्रीमद् को दो मन लोहा लाकर दिया होता तो कितना स्वर्ण हो जाता और मैं निहाल हो जाता। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी एवं उनका काव्य- ४०० श्रीमद् में अक्षय लब्धि की एक झलक- जब श्रीमद् आनन्दघन जी मेड़ता में निवास करते थे तब वहाँ लखपति एवं करोड़पति नागरिक बसते थे। उस समय मेड़तिये राजपूतों का वैभव उच्च कोटि का था। उस समय वहाँ ऊँची-ऊँची हवेलियाँ थीं। वहाँ चौरासी गच्छों के भव्य उपाश्रय विद्यमान थे जहाँ अनेक यति स्वधर्म-परायण बनकर आत्म-कल्याण करते थे। वहाँ मेड़ता की निवासिनी एक श्राविका का श्रीमद् के प्रति धार्मिक राग था। उस श्राविका के पति का तो देहान्त हो गया था और उसके पुत्र थे । उसके पास करोड़ों रुपये एवं बहुत सी स्वर्ण-मुद्राएँ थीं। एक बार जोधपुर के महाराजा को युद्ध के अवसर पर धन की अत्यन्त आवश्यकता हुई । जोधपुर राज्य के सिपाही धनवान सेठों से धन प्राप्त करने के लिए मेड़ता आये। सिपाहियों ने श्राविका के मकान के चारों ओर घेरा डाला। वे राजा के लिए धन माँग रहे थे। श्राविका भयभीत होकर श्रीमद् आनन्दघन जी के पास आई। श्राविका को उदास देखकर श्रीमद् ने उसे उदासी का कारण पूछा। श्राविका ने समस्त वृत्तान्त बताते हुए अपने कष्ट की बात कही और निवेदन किया कि आप जैसे समर्थ गुरु के होते हुए मुझ पर ऐसी आपत्ति आये यह उचित नहीं है। आप कृपा करके कोई ऐसा उपाय बतायें कि मैं इस कष्ट से मुक्त हो सकू । श्रीमद् ने श्राविका को प्रत्येक प्रकार के सिक्के अलग-अलग घड़ों में भर कर लाने को कहा। श्राविका ने स्वर्णमुद्रात्रों और रुपयों को अलग-अलग घड़ों में भर कर श्रीमद् के पास रखा । श्रीमद् ने उन घड़ों पर कपड़ा बँधवा दिया और मंत्रोच्चार के साथ उन पर अपना हाथ फिराया और श्राविका को कहा कि इन्हें तू अपने घर ले जा। इन घड़ों में से सिपाही माँगे उतना घन तू हाथ से निकाल कर देती रहना। श्राविका घड़े अपने घर ले गई और उनमें से रुपये और स्वर्ण-मुद्राएँ सिपाहियों को देती रही । बैलगाड़ियाँ भर-भर कर रुपये तथा स्वर्ण-मुद्राएँ सिपाही ले गये तो भी उन घड़ों में से रुपये तथा स्वर्ण-मुद्राएँ बराबर निकल रही थीं। सिपाही गाड़ियाँ भर-भर कर अपार धन जोधपुर ले गये। जब श्राविका धन दे चुकी तब उसने घड़ों में हाथ डालकर देखा तो प्रत्येक घड़े में एक-एक सिक्का था। अत: उसके आश्चर्य का पार नहीं रहा। श्रीमद् आनन्दघन जी का यह चमत्कार देखकर उसके मन में उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति बढ़ गई। जब यह समाचार सर्वत्र फैल गया तो लोगों के मन में श्रीमद् आनन्दघन जी के प्रति विशेष राग उत्पन्न हो गया। लोगों में चर्चा होने लगी कि इस काल में भी ऐसे चमत्कारी महामुनि विद्यमान हैं। । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-(२) योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी के स्तवनों तथा ___ पदों में अगाध ज्ञानगरिमा जिन-प्रतिमा-पूजा की मान्यता__योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी अध्यात्मज्ञानी थे। वे प्रतिमापूजा के समर्थक थे। उनका कहना था कि साकार ध्यान के पश्चात् ही निराकार ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। श्रीमद् आनन्दघनजी अध्यात्मज्ञानी, वैरागी, त्यागी एवं सत्यवक्ता थे जिससे उनके वचनों पर अन्य धर्मावलम्बियों को भी श्रद्धा थी। श्रीमद् ने श्री सुविधिनाथ के स्तवन में शास्त्रों के आधार पर प्रतिमा-पूजन-विधि स्पष्ट की है । मन को वश में करने की तीव्र भावना श्रीमद् का कथन था कि मन को वश में करने से ही शीघ्र मुक्ति प्राप्त होती है। मन ही बन्ध एवं मोक्ष का कारण है। मन के सभी अशुभ परिणाम ही कर्म के कारण हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी मन को वश में करने का नित्य अभ्यास करते थे, यह उनके द्वारा रचित श्री कुन्थुनाथ भगवान के स्तवन से ज्ञात होता है। मन की कैसी स्थिति होती है, इसका श्रीमद् ने श्री कुन्थुनाथ के स्तवन में वर्णन किया है। कुछ • विद्धानों का मत है कि श्री कुन्थुनाथ भगवान के स्तवन के अक्षरों में श्रीमद् ने स्वर्ण-सिद्धि डाली है। श्रीमद् प्रानन्दघनजी की प्रान्तरिक दशा ___ उनकी आन्तरिक दशा स्वच्छ एवं परमात्म-प्रेम से अनुरक्त थी। वे आत्मा के शुद्ध धर्म में मस्त रहते थे। निश्चय-नय से आत्मधर्म की शुद्ध दशा का वर्णन करने में उनका अत्यन्त प्रेम था। आत्म-ध्यान तथा आत्मानुभव का रसास्वादन करने में वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान करते थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने श्री अरनाथ के स्तवन में अपने उद्गार प्रकट किये Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ४०२ शुद्धातम अनुभव सदा, स्वसमय एह विलास रे । X X X दर्शन ज्ञान चरण थकी, अलख सरूप अनेक रे I निर्विकल्प रस पीजिये. शुद्ध निरंजन एक रे ॥ X X X व्यवहारे लखे दोहिला, कांइ न श्रावे हाथ रे । शुद्धनय थापना सेवतां, नवी रहे दुविधा साथ रे 11 इससे ज्ञात होता है कि श्रीमद् श्रानन्दघनजी की शुद्ध निश्चय-नय कथित, आत्मा के शुद्ध धर्म में अत्यन्त रुचि थी और वे आत्मा के शुद्ध धर्म में ही मस्त थे । श्रीमद् की गच्छ एवं श्रागमों की मान्यता गच्छना भेद बहु नयण निहालता, तत्त्व नी वात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज कार्य करता थका, मोह नडिया कलिकाल राजे || श्री अनन्तनाथ के स्तवन में श्रीमद् तत्कालीन गच्छों के साधुओं को क्लेश न करने के सम्बन्ध में उपालम्भ दिया है । श्री अनन्तनाथ के स्तवन में ही वे कहते हैं किपाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो, : धर्म नहीं कोई जगसूत्र सरीखों । सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेह शुद्ध चारित्र परखो || पैंतालीस प्रागम सूत्र गिने जाते हैं । उत्सूत्र भाषण के समान कोई पाप नहीं है । पैंतालीस आगम निम्नलिखित हैं: १. आचारांग, २. सुयगडांग, ३. ठाणांग, ४. समवायांग, ५. भगवती, ६. ज्ञाता-धर्मकथा, ७. उपासकदशांग, ८. अंतगड़दशांग, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४०३ ६. अनुत्तरोववाई दशांग, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक, १२. दृष्टिवाद अंग। बारह उपांग-१. उववाइ, २. रायपसेणी, ३. जीवाभिगम, ४. पन्नवणा, ५. जंबूद्वीप-पन्नत्ति, ६. चंद्रपन्नत्ति, ७. सूरपण्णत्ति, ८. करिपा, ६. कप्पिवडंसिया, १०. पुप्फिया, ११. पुप्फचलिया, १२. वह्निदिशा-ये बारह उपांग जानें। और १. व्यवहार सूत्र, २. वृहत्कल्प, ३. दशाश्रुतस्कन्ध, ४. निशीथ, ५. महानिशीथ, ६. जीतकल्प --ये छह छेद ग्रन्थ हैं तथा १. चउसरण, २. संथारापयन्नो, ३. तंतवेयालीय, ४. चंदाविजय, ५. गणिविज्जा, ६. देविदथुनो, ७. वीरथुप्रो, ८. गच्छाचार, ६. जोतिकरंड, १०. पाउरपच्चक्खाण, ये दस पयन्ना के नाम तथा १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. अोधनियुक्ति-ये चार मूल सूत्र तथा १. नंदि, २. अनुयोगद्वार--ये पैंतालीस पागम हैं । - श्रीमद् आनन्दघनजी ने भगवान श्री अजितनाथ के स्तवन में प्रभु का मार्ग बताया है'पंथड़ो निहालू रे बीजा जिन तणो, .... . अजित अजित गुणधाम' श्रीमद का कथन है कि आगमों एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से पूर्वाचार्यों से चली आ रही चारित्र-मार्ग की परम्परा से मोक्ष-मार्ग है। यदि आगमों को मान्य नहीं किया जाये तो अकेली परम्परा से क्या होगा? इस सम्बन्ध में श्रीमद् ने कहा 'पुरुषपरम्पर अनुभव जोवतां रे, अंधोअंध पुलाय ।' । यदि पुरुष परम्परा के अकेले अनुभव से देखे तो अंधे को अन्धा सहारा देकर चल रहा हो वैसा प्रतीत होता है और जीत-व्यवहार परम्परा को छोड़ कर अकेले आगमों से मोक्ष-मार्ग देखे तो चारित्र ग्रहण करने का ठिकाना नहीं है। सारांश यह है कि गुरु परम्परा, जीतकल्प व्यवहार और आगमों के द्वारा मोक्षमार्ग-प्रदर्शक चारित्र की आराधना की जा सकती है। ___ श्रीमद् अानन्दघन जी ने अभिनन्दन प्रभु के स्तवन में दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व के सम्बन्ध में सामान्यतया अपने विचार व्यक्त किये हैं। उनका आशय है कि पूर्वधरों की तरह वर्तमान में आगमवाद में परिपूर्ण गुरुगम का ज्ञाता कोई गुरु नहीं है। वर्तमान समय में पूर्वधरों के गुरुगम का Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४०४ अभाव होने से अनेक शंकानों का ठीक तरह से उचित समाधान नहीं हो पाता। जिन महानुभावों ने गुरुकुल में रहकर सिद्धान्तों एवं अध्यात्म ग्रन्थों का अध्ययन किया है वे महाज्ञानी ही श्रीमद् आनन्दघनजी के आशय को समझ सकते हैं। श्री नमिनाथ जिनेश्वर के स्तवन की आठवीं गाथा में वे कहते हैं कि'चूरणी भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परम्पर अनुभव रे । समय-पुरुषनां अंग कह्यां ए, जे छेदेते दुरभव्य रे ।।' सिद्धान्त रूप पुरुष के छः अंग हैं। पूर्वधर रचित मुक्तक पदी की व्याख्या को चर्णी कहते हैं। सूत्रोक्त अर्थ को भाष्य कहते हैं और गणधरों आदि के द्वारा रचित सूत्र कहलाते हैं। भद्रबाहु स्वामी आदि पूर्वधरों ने सूत्रों पर नियुक्ति की है। सूत्रों की विशेषार्थक वृत्ति अथवा टीका को समझना तथा गुरु-परम्परा से प्राप्त अनुभव इन छः अंगों में से किसी भी अंग का जो छेदन करता है उसे दुर्भव्य समझना चाहिए। - श्रीमद् का कथन है कि तथाविध शास्त्रोक्त क्रिया के बिना चारित्र का पालन नहीं हो सकता। श्रीमद् संवेग-पक्षी थे। संवेग पक्षी के समस्त लक्षण उनमें थे। संवेग पक्षी की भावना रखकर जो साधु श्रुतानुसार यथातथ्य रीति से द्रव्य एवं भाव से चारित्र का पालन करने में असमर्थ हैं, वे सचमुच अन्य साधुओं के गुणों की प्रशंसा करते हैं तो अल्प भवों में मुक्ति प्राप्त करते हैं और जो क्रिया का दम्भ करके अन्य मुनियों की निन्दा करके हेलना करते हैं वे अनेकभवों तक भ्रमण करते हैं। श्रीमद् आनन्दघन जी जसे अध्यात्म-ज्ञानी एवं आत्मा के शुद्ध धर्म की गहराई में उतरे हुए संवेग-पक्षी की जितनी प्रशंसा करें, उतनी कम है। श्रीमद् के विचार परमात्मा की सेवा के सम्बन्ध में श्रीमद् आनन्दघनजी के अत्यन्त उच्चकोटि के विचार थे। 'सेवा-सेवा' सब कहते हैं परन्तु सेवा की भूमिका की प्राप्ति हुए बिना परमात्मा की सच्ची सेवा नहीं की जा सकती। श्री सम्भवनाथ भगवान के स्तवन में श्रीमद् ने बताया है कि Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४०५ 'अभय-अद्वेष-अखेद' इन तीन गुणों को प्राप्त करके ही वास्तविक सेवा की जा सकती है। भय चंचलता हो जे परिणामनी रे, द्वेष अरोचक प्रभाव । खेद प्रवृत्ति हो करता थाकीए रे, दोष प्रबोध लखाव ।। संभव० आत्मा के परिणाम की चंचलता ही भय है और उसका परित्याग करके आत्मा का स्थिर परिणाम करना ही अभय है। परमात्मा के गुणों के प्रति अरुचि-भाव ही द्वेष है। उनके गुणों के प्रति अत्यन्त रुचि को अद्वेष गुण समझे। परमात्मा के गुणों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते-करते थकना नहीं यह अखेद है। इन तीन गुणों की प्राप्ति के द्वारा यदि सेवा की जाए तो सेवक अपने इष्ट की सेवा करके इच्छित फल प्राप्त कर सकता है। जैन दर्शन के तत्त्वों एवं अन्य दर्शनों द्वारा मान्य प्रात्म-तत्त्व में विरोध- .. . योगिराज आनन्दघनजी के हृदय में जैन दर्शन के तत्त्वों का सम्यक् परिणमन हुआ था। द्रव्यानुयोग में वे गहराई में गये थे। जैन दर्शन से एकान्तनय से अन्य दर्शनों द्वारा मान्य आत्म-तत्त्व में किस प्रकार विरोध आता है-इसका उन्होंने श्री मुनिसुव्रत स्वामी के स्तवन में स्पष्ट चित्रण किया है। इस प्रकार का स्पष्ट चित्रण करने के लिए न्याय सम्बन्धी ग्रन्थों का पूर्ण अध्ययन आवश्यक है। एकान्त दृष्टि से अन्य दर्शनों को देखते हुए वे श्री जिन-दर्शन से भिन्न हैं-यह बताकर श्रीमद् ने जिंन-दर्शन की.श्रेष्ठता का सुन्दर वर्णन किया है तथा इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ के स्तवन में 'षडदर्शन जिन अंग भणोजे' कह कर अनेकान्त नय की सापेक्ष दृष्टि से षड्दर्शन भी जिनदर्शन रूप पुरुष के अंग हैं यह सिद्ध कर दिया है। उन्होंने कहा है किजिनवर मां सघलां दर्शन छे, दर्शने जिनवर भजना रे। . सागर मां सघली तटिनी सहो, तटिनी मां सागर भजना रे ॥ ६ ॥ (नमिनाथ स्तवन) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४०६ जिनवर-दर्शन में नयों की सापेक्षता से सम्पूर्ण जगत् के दर्शनों का अन्तर्भाव होता है। जैन दर्शन सागर तुल्य है। सागर में समस्त नदियाँ आकर मिलती हैं परन्तु नदियों में सागर की भजना जाने । . इससे स्पष्ट है कि सिद्धान्तों का अध्ययन करने में श्रीमद आनन्दघनजी ने अत्यन्त ध्यान दिया है। वे सिद्धान्तों के क्षयोपशमी मुनि थे। इसी प्रकार से उनके पदों में भी उनके गुणों की प्रान्तरिक झलक है। 'अवधू नटनागर की बाजी, जारणे न बामण काजी' पद में दृष्टान्त के द्वारा स्पष्टीकरण देकर आत्मा की उपादेयता के सम्बन्ध में उत्तम उद्गार प्रकट किये हैं। 'प्रातम अनुभव रसिक को, अजब सुन्यो विरतंत' पद में योग के अनुभव का वर्णन करके योग-ज्ञान का जगत् को परिचय दिया है। आत्मा को संन्यासी की उपमा दी है और देह को मठ की उपमा दी है। इससे अनुमान है कि उन्होंने संन्यासियों के किसी मठ में निवास किया होगा। 'अवध क्या सोवे तन मठ में' शीर्षक पद में श्रीमद् ने सहजसमाधि के स्वरूप का चित्रण किया है और अजपाजाप का दिग्दर्शन कराया है। "अनुभव नाथ कुक्यून जगावे' पद में सुमति आदि पात्रों के द्वारा अध्यात्म ज्ञान का स्वानुभव प्रकट किया है जो सचमुच मनन करने योग्य है। 'मेरे घट ज्ञान भानु भयो भोर' पद में ज्ञान रूपी सूर्य का हृदय में प्रकाश होने पर जो दशा होती है, वे उद्गार दृष्टिगोचर होते हैं। 'निशदिन जोउं तारी वाटडी, घरे प्रावो रे ढोला' शीर्षक पद में समता चेतन स्वामी की प्रतीक्षा कर रही है ये उद्गार हैं। समता को आत्मपति के प्रति कितना प्रेम है उसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। समता के उद्गारों में शुद्ध प्रेम-रस छलक रहा है । 'निशानी कहा बताव रे मेरा अगम अगोचर रूप' नामक पद में आत्मा की निशानी से सम्बन्धित उद्गार प्रकट हुए हैं। इस पद के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि जब श्रीमद् बीकानेर के बाहर श्मशान में रहते थे तब शहर में अनेक गच्छों के साधु निवास करते थे उस समय वहाँ अन्य दर्शनों के विद्वान् भी अनेक थे। उन्होंने उनसे मिलकर सत्य-असत्य का निर्णय ज्ञात करने का विचार किया। वे सब मिलकर श्रीमद् के पास Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४०७ गये। उन्होंने पूछा 'यतिवर! कृपया हमें प्रात्मा की निशानी बतायें । इस पर श्रीमद् आनन्दघनजी ने कहा 'निशानी कहा बतावु रे मेरा अलख अगोचर रूप' और उन्हें आत्म तत्त्व की झलक बताई। 'पाशा औरन की क्या कोजे, ज्ञान सुधारस पीजे' पद में श्रीमद् ने आशा सम्बन्धी विचार बता कर आशा का परित्याग करके आत्मअनुभव-अमृत का पान करने का अपना संकल्प व्यक्त किया है। इस पद के सम्बन्ध में किंवदन्ती है कि जब श्रीमद् मारवाड़ में विचर रहे थे तब वहाँ स्थानकवासी जैनों का निवास था। वहाँ ऐसा प्रचार हुआ कि आनन्दघनजी गच्छ की क्रिया नहीं करते, स्थापनाचार्य नहीं रखते, एकलविहारी हैं और व्यवहार से भ्रष्ट हैं। एक बार अट्टम के पारणे पर वे मध्याह्न में भिक्षार्थ गये परन्तु किन्हीं कारणों से उन्हें आहार-पानी नहीं मिला। वे निराश हो गये तब उनके उद्गार निकले–'पाशा औरन की क्या कोजे।' आगे कहा कि 'पातम अनुभव रस के रसिया, उतरे न कबहु खुमारी' आदि विचारों के द्वारा उन्होंने अपनी आत्मा को ध्यानसमाधि में लीन कर दिया। _ 'अवधू नाम हमारा राखे' पद में अपना नाम एवं रूप नहीं है, .. इससे सम्बन्धित उद्गार हैं। इस पद के विषय में सुनने में आया है कि श्रीमद् आनन्दघनजी मारवाड़ के एक गाँव में एकान्त स्थान में आत्मध्यान में लीन थे। श्रावकों का उनके पास आना-जाना होता था। उस समय श्रावकों ने उन्हें निवेदन किया कि आपका नाम रखने के लिए आप किसी को शिष्य बना लें। तब अपने अन्तर के उद्गारों के रूप में 'अवध नाम हमारा राखे' पद की रचना की। नाम एवं रूप से भिन्न आत्मा की धुन में मस्त महापुरुष को नाम-रूप का मोह कैसे होगा? __ 'रातड़ी रमीने अहियां थी प्राविया' पद की अहमदाबाद में रचना हुई है। इस पद के सम्बन्ध में दन्त-कथा प्रचलित है कि उस समय श्रावकों को श्रद्धा थी कि आनन्दघनजी चमत्कारी महापुरुष हैं। उनके पास एक निर्धन श्रावक आता रहता था। एक दिन उस श्रावक ने उन्हें अपनी बात कह दी। उस समय श्रीमद् ने उस श्रावक को आत्मा के वास्तविक व्यापार का स्वरूप बताते हुए कहा कि प्रात्मा के पास व्यक्त धर्म की मूल रकम अल्प है और कर्म रूप ब्याज अधिक है, और 'मूलडो थोडो भाई, ब्याजडो घणो रे, केम करी दीधो रे जाय' पद की रचना की, जिसमें बाह्य से अहमदाबाद के माणेकचौक को अन्तर के माणेक चौक में उतार कर धर्म की दुकान प्रारम्भ करने का उपदेश दिया। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-४०८ 'ब्रजनाथ से सुनाथ विरण, हाथोहाथ बिकायो' पद में ब्रजनाथ की स्तुति की गई है। श्री जिनेश्वर भगवान ही वास्तविक ब्रजनाथ हैं। श्रीमद् आनन्दघनजी ब्रज और काशी की ओर गये प्रतीत होते हैं। उन्होंने वहाँ ब्रजनाथ को देख कर वास्तविक ब्रजनाथ श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति की हो, ऐसा प्रतीत होता है। श्री हेमचन्द्राचार्य एवं श्री मानतुगाचार्य की तरह श्रीमद् आनन्दघनजी ने ब्रजनाथ के नाम से श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति की है। . 'साधु संगति बिनु कैसे पैये, परम महारस धाम री' पद में साधुओं की संगति से सहजानन्द की प्राप्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है । साधु-संगति सर्वोत्तम है। साधुओं की संगति से मोक्ष प्राप्त होता है। पंचम काल में आत्मज्ञानी साधुत्रों की संगति ही भव-सागर तरने का एकमात्र उपाय है। श्रीमद् के विचार में सन्तों की सेवा किये बिना तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। साधु-संगति विषयक श्रीमद् के उद्गार प्रशंसनीय, मननीय एवं आदरणीय हैं। साधुओं की संगति से श्रीमद् आनन्दघनजी को आत्मज्ञान का लाभ प्राप्त हुआ है, यह उनके उद्गारों से स्पष्ट होता है श्रीमद् अन्तरात्मा से परमात्मा की स्तुति करते थे। उन्होंने श्री संभवनाथ के स्तवन में अभय, अद्वेष एवं अखेद तीन प्रमुख उपाय बताये हैं। भय, खेद एवं द्वेष करने वाला व्यक्ति श्री जिनेश्वर की सेवा के मार्ग में कदम नहीं रख सकता। तलवार की धार पर नृत्य करना सरल है परन्तु परमात्मा की सेवा करना दुष्कर है दुर्लभ है.। योगिराज श्रीमद् अानन्दघनजी ने परमात्मा की स्तवना में निम्नलिखित उद्गार प्रकट किये हैं काललब्धि लही पंथ निहालशुरे, ए प्राशा अविलम्ब ।। ए जन जोवे रे जिनजी जाणजो रे, आनन्दघन मत अंब ।। ६ ॥ (अजितनाथ स्तवन) मुग्ध सुगम करो सेवन प्रादरे रे, सेवन अगन अनूप । . देजो कदाचित सेवक याचना रे, आनन्दघन रसरूप ।। ६ ।। (संभवनाथ स्तवन) Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दघन पदावली-४०६ तुज मुज अंतर अंतर भांजशे रे, वाजशे मंगल तूर । जीव सरोवर अतिशय वाधशे रे, प्रानन्दघन रसपूर ॥ ६ ॥ (पद्मप्रभ स्तवन) मुज मन तुज पद पंकजे रे, लीनो गुणमकरन्द । रंक गणे मंदिर धरा रे, इंद चंद नागिंद । विमल० दीठा० ।। ३ ।। साहिब समरथ तु धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विसरामी वालहो रे, आतमचो प्राधार । . विमल० दीठा० ।। ४ ।। एक अरज सेवक तणी रे, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुज दीजिये रे, आनन्दघन पद सेव । . . विमल० दीठा० ।। ५ ।। (विमलनाथ स्तवन) इस प्रकार के उद्गारों से ज्ञात होता है कि श्रीमद् को प्रभु के प्रति कितनी भक्ति थी। प्रभु के साथ एक होने का श्रीमद् का भाव अपूर्व था जो पद्मप्रभु के स्तवन में ज्ञात होता है। उनके हृदय के उद्गारों में उनकी आध्यात्मिक दशा एवं भक्ति झलकती है। चौबीसी में श्रीमद् ने तीर्थंकरों के गुणों की वास्तविक स्तुति की है। परमात्मा के समक्ष अपने दोष प्रकट करके उनसे क्षमायाचना करना स्वदोष प्रकटीकरण स्तवना कहलाती है। चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ का स्तवन उपदेशमय स्तवन है। श्री श्रेयांसनाथ के स्तवन में अध्यात्म का समावेश किया गया है। श्री कुन्थुनाथ के स्तवन में मन सम्बन्धी विचार प्रदर्शित करके उनकी स्तवना की गई है। शास्त्रों में उल्लिखित दर्शन-भेद एवं हेतु नयों के द्वारा श्री मुनिसुव्रत स्वामी एवं श्री नमिनाथ की स्तवना की गई है। राजीमती के प्रेम-शिक्षा-उपालम्भ-गभित स्तवना श्रीमद् ने भगवान श्री नेमिनाथ की की है। सामान्यतया कहा जाये तो उन्होंने तीर्थंकरों की वास्तविक स्तुति करने का स्वाभाविक प्रयत्न किया है। श्रीमद् के स्तवनों में वास्तविक स्तुति स्वरूप अमृत-निर्भर बहते रहते हैं। श्रीमद् द्वारा रचित पदों में आत्मगुणों की प्राप्ति हेतु आध्यात्मिक भाव को प्रमुखता दी गई है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य - ४१० श्रीमद् को अध्यात्म-ज्ञान विषयक तीव्र रुचि थी। वे गुरण - विहीन नाम मात्र के ज्ञानियों को अध्यात्म ज्ञानियों की श्रेणी में नहीं गिनते थे । 'श्रातमज्ञानी श्रमण कहावे, बोजा तो द्रव्यलगी रे - इस प्रकार के उद्गारों से ज्ञात होता है कि जो साधु अध्यात्म ज्ञान का तिरस्कार करते हैं उन्हें श्रीमद् द्रव्यलिंगी कहकर उपालम्भ देते हैं और उन्हें उद्बोधन देते हैं कि वे अध्यात्म ज्ञान की ओर प्रवृत्त हों । श्रीमद् श्रानन्दघनजी की आन्तरिक दशा स्वच्छ एवं परमात्म-प्रेम से अनुरंजित थी । वे आत्मा के शुद्ध धर्म में मस्त रहते थे । आत्मध्यान तथा आत्मानुभव रसास्वादन में वे एकाग्रतापूर्वक तल्लीन रहते थे । इस सम्बन्ध में श्री अरनाथ भगवान के स्तवन में उनके निम्न उद्गार प्रकट हुए हैं :-- दर्शन ज्ञान चरण थकी, अलख सरूप निर्विकल्प रस पीजिये, पीजिये, शुद्ध निरंजन परमारथ पंथ जे कहे, ते रंजे व्यवहारे लख जे रहें, तेहना भेद एक अनेक रे एक रे । धरम० ।। ५ तंत रे । अनन्त रे । धरम० ।। ६ । व्यवहारे लखे दोहिला, कांइ न आवे हाथ रे । शुद्ध नय थापना सेवतां, नवी रहे दुविधा साथ रे । धरम० ।। ७ ।। इन उद्गारों से ज्ञात होता है कि श्रीमद् की शुद्ध निश्चय नय कथित आत्मा के शुद्ध धर्म में अत्यन्त रुचि थी । वे ज्ञान की उत्तम दशा को पहुँचे हुए होने से आत्मा के शुद्ध धर्म में ही रहते थे, उसी में मस्त धुन रहते थे । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * संसार में अध्यात्म-ज्ञान रूपी धर्म-मूल के बिना कोई दर्शन रूपी वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता । अध्यात्म ज्ञान से मन, वाणी एवं देह के योग की शुद्धि होती है। ★ अध्यात्म-ज्ञान चिन्तामणि रत्न तुल्य है। ★ अध्यात्म-ज्ञान से तो दुराचार एवं भ्रष्ट विचारों का नाश होता है। ★ द्रव्यानुयोग के ज्ञान के बिना अध्यात्म-ज्ञान में प्रविष्ट नहीं हुआ जा सकता। ★ यदि अध्यात्म-ज्ञान का प्रचार किया जाये तो मनुष्य अपनी आत्मा की ओर उन्मुख होते हैं और मनुष्यों के प्राचारों में सुधार होता है । .. ★ कोई भी व्यक्ति अध्यात्म-ज्ञान के बिना मोक्ष की ओर प्रयाण नहीं कर सकता। जिस प्रकार जल के बिना वृक्ष के समस्त अवयवों का पोषण नहीं होता, उसी प्रकार से अध्यात्म-ज्ञान के बिना आत्मा के समस्त गुणों का पोषण नहीं होता। इस प्रकार के विचारों के धनी महान् अध्यात्म योगिराज श्री आनन्दघनजी के चरणारविन्द में कोटि-कोटि वन्दन । . .. मांगीलाल मंगलचन्द तातेड़ 8 . जनरल मर्चेन्ट एण्ड कमीशन एजेण्ट 33, कृषि मण्डी, मेड़ता सिटी (राजस्थान) 341510 (दुकान) 20098, (निवास) 20141 . सम्बन्धित फर्म : अरिहन्त फाइनेन्स एण्ड इनवेस्टमेण्ट्स् 52, जनरल मुठिया स्ट्रीट, साहकार पैठ, मद्रास-600 079 कर (0) 5227320, (R) 5377334, 5377709 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी के पदों की प्रत्येक पंक्ति प्रात्मिक दीपावली के लिए दीपमालायों का स्मरण कराती है और उनके पदों के अक्षर श्रात्म जागृति हेतु रत्न- मंजूषा तुल्य हैं । ऐसे प्रवधूत को शत शत वन्दन । ० सुमेरचन्द कटारिया 8, वीरप्पन नाइकन स्ट्रीट, साहूकार पैठ, चेन्नई-600079 श्रीमद् श्रानन्दघनजी आगमों तथा अध्यात्म के सतत अध्ययन में रत थे । उन्होंने आत्म-स्वरूप के चिन्तन एवं अनुभव में एकान्त निर्जन गुफाओं में अथवा सुदूर पर्वतों पर अध्यात्म एवं योग की अनेक वर्षों तक साधना की । धन्य है ऐसे अध्यात्म योगी को ! ० भीकमचन्दजी गौतमचन्दजी आंचलिया पुस्तक विक्रेता स्टेशन रोड, मेड़ता शहर ( राजस्थान ) योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी अर्थात् दिव्य विभूति के दर्शन, श्रीमद् आनन्दघनजी अर्थात् अध्यात्म दृष्टि के तेज-पुञ्ज, और उनकी मंगलमय वाणी अर्थात् अध्यात्म-द्रष्टा का पैगाम । ऐसे प्रगाध ज्ञान के भण्डार श्रीमद् को कोटि-कोटि वन्दन । * मै. माणकचन्द शिखरचन्द कोठारी भव्य बुक डिपो, महावीर मार्केट, मेड़ता शहर ( राजस्थान ) Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी के पदों में भक्ति एवं वैराग्य का निर्भर बहता है । उनके स्तवनों में अनुभवी भक्त एवं शास्त्र ज्ञाता की वाणी है तो पदों में कवि की वाणी है । ऐसे भक्ति एवं वैराग्य के संगम योगिराज को शत-शत वन्दन । * मदनलाल अमीचन्द सुराणा सर्राफा बाजार, नागौर (राजस्थान ) योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी कहते हैं कि 'इस जगत् में पाव घड़ी जीने मृत्यु से पूर्व धर्माराधना कर लेनी चाहिए । ऐसे अध्यात्मयोगी को कोटि-कोटि वन्दन । का भी भरोसा नहीं है । अतः आत्मन् ! तू सचेत हो जा ।' शा. वृद्धिचन्द किरणचन्द नाहर x 151, एवेन्यू रोड, बैंगलोर (कर्नाटक) 'हे भोले मानव ! यह तेरी कितनी अज्ञान दशा है ! तू अत्यन्त 'असावधान है । तू सचेत क्यों नहीं होता ? यदि काल-तोपची आया तो तुझे घर दबायेगा ।' ऐसे अनन्य उपदेशक योगिराज को शत-शत नमन । अनिल कुमार सुनील कुमार जैन 35, पिन्जला सुब्रमनियम स्ट्रीट, टी नगर (मामलम ) चेन्नई-600017 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समता से उत्तम सुख की प्राप्ति होती है। इससे अनेक भवों में संचित कर्मों का क्षय होता है। समता ही आत्मा का शुद्ध धर्म है। अतः प्रतिपल . अन्तर में समता का परिणाम रखना चाहिये।' ऐसे समता के उपदेशक श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज को कोटिशः वन्दन । 8 मेहता सुगनमल चन्द्रप्रकाश 0 (जैतारण निवासी) 73, अरिहंत सोसायटी, अहमदाबाद (गुजरात) 'श्रीमद् आनन्दघनजी ने बताया है कि यह संसार सद्गुणों की शाला है। यहाँ अनेक गुण ग्रहण करने योग्य हैं। यहाँ गुण ग्रहण करने के साथ अपने दोषों का परित्याग किया जा सकता है।' ऐसे ज्ञान के धनी योगिराज को कोटि-कोटि वन्दन । . फोन : 67577/2004201 8 मैसर्स चेतन ट्रेडिंग कम्पनी ४ " मैसर्स के. के. एजेन्सी एच. एम. सिंघवी, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट रूम नं. 10, पहला माला, 336 बी, कालबादेवी रोड, मुम्बई-400002 शुद्ध चेतना अपनी सखी श्रद्धा से कहती है कि श्री ऋषमं जिनेश्वर मेरे प्रियतम हैं। मैं अब किसी अन्य को अपना स्वामी बनाना नहीं चाहती। मेरे नाथ मुझ पर रीझ गये हैं। वे अब मेरा साथ कदापि नहीं छोड़ेंगे। मेरा तथा उनका साथ अनन्तकालीन है। ऐसे भावों के सागर श्रीमद् आनन्दघनजी को शत-शत् वन्दन । ४ कोठारी शान्तिलाल किशनलाल होलसेल पुस्तक-विक्रेता एवं न्यूज पेपर एजेन्ट बस स्टेण्ड के सामने, मेड़ता शहर (राजस्थान) Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रीआनन्दघनर्जी अर्थात् दिव्य विभूति के दर्शन! श्रीआनन्दघनजी अर्थात् अध्यात्म-दृष्टि का तेज-पूज! श्रीआनन्दघनजी अर्थात् अध्यात्म-योग की साधना! श्रीआनन्दघनजी अर्थात् अध्यात्म-योगी का तेजोमय दर्शन!' उन्होंने कहा था 'अवधू क्या माँगू गुन-हीना, वे गुन-गान न प्रवीना' उनका निरन्तर रटन था - हे प्रभु! मैं तुझसे क्या सहायता मागू? मेरे पावों में बन्धन है, सिर पर बोझा है, मैं मार्ग से अनभिज्ञ हू, पंथ अत्यन्त कठिन है, मेरे पास कोई साधन नहीं हैं। प्रभू! तू अपनी कृपा की एक बद की मुझ पर भी वृष्टि कर, ताकि मेरा आत्मपद तेरे आत्मपद में सम्मिलित होकर आनन्द-पद प्राप्त करे ऐसे अध्यात्मयोगी श्रीमद् आनन्दघनजी को कोटि-कोटि वन्दन कानमल मानमल सिंघवी, मेड़ता शहर (राज.).